Atmadharma magazine - Ank 273a
(Year 23 - Vir Nirvana Samvat 2492, A.D. 1966)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARM Regd. No. 182
• ज्ञानीनुं हृदय बोले छे–
“सर्वथी सर्व प्रकारे हुं भिन्न छुं, एक केवळ शुद्धचैतन्यस्वरूप,
परमोत्कृष्ट, अचिंत्य सुखस्वरूप मात्र एकांत शुद्ध अनुभवरूप हुं
छुं. त्यां विक्षेप शो? विकल्प शो? भय शो? खेद शो? बीजी
अवस्था शी? शुद्धशुद्ध प्रकृष्ट शुद्ध परम शांत चैतन्य हुं मात्र
निर्विकल्प छुं. निजस्वरूप उपयोग करुं छुं. तन्मय थाउं छुं. शांति:
शांति: शांति:”
(समयसारनुं मंथन करतां जागेली धून श्रीमद्राजचंद्रजीए आ
लखाणमां उतारी छे, एम आगळ पाछळनुं लखाण जोतां ख्याल
आवे छे.)
• देह प्रत्ये जेवो वस्त्रनो संबंध छे, तेवो आत्मा प्रत्ये जेणे देहनो
संबंध यथातथ्य दीठो छे, म्यान प्रत्ये तरवारनो जेवो संबंध छे
तेवो देह प्रत्ये जेणे आत्मानो संबंध दीठो छे, अबद्धस्पृष्ट आत्मा
जेणे अनुभव्यो छे, ते महत्पुरुषोने जीवन अने मरण बंने समान छे.
• हे जीव! स्थिरद्रष्टिथी करीने तुं अंतरंगमां जो, तो सर्व परद्रव्यथी
मुक्त एवुं तारुं स्वरूप तने परमप्रसिद्ध अनुभवाशे.
• सर्व परभाव अने विभावथी व्यावृत्त, निजस्वभावना भान
सहित, अवधूतवत, विदेहीवत, जिनकल्पिवत विचरता पुरुष–
भगवानना स्वरूपनुं ध्यान करीए छीए.
• देहथी भिन्न स्वपरप्रकाशक परमज्योतिस्वरूप एवो आ आत्मा
तेमां निमग्न थाओ.
हे आर्यजनो! अंतर्मुख थई, स्थिर थई ते आत्मामां ज रहो तो
अनंत अपार आनंद अनुभवाशे.
– श्रीमद्राजचंद्र