: भादरवो : २४९२ आत्मधर्म : ११ :
अरूपी! विकल्पोथी पण चैतन्यनी भिन्नता बताववी छे. अज्ञानीने
भेदज्ञाननी शक्ति बीडाई गई छे, भेदज्ञान करवानी शक्ति तो दरेक
आत्मामां छे पण अज्ञानी ते शक्ति प्रगट करतो नथी, तेनी ते शक्ति
अनादिथी बिडाई गयेली छे. आवा अज्ञानने लीधे ज ते पोताने अने
परने एकमेक माने छे, ज्ञानने अने रागने एकमेक अनुभवे छे. ‘हुं
चैतन्य छुं’–एवो स्वानुभव करवाने बदले ‘हुं क्रोध छुं, हुं राग छुं’–एम ते
अनुभवे छे. अहो, दिव्यध्वनि चैतन्यना एकत्वस्वभावनो ढंढेरो वगाडे
छे, गणधरो–संतो अने चारे अनुयोगना शास्त्रो भेदज्ञाननो ढंढेरो पीटीने
कहे छे के चैतन्यस्वभाव तो अनादि–अनंत, अकृत्रिम, निर्मळ विज्ञानघन
छे, ने रागादिभावो तो क्षणिक, नवा, पराश्रये, उत्पन्न थयेला मलिन
भावो छे, तेमने एकता केम होय?–न ज होय.–पण अज्ञानी आवा
वस्तुस्वभावथी भ्रष्ट थईने वारंवार अनेक विकल्परूपे तद्रूप परिणमतो
थको तेनो कर्ता प्रतिभासे छे.
अहीं तो ते कर्तापणुं छूटवानी वात समजाववी छे. “रागादिनुं
कर्तापणुं अज्ञानथी ज छे” –एम जे जीव जाणे छे ते जीव ते रागादिना
कर्तृत्वने अत्यंतपणे छोडे छे. मारा चैतन्यस्वभावमां रागनुं कर्तृत्व छे ज
नहि. रागनी खाण मारा चैतन्यमां नथी, मारी चैतन्यखाणमां तो
निर्विकल्प अनाकुळ शांतरस भर्यो छे. शांतरसनो स्वाद ते ज मारो स्वाद
छे, जे आकुळता छे ते मारो स्वाद नथी, ते तो रागनो स्वाद छे–एम
बंनेना स्वादने अत्यंत भिन्न जाणतो थको ज्ञानी, चैतन्यने अने रागने
एकस्वादपणे नथी अनुभवतो, पण चैतन्यना स्वादने रागथी जुदो ज
अनुभवे छे. चैतन्यना आनंदना निधानने पहेलां अज्ञानथी ताळां दीधा
हता, ते ताळांने भेदज्ञानरूपी चावी वडे खोली नांख्या, चैतन्यना
आनंदनिधानने खुल्ला करीने तेनुं स्वसंवेदन कर्युं. ज्यां पोताना
निजरसने जाण्यो त्यां विकारनो रस छूटी गयो, तेनुं कर्तृत्व छूटी गयुं.
पहेलां निरंतर विकारनो स्वाद लेतो तेने बदले हवे निरंतर स्वभावना
आनंदनो स्वाद ल्ये छे.
जुओ, आ चोथा गुणस्थानवाळा समकिती धर्मात्मानी दशा! जे
साधक थयो, जे मोक्षना पंथे चडयो, अंतरमां जेने चैतन्यना भेटा थया,
एवा धर्मात्मा–ज्ञानी मतिश्रुतज्ञानथी चैतन्यना अतीन्द्रिय आनंदनुं
स्वसंवेदन करे छे: अहा, जगतना रसथी जुदी जातनो चैतन्यनो रस छे.