अंतरमां भेदज्ञान थाय ने आत्मानो पत्तो लागे. विकल्प वडे आत्मा हाथमां न आवे,
विकल्पथी जुदुं पडी ज्ञान आम अंतरमां वळे छे त्यारे ते ज्ञानमां आत्मा अनुभवाय
छे. तेमां परम समाधि छे, तेमां परम शांति छे, तेमां जीवनुं साचुं जीवन छे. आत्मा
जेवो हतो तेवो तेमां प्रसिद्ध थयो; आत्मा पोताना परम–स्वभावे प्रसिद्ध थयो तेथी
तेने परम–आत्मा कह्यो. चोथा गुणस्थाननी आ वात छे. आवी अनुभूति थतां ज्ञानने
विकल्प साथेनुं कर्ताकर्मपणुं छूटी गयुं. हुं–ज्ञान कर्ता, ने विकल्प मारुं कार्य एवी
कर्ताकर्मबुद्धि छूटी गई, ने ज्ञान ज्ञानमां ज तन्मय थईने परिणम्युं. आस्रवथी छूटीने
संवररूप परिणम्युं. –त्यां बधा झगडा मटी गया, बधा कलेश छूटी गया, ज्ञान समस्त
विकल्पजाळथी छूटीने पोताना चैतन्यस्वरूपमां गुप्त थयुं. आवा परमशांतचित्तरूप
थईने ज्ञानी पोताना शुद्ध आत्माने साक्षात् अनुभवे छे.
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वात समजावी छे. वाह! निर्विकल्प अनुभूतिनो महिमा केवो ऊंडो अने गंभीर
छे के श्रुतज्ञानी–साधकनी अनुभूतिनुं स्वरूप समजाववा माटे आचार्यदेवे
केवळीभगवाननुं उदाहरण आप्युं, ने एमनी साथे साधकनी अनुभूतिने
सरखावी. जेम केवळीभगवान तो केवळज्ञानवडे समस्त विश्वना साक्षी थया छे,
एटले नयपक्षना पण तेओ साक्षी ज छे, तेमने कोई विकल्प ऊठतो नथी;
साधकश्रुतज्ञानीने हजी क्षयोपशमनी भूमिका होवाथी श्रुतसंबंधी विकल्पो उत्पन्न
थाय छे परंतु तेने ते विकल्पना ग्रहणनो उत्साह छूटी गयो छे, उपयोगने
विकल्पथी छूटो पाडीने ज्ञानस्वभावना ग्रहण तरफ झुकाव्यो छे, एटले ते
स्वभाव तरफनो ज उत्साह छे ने विकल्पो तरफनो उत्साह नथी.
तेम नयपक्षना साक्षी ज छे, साक्षीपणे केवळ जाणे ज छे; तेम श्रुतज्ञानी पण
नयपक्षना कोई विकल्पने ज्ञानना कार्यपणे करता नथी, पण तेना स्वरूपने
केवळ जाणे ज छे. आ विकल्पथी अंशमात्र मने लाभ थशे के विकल्प वडे
स्वरूपनो अनुभव पमाशे एवी बुद्धि सर्वथा छूटी गई छे एटले विकल्पना
ग्रहणनो उत्साह छूटी गयो छे, तेथी तेना साक्षी थईने स्वभावना ग्रहण तरफ
परिणति झूकी गई छे.