Atmadharma magazine - Ank 282
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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२८२
स्वानुभूतिनुं सुख
अनादिकाळथी स्वरूपने भूलीने,
सम्यग्दर्शन वगर संसारमां रखडतो जीव समस्त
परभावोने फरीफरीने भोगवी चूक्यो छे,
संसारसंबंधी बधाय दुःख–सुख ए भोगवी चूक्यो
छे, पोताना स्वरूपनुं वास्तविक सुख एक
क्षणमात्र तेणे भोगव्युं नथी...के जे सुखनी पासे
जगतना बधा ईन्द्रियसुखो अत्यन्त नीरस छे.
ईन्द्रियसुखोथी आत्मिकसुखनी जात ज जुदी छे,–
जेम ईन्द्रियो अने आत्मा जुदा छे तेम.–हे जीव!
ज्ञानस्वभावना अवलंबनथी सम्यग्दर्शननो
प्रयत्न करीने स्वानुभूतिमां तारा आ सुखने तुं
भोगव.
तंत्री : जगजीवन बावचंद दोशी संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९३ चैत्र (लवाजम : त्रण रूपिया) वर्ष २४ : अंक ६