Atmadharma magazine - Ank 284
(Year 24 - Vir Nirvana Samvat 2493, A.D. 1967)
(Devanagari transliteration).

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जिज्ञासुनी एक ज चिन्ता
पोताना ज्ञानमां पोतानी वस्तु गुप्त केम रही शके? बीजा
विचार छोडीने, सत्य स्वरूपने विचारमां लईने शिष्य पहेलां तेनो
निर्णय करे छे, पछी ते निर्णयना बळे अनुभव थाय छे.
चैतन्यस्वरूपने पामवा माटे शिष्य ते तरफ ढळतो जाय छे. रागनी
अपेक्षा वगर ज्ञानमां सीधो आत्माने पकडवा मांगे छे, एटले के
आत्माने स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष करवा मांगे छे; ते माटे निर्णय कर्यो छे
के मारो स्वभाव ज स्वसंवेदन–प्रत्यक्ष थवानो छे, तेमां वच्चे
रागनो पडदो रही शके नहीं. आत्माने प्रत्यक्ष करवानी रागमां
ताकात नथी पण ज्ञानमां तेवी ताकात छे; एटले स्वानुभव करवा
माटे रागनी ओथ लेवी पडे एम नथी. आटला निर्णय सुधी
आव्या पछी हवे साक्षात् अनुभव माटे शिष्योनो उद्यम छे. तेनुं
सरस वर्णन आचार्यदेवे समयसारमां कर्युं छे.
अज्ञानीनो तो काळ परद्रव्यनी ज चिंतामां चाल्यो जाय छे,
स्वद्रव्य शुं छे तेना विचारनोय तेने अवकाश नथी. अहीं तो जेणे
स्वद्रव्यनी चिन्तामां पोतानुं चित्त जोड्युं छे–एवा जिज्ञासु शिष्यनी
वात छे. तेने बहारनी बधी चिन्ता छूटीने अंतरमां एक ज चिन्ता
छे के मने मारा आत्मानो प्रत्यक्ष अनुभव कई रीते थाय?
तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी * संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९३ जेठ (लवाजम: त्रण रूपिया) वर्ष २४: अंक ८