छे.....अने तेना ज विचारवमळमांथी बहार नीकळी
शकतो नथी, एना परिणामे ते आत्मप्रयत्नमां
आगळ वधी शकतो नथी. आत्मार्थीए एवा प्रसंगमां
न अटकतां उद्यमपूर्वक पोताना आत्मकार्यने साधवुं–
एवुं संतोनुं संबोधन छे. केमके उल्लासित वीर्यवान
जीव आत्माने साधी शके छे.
प्रतिकूळ प्रसंगो तो बन्या ज करवाना, तीर्थंकरो अने चक्रवर्तीओने पण एवा प्रसंगो
क्यां नथी आव्या? मान ने अपमान, निंदा ने प्रशंसा, सुख अने दुःख, संयोग अने
वियोग, रोग अने निरोग,–एवा अनेक परिवर्तनशील प्रसंगो तो जगतमां बन्या ज
करवाना–पण तारा जेवो आत्मार्थी जो आवा नाना नाना प्रसंगोमां ज आत्माने रोकी
देशे तो आत्मार्थना महान कार्यने तुं क्यारे साधी शकशे?
आत्मार्थनी सिद्धि जे रीते थाय ते रीते ज तुं प्रवर्त! ने आत्मार्थनी सिद्धिमां बाधक
थाय एवा परिणामोने अत्यंतपणे छोड, उग्र प्रयत्न वडे छोड!