“आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
श्री गुरु मोहनिंदमांथी जगाडे छे–
जगवासी जीवन सों गुरु उपदेश कहे,
तुम्हें यहां सोवत अनंत काल बीते है।
जागो ह्वै सचेत समता समेत सुनो,
केवल–बचन जातै अक्ष–रस जीते हैं।।
आवो मेरे निकट बताऊं मैं तुम्हारो गुन,
परम सुरस–भरे करम सौं रीते हैं।
ऐसे बैन कहे गुरु तोउ त न धरे उर,
मित्त कैसे पुत किधौं चित्र के से चीते हैं।। १२।।
(समयसारनाटक)
श्री गुरु जगवासी जीवोने उपदेश आपे छे के हे जीवो! आ संसारमां
मोहनिंद्रामां सूता सूता तमारो अनंत काळ चाल्यो गयो.....हवे तो जागो! अने
सावधान थई चेतनावंत थई... चेतनाने जागृत करीने शांत–चित्तवडे समतापूर्वक
केवळी भगवाननी वाणी सांभळो.....के जेना श्रवणथी ईन्द्रियविषयोने जीती शकाय छे.
श्री गुरु वारंवार प्रेमथी कहे छे के–हे जीवो! आवो. मारी नजीक आवो..... हुं
तमने तमारो आत्मगुण देखाडुं.....के जे कर्मकलंकथी रहित छे ने परम आनंदरसथी
भरपूर छे.
श्री गुरु आवां वचन कहे छे तोपण संसारी मोही जीव ध्यान देतो नथी.–ते केवो
छे? जाणे माटीनुं पूतळुं होय अथवा चितरेलो मनुष्य होय!–अचेत जेवो थईने सूतो
छे! जो चेतना सहित होय तो श्री गुरुनां आवां हितवचन सांभळीने केम न जागे?
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(प्रत: २३००) श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक: मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र)