Atmadharma magazine - Ank 295
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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“आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
सारी सारी वात
मारुं सुख मारामां छे, एटले मारामां उपयोग जोडुं
ए ज सुख छे.
मारुं सुख बहारमां नथी, तो बहारमां मने केम
गोठे?
मने क्यांय न गमे पण आत्मामां गमे.

एक आत्मामां उपयोग जोडीने रहेवुं ते एकत्व–
जीवन छे.
एकत्व–जीवन ए शांत जीवन छे ए सुखी जीवन छे.
चित्तमां आत्माथी बीजा भावोनुं घोलन थतां
एकत्वमां भंग पडे छे, एटले सुखमां भंग पडे छे.

जेमां दुःख लागे एनाथी जीव भागे.
जेमां खरेखर गमे. तेमां जरूर उपयोग जोडे.
विभावोमां जो खरेखर दुःख लागे तो तेनाथी पाछो
फरीने निजस्वरूपमां आवी ज जाय.
निजस्वरूप जो खरेखर गमतुं होय तो उपयोगने
अंतर्मुख करीने तेने जाणे ज.

जो स्वमां एकता न करे ने परथी भिन्नता न जाणे
तो तेने स्व परनुं भेदज्ञान थयुं ज नथी.
ज्यां भेदज्ञान छे त्यां निजानंदनी अनुभूति छे.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (प्रत: रप००)