रजतजयंतिनुं वर्ष
२९६
आदर्श पुत्र अने आदर्श माता
पुत्र कहे छे–
हे माता! निजानंदनो प्यासी मारो आत्मा हवे
आ संसारनी दुःखवेदनाथी त्रास पाम्यो छे...चैतन्यसुख
सिवाय बीजे क्यांय चेन नथी....आत्माना आनंदमां ज
चित्त चोंटयुं छे...एना सिवाय क्यांय मारुं चित्त चोंटतुं
नथी...बहारना निःसार भावो अनंतकाळ कर्या हवे
त्यांथी हटीने मारुं परिणमन अंदर ढळे छे...अंदर ज्यां
मारो आनंद भर्यो छे त्यां हुं जाउं छुं...ते माटे हे माता!
आशीर्वाद सहित रजा आप.
माता कहे छे–
हे पुत्र! जे तारो मार्ग छे ते ज मारो पण मार्ग
छे. तारो आत्मा भवदुःखथी छूटे ने आत्मीक सुख पामे
एना जेवुं उत्तम शुं? माता होंशथी पोताना पुत्रने
सुखप्राप्तिना आशीष आपे छे.
तंत्री : जगजीवन बावचंद दोशी – संपादक : ब्र.हरिलाल जैन
वीर सं.२४९४ जेठ (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष २प : अंक ८