Atmadharma magazine - Ank 297
(Year 25 - Vir Nirvana Samvat 2494, A.D. 1968)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं.३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
मोतीनन्दन के दिये हुए अच्छे मोती
o रागने जाणती वखते पण ज्ञान तो ज्ञान ज छे, ज्ञान कांई राग थई गयुं नथी,
ज्ञान पोते जो राग थई जाय तो रागने जाणे कोण?
o शरीर ते मोक्षनुं कारण छे एम माननार शरीरनुं ममत्व कदी छोडशे नहि एटले
शरीररहित मोक्षदशाने पामशे नहि.... फरी–फरीने शरीर ज धारण करशे.
o महावीरे जे ज्ञानथी आ जगतने जोयुं छे ते ज्ञान सर्वे आत्मामां छे...एटले के
दरेक आत्मा सर्वज्ञस्वभावथी परिपूर्ण छे. तेनी प्रतीत करनारने ते प्रगटे छे.
o अंतरमां चेतनाना थनगणाटपूर्वक जे जीवने आत्मलगनी लागी छे ते जीव सतत
प्रयत्न वडे सम्यग्दर्शन प्रगट करशे ज.
o ज्ञानीओए शिखामण आपवामां कांई बाकी नथी राख्युं...हवे तो जीवे पोते
जागवानुं छे. जीव जागे तो एक क्षणमां आत्मानुं काम करी ल्ये एम छे. जाग रे
जीव जाग!
o ज्ञानी पुरुषोनो मार्ग त्यारे ज उपास्यो कहेवाय छे ज्यारे पोते स्वानुभव करीने
ते मार्गे चाले. जात–अनुभव वडे ज ज्ञानीनो मार्ग देखाय छे.
o रागना अभावमां आत्मानो अभाव नथी थई जतो, केमके राग ते
आत्मस्वभाव नथी.
ज्ञान न होय तो आत्मा न होय–केमके ज्ञान ते आत्मस्वभाव छे.
माटे ज्ञान ने राग जुदा छे: एक आत्मस्वभाव छे, ने बीजो आत्मस्वभाव नथी.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक : मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय : सोनगढ (प्रत: २प००)