रजतजयंतिनुं वर्ष
३००
सिद्धप्रभुनी साथमां
साधक कहे छे–हे सिद्ध भगवान! आपने साथे
राखीने हुं सिद्धपदमां आवी रह्यो छुं. प्रभो! अमारा
साधकपणामां आप अमारी साथे ज छो. आपने
अंतरमां साथे राखीने ज अमे सिद्धपदने साधवा
नीकळ्या छीए. प्रभो! रागादि परभावोनो साथ तो में
छोडी दीधो छे, अने हवे तो परम स्वभावरूप
सिद्धपदनो साथ में लीधो छे; अमारी साधनामां हवे
भंग पडवानो नथी; केमके ज्यां सिद्ध बिराजे त्यां मोह
केम थाय? अंतरमां अमे अमारा चिदानंदस्वभाव
तरफ झुकीने सिद्ध भगवाननो साथ लीधो छे;
परभावथी हवे अमे भिन्न थया छीए, ने सिद्धालयमां
अनंत सिद्धभगवंतोनी पंक्तिमां बेसवाना छीए.
(–समयसारना मंगलप्रवचनमांथी)
तंत्री जगजीवन बावचंद दोशी • संपादक : ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९४ आसो (लवाजम : चार रूपिया) वर्ष २प : अंक १२