: જેઠ : ૨૪૯પ આત્મધર્મ : ૬૧ :
वान समय को यों हल्की बातों में उलझ कर नष्ट न करो, बन सके तो प्राप्त
समय को अपने आत्मकल्याण में प्रयोजित कर लो।’
ये सर्वसाधारण को बहुत ही सरल भाषा में समझाया करते हैं, इनका
कहना है सब से पहले तुम यह मानो कि ‘तुम हो’ तुम्हारा स्वतंत्र अस्तित्व है।
ये कैसे हो सकता है कि जो वस्तुएँ दिखती हैं, वे तो हैं, और जो उन्हें देखने
वाले है ‘वह नहीं’ ? इसलिये आकाश, समय और पुद्गल [दिखनेवाली जड
वस्तुएँ] की तरह ही तुम्हारे में स्वतंत्र सता है।’
अब जिन्होंने अपनी सत्ता स्वीकार कर ली, उन से यह कहते हैं, ‘तुम में
जो विकार चलते दिखते हैं, उनके दोषी तुम स्वयं ही हो, क्योंकि अगर तुम
दोष का कारण औरों को मानोंगे तो तुम उन्ही में फेर–फार करने का प्रयत्न
करते रहोगे और जब सब दोषों के जिम्मेदार अपने को ही मान लोगे तो अपने
को ही ठीक करने के प्रयत्न में लग जाओगे, इसलिये दोष दूसरे निमित्तों को न
दो, दोष तुम्हारा और केवल तुम्हारा ही है, इस के माने बिना आगे गति नहीं।
अब जिन्होंने माना दोष हमारे ही हैं, शतप्रतिशत हम ही उनके जिम्मेदार
हैं उनसे आप कहते हैं–देखो तुम्हारे वास्तविक स्वभाव में दोष नहीं, यदि दोष
स्वभाव का हिस्सा होते तो उसमें से वह निकल नहीं सकते थे, यदि तुम अपने
निज के वास्तविक स्वभाव की ओर द्रष्टि दोगे तो यह शनै; शनेः स्वतः निकलते
जायेंगे, और तब शुद्ध सोने के समान निखर आयेगी तुम्हारी निर्मल आत्मा।
जिस तरह सोने को तपाने से उसका मैल निकल जाता है, उस ही
तरह दर्शन–ज्ञान और चारित्र रूप धर्म अंगीकार करने से आत्मा निखरती है।
इन महापुरुष का जन्म आज से ७९ साल पहले वैशाख सुदी दूज के
दिन सौराष्ट्र के उमराला गाँव में, शाह मोतीचंद के घर माता उजमबा की कोख
से हुआ था।
इन के उपदेश सभी जातियों और प्रदेशों के लोगों के लिए समान हैं,
यही कारण है, इन के आश्रय में आये लोगों में सभी जातियों और प्रदेशों के
लोग होते है, उनमें भाषा भेद का कोई झगडा नहीं, सभी प्रेम की डोर में बंघे
समानता से धर्म साधन करते हैं। –सैलानी