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कानजी स्वामी
adbhut vyaktitva
(navI dilhInA ‘navabhArat TAImsa’ tA. 14–pa–69
mAnthI sAbhAr uddhRut)
कानजी स्वामी एक जीती–जागती जीवन
जोत, आत्म–अभ्युदय की साकार मूर्ति, सारे
सौराष्ट्र में जिनकी आत्मक्रांति की धूम है, पर
शेष भारत भी जिनके प्रकाश से वंचित नहीं।
सुन्दर सलोना शरीर, देदीप्यमान आभा,
सुखद भावमंडल, वाणी में ओज, जो भी सरल
हदय से सन्मुख हुआ उस ही की ग्रंथि खुली,
ऐसा शायद ही कोई हो कि जिसने सरलता से
सुना तो हो, पर उसे शांति न मिली हो।
ऐसा भी आज तक नहीं हुआ कि किसी की बातों को सभी ने सरलता से
मान लिया हो, कुछ विरोधी सभी के होते हैं, इन के भी हैं, पर उनके लिए
स्वामीजी के हृदय में बडे सुंदर विचार हैं, ये श्रद्धालु श्रावकों से कहा करते हैं,
‘तुम्हे विरोधियों से घृणा या क्रोध न करना चाहिये, इन में भी तुम्हारी ही तरह
भगवान बसते हैं, इन में थोडी नासमझी है, जब समझ जायेंगे तो स्वयं ही सही
रास्ते पर आ जायेंगे, साथ ही तुम्हें भी अपनी समझ के लिए अहंकार न करना
चाहिये, बस सहज रूप में अपनी द्रष्टि अप्राप्त की ओर रख, बढते जाना चाहिए ।’
एक बार एक त्यागी बह्मचारी इन का पक्ष ले कर किसी विरोधी भाई से
सवाल–जवाब और मुकदमेबाजी की उहापोह में पड गये, इनके सामने बात
आयी तो वे बोले, ‘भाई, समय का समागम तो बहुत थोडा है, न जाने कब
आयु समाप्त हो जाय, इस मूल्य–