Atmadharma magazine - Ank 313
(Year 27 - Vir Nirvana Samvat 2496, A.D. 1970)
(Devanagari transliteration).

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३१३
आनंदनी सुवास
महावीरभगवान जे सिद्धपद पाम्या, ते
सिद्धपदने याद करतां, तेना जेवुं निजस्वरूप
लक्षमां लेतां, अतीन्द्रियआनंदनी एक मधुरी
सुवास आवे छे–के जे सुवास आ नाकवडे नहीं
परंतु भावश्रुतज्ञानवडे सुंघाय छे.
देव–गुरु कहे छे के जेम केरीनी दुकाने जतां
केरीनी गंध आवे छे तेम हे जीव! अंतरमां चैतन्यनी
दुकाने जतां तने आनंदनी सुगंध आवशे. रागादि
परभावोमां तो आनंदनी सुवास नथी, तेमां तो
दुःखरूपी दुर्गंध छे; आनंदनी सुवास तो आत्माना
स्वभावमां ज छे; तेनी समीप जतां आनंदनी
सुवास आवे छे...ने तेमां एकाग्र थतां अपूर्व
आनंदनो स्वाद आवे छे.
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार * संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९६ कारतक (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष २७. अंक १