Atmadharma magazine - Ank 338
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं.:३४ “आत्मधर्म” Regd. No. 182
त्र (आत्मधर्मना प्रचारनी तेमनी भावना)
भाईश्री पुनमभाई तेमना एक पत्रमां लखे छे के–आत्मधर्म अंक ३२२
संपादकीय वांच्युं; आत्मधर्मना प्रचार माटे सलाहसूचन करतो आ पत्र छे. आवी भव्य
वीतरागवाणीनो केम प्रचार थाय ने केम सौ साधर्मीभाईओना घेर घेर आ संदेशो
पहोंचे–ते आपणा आत्मधर्मनो उदेश छे. आत्मधर्म हिंदी–गुजराती मळीने ५०००
ग्राहको छे. पण जैनोनी वस्ती केटली? घणा विचारक मुमुक्षुवर्गने आपणुं आत्मधर्म
जोवा ज मळ्‌युं नथी तेनुं शुं? जेओ जाणे छे तेओ तो अवश्य प्रेमथी वांचे छे. पण
घणाय जीवो एवा छे के जेमने तत्त्वज्ञान विषे घणुंघणुं जाणवानी तमन्ना होय छे पण
हजी सुधी तेमने आत्मधर्म वांचवा मळ्‌युं नथी; एटले जैनोमां घेरघेर ते पहोंचे एवा
प्रचारनी जरूर छे. गुरुदेवनी मंगळछायामां प्रसिद्धि पामता आ आत्मधर्मना ओछामां
ओछा २५००० ग्राहको होवा जोईए. ते माटे उठाव वधे, आकर्षण वधे, बेरंगमां
छपाय तेम विचारवानुं रह्युं. आवा सुंदर पत्रना प्रचार माटे सेवा आपवा अमे
मुंबईना सेवाभावी भाईओ तैयार छीए पू. गुरुदेवने वंदन.
प्रकाशक : श्री दि. जैन स्वा. मंदिर ट्रस्ट. सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत : ३०००
मुद्रक : मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) कारतक : (३३७)