Atmadharma magazine - Ank 341
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : फागण : २४९८
आनंदथी पूजा करावी हती. भगवाननी पहेली पूजा गुरुदेव साथे करतां भक्तोनां हैडां
आनंदथी नाची उठ्या हता. शांतियज्ञ बाद उत्सवनी पूर्णताना हर्षोपलक्षमां जिनेन्द्र–
भगवाननी भव्य रथयात्रा नीकळी हती. सोनगढना रथमां चांदीनी गंधकूटीमां ऊंचे–
ऊंचे बिराजमान सीमंधरभगवानने नीहाळीने अमरेलीनी जनता आश्चर्य पामती
हती...जिनेन्द्रदेवना शासननो अद्भुत महिमा देखीने आनंद थतो हतो...ने भक्तजनो
आनंदथी नाची ऊठता हता.
प्रभुजीनी प्रतिष्ठाना हर्षोपलक्षमां आजे नौकारशी जमण करवामां आव्युं हतुं.
गुरुदेवे अमरेलीमां पांचदिवस सुधी जैनशासनमां कहेला आत्मानो अद्भुत महिमा
संभळाव्यो हतो. अहो, अचिंत्य महिमावंत आवी आत्मवस्तु...के जेनी अनुभूति वडे
भगवान थवाय...एनुं श्रवण आ काळे महाभाग्यवंत मुमुक्षुओने निरंतर श्रीगुरुमुखे
सांभळवा मळी रह्युं छे...हे मुमुक्षुओ! जिनमार्गमां कहेला आवा अद्भुत आत्मतत्त्वने
ओळखवानो आ अवसर छे...एवा आत्मतत्त्वने प्रसिद्ध करता करता गुरुदेवे गामेगाम
विचरी रह्या छे...तमे बहुमानथी श्रवण करीने आत्मतत्त्वने लक्षगत करो.
(अमरेलीना उत्सव बाद फागण सुद छठ्ठनी सवारमां भगवाननां दर्शन–भक्ति
करीने गुरुदेवे अमरेलीथी आंकडिया तरफ प्रस्थान कर्युं.–कयुं आंकडिया?––आ
‘आत्मधर्म’ नुं जे जन्मधाम छे ते!)
स्त्त् .
जे तत्त्व जुदुं छे ते तो जुदुं ज छे, चाहे अहीं हो, चाहे बीजेहो,
पण जे जुदुं छे तेमां शुं फेर पडे छे? कंई पण नहीं.
जे स्वतत्त्व छे ते तो अहीं–तहीं सर्वत्र साथे ज छे. बस,
स्वतत्त्वना देखनारने सर्वत्र शांति ज छे.
स्वतत्त्व केवुं छे? केटलुं मोटुं...गंभीर अने शांत छे ते देखवानुं छे.
स्वतत्त्व कदी पण सूनुंसूनुं नथी लागतुं. ए तो सदाय आनंदथी
भरपूर छे. स्वतत्त्वने देखनार जीव सर्वत्र आनंदमां रही शके छे.