Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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३४प
* छ अक्षर *
‘शुद्धचिद्रूप हुं’ एवा छ अक्षरना विचारथी तेना
वाच्यरूप जे ‘शुद्धचिद्रूप’ प्राप्त थाय छे ते, श्रुतसमुद्रमांथी
नीकळेलुं उत्तम रत्न छे,–ते आदरणीय छे, सर्वे तीर्थोमां ते
उत्कृष्ट तीर्थ छे, सुखोनो ते खजानो छे, मोक्षनगरीमां जवा
माटेनुं ते झडपी (रोकेट करतांय घणुं झडपी) वाहन छे;
कर्मरजना गंजने वीखेरी नांखवा माटे ते वायरो छे; भवना
वनने बाळी नांखवा माटे ते अग्नि छे. आम जाणीने हे
बुद्धिनाथ! तुं शुद्धचिद्रूप हुं’ एवा छ अक्षरवडे शुद्धचिद्रूपनुं
चिंतन कर.
ज्यारे अमे अमारा शुद्धचिद्रूपनुं स्मरण करीए छीए
त्यारे शुभ–अशुभकार्यो क््यां चाल्या जाय छे ते अमे जाणता
नथी, चेतन के अचेतनस्वरूप बाह्यपदार्थोनो संग क््यां जाय छे
तेनी खबर पडती नथी, अने रागादिक भावो क््यां अलोप थई
जाय छे–तेनुं लक्ष रहेतुं नथी. ए वखते तो बस! अमारुं एक
शुद्धचिद्रूप ज अमने देखाय छे, बीजुं कांई नहि.