Atmadharma magazine - Ank 345
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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दुःख अलोप!
रे जीव! कोई वार तने मानभंगनुं तीव्र दुःख थाय छे ने? कोई वार कठोर वचन
सांभळीने, के स्त्री–पुत्र संबंधी दुःख थाय छे ने? संसारमां डगले ने पगले थता
अनेक प्रकारनां भयानक दुःखो, तेनाथी छूटवा तुं केवा फांफा मारी रह्यो छे? अने छतां
हजी सुधी तारुं दुःख मटयुं नथी.–तो शुं करवुं? वीतरागी सन्तो तने एक एवी सरस
मजानी औषधि बतावे छे के जेना सेवनथी सहजमात्रमां तारा बधाय दुःखो अलोप
थई जशे.–कई छे ते औषधि?–सांभळ!
शुद्धचिद्रूपनुं स्मरण करनारा जीवोने ते बधाय दुःखो क््यां अलोेप थई जाय छे!
ते खबर पडती नथी. शुद्धचिद्रूपने याद करतां ज जीवने एवी शांति थाय छे के कोई
दुःख रहेतुं नथी. आ रीते परम सुख देनार शुद्धचिद्रूपनुं स्मरण ते ज भवदुःखने
मटाडवानुं अमोघ औषध छे. ज्यां एनुं स्मरण कर्यु.....के बधाय दुःख अलोप!
अहो, मने रत्न मळ्‌युं!
वीतरागवाणीरूपी समुद्रना मथनथी जेणे शुद्रचिद्रूप–रत्न प्राप्त कर्यु छे एवो
मुमुक्षु चैतन्यप्राप्तिना परम उल्लासथी कहे छे के अहो! मने सर्वोत्कृष्ट चैतन्यरत्न
मळ्‌युं. सर्वज्ञ भगवाननी वाणीरूपी श्रतुसमुद्रनुं मथन करी–करीने, कोईपण प्रकारे
विधिथी में, पूर्वे कदी नहीं प्राप्त करेलुं अने परमप्रिय एवुं शुद्ध चैतन्यरत्न प्राप्त करी
लीधुं छे. चैतन्यरत्ननी प्राप्तिथी मारी मति स्वच्छ थई गई छे; तेथी मारा चैतन्य
सिवाय अन्य कोई द्रव्य मने मारुं भासतुं नथी. आ चैतन्यरत्नने जाणी लीधा पछी
हवे जगतमां मारा चैतन्यरत्नथी ऊंचो बीजो एवो पदार्थ नथी के जे मारे माटे ज्ञेय
होय–द्रश्य होय के गम्य होय. जगतमां चैतन्यनी अन्य बीजुं कोई कार्य नथी, बीजुं
कोई वाच्य नथी, बीजुं कोई ध्येय नथी, बीजुं कांई श्रवणयोग्य नथी, बीजुं कांई
प्राप्त करवा जेवुं नथी. बीजुं कोई श्रेय नथी, बीजुं कोई आदेय नथी.
वाह केवुं अद्भूत छे मारुं चैतन्यरत्न!
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प्रकाशक: श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ (सौराष्ट्र) प्रत: ३०००
मुद्रक: मगनलाल जैन, अजित मुद्रणालय: सोनगढ (सौराष्ट्र) : अषाड: (३४प)