: श्रावण : २४९८ : आत्मधर्म : १ :
वार्षिक वीर सं. २४९८
लवाजम श्रावण
चार रूपिया AUG. 1972
* वर्ष : २९ अंक १० *
महान आत्मार्थने साधवा तत्पर थाओ
नानी–नानी बाबतमां अटको नहीं
जगतना नाना–मोटा अनेकविध प्रसंगोमां जीव
क््यारेक अटवाई जाय छे ने तेथी ते मुंझाय छे....अने तेना ज
विचारवमळमांथी बहार नीकळी शकतो नथी, एना परिणामे
ते आत्मप्रयत्नमां आगळ वधी शकतो नथी. आत्मार्थीए
एवा प्रसंगमां न अटकतां उधमपूर्वक पोताना आत्मकार्यने
साधवुं–एवुं संतोनुं संबोधन छे; केमके स्वभावना
अचिंत्यमहिमा प्रत्ये उल्लासित वीर्यवान जीव आत्माने साधी
शके छे.
हे जीव! जेने तारा आत्मार्थनी साथे संबंध नथी एवी
नानी नानी बाबतमां तुं अटकीश तो तारा महानने
आत्मप्रयोजन तुं क््यारे साधी शकीश? जगतमां अनुकूळ ने
प्रतिकूळ प्रसंगो तो बन्या ज करवाना, तीर्थंकरो अने
चक्रवर्तीओने पण एवा प्रसंगो कयां नथी आव्या? मान ने
अपमान, निंदा ने प्रशंसा, सुख अने दुःख, संयोग अने
वियोग, रोग अने नीरोग,–एवा अनेक परिवर्तनशील
प्रसंगो तो जगतमां बन्या ज करवाना–पण तारा जेवो
आत्मार्थी जो आवा नाना–नाना प्रसंगोमां ज आत्माने रोकी
देशे तो आत्मार्थना महान कार्यने तुं क््यारे साधी शकाशे? शुं
तारा आत्मार्थनुं जोर एवुं ढीलुं छे के बहारना क्षणिक
प्रसंगोथी ते खंडित थई जाय? आत्मार्थने साधवामां एवी
ढीलाश पालवे नहि.