Atmadharma magazine - Ank 348
(Year 29 - Vir Nirvana Samvat 2498, A.D. 1972)
(Devanagari transliteration).

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फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Regd. No. G. 182
Q मोक्षना ढंढेरा Q
ज्ञानीना धर्मना ढंढेरा अंदर समाय छे.
अहो, ज्ञानी तो गुप्तपणे अंतरमां पोताना अचिंत्य
चैतन्यनिधिने भोगवे छे.....ए बहारमां ढंढेरा पीटवा नथी जता. तेम
हे मुमुक्षु.....हे जिज्ञासु! ज्ञानी पासेथी तारी अपार चैतन्यनिधिने
सांभळीने तुं अंदर ऊतरजे.....बहार ढंढेरा पीटवा न जईश, पण
अंदर ऊतरीने तारी पर्यायमां तारा चैतन्यप्रभुने प्रसिद्ध
करजे....धर्मना ढंढेरा बहार नथी पीटाता, ए तो अंतरमां समाय छे.
परिणति ज्यां अंतर्मुख थई त्यां आत्मामां मोक्षना डंका वाग्या.....
स्वानुभूतिमां ज्ञानीने मोक्षना ढंढेरा पीटाई गया छे. ते ढंढेरो अंदर
समाय छे. धर्मात्मा पासेथी चैतन्यनिधान पामीने मुमुक्षुने तेना ढंढेरा
बहार पीटवानो वेग नथी आवतो, एने तो परम गंभीरताथी
अंतरमां ऊतरीने स्वकार्य साधी लेवानी धगश जागे छे.–
ते जिज्ञासु जीवने थाये सद्गुरु–बोध;
तो पामे समकित ते वर्ते अंतरशोध.
––आमां श्रीमद्राजचंद्रजीए जिज्ञासुने बहारमां ढंढेरा पीटवानुं
नथी कह्युं, अंतरशोधमां वर्तवानुं कह्युं छे.
श्री कुंदकुंदप्रभु पण ए ज विधिथी सहज तत्त्वनी आराधना
करवानुं कहे छे–
निधि पामीने जन कोई निज वतने रही फळ भोगवे;
त्यम ज्ञानी परजनसंग छोडी ज्ञाननिधिने भोगवे.
लोकना संगने तो ध्यानमां विध्ननुं कारण समजीने धर्मी छोडे
छे. तेम हे मित्र! तुं पण आ रीते सहजतत्त्वनी आराधना करीने
तारा अंतरमां मोक्षना ढंढेरा प्रसिद्ध कर.
प्रकाशक : (सौराष्ट्र) प्रत : ३१००
मुद्रक :– मगनलाल जैन, अजितमुद्रणालय : सोनगढ (सौराष्ट्र) : आसो (३४८)