Atmadharma magazine - Ank 351
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(Devanagari transliteration).

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अंर्ततत्त्वनो अनुभव

*
वन – जंगलमां वीतरागी संतो क्षणे ने पळे पोताना अंर्ततत्त्वने
निर्विकल्प थईने अनुभवे छे. अहा, धन्य छे ते अनुभवनी पळ!
धर्मी गृहस्थ पण घरमां क्यारेक आवो निर्विकल्प अनुभव करे छे.
* अहा, आवा पोताना अंर्ततत्त्वनो निर्णय करे तो अंतरमां ऊतरीने
अनुभव करवानो अवसर आवे. स्वद्रव्य केवुं छे तेने ओळखीने ते
उपादेय करवा जेवुं छे. उपादेय कई रीते करवुं? – तेनी सन्मुख थईने
अनुभव कर्यो एटले ते उपादेय थयुं; अने तेनाथी विरुद्ध बधा
विभागो हेय थई गया, तेमनुं लक्ष छूटी गयुं.
* जे एक सहज ज्ञायकभाव छे ते परमतत्त्व छे ने बीजा बधा भेद
भंगरूप व्यवहारभावो ते अपरमभाव छे. परमभावरूप जे शुद्धतत्त्व
तेना अनुभवथी प्रचुर आनंदसहित आत्मानो निजवैभव प्रगटे छे;
ते मोक्षमार्ग छे. माटे परमभाव ज अनुभव करवा योग्य छे.
* मोक्षमार्गना शुद्धभावमां व्यवहारना कोई भेद – भंगनुं आलंबन
नथी, एक सहज परमतत्त्वनुं ज आलंबन छे; तेना अनुभवथी ज
सम्यग्द्रर्शन थाय छे, तेना अनुभवथी ज चारित्रदशा अने केवळज्ञान
थाय छे.
* आवा – अभेद परमतत्त्वना अनुभव पहेलांं भेदना विकल्पो आवे
छे; शुद्ध द्रव्य – गुण – पर्याय वगेरेना विचारमां साथे विकल्प आवे
छे, ते विकल्पनो खेद छे, तेनी होंश नथी, तेना प्रत्ये उत्सुकता नथी,
शुद्ध स्वभाव तरफनी ज होंश ने उत्सुक्ता छे. अरे, सीधेसीधा परम
स्वभावमां ज पहोंची जवानी भावना छे, तेना ज अनुभवनुं लक्ष
छे, पण वच्चे भेद– विकल्पो आवी जाय छे तेनी भावना नथी.