फोन नं. : ३४ “आत्मधर्म” Rgd. No. G. 182
जेना सेवनथी भवनो पार पमाय ने मोक्षसुख मळे
एवा जैनमार्गनो परम महिमा
जैन संप्रदायमां आवीने पण जेओ अनेकविध विषयकषायना पोषक कुमार्गने
सेवी रह्या छे एवा जीवो प्रत्ये अत्यंत करुणाथी, जैनमार्गना परम महिमापूर्वक
गुरुदेव कहे छे के–
अरे जीव! तुं मनुष्य थईने जैनसंप्रदायमां आव्यो, पंचपरमेष्ठी भगवान तने
निमित्त तरीके मळ्या, एमनी रत्न जेवी वाणी तने मळी, –अने हजी तुं बीजे ज्यां–
त्यां कुमार्गमां भटक! –ए तो शरम छे... कलंक छे. ईन्द्रो जेने भक्तिथी पूजे एवा
भगवान तने निमित्तपणे मळ्या अने हजी तुं बीजा अजैन रस्ते जा–ए ते कांई
शोभे छे!
बापु! अरिहंत अने सिद्ध जेवा परमात्मा देव, अने आचार्य–उपाध्याय–साधु
जेवा वीतरागीगुरुओ, ने तेमनी अलौकिक वाणी, –आवो महान योग मळवो बहु
मोंघो छे. अरे, आवी उत्तम वस्तु तने मळी, जैनधर्म तने मळ्यो, – तेमणे महान
चैतन्यनिधान तने तारामां बताव्या, –तो हवे बीजे भटकवानुं छोड....ने अंदर तारा
चैतन्यनिधानने देख. अरे, पंचपरमेष्ठी भगवंतोनो केटलो महिमा छे! एने तो
ओळख... तोय तने कुमार्गमांथी प्रेम छूटी जशे. आ जगतमां जैनमार्ग सिवाय
सज्जनोने बीजुं कोई शरण नथी.
अरे जीव! जैनमार्ग पामीने तने एम महिमा आववो जोईए के अहा!
आवो सुंदर जैनमार्ग, गुरुप्रतापे आ कळिकाळमां महाभाग्ये मने मळ्यो–के जेना
सेवनथी मारा भवदुःखनो अंत आवे ने मने मोक्षनुं महान सुख मळे. तो हवे जगत
आखाने एककोर मुकीने, आवो परमहितकर जैनमार्ग, अने वीतरागी पंचपरमेष्ठी
भगवंतोने बराबर ओळखीने, तेनो अत्यंत महिमा लावीने, तेमणे बतावेला मारा
आत्मस्वरूपने ओळखीने, आ अवसरमां आत्महितने साधी ज लउं.
अहो धन्य छे आ जगतमां पंचपरमेष्ठी भगवंतो, अने तेमणे
बतावेलो जैनधर्म,... के जेना प्रतापे आ जीव अपूर्व हित पाम्यो.