३प४
शांतिनुं वेदन ते आत्मा
सर्वज्ञ भगवंतो अने वीरातगी संतो आत्माना
अतीन्द्रिय आनंदनमां झूली रह्या छे....अतीन्द्रिय–
आनंदमां झूलता ए संतोनी वाणीमां पण अतीन्द्रिय
आनंद नीतरी रह्यो छे.
आत्मानो परम अचिंत्य गंभीर महिमा बतावीने
ते संतो कहे छे के–रे जीव! शुं तने एम नथी लागतुं के
आत्मामां अंदर जोतां शांतिनुं वेदन थाय छे ने बहारमां
द्रष्टि करतां अशांति वेदाय छे!! शांतिथी विचारतां तने
एम ज देखाशे. माटे नक्क्ी कर के शांतिनुं–सुखनुं–
आनंदनुं क्षेत्र मारामां ज छे; माराथी बहार क््यांय सुख–
शांति के आनंद नथी...नथी...नथी. बाह्यभावोनी अपेक्षा
वगर एकली परम वीतरागी शांतिना वेदनस्वरूप हुं
पोते ज छुं – एम अनुभव कर.
तंत्री: पुरुषोत्तमदास शिवलाल कामदार–संपादक: ब्र. हरिलाल जैन
वीर सं. २४९९ चैत्र (लवाजम: चार रूपिया) वर्ष ३०: अंक ६