Atmadharma magazine - Ank 357
(Year 30 - Vir Nirvana Samvat 2499, A.D. 1973)
(English transliteration).

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sva–ghaTamembirAje siddhasvarUpI
जानत क्यों नहि रे हे नर! आतम ज्ञानी।। टेक।।
रागद्वेष पुद्गलकी सम्पति, निहचै शुद्ध निशानी।।
जाय नरक सुर नर पशुगतिमें, यह परजाय विरानी।
सिद्धसरूप सदा अविनाशी, मानत विरले प्रानी।।
कियो न काहू हरै न कोई, गुरु सिख कौन–कहानी
जनम मरन मल रहित विमल है कीच बिना ज्यों पानी।।
सार पदारथ है तिहुँँजगमें नहिं क्रोधी नहिं मानी।।
‘दौलत’ सो घटमांहि विराजे लखि हूजे शिवथानी।।
tohi samajAyo so–so bAr
तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो०
देख सुगुरुकी परहितमें रति, हितउपदेश सुनायो।।सौ०।।
विषयभुजङ्ग सेय दुख पायो. पुनि तिनसों लिपटायो;
स्वपद विसार रच्यो परपदमें मद–रत ज्यों वौरायौ।।सौ०।।
तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो;
क्यों न तजे भ्रम चाख समामृत, जो नित संत सुहायो।।सौ०।।
अबहूँ समझ कठिन यह नरभव, जिनवृष बिना गमायो;
ते विलखे मणि डाल उदधिमें, ‘दौलत’ सो पछितायो।।सौ०।।