• श्री जिनवाणीनुं स्तवन •
वीरनाथ तीर्थंकर ए तो जाणे चैतन्यशांतिना हिमालय छे, ने ए
हिमालयमांथी नीकळेलो शांतरसनो प्रवाह जिनवाणीमां भर्यो छे, ते
भव्यजीवो उपर महान उपकार करी रह्यो छे. जिनवाणीनो उपकार प्रसिद्ध
करवा आपणे परमागममंदिर स्थाप्युं छे, तेना उत्सव प्रसंगे मंगळरूपे
जिनवाणीनी स्तुति अहीं आपी छे.
वीर–हिमाचलतें निकरी गुरु गौतमके मुख–मुंड ढरी है;
मोह–महाचल भेद चली, जगकी जडता–तप दूर करी है;
ज्ञानपयोनिधि मांही रली, बहु भेदतरंगनिसों उछरी है,
ता शुचि शारद गंगनदी प्रति मैं अंजुलि कर शीश धरी है. (१)
या जगमंदिरमें अनिवार अज्ञान–अंधेर छयो अति भारी,
श्री जिनकी धुनि दीपशिखासम जो नहि होत प्रकाशनहारी;
तो किस भांति पदारथ पांति कहां लहते रहते अविचारी,
या विध संत कहे धनि है धनि है जिनवैन बडे उपकारी.
अहो जिनवाणी–गंगा! पदार्थ स्वरूप देखाडीने तें मोटो उपकार कर्यो
छे. विपुलाचल पर बिराजमान वीरनाथ तीर्थंकररूपी हिमालयमांथी
नीकळीने गौतमगुरुना मुखरूपी कुंडमां तुं अवतरी; मोहरूपी महापर्वतने
भेदीने तुं आगळ चाली; जगतनी जडताने अने आतापने तें दूर कर्या; पछी
कुंदकुंदाचार्य वगेरे संतोना श्रुतज्ञानरूपी समुद्रमां तुं रेलाणी, ने अंग–पूर्वना
अनेक भेदरूप आनंदमय तरंगथी तुं ऊछळी...आवी पवित्र ज्ञानमय
गंगानदी प्रत्ये हुं हाथनी अंजलि करीने मस्तके चडावुं छुं; अर्थात्
जिनवाणीने हुं मस्तके चढावुं छुं.
जिनवाणीने गंगानी उपमा आपीने स्तुति करी; पण एटलेथी
संतोष न थयो, एटले बीजी उपमा दीपकनी आपीने स्तुति करे छे : आ
जगतना जीवोमां अत्यंत भारे घोर अज्ञानअंधकार छवाई गयो छे, तेमां
दीपशिखासमान प्रकाश करनारी श्री जिनध्वनि जो न होत तो जीवादि
पदार्थोनुं स्वरूप कई रीते ओळखत! अने कयां सुधी अज्ञानी–अविचारी
रहेत? अहो, जिनवाणीनो मोटो उपकार छे के तेणे पदार्थनुं स्वरूप बताव्युं.
तेथी संत कहे छे के हे माता! तने धन्य छे! धन्य छे!