Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २५०१ आत्मधर्म : ३१ :
वृद्धजनो माटेनो वैराग्य–विभाग
वृद्धावस्थाजनित अनेक रोगादिथी ने चिन्ताथी कदाच तमे घेरायेला हशो...ने
कोईवार दीन–परिणाम थई जता हशे....तो हे मुमुक्षु–वडील! तमने ते शोभतुं
नथी. शरीरनो तो एवो स्वभाव ज छे के वृद्धता–रोगादि थाय. तेनी सामे
आत्मानो स्वभाव विचारीने उत्साह–परिणाम करो.
साचुं नीरोग थवुं होय ने आनंद जोईतो होय तो आत्माने शांतपरिणाममां
राखवो. क्रोध ते रोग छे, शांति ते सुख छे.
जैनधर्मने पाम्यो ते जीव दीन के गरीब होय नहि, केमके–
* दुनियामां सौथी श्रेष्ठ रत्न जिनवरदेव,
*
रत्नत्रयवंत मुनिराज परमगुरु,
* आत्मस्वरूप कहेनारी जिनवाणी,
–आवा सर्वोत्कृष्ट त्रण रत्नो जेना अंतरमां सदाय बिराजे छे ते गरीब शेनो?
ने तेने दीनता केवी?–अने ए त्रण महारत्नो परभवमांय साथे ज रहेवाना छे. देह
अने परिवार भले छूटशे पण ए देव–गुरु–धर्म मारा अंतरमांथी कदी नहि छूटे.–आम
विचारीने होंशथी–उत्साहथी तेमनी आराधना करवी.
आखो संसार भले प्रतिकूळ थाय, पण देव–गुरु–धर्म कदी तने प्रतिकूळ नहि
थाय,–ए तारा सदायना साथीदार ने साचा हितस्वी छे.
कोई कहे के तमारे शुं जोईए?
–तो मुमुक्षु कहे छे–मारी पासे वीतरागी देव–गुरु–धर्म तो छे, तेओ मने
आत्मानी अपूर्व अनुभूति आपे छे.–जो एनाथी सारुं बीजुं कांई जगतमां होय
तो मने आपो.
–एनाथी सारूं तो जगतमां बीजा कांई नथी, के जेने हुं ईच्छुं.
आत्मानी निर्विकल्प अनुभूति करवी, ए ज एक मारी भावना छे...ए ज
ईष्ट छे.