Atmadharma magazine - Ank 383
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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अध्यात्ममां हंमेशां निश्चयनय ज मुख्य छे; तेना ज आश्रये धर्म थाय छे.
शास्त्रोमां ज्यां विकारी पर्यायोनुं व्यवहारनयथी कथन करवामां आवे त्यां पण
निश्चयनयने ज मुख्य अने व्यवहारनयने गौण करवानो आशय छे–एम समजवुं;
कारण के पुरुषार्थ वडे पोतामां शुद्ध पर्याय प्रगट करवा अर्थात् विकारी पर्याय टाळवा
माटे हंमेशांं निश्चयनय ज आदरणीय छे; ते वखते बंने नयोनुं ज्ञान होय छे पण धर्म
प्रगटाववा माटे बंने नयो कदी आदरणीय नथी. व्यवहारनयना आश्रये कदी धर्म अंशे
पण थतो नथी, परंतु तेना आश्रये तो राग–द्वेषना विकल्पो ज ऊठे छे.
छये द्रव्यो, तेना गुणो अने तेना पर्यायोना स्वरूपनुं ज्ञान कराववा माटे कोई
वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने व्यवहारनी गौणता राखीने कथन करवामां आवे,
अने कोई वखते व्यवहारनयने मुख्य करीने तथा निश्चयनयने गौण राखीने कथन
करवामां आवे; पोते विचार करे तेमां पण कोई वखते निश्चयनयनी मुख्यता अने कोई
वखते व्यवहारनयनी मुख्यता करवामां आवे; अध्यात्मशास्त्रमां पण जीवनो विकारी
पर्याय जीव स्वयं करे छे तेथी थाय छे अने ते जीवनो अनन्य परिणाम छे–एम
व्यवहारनये कहेवामां–समजाववामां आवे; पण ते दरेक वखते निश्चयनय एक ज मुख्य
अने आदरणीय छे एम ज्ञानीओनुं कथन छे. शुद्धता प्रगट करवा माटे कोई वखते
निश्चयनय आदरणीय छे अने कोई वखते व्यवहारनय आदरणीय छे–एम मानवुं ते
भूल छे. त्रणे काळे एकला निश्चयनयना आश्रये ज धर्म प्रगटे छे एम समजवुं.
साधक जीवो शरूआतथी अंत सुधी निश्चयनी ज मुख्यता राखीने व्यवहारने
गौण ज करता जाय छे, तेथी साधकदशामां निश्चयनी मुख्यताना जोरे साधकने शुद्धतानी
वृद्धि ज थती जाय छे अने अशुद्धता टळती ज जाय छे. ए रीते निश्चयनी मुख्यताना
जोरे पूर्ण केवळज्ञान थतां त्यां मुख्य–गौणपणुं होतुं नथी अने नय पण होता नथी.