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मोक्षपाहुड][३३७
संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः।। १०१।।
गुणगणविभूषितांगः हेयोपादेयनिश्चितः साधुः।
ध्यानाध्ययने सुरतः सः प्राप्नोति उत्तमं स्थानम्।। १०२।।
तत्पर हो संसार–देह–भोगोंसे पहिले विरक्त होकर मुनि हुआ उसी भावना युक्त हो, परद्रव्यसे
पराङ्मुख हो, जैसे वैराग्य हुआ वैसे ही परद्रव्यका त्याग उससे पराङ्मुख रहे, संसार संबंधी
इन्द्रियोंसे द्वारा विषयों से सुखसा होता है उससे विरक्त हो, अपने आत्मीक शुद्ध अर्थात्
कषायोंके क्षोभ से रहित निराकुल, शांतभावरूप ज्ञानानन्द में अनुरक्त हो, लीन हो, बारंबार
उसी की भावना रहे।
जिसका आत्मप्रदेशरूप अंग गुणसे विभूषित हो, जो मूलगुण, उत्तरगुणों से आत्माको
उपादेय है और ऐसा जिसके निश्चय हो कि–––अन्य परद्रव्यके निमित्त से हुए अपने
विकारभाव ये सब हेय हैं। साधु होकर आत्माके स्वभाव के साधने में भली भाँति तत्पर हो,
धर्म–शुक्लध्यान और अध्यात्मशास्त्रों को पढ़कर ज्ञानकी भावना में तत्पर हो, सुरत हो, भले
प्रकार लीन हो। ऐसा साधु उत्तमस्थान जो लोकशिखर पर सिद्धक्षेत्र तथा मिथ्यात्व आदि
चौदह गुणस्थानोंसे परे शुद्धस्वभावरूप मोक्षस्थान को पाता है।
भावार्थः––मोक्षके साधने के ये उपाय हैं अन्य कुछ नहीं हैं।। १०१–१०२।।
आगे आचार्य कहते हैं कि सर्वसे उत्तम पदार्थ शुद्ध आत्मा है, वह देहमें ही रह रहा है
थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह।। १०३।।
स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् जानीत।। १०३।।
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३३८] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे भव्यजीवों! तुम इस देहमें स्थित ऐसा कुछ क्यों है, क्या है उसे जानो, वह लोक में नमस्कार करने योग्य इन्द्रादिक हैं उनसे तो नमस्कार करने योग्य, ध्यान करने योग्य है और स्तुति केने योग्य जो तीर्थंकरादि हैं उनसे भी स्तुति करने योग्य है, ऐसा कुछ है वह इस देह ही में स्थित है उसको यथार्थ जानो। भावार्थः–– शुद्ध परमात्मा है वह यद्यपि कर्मसे आच्छादित है, तो भी भेदज्ञानी इस देह ही में स्थित का ध्यान करके तीर्थंकरादि भी मोक्ष प्राप्त करते हैं, इसलिये ऐसा कहा है कि–– लोक में नमने योग्य तो इन्द्रिादिक हैं और ध्यान करने योग्य तीर्थंकरादिक हैं तथा स्तुति करने योग्य तीर्थंकरादिक हैं वे भी जिसको नमस्कार करते हैं, जिसका ध्यान करते हैं स्तुति करते हैं ऐसा कुछ वचनके अगोचर भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर परमात्म वस्तु है, उसका स्वरूप जानो, उसको नमस्कार करो, उसका ध्यान करो, बाहर किसलिये ढूंढते हो इसप्रकार उपदेश है।। १०३।। आगे आचार्य कहते हैं कि जो अरहंतादिक पंच परमेष्ठी हैं वे भी आत्मामें ही हैं इसलिये आत्मा ही शरण हैः–––
ते वि हु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।। १०४।।
ते अपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं।। १०४।।
चेष्टारूप हैं, आत्माकी अवस्था हैं, इसलिये मेरे आत्माही का शरण है, इसप्रकार आचार्य ने
अभेदनय प्रधान करके कहा है।
भावार्थः––ये पाँच पद आत्मा ही के हैं, जब यह आत्मा घातिकर्मका नाश करता है तब
कहलाता है, जब शिक्षा–दीक्षा देनेवाला मुनि होता है तब आचार्य कहलाता है, पठन–पाठनमें
तत्पर मुनि होता है तब अपाध्याय कहलाता है और जन रत्नत्रयस्वरूप
मोक्षमार्ग को केवल साधता है तब साधु कहलाता है, इसप्रकार पाँचों पद आत्मा ही में हैं।
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मोक्षपाहुड][३३९ सो आचार्य विचार करते हैं कि जो इस देहमें आत्मा स्थिति है सो यद्यपि [स्वयं]कर्म आच्छादित है तो भी पाँचों पदोंके योग्य हैं, इसीके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करना पाँचों पदोंका ध्यान है, इसलिये मेरे इस आत्माही का शरण है ऐसी भावना की है पँचपरमेष्ठी का ध्यान रूप अंतमंगल बताया है।। १०४।। आगे कहते हैं कि जो अंतसमाधिमरण में चार आराधना का आराधन कहा है यह भी आत्मा ही की चेष्टा है, इसलिये आत्मा ही का मेरे शरण हैः–––
चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।। १०५।।
चत्त्वारः तिष्ठंति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं।। १०५।।
अर्थः––सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यक तप ये चार आराधन हैं, ये
भी आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, ते चारों आत्मा ही की अवस्था है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि
मेरे आत्मा ही का शरण है।। १०५।।[भगवती आराधना गाथा नं० २]
भावार्थः––आत्माका निश्चय–व्यवहारात्मक तत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणाम सम्यग्दर्शन है, संशय विमोह विभ्रम रहित और निश्चयव्यवहार से निजस्वरूप का यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान है, सम्यग्ज्ञानसे तत्त्वार्थोंको जानकर रागद्वेषादिक रहित परिणाम होना सम्यक्चारित्र है, अपनी शक्ति अनुसार सम्यग्ज्ञानपूर्वक कष्टका आदर कर स्वरूपका साधना सम्यक्तप है, इसप्रकार ये चारों ही परिणाम आत्मा के हैं, इसलिये आचार्य कहते हैं कि मेरे आत्मा ही का शरण है, इसी की भावना में चारों आ गये।
अंतसल्लेखना में चार आराधना का आराधन कहा है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चारों का उद्योत, उद्यवन, निर्वहण, साधन और निस्तरण ऐसे पंचप्रकार आराधना कही है, वह आत्मा को भाने में (– आत्माकी भावना–एकाग्रता करने में) चारों आ गये, ऐसे अंतसल्लेखना की भावना इसी में आ गई ऐसे जानना तथा आत्मा ही परममंगलरूप है ऐसा भी बताया है।। १०५
आगे यह मोक्षपाहुड ग्रंथ पूर्व किया, इसके पढ़ने सुनने भाने का फल कहते हैंः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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३४०] [अष्टपाहुड
जे पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं।। १०६।।
यः पठति श्रृणोति भावयति सः प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यं।। १०६।।
अर्थः––पूर्वोक्त प्रकार जिनदेव के कहे हुए मोक्षपाहुड ग्रंथ को जीव भक्ति–भावसे
पढ़ते हैं, इसकी बारंबार चिंतवनरूप भावना करते हैं तथा सुनते हैं, वे जीव शाश्वत सुख,
नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय सुख को पाते हैं।
भावार्थः––मोक्षपाहुड मेह मोक्ष और मोक्षके कारण का स्वरूप कहा है और जो मोक्ष के कारण का स्वरूप अन्य प्रकार मानते हैं उनका निषेध किया है, इसलिये इस ग्रंथ के पढ़ने , सुनने से उसके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान–श्रद्धान आचरण होता है, उस ध्यान से कर्म का नाश होता है और इसकी बारंबार भावना करने से उसमें दृढ़ होकर एकाग्रध्यान की सामर्थ्य होती है, उस ध्यानसे कर्मका नाश होकर शाश्वत सुखरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। इसलिये इस ग्रंथको पढ़ना–सुनना निरन्तर भावना रखनी ऐसा आशय है।। १०६।। इस प्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने यह मोक्ष पाहुड ग्रंथ संपूर्ण किया। इसका संक्षेप इस प्रकार है कि ––यह जवि शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनारूप है तो भी अनादि ही से पुद्गल कर्मके संयोग से अज्ञान मिथ्यात्व राग–द्वेषादिक विभावरूप परिणमता है इसलिये नवीन कर्मबंधके संतानसे संसार में भ्रमण करता है। जीवकी प्रवृत्ति के सिद्धांत में सामान्यरूप से चोदह गुणस्थान निरूपण किये हैं–––इनमें मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है , मिथ्यात्वकी सहकारिणी अनंतानुबंधी कषाय है, केवल उसके उदय से सासादन गुणस्थान होता है और सम्यक्त्व–मिथ्यात्व दोनोंके मिलापरूप मिश्रप्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थान होता है, इन तीन गुणस्थानों में तो आत्मभावना का अभाव ही है। –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ पाहुड का पाठान्तर ‘कारण’ है, सं० छाया में भी समझ लेना।
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मोक्षपाहुड][३४१
होता है तब इस जीव को अपना और परका, हित–अहित का तथा हेय–उपादेय का जानना होता है तब आत्मा की भावना होती है तब अविरत नाम चौथा गुणस्थान होता है। जब एकदेश परद्रव्य से निवृत्ति का परिणाम होता है तब जो एकदेश चारित्ररूप पाँचवाँ गुणस्थान होता है उसको श्रावक पद कहते हैं। सर्वदेश परद्रव्य से निवृत्तिरूप परिणाम हो तब सकलचारित्ररूप छट्ठा गुणस्थान होता है, इसमें कुछ संज्वलन चारित्रमोह के तीव्र उदय से स्वरूप के साधन में प्रमाद होता है, इसलिये इसका नाम प्रमत्त है, यहाँ से लगाकर ऊपरके गुणस्थान वालों को साधु कहते हैं। [ स्वसन्मुखतारूप निज परिणाम की प्राप्ति का नाम ही उपादानरूप निश्चयकालब्धि है, वह हो तो उस समय बाह्य द्रव्य – क्षेत्र – कालादि चित सामग्री निमित्त है–––उपचार कारण है, अन्यथा उपचार भी नहीं।] जब संज्वलन चारित्रमोहका मंद उदय होता है तब प्रमादका अभाव होकर स्वरूपके साधने में बड़ा उद्यम होता है तब इसका नाम अप्रमत्त ऐसा सातवाँ गुणस्थान है, इसमें धर्मध्यान की पूर्णता है। जब इस गुणस्थान में स्वरूप में लीन हो तब सातिशय अप्रमत्त होता है। श्रेणी का प्रारम्भ करता है, तब इससे ऊपर चारित्रमोहका अव्यक्त उदयरूप अपूर्वकरण, अनिवृत्त्किरण, सूक्ष्मसांपराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होते हैं। चौथे से लगाकर दसवें सूक्ष्मसांपराय तक कर्म की निर्जरा विशेषरूप से गुणश्रेणीरूप होती है। इससे ऊपर मोहकर्म के आभावरूप ग्यारहवाँ, बारहवाँ, उपशांतकषाय, क्षीणकषाय गुणस्थान होते हैं। इसके पीछे शेष तीन घातिया कर्मोंका नाश कर अनंतचतुष्टय प्रगट होकर अरहंत होता है यह संयोगी जिन नाम गुणस्थान है, यहाँ योग की प्रवृत्ति है। योगोंका निरोधकर अयोगी जिन नामका चौदहवाँ गुणस्थान होता है, यहाँ अघातिया कर्मों का भी नाश करके लगता ही अनंतर समयमें निर्वाण पद को प्राप्त होता है, यहाँ संसार के अभावसे मोक्ष नाम पाता है।
इसप्रकार सब कर्मों का अभावरूप मोक्ष होता है, इसके कारण सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्र कहे, इनकी प्रवृत्ति चौथे गुणस्थानसे सम्यक्त्व प्रगट होने पर एकदेश होती है, यहाँ से लगाकर आगे जैसे जैसे कर्मका अभाव होता है वैसे वैसे सम्यग्दर्शन
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३४२] [अष्टपाहुड आदि की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है, जब घाति कर्मका अभाव होता है तब तेरहवें गुणस्थान में अरहंत होकर जीवन मुक्त कहलाते हैं ओर चौदहवें गुणस्थान के अंत में रत्नत्रय की पूर्णता होती है, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश होकर अभाव होता है तब साक्षात मो सिद्ध कहलाते हैं। इसप्रकार मोक्षका ओर मोक्षके कारण स्वरूप जिन–आगम से जानकर और सम्यगदर्शन – ज्ञान– चारित्र मोक्ष के कारण कहे हैं इनको निश्चय–व्यवहाररूप यथार्थ जानकर सेवन करना। तप भी मोक्षका कारण है उसे भी चारित्र में अंतर्भूत कर त्रयात्मक ही कहा है। इसप्रकार इन कारणोंसे प्रथम तो तद्भव ही मोक्ष होता है। जबतक कारणकी पूर्णता नहीं होती है उससे पहिले कदाचित् आयुकर्म की पूर्णता हो जाय तो स्वर्ग में देव होता है, वहाँ भी यह वांछा रहती है यह शुभोपयोग का अपराध है, यहाँ से चय कर मनुष्य होऊँगा तब सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग का सेवन कर मोक्ष प्राप्त करूँगा, ऐसी भावना रहती है तब वहाँ से चय के मोक्ष पाता है। [ पुरुषार्थ सिद्धि – उपाय श्लोक नं० २२० ‘रत्नत्रयरूप धर्म है वह निर्वाणका ही कारण है और उस समय पुण्यका आस्रव होता है वह अपराध शुभोपयोगका कारण है।’]
अभी इस पंवम काल में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी सामग्री का निमित्त नहीं है इसलिये तद्भव मोक्ष नहीं है, तो भी जो रत्नळय का शुद्धतापूर्वक पालन करे तो यहाँ से देव पर्याय पाकर पीछे मनुष्य होकर मोक्ष पाता है। इसलिये यह उपदेश है – जैसे बने वैसे रत्नत्रयकी प्राप्ति उपाय करना, इसमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है इसका उपाय तो अवश्य चाहिये इसलिये जिनागम को समझकर सम्यक्त्वका उपाय करना योग्य है, इसप्रकार इस ग्रंथका संक्षेप जानो।
ते निश्चय अवहाररूप नीकैं लखि मानूं।
ईस मानुषभवकूं पायकै अन्य चारित मति धरो,
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मोक्षपाहुड][३४३
पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हतिकार।। २।।
यहाँ कोई पूछे ––कि ग्रंथोंमें जहाँ तहाँ, पंच णमोकार की महिमा बहुत लिखी है, मंगलकार्य में विध्नको दूर करने के लिये इसे ही प्रधान कहा है और इसमें पंच–परमेष्ठी को नमस्कार है वह पंचपरमेष्ठी की प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठी को परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्र की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विध्न का निवारण, पंच–परमेष्ठी के प्रधानपना और गुरुपना तथा नमस्कार करने योग्यपना कैसे है? वह कहो। इसके समाधानरूप कुछ लिखते हैंः–––प्रथम तो पंचणमोकार मंत्र है, इसके पैंतीस अक्षर हैं, ये मंत्र के बीजाक्षर हैं तथा इनका योग सब मंत्रोंसे प्रधान है, इन अक्षरोंका गुरु आम्नाय से शुद्ध उच्चारण हो तथा साधन यथार्थ हो तब ये अक्षर कार्य में विध्न के दूर करने में कारण हैं इसलिये मंगलरूप हैं। ‘म’ अर्थात् पाप को गाले उसे मंगल कहते हैं तथा ‘मंग’ अर्थात् सुख को लावे, दे, उसको मंगल कहते हैं, इससे दोनों कार्य होते हैं। उच्चारण के विध्न टलते हैं, अर्थ का विचार करने पर सुख होता है, इसी से इसको मंत्रों में प्रधान कहा है, इसप्रकार तो मंत्र के आश्रय महिमा है।
पंचपरमेष्ठी को नमस्कार इसमें है–––वे पंचपरमेष्ठी अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधु ये हैं, इनका स्वरूप तो ग्रंथों में प्रसिद्ध है, तो भी कुछ लिखते हैंः–––यह अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञ की परम्परा से आगम में कहा है ऐसा षद्द्रव्य स्वरूप लोक है, जिसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं और पुद्गल द्रव्य इसके अनंतानंत गुणे हैं, एक–एक धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। जीव तो दर्शन–ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है। अजीव पाँच हैं ये चेतना रहित जड़ हैं––धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं, इनके विकार परिणति नहीं है, जीव पुद्गल द्रव्य के परस्पर निमित्त – नैमित्तिकभाव से विभाव परिणति है, इसमें भी पुद्गल तो जड़ है, इसके विभाव परणिति का दुःख–सुख का वेदन नहीं है और जीव चेतन है इसके दुःख – सुख का वेदन है।
जीव अनंतानंत हैं इसमें कई तो संसारी हैं, कई संसार से निवृत्त होकर सिद्ध हो चुके हैं। संसारी जीवों में कई तो अभव्य हैं तथा अभव्य के समान हैं ये दोनों जाति के संसार के निवृत्त कभी नहीं होते हैं, इसके संसार अनादि निधन है।
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३४४] [अष्टपाहुड कई भव्य हैं, ये संसार से निवृत्त होकर सिद्ध होते हैं, इसप्रकार जीवों की व्यवस्था है। अब इनके संसार की उत्पत्ति कैसे है वह कहते हैंः––– जीवों के ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का अनादिबंधरूप पर्याय है, इस बंध के उदय के निमित्त से जीव रागद्वेष मोहादि विभावपरिणतिरूप परिणमता है, इस विभाव परिणति के निमित्त से नवीन कर्मबंध होता है, इसप्रकार इनके संतान परम्परा से जीव के चतुर्गतिरूप संसार की प्रवृत्ति होती है, इस संसार में चारों गतियोंमें अनेक प्रकार सुख–दुःखरूप भ्रमण हुआ करता है; तब कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट हो तब सर्वज्ञ के उपदेश का निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्मबंधके स्वरूप को, अपने भीतरी विभाव के स्वरूप को जाने इनका भेदविज्ञान हो, तब परद्रव्य को संसार का निमित्त जानकर इससे विरक्त हो, अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे––दर्शन–ज्ञानरूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन करे तब इसके बाह्य साधन हिंसादिक पंच पापों का त्यागरूप निर्ग्रंथ पद, ––सब परिग्रह की त्यागरूप निर्ग्रंथ दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समितिरूप, तीन गुप्तिरूप प्रवर्ते तब सब जीवों पर दया करनेवाला साधु कहलाता है। इसमें तीन पद होते हैं–––जो आप साधु होकर अन्यको साधुपदकी शिक्षा–दीक्षा दे वह आचार्य कहलाता है, साधु होकर जिनसूत्र को पढ़े पढ़ावे वह उपाध्याय कहलाता है, जो अपने स्वरूपके साधन में रहे वह साधु कहलाता है, जो साधु होकर अपने स्वरूप के साधन के ध्यानके बलसे चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख ओर अनन्तवीर्य को प्राप्त हो वह अरहंत कहलाता है, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली––जिन इन्द्रादिकसे पूज्य होता है, इनकी वाणी खिरती है, जिससे सब जीवों का उपकार होता है, अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, सब जीवों की रक्षा कराते हैं यथार्थ पदार्थों का स्वरूप बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और जो चार अघातिया कर्मों का भी नाशकर सब कर्मों से रहित हो जातें हैं वह सिद्ध कहलाते हैं।
इसप्रकार ये पाँच पद हैं, ये अन्य सब जीवोंसे महान हैं इसलिये पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं, इनके नाम तथा स्वरूपके दर्शन, स्मरण, ध्यान, पूजन नमस्कार से अन्य जीवों के शुभ परिणाम होते हैं इसलिये पाप का नाश होता है, वर्तमान विध्नका विलय होता है आगामी पुण्य का बंध होता है, इसलिये स्वर्गादिक शुभगति पाता है।
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मोक्षपाहुड][३४५ इनकी अज्ञानुसार प्रवर्तनसे परंपरासे संसार से निवृत्ति भी होती है, इसलिये ये पाँच परमेष्ठी सब जीवों के उपकारी परमगुरु हैं, सब संसारी जीवों से पूज्य हैं। इनके सिवाय अन्य संसारी जीव रागद्वेष मोहादि विकारों से मलिन हैं, ये पूज्य नहीं है, इनके महानपना, गुरुपना, पूज्यपना नहीं है, आप ही कर्मोंके वश मलिन हैं तब अन्यका पाप इनसे कैसे कटे? इसप्रकार जिनमत में इन पंच परमेष्ठी का महानपना प्रसिद्ध है और न्यायके बल से भी ऐसा ही सिद्ध होता है, क्योंकि जो संसार के भ्रमण से रहित हों वे ही अन्य के संसारका भ्रमण मिटाने को कारण होते हैं। जैसे जिसके पास धनादि वस्तु हो वही अन्यको धनादिक दे और आप दरिद्री हो तब अन्य की दरिद्रता कैसे मेटे, इसप्रकार जानना। जिनको संसार के दुख मेटने हों और संसारभ्रमणके दुःखरूप जन्म–मरण से रहित होना हो वे अरहंतादिक पंच परमेष्ठी का नाम मंत्र जपो, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण, ध्यान करो, इससे शुभ परिणाम होकर पापका नाश होता है, सब विध्न टलते हैं, परंपरा से संसारका भ्रमण मिटता है, कर्मोंका नाश होकर मुक्तिकी प्राप्ति होती है, ऐसा जिनमतका उपदेश है अतः भव्य जीवों के अंगीकार करने योग्य है। यहाँ कोई कहे––– अन्यमत में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदिक इष्टदेव मानते हैं उनके भी विध्न टलते देखे जाते हैं तथा उनके मत में राजादि बड़े–बड़े पुरुष देखे जाते हैं, उनके भी वे इष्ट विध्नादिक को मेटानेवाले हैं ऐसे ही तुम्हारे भी कहते हो, ऐसा क्यों कहते हो कि यह पँच परमेष्ठी ही प्रधान है अन्य नहीं? उसको कहते हैं, हे भाई! जीवों के दुःख तो संसारभ्रमण का है और संसार भ्रमण के कारण राग द्वेष मोहादि परिणाम हैं तथा रागादिक वर्तमान में आकुलतामयी दुःखस्वरूप हैं, इसलिये ये ब्रह्मादिक इष्ट देव कहे ये तो रागादिक तथा काम– क्रोधादि युक्त हैं, अज्ञानतप के फल से कई जीव सब लोक में चमत्कार सहित राजादिक बड़ा पद पाते हैं, उनको लोग बड़ा मानकर ब्रह्मादिक भगवान कहने लग जाते हैं और कहते हैं कि यह परमेश्वर ब्रह्माका अवतार है, तो ऐसे मानने से तो कुछ मोक्षमार्गी तथा मोक्षरूप होता नहीं है, संसारी ही रहता है।
ऐसे ही अन्यदेव सब पदवाले जानने, वे आप ही रागादिक से दुःखरूप हैं, जन्म–मरण सहित हैं वे परका–संसारका दुःख कैसे मेटेंगे? उनके मतमें विध्नका टलना और राजादिक बड़े पुरुष होते कहे जाते हैं, वहाँ तो उन जीवों के पहिले कुछ शुभ कर्म बंधे थे उनका फल है। पूर्वजन्म में किंचित् शुभ परिणाम किया था इसलिये पुण्यकर्म बँधा था, उसके उदयसे कुछ विध्न टलते हैं और राजादिक पद पाते हैं, वह तो पहिले
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३४६] [अष्टपाहुड कुछ अज्ञानतप किया है उसका फल है, यह तो पुण्यपापरूप संसार की चेष्टा है, इसमें कुछ बड़ाई नहीं है, बड़ाई तो वह है जिससे संसार का भ्रमण मिटे सो यह तो वीतराग विज्ञान भावोंसे ही मिटेगा, इस वीतरागविज्ञान भावयुक्त पँच परमेष्ठी हैं ये ही संसारभ्रमण का दुःख मिटाने में कारण हैं। वर्तमान में कुछ पूर्व शुभकर्म के उदय से पुण्यका चमत्कार देखकर तथा पापका दुःख देखकर भ्रममें नहीं पड़ना, पुण्य पाप दोनों संसार हैं इनसे रहित मोक्ष है, अतः संसार से छूटकर मोक्ष हो ऐसा उपाय करना। वर्तमानका भी विध्न जैसा पँच परमेष्ठी के नाम, मंत्र, ध्यान, दर्शन, स्मरण से मिटेगा वैसा अन्यके नामादिक से तो नहीं मिटेगा, क्योंकि ये पँचपरमेष्ठी ही शांतिरूप हैं, केवल शुभ परणिामों ही के कारण हैं। अन्य इष्ट के रूप तो रौद्ररूप हैं, इनके दर्शन स्मरण तो रागादिक तथा भयादिकके कारण हैं, इनसे तो शुभ परिणाम होते दिखते नहीं हैं। किसी के कदाचित् कुछ धर्मानुराग के वश से शुभ परिणाम हों तो वह उनसे हुआ नहीं कहलाता, उस प्राणी के स्वाभाविक धर्मानुराग के वश से होता है। इसलिये अतिशयवान शुभ परिणाम का कारण तो शांतिरूप पँच परमेष्ठी ही का रूप है, अतः इसी का आराधन करना, वद्यथा खोटी युक्ति सुनकर भ्रममें नहीं पड़ना, ऐसे जानना।
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कर्मनाशि शिवसुख लियो वंदूं तिन के पांय।। १।।
वचनिका का अनुवाद लिखा जाता है–––प्रथम ही आचार्य मंगल के लिये इष्टको नमस्कार
कर ग्रन्थ करनेकी प्रतिज्ञा करते हैंः––––
वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण।। १।।
वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्रं समासेन।। १।।
अर्थः–––आचार्य कहते हैं कि मैं अरहंतों को नमस्कार करके और वैसे ही सिद्धों को
नमस्कार करके तथा जिसमें श्रमणलिंग का निरूपण है इस प्रकार पाहुडशास्त्र को कहूँगा।
भाखीश हुं संक्षेपथी मुनिलिंग प्राभृत शास्त्रने। १।
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३४८] [अष्टपाहुड
भावार्थः––इस काल में मुनिका लिंग जैसा जिनदेव ने कहा है उसमें विपर्यय हो गया, उसका निषेध करने के लिये लिंगनिरूपण शास्त्र आचार्य ने रचा है, इसकी आदि में घातिकर्म का नाशकर अनंतचतुष्टय प्राप्त करके अरहंत हुए, इन्होंने यथार्थरूप से श्रमण का मार्ग प्रवर्ताया और उस लिंग को साधकर सिद्ध हुए, इसप्रकार अरहंत सिद्धों को नमस्कार करने की प्रतिज्ञा की है।। १।। आगे कहते हैं कि जो लिंग बाह्यभेष है वह अंतरंग धर्म सहित कार्यकारी हैः–––
जाणेहि भाव धम्मं किं ते लिंगण कायव्वो।। २।।
जानीहि भावधर्मं किं ते लिंगेन कर्तव्यम्।। २।।
अर्थः––धर्म सहित तो लिंग होता है परन्तु लिंगमात्र ही धर्म की प्राप्ति नहीं है,
इसलिये हे भव्यजीव! तू भावरूप धर्म को जान और केवल लिंग ही से तेरा क्या कार्य होता है
अर्थात् कुछ भी नहीं होता है।
भावार्थः––यहाँ ऐसा जानो कि ––लिंग ऐसा चिन्ह का नाम है, वह बाह्य भेष धारण
चिन्ह सत्यार्थ होता है और इस वीतरागस्वरूप आत्मा के धर्म के बिना लिंग जो बाह्य भेषमात्र
से धर्म की संपत्ति–सम्यक् प्राप्ति नहीं है, इसलिये उपदेश दिया है कि अंतरंग भावधर्म राग–
द्वेष रहित आत्मा का शुद्ध ज्ञान–दर्शनरूप स्वभाव धर्म है उसे हे भव्य! तू जान, इस बाह्य
लिंग भेष मात्र से क्या काम? कुछ भी नहीं। यहाँ ऐसा भी जानना लि जिनमत में लिंग तीन
कहे हैं––एक तो मुनिका यथाजात दिगम्बर लिंग १, दूजा उत्कृष्ट श्रावक का २, तीजा
आर्यिका का ३, इन तीनों ही लिंगों को धारण कर भ्रष्ट हो जो कुक्रिया करते हैं इसका निषेध
है। अन्यमत के कई भेष हैं इनको भी धारण करके जो कुक्रिया करते हैं वह भी निंदा पाते हैं,
इसलिये भेष धारण करके कुक्रिया नहीं करना ऐसा बताया है।। २।।
आगे कहते हैं कि जो जिनलिंग निर्ग्रंथ दिगम्बररूप को ग्रहण कर कुक्रिया करके हँसी
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लिंगपाहुड][३४९
उवहसदि लिंगिभावं लिंगिम्मिय णारदो लिंगी।। ३।।
उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारदः लिंगी।। ३।।
अर्थः––जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देवके लिंग नग्न दिगम्बररूप को ग्रहण करके
लिंगीपने के भाव को उपहासता है––हास्यमात्र समझाता है वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी
बुद्धि पापसे मोहित है वह नारद जैसा है अथवा इस गाथा के चौथे पादका पाठान्तर ऐसा है–
–‘लिंगं णासेदि लिंगीणं’ इसका अर्थ––यह लिंगी अन्य जो कोई लिंगोंके धारक हैं उनके
लिंग को भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है कि लिंगी सब ऐसे ही होते हैं।
भावार्थः––लिंगधारी होकर भी पापबद्धि से कुछ कुक्रिया करे तब उसने लिंगपने को हास्यमात्र समझा, कुछ कार्यकारी नहीं समझा। लिंगीपना तो भावशुद्धि से शोभा पाता है, जब भाव बिगड़े तब बाह्य कुक्रिया करने लग गया तब इसने इस लिंग को लजाया और अन्य लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि लिंगी ऐसे ही होते हैं अथवा जैसे नारदका भेष है उसमें वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद प्रवर्तता है, वैसे ही यह भी भेषी ठहरा, इसलिये आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके कहा है कि जिनेन्द्र के भेष को लजाना योग्य नहीं है।। ३।।
सो पावमोहिद मदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो।। ४।।
उपर्हासत करतो, ते विघाते लिंगीओना लिंगने। ३।
जे लिंग धारी नृत्य, गायन, वाद्यवादनने करे,
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३५०] [अष्टपाहुड
सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः।। ४।।
अर्थः––जो लिंगरूप करके नृत्य करता है गाता है वादित्र बजाता है सो पापसे मोहित
बुद्विवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, श्रमण नहीं है।
भावार्थः––लिंग धारण करके भाव बिगाड़कर नाचना, गाना, बजाना इत्यादि क्रियायें
जैसे नारद भेषधारी नाचता है, गाता है, बजाता है, वैसे यह भी भेषी हुआ तब उत्तम भेष को
लजाया, इसलिये लिंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है।।४।।
आगे फिर कहते हैंः–––
सो पाव मोहिद मदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। ५।।
सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनि न सः श्रमणः।। ५।।
वांछा चिंतवन ममत्व करता है और उस परिग्रह की रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता
है, उसके लिये आर्त्तध्यान निरंतर ध्याता है, वह पापसे मोहित बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है,
पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है श्रमणपने को बिगाड़ता है, ऐसे जानना।। ५।।
––––––––––––
ते पापमोहितबुद्धि छे तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे। ५।
द्यूत जे रमे, बहुमान–गर्वित वाद–कलह सदा करे,
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लिंगपाहुड][३५१
व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ६।।
अर्थः––जो लिंगी बहुत मान कषायसे गर्वमान हुआ निरंतर कलह करता है, वाद करता
है, द्यूतक्रीड़ा करता है वह पापी नरकको प्राप्त होता है और पापसे ऐसे ही करता रहता है।
भावार्थः––जो गृहस्थरूप करके ऐसी क्रिया करता है उसको तो यह उलाहना नहीं है,
जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं
लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है।। ६।।
आगे फिर कहते हैः–––
सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे।। ७।।
सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे।। ७।।
अर्थः––पाप से उपहत अर्थात् घात किया गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ
जो लिंगी का रूप करके अब्रह्मका सेवन करता है वह पाप से मोहित बुद्धिवाला लिंगी
संसाररूपी कांतार–––वन में भ्रमण करता है।
भावार्थः–– पहिले तो लिंग धारण किया और पीछे ऐसा पाप–परिणाम हुआ कि
न हो? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उनके रोग जाने की क्या आशा? वैसे ही यह
हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है।। ७।।
आगे फिर कहते हैंः–––
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३५२] [अष्टपाहुड
अट्टं झायदि झाणं अणंत संसारिओ होदि।। ८।।
आर्त्तं ध्यायाति ध्यानं अनंतसंसारिकः भवति।। ८।।
अर्थः––यदि लिंगरूप करके दर्शन ज्ञान चारित्र को तो उपधानरूप नहीं किये [–धारण
नहीं किये] और आर्त्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनंत संसारी होता है।
भावार्थः––लिंग धारण करके दर्शन ज्ञान चारित्रका सेवन करना था वह तो नहीं किया और परिग्रह कुटुम्ब आदि विषयोंका परिग्रह छोड़ा उसकी फिर चिंता करके आर्त्तध्यान–ध्याने लगा तब अनंत संसारी क्यों न हो? इसका तात्पर्य है कि–––सम्यग्दर्शनादि रूप भाव तो पहिले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण कर लिया, उसकी अवधि क्या? पहिले भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है।। ८।। आगे कहते हैं कि यदि भाव शुद्धिके बिना गृहस्थपद छोड़े तो यह प्रवृत्ति होती हैः––– –
वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरुवेण।। ९।।
व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ९।।
बहाना किसान का कार्य, वाणिज्य व्यापार अर्थात् वैश्यका कार्य और जीवघात अर्थात् वैद्यकर्म
के लिये जीवघात करना अथवा धीवरादिका कार्य, इन कार्यों को करता है वह लिंगरूप धारण
करके ऐसे पापकार्य करता हुआ पापी नरकको प्राप्त होता है।
भावार्थः––गृहस्थपद छोड़कर शुद्धभाव बिना लिंगी हुआ था, इसकी भावकी ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ने ध्यान ध्यावे आर्त, तेह अनंत संसारी मुनि। ८।
जोडे विवाह, करे कृषि–व्यापार–जीवविघात जे,
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लिंगपाहुड][३५३ वासना मिटी नहीं तब लिंगी का रूप धारण करके भी गृहस्थ कार्य करने लगा, आप विवाह नहीं करता है तो भी गृहस्थोंके सम्बंध कराकर विवाह कराता है तथा खेती, व्यापार जीवहिंसा आप करता है और गृहस्थोंको कराता है, तब पापी होकर नरक जाता है। ऐसे भेष धारने से तो गृहस्थ ही भका था, पदका पाप तो नहीं लगता, इसलिये ऐसे भेष धारण करना उचित नहीं है यह उपदेश है।। ९।। आगे फिर कहते हैंः–––
यंत्रेण दीव्यमानः गच्छति लिंगी नरकयासं।। १०।।
लापर अर्थात् झूठ बोलने वालोंके युद्ध और विवाद कराता है और तीव्रकर्म जिनमें बहुत पाप
उत्पन्न हो ऐसे तएव्र कषायोंके कार्यों से तथा यंत्र अर्थात् चौपड़, शतरंज, पासा, हिंदोला
आदि से क्रिड़ा करता रहता है, वह नरक जाता है। यहाँ ‘लाउराणं’ का पाठान्तर ऐसा भी है
राउलाणं इसका अर्थ–––रावल अर्थात् राजकार्य करने वालों के युद्ध विवाद कराता है, ऐसे
जानना।
भावार्थः–– लिंग धारण करके ऐसे कार्य करे तो नरक ही पाता है इसमें संशय नहीं है।। १०।। आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके लिंगयोग्य कार्य करता हुआ दुःखी रहता है, उन कार्योंका आदर नहीं करता, वह भी नरक में जाता हैः––– –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ मुद्रित सटकि संस्कृत प्रति में ‘समाएण’ ऐसा पाठ है जिसकी छाया में ‘मिथ्यात्वादिनां’ इसप्रकार है।
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३५४] [अष्टपाहुड
पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं।। ११।।
पीडयते वर्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासम्।। ११।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके इन क्रियाओंको करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा पाता
है, दुःखी होता है वह लिंगी नरकवासी को पाता है। वे क्रियायें क्या है? प्रथम तो दर्शन ज्ञान
चारित्र में इनका निश्चय–व्यवहाररूप धारण करना, तप–अनशनादिक बारह प्रकारके शक्तिके
अनुसार करना, संयम–इन्द्रियोंको और मन को वश में करना तथा जीवों की रक्षा करना,
नियम अर्थात् नित्य कुछ त्याग करना और नित्यकर्म अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाओंको नित्य
समय पर नित्य करना, ये लिंगके योग्य क्रियायें हैं, इन क्रियाओंको करता हुआ दुःखी होता है
वह नरक पाता है। [‘आत्म हित हेतु विराग–ज्ञान सो लखै आपको कष्टदान’ मुनिपद अर्थात्
मोक्षमार्ग उसको तो वह कष्टदाता मानता है अतः वह मिथ्यारुचिवान है]
भावार्थः––लिंग धारण करके ये कार्य करने थे, इनका तो निरादर करे ओर प्रमाद
नहीं हुआ और भाव बिगड़ने पर तो उसका फल नरक ही होता है, इसप्रकार जानना।। ११।।
आगे कहते हैं कि जो भोजनमें भी रसोंका लोलुपी होता है वह भी लिंगको लजाता
मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १२।।
जे भोजने रसगृद्धि करतो वर्ततो कामादिके,
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लिंगपाहुड][३५५
मायावी लिंगव्यवायी तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः।। १२।।
अर्थः––जो लिहग धारण करके भोजन में भी रस की गृद्धि अर्थात् आसक्तता को
करता रहता है वह कंदर्प आदिकमें वर्तता है, उसके काम–सेवनकी वांछा तथा प्रमाद
निद्रादिक प्रचुर मात्रा में बढ़ जाते हैं तब ‘लिंगव्यवायी’ अर्थात् व्यभिचारी होता है, मायावी
अर्थात् कामसेवन के लिये अनेक छल करना विचारता है, जो ऐसा होता है वह तिर्यंचयोनि है,
पशुतुल्य है, मनुष्य नहीं है, इसलिये श्रमण भी नहीं है।
भावार्थः––गृहस्थपद छोड़कर आहार में लोलुपता करने लगा तो गृहस्थपद में अनेक
को पहिचाना ही नहीं है इसलिये विषयसुख की चाह रही तब भोजन के रसकी, साथके अन्य
भी विषयों की चाह होती है तब व्यभिचार आदि में प्रवर्तन कर लिंग को लजाता है, ऐसे लिंग
से तो गृहस्थपद ही श्रेष्ठ है, ऐसे जानना।। १२।।
आगे फिर इसी को विशेषरूप से कहते हैंः–––
अवरपरुई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो।। १३।।
अपरप्ररुपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः।। १३।।
अर्थः––जो लिंगधारी पिंड अर्थात् आहारके निमित्त दौडा है, आहारके निमित्त कलह
करके आहारको भोगता है, खाता है, और उसके निमित्त अन्यसे परस्पर ईर्षा करता है वह
श्रमण जिनमार्गी नहीं है।
भावार्थः––इस काल में जिनलिंगी से भ्रष्ट होकर पहिले अर्द्धफालक हुए, पीछे उनमें
निषेध है। इनमें अब भी कई ऐसे देखे जाते हैं जो–––आहारके लिये शीघ्र दौड़ते हैं,
ईर्यापथकी सुध नहीं है और आहार गृहस्थके घर से लाकर दो–चार शामिल
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३५६] [अष्टपाहुड बैठकर खाते हैं, इसमें बटवारे में सरस, नीरस, आवे तब परसपर कलह करते हैं और उसके निमित्त परस्पर ईर्षा करते हैं, इसप्रकार की प्रवृत्ति करें तब कैसे धमण हुए? वे जिनमार्गी तो हैं नहीं, कलिकाल के भेषी हैं। इनको साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं।। १३।। आगे फिर कहते हैः––––
जिणलिंग धारंतो चोरेण व होइ सो समणो।। १४।।
जिनलिंगं धारयन् चौरेणेव भवति सः श्रमणः।। १४।।
अर्थः––जो बिना दिया तो दान लेता है और परोक्ष परके दूषणोंसे परकी निंदा करता
है वह जिनलिंगको धारण करता हुआ भी चोरके समान श्रमण है।
भावार्थः––जो जिनलिंग धारण करके बिना दिया आहार आदिको ग्रहण करता है,
छिपकर कार्य करना ये तो चोरके कार्य हैं। यह भेष धारण करके ऐसे करने लगा तब चोर ही
ठहरा, इसलिये ऐसा भेषी होना योग्य नहीं है।। १४।।
आगे कहते हैं कि जो लिंग धारण करके ऐसे प्रवर्तते हैं वे श्रमण नहीं हैंः–––
इरियावह धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १५।।
ईंर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न स श्रमणः।। १५।।
जिनलिंग धारक हो छतां ते श्रमण चोर समान छे। १४।
लिंगात्म ईर्यासमितिनो धारक छतां कूदे, पडे,