Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 99-121 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][२१७
नव प्रकारका ब्रह्मचर्य इसप्रकार है–––––नव कारणोंसे ब्रह्मचर्य बिगड़ता है, उनके
नाम ये हैं–––––१ स्त्रीको सेवन करने की अभिलाषा, २ स्त्रीके अंगका स्पर्शन, ३ पुष्ट
रसका सेवन, ४ स्त्रीसे संसक्त वस्तु शय्या आदिकका सेवन, ५ स्त्रीके मुख, नेत्र आदिकको
देखना, ६ स्त्रीका सत्कार–पुरस्कार करना, ७ पहिले किये हुए स्त्रीसेवनको याद करना, ८
आगामी स्त्रीसेवनकी अभिलाषा करना, ९ मनवांछित इष्ट विषयोंका सेवन करना ऐसे नव प्रकार
हैं। इनका त्याग करना सो नवभेदरूप ब्रह्मचर्य है अथवा मन–वचन–काय, कृत–कारित–
अनुमोदनासे ब्रह्मचर्यका पालन करना ऐसे भी नव प्रकार हैं। ऐसे करना सो भी भाव शुद्ध
होनेका उपाय है।। ९८।।
भावार्थः–– निश्चय सम्यक्त्वका शुद्ध आत्माका अनुभूतिरूप श्रद्धान है सो भाव है, ऐसे
भावसहित हो उसके चार आराधना होती है उसका फल अरहन्त सिद्ध पद है, और ऐसे भाव
से रहित हो उसके आराधना नहीं होती है, उसका फल संसार का भ्रमण है। ऐसा जानकर
भाव शुद्ध करना यह उपदेश है।। ९९।।
भावे सहित मुनिवर लहे आराधना चतुरंगने;
दस प्रकारका अब्रह्म ये है––––१ पहिले तो स्त्रीका चिन्तन होना, २ पीछे देखने की चिंता
होना, ३ पीछे निः श्वास डालना, ४ पीछे ज्वर होना, ५ पीछे दाह होना, ६ पीछे काम की
रुचि होना, ७ पीछे मूर्छा होना, ८ पीछे उन्माद होना, ९ पीछे जीनेका संदेह होना, १० पीके
मरण होना, ऐसे दस प्रकारका अब्रह्म है।
आगे कहते है कि–––जो भावसहित मुनि हैं सो आराधनाके चतुष्कको पाता है, भाव
बिना वह संसार में भ्रमण करता हैः–––
भावसहिदो य मुणिणो पावइ आराहणाच उक्कं च।
भाव रहिदो य मुणिवर भमइ चिरं दीहसंसारे।। ९९।।
भावसहितश्च मुनिनः प्राप्नोति आराधनाचतुष्कं च।
भावरहितश्च मुनिवर! भ्रमति चिरं दीर्घ संसारे।। ९९।।
अर्थः––हे मुनिवर! जो भाव सहित है सो दर्शन – ज्ञान –चारित्र –तप ऐसी
आराधनाके चतुष्कको पाता है, वह मुनियोंमें प्रधान है और जो भावरहित मुनि है सो बहुत
काल तक दीर्घसंसारमें भ्रमण करता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
भावे रहित तो हे श्रमण! चिर दीर्घसंसारे भमे। ९९।

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२१८] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे मुने! तुने अशुद्ध भावेस छियालीस दोषोंसे दूषित अशुद्ध अशन (आहार)
ग्रस्या (खाया) इस कारण से तिर्यंचगति में पराधीन होकर महान (बड़े) व्यसन (कष्ट) को
प्राप्त किया।
आगे भावही के फलको विशेषरूप से कहते हैंः–––
पावंति भावसवणा कल्लाण परंपराइं सोक्खाइं।
दुक्खाइं दव्वसवणा णरतिरियकुदेव जोणीए।। १००।।
पाप्नुवंति भावश्रमणाः कल्याणपरंपराः सौख्यानि।
दुःखानि द्रव्यश्रमणाः नरतिर्यक्कुदेवयोनौ।। १००।।
अर्थः––जो भावश्रमण हैं, वे जिनमें कल्याणकी परम्परा है ऐसे सुखोंको पाते हैं और
जो द्रव्यश्रमण हैं वे तिर्यंच मनुष्य कुदेव योनिमें दुःखोंको पाते हैं।

भावार्थः––भावमुनि सम्यग्दर्शन सहित हैं वे तो सोलहकारण भावना भाकर गर्भ, जन्म,
तप, ज्ञान, निर्वाण––––पंचकल्याणक सहित तीर्थंकर पद पाकर मोक्ष पाते हैं और जो
सम्यग्दर्शन रहित द्रव्यमुनि हैं वे तिर्यंच, मनुष्य, कुदेव योनि पाते हैं। यह भावके विशेष से
फलका विशेष है।। १००।।

आगे कहते हैं कि अशुद्ध भावसे अशुद्ध ही आहार किया, इसलिये दुर्गति ही पाईः–––
––
छायालदोसदूसियमसणं गसिउं असुद्ध भावेण।
पत्तो सि महावसणं तिरियगईए अणप्पवसो।। १०१।।
षट्चत्वारिंशदोषदूषितमशनं ग्रसितं अशुद्धभावेन।
प्राप्तः असि महाव्यसनं तिर्यग्गतौ अनात्मवशः।। १०१।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! भावमुनि कल्याणकोनी श्रेणियुत सौख्यो लहे;
ने द्रव्यमुनि तिर्यंच–मनुज–कुदेवमां दुःखो सहे। १००।

अविशुद्ध भावे दोष छेंताळीस सह ग्रही अशनने,
तिर्यंचगति मध्ये तुं पाम्यो दुःख बहु परवशपणे। १०१।

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भावपाहुड][२१९
आगे फिर कहते हैंः–––––
भावार्थः––मुनि छियालीस दोषरहित शुद्ध आहार करता है, बत्तीस अंतराय टालता है,
चौदह मलदोषरहित करता है, सो जो मुनि होकर सदोषााहार करे तो ज्ञात होता है कि
इसके भाव भी शुद्ध नहीं है। उसको उपदेश है कि–––हे मुनि! तुने दोष–सहित अशुद्ध
आहार किया, इसलिये तिर्यंचगति में पहिले भ्रमण किया और कष्ट सहा, इसलिये भाव शुद्ध
करके शुद्ध आहार कर जिससे फिर भ्रमण न करे। छियालीस दोषोंमें सोलह तो उद्गम दोष
हैं, वे आहारके बनने के हैं, ये श्रावक आश्रित हैं। सोलह उत्पादन दोष हैं, ये मुनिके आश्रित
हैं। दस दोष एषणाके हैं, ये आहारके आश्रित है। चार प्रमाणादिक हैं। इनके नाम तथा स्वरूप
‘मूलाचार’, ‘आचारसार’ ग्रंथसे जानिये।। १०१।।
सच्चित्तभत्तपाणं गिद्धीं दप्पेणऽधी पभुत्तूण।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं अणाइकालेण तं चिंत।। १०२।।
सचित्तभक्तपानं गृद्ध्या दर्पेण अधीः प्रभुज्य।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं अनादिकालेन त्वं चिन्तय।। १०२।।

अर्थः
––हे जीव! तू दुर्बुद्धि
(अज्ञानी) होकर अतिचार सहित तथा अतिगर्व (उद्धतपने)
से सचित्त भोजन तथा पान, जीवसहित आहार – पानी लेकर अनादिकाल से तीव्र दुःखको
पाया, उसका चिन्तवन कर – विचार कर।

भावार्थः––मुनिको उपदेश करते हैं कि–––अनादिकालसे जब तक अज्ञानी रहा
जीवका स्वरूप नहीं जाना, तब तक सचित (जीवसहित) आहार – पानी करते हुए संसारमें
तीव्र नरकादिकके दुःख को पाया। अब मुनि होकर भावशुद्ध करके सचित्त आहार – पानी मत
करे, नहीं तो फिर पूर्ववत् दुःख भोगेगा।। १०२।।

आगे फिर कहते हैंः––––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं विचार रे! –तें दुःख तीव्र लह्यां अनादि काळथी,
करी अशन–पान सचित्तनां अज्ञान–गृद्धि–दर्पथी। १०२।

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२२०] [अष्टपाहुड
कंदं मूलं बीवं पुप्फं पत्तादि किंचि सच्चित्तं।
असिऊण माणगव्वं भमिओ सि अणंतसंसारे।। १०३।।
कंदं मूलं बीजं पुष्पं पत्रादि किंचित् सचित्तम्।
अशित्वा मानगर्वे भ्रमितः असि अनंत संसारे।। १०३।।
अर्थः––कंद – जमीकंद आदिक, बीज – चना आदि अन्नादिक, मूल – अदरक मूली
गाजर आदिक, पुष्प – फूल, पत्र नागरबेल आदिक, इनको आदि लेकर जो भी कोई सचित्त
वस्तु थी उसे मान
(गर्व) करके भक्षण की। उससे हे जीव! तूने अनंत–संसारमें भ्रमण किया।

भावार्थः––कन्दमूलादिक सचित्त अनन्त जीवोंकी काया है तथा अन्य वनस्पति बीजादिक
सचित्त हैं इनको भक्षण किया। प्रथम तो मान करके कि–––हम तपस्वी हैं, हमारे घरबार नहीं
है, वनके पुष्प – फलादिक खाकर तपस्या करते हैं,––ऐसे मिथ्यादृष्टि तपस्वी होकर मान
करके खाये तथा गर्व से उद्धत होकर दोष समझा नहीं, स्वच्छंद होकर सर्वभक्षी हुआ। ऐसे
इन कंदादिकको खाकर इस जीवने संसार भ्रमण किया। अब मुनि होकर इनका भक्षण मत
करे, ऐसा उपदेश है। अन्यमतके तपस्वी कंदमूलादिक फल – फूल खाकर अपनेको महंत
मानते हैं, उनका निषेध है।।१०३।।

आगे विनय आदिका उपदेश करते हैं, पहिले विनयका वर्णन हैः–––
विणयं पंचपयारं पालहि मणवयणकायजोएण।
अविणयणरा सुविहियं तत्तो मुत्तिं न पावंति।। १०४।।
विनयः पंचप्रकारं पालय मनोवचनकाययोगेन।
अविनतनराः सुविहितां ततो मुक्तिं न प्राप्नुवंति।। १०४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
कंई कंद–मूलो, पत्र–पुष्पो, बीज आदि सचित्तने
तुं मान–मदथी खाईने भटक्यो अनंत भवार्णवे। १०३।

रे! विनय पांच प्रकारनो तुं पाळ मन–वच–तन वडे;
नर होय जे अविनीत ते पामे न सुविहित मुक्तिने। १०४।

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भावपाहुड][२२१
जिनभक्तिरत दशभेद वैयावृत्त्यने आचर सदा। १०५।
अर्थः––हे मुने! जिस कारणसे अविनयी मनुष्य भले प्रकार विहित जो मुक्ति उसको
नहीं पाते हैं अर्थात् अभ्युदय तीर्थंकरादि सहित मुक्ति नहीं पाते हैं, इसलिये हम उपदेश करते
हैं कि––––हाथ जोड़ना, चरणोंमें गिरना, आने पर उठना, सामने जाना और अनुकूल वचन
कहना यह पाँच प्रकार का विनय है अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और इनके धारक पुरुष
इनका विनय करना, ऐसे पाँच प्रकारके विनयको तू मन – वचन –काय तीनों योगोंसे पालन
कर।

भावार्थः––विनय बिना मुक्ति नहीं है, इसलिये विनयका उपदेश है। विनयमें बड़े गुण
हैं, ज्ञानकी प्राप्ति होती है, मान कषायका नाश होता है, शिष्टाचारका पालन है और कलहका
निवारण है, इत्यादि विनय के गुण जानने। इसलिये जो सम्यग्दर्शन आदि में महान् है उनका
विनय करो यह उपदेश है और जो विनय बिना जिनमार्गसे भ्रष्ट भये, वस्त्रादिक सहित जो
मोक्षमार्ग मानने लगे उनका निषेध है।। १०४।।

आगे भक्तिरूप वैयावृत्यका उपदेश करते हैंः––––
णियसत्तीए महाजस भत्तीराएण णिच्चकालम्मि।
तं कुण जिण भत्ति परं विज्जावच्चं दसवियप्पं।। १०५।।
निजशक्त्या महायशः! भक्तिरागेण नित्यकाले।
त्वं कुरू जिन भक्ति परं वैयावृत्यं दशविकल्पम्।। १०५।।

अर्थः
––हे महाशय! हे मुने! जिनभक्ति में तत्पर होकर, भक्तिके रागपूर्वक उस दस
भेदरूप वैयावृत्यको सदाकाल तु अपनी शक्तिके अनुसार कर। ‘वैयावृत्य’ के दूसरे दुःख
(कष्ट) आनेपर उसकी सेवा–चाकरी करनेको कहते हैं। इसके दस भेद हैं––१ आचार्य, २
उपाध्याय, ३ तपस्वी, ४ शैक्ष्य, ५ ग्लान, ६ गण, ७ कुल, ८ संघ, ९ साधु १० मनोज्ञ––––
ये दस मुनि के हैं। इनका वैयावृत्य करते हैं इसलिये दस भेद कहे हैं।। १०५।।

आगे अपने दोषका गुरुके पास कहना, ऐसी गर्हाका उपदेश करते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं हे महायश! भक्तिराग वडे स्वशक्तिप्रमाणमां

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२२२] [अष्टपाहुड
जं किंचिं कयं दोसं मणवयकाएहिं असुहभावेण।
तं गरहि गुरुसयासे गारव मायं च मोत्तूण।। १०६।।
यः कश्चित् कृतः दोषः मनोवचः कायैः अशुभ भावेन।
तं गर्हं गुरुसकाशे गारवं मायां च मुक्त्वा।। १०६।।

अर्थः
––हे मुने! जो कुछ मन–वचन–कायके द्धारा अशुभ भावोंसे प्रतिज्ञा में लगा हो
उसको गुरुके पास अपना गौरव
(महंतपनेका गर्व) छोड़कर और माया (कपट) छोड़कर
मन–वचन–कायको सरल करके गर्हा कर अर्थात् वचन द्धारा प्राकशित कर।

भावार्थः––अपने कोई दोष लगा हो और निष्कपट होकर गुरुको कहे तो वह दोष
निवृत्त हो जावे। यदि आप शल्यवान रहे तो मुनिपदमें वह बड़ा दोष है, इसलिये अपना दोष
छिपाना नहीं, जैसा हो वैसा सरलबुद्धिसे गुरुओं के पास कहे तब दोष मिटे यह उपदेश है।
कालके निमित्तसे मुनिपद से भ्रष्ट भये, पीछे गुरुओंके पास प्रायश्चित नहीं लिया, तब विपरीत
होकर अलग सम्प्रदाय बना लिये, ऐसे विपर्यय हुआ।। १०६।।

आगे क्षमाका उपदेश करते हैंः––
दुज्जवयणचडक्कं णिट्ठुरकडुयं सहंति सप्पुरिसा।
कम्ममलणासणट्ठं भावेण य णिम्ममा सवणा।। १०७।।
दुर्जनवचनचपेटां निष्ठुरकटुकं सहन्ते सत्पुरुषाः।
कर्ममलनाशनार्थं भावेन च निर्ममाः श्रमणाः।। १०७।।

अर्थः––सत्पुरुष मुनि हैं वे दुर्जनके वचनरूप चपेट जो निष्ठुर (कठोर) दयारहित और
कट्ठक (सुनते ही कानोंको कड़े शूल समान लगे) ऐसी चपेट हैं उसको सहते हैं। वे किसलिये
सहते हैं? कर्मोंका नाश होने के लिये सहते हैं। पहले अशुभ कर्म बाँधे थे उसके निमित्त से
दुर्जनने कटुक वचन कहे, आपने सुने, उसको उपशम
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तें अशुभ भावे मन–वच–तनथी र्क्यो कंई दोष जे,
कर गर्हणा गुरुनी समीपे गर्व–माया छोडीने। १०६।

दुर्जन तणी निष्ठुर–कटुक वचनोरूपी थप्पड सहे
सत्पुरुष निर्ममभावयुत–मुनि कर्ममळलयहेतुए। १०७।

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भावपाहुड][२२३
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
नर–अमर–विद्याधर तणा स्तुतिपात्र छे निश्चितपणे। १०८।
परिणामसे आप सहे तब अशुभकर्म उदय होय खिर गये। ऐसे कटुकवचन सहने से कर्मका
नाश होता है।

वे मुनि सतपुरुष कैसे हैं? अपने भावसे वचनादिकसे निर्ममत्व हैं, वचनसे तथा
मानकषायसे और देहादिकसे ममत्व नहीं है। ममत्व दो तो दुर्वचन सहे न जावें, यह न जाने
कि इसने मुझे दुर्वचन कहे, इसलिये ममत्वके अभावसे दुर्वचन सहते हैं। अतः मुनि होकर
किसी पर क्रोध नहीं करना यह उपदेश है। लौकिक में भी जो बड़े पुरुष हैं वे दुर्वचन सुनकर
क्रोध नहीं करते हैं, तब मुनिको सहना उचित ही है। जो क्रोध करते हैं वे कहनेके तपस्वी हैं,
सच्चे तपस्वी नहीं हैं।। १०७।।

आगे क्षमाका फल कहते हैंः–––––
पावं खवइ असेसं खमाए पडिमंडिओ च मुणिपवरो।
खेवर अमरणराणं पसंसणीओ धुवं होइ।। १०८।।
पापं क्षिपति अशेषं क्षमया परिमंडित च मुनिप्रवरः।
खेचरामरनराणां प्रशंसनीयं ध्रुवं भवति।। १०८।।

अर्थः
––जो मुनिप्रवर
(मुनियोंमें श्रेष्ठ, प्रधान) क्रोधके अभावरूप क्षमासे मंडित हैं वह
मुनि समस्त पापोंका क्षय करता है और विद्याधर – देव – मनुष्यों द्वारा प्रशंसा करने योग्य
निश्चय से होता है।

भावार्थः––क्षमा गुण बड़ा प्रधान है, इससे सबके स्तुति करने योग्य पुरुष होता है। जो
मुनि है उनके उत्तम क्षमा होती है, वे तो सब मनुष्य – देव – विद्याधरोंके स्तुति योग्य होते
ही हैं और उनके सब पापोंका क्षय होता ही है, इसलिये क्षमा करना योग्य है–––ऐसा उपदेश
है। क्रोधी सबके निंदा करने योग्य होता है, इसलिये क्रोधका छोड़ना श्रेष्ठ है।। १०८।।

आगे ऐसे क्षमागुणको जानकर क्षमा करना और क्रोध छोड़ना ऐसा कहते हैः––––
मुनिप्रवर परिमंडित क्षमाथी पाप निःशेषे दहे,

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२२४] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे मुने! तू संसारको असार जानकर उत्तमबोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान
चारित्रकी प्राप्तिके निमित्त अविकार अर्थात् अतिचाररहित निर्मल सम्यग्दर्शन सहित होकर
दीक्षाकाल आदिककी भावना कर।
इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयल जीवाणं।
चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह।। १०९।।
इति ज्ञात्वा क्षमागुण! क्षमस्व त्रिविधेन सकलजीवान्।
चिरसंचित क्रोध शिखिनं वर क्षमासलिलेन सिंच।। १०९।।

अर्थः
––हे क्षमागुण मुने! [जिसके क्षमागुण है ऐसे मुनिका संबोधन है] इति अर्थात्
पूर्वोत्त प्रकार क्षमागुण को जान और सब जीवों पर मन–वचन–काय से क्षमा कर तथा बहुत
कालसे संचित क्रोधरूपीाग्निको शमारूप जलसे सींच अर्थात् शमन कर।

भावार्थः––क्रोधरूपी अग्नि पुरुष के भले गुणोंको दग्ध करने वाली है और परजीवोंका
घात करने वाली है, इसलिये इसको क्षमारूप जलसे बुझाना, अन्य प्रकार यह बुझती नहीं है
और क्षमा गुण सब गुणोंमें प्रधान है। इसलिये यह उपदेश है कि क्रोध को छोड़कर क्षमा ग्रहण
करना।। १०९।।
आगे दीक्षाकालादिककी भावना का उपदेश करते हैंः–––
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियारदंसणविसुद्धो।
उत्तम बोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण।। ११०।।
दीक्षाकालादिकं भावय अविकारदर्शनविशुद्धः।
उत्तमबोधिनिमित्तं असारसाराणि ज्ञात्वा।। ११०।।

भावार्थः––दीक्षा लेते हैं तब संसार, (शरीर) भोगको (विशेषतया) असार जानकर
अत्यंत वैराग्य उत्पन्न होता है, वैसे ही उसके आदि शब्दसे रोगोत्पत्ति, मरणाकालादिक
जानना।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तेथी क्षमागुणधर! क्षमा कर क्वव सौने त्रण विधे;
उत्तम क्षमा जळ सींच तुं चिरकाळना क्रोधाग्निने। १०९।

सुविशुद्धदर्शनधरपणे वरबोधि केरा हेतुए
चिंतव तुं दीक्षाकाळ–आदिक, जाणी सार–असारने। ११०।

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भावपाहुड][२२५
छे बाह्यलिंग अकार्य भावविहीनने निश्चितपणे। १११।
उस समयमें जैसे भाव हों वैसे ही संसारको असार जानकर, विशुद्ध सम्यग्दर्शन सहित होकर,
उत्तमबोधि जिससे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, उसके लिये दीक्षाकालादिक की निरन्तर भावना
करना योग्य है, ऐसा उपदेश है ।। ११०।।

[निरन्तर स्मरणमें रखनाः––––क्या? सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की वृद्धि हेतु हे मुनि!
दीक्षाके समयकी अपूर्व उत्साहमय तीव्र विरक्त दशाको, किसी रोगोत्पत्तिके समय उग्र ज्ञान–
वैराग्य संपत्तिको, किसी दुःखके अवसर पर प्रगट हुई उदासीनताकी भावनाको, किसी उपदेश
तथा तत्त्वविचारके धन्य अवसर पर जगी पवित्र अंतःभावनाको स्मरणमें रखना, निरन्तर
स्वसन्मुखज्ञातापन को धीरज अर्थ स्मरणमें रखना, भूलना नहीं।
(इस गाथाका विशेष
भावार्थ)]
आगे भावलिंग शुद्ध करके द्रव्यलिंग सेवनका उपदेश करते हैंः–––
सेवहि चउविहलिंगं अब्भंतरलिंगसुद्धिमावण्णो।
बाहिरलिंगमकज्जं होइ फुडं भावरहियाणं।। १११।।
सेवस्य चतुर्विधलिंगं अभ्यंतरलिंगशुद्धिमापन्नः।
बाह्यलिंगमकार्यं भवति स्फुटं भावरहितानाम्।। १११।।

अर्थः
––हे मुनिवर! तू अभ्यंतरलिंगी शुद्धि अर्थात् शुद्धताको प्राप्त होकर चार प्रकारके
बाह्यलिंगका सेवन कर, क्योंकि जो भावरहित होते हैं उनके प्रगटपने बाह्यलिंग अकार्य है
अर्थात् कार्यकारी नहीं है।
भावार्थः––जो भावकी शुद्धतासे रहित हैं, जिनके अपनी आत्माका यथार्थ श्रद्धान, ज्ञान,
आचरण नहीं है, उनके बाह्यलिंग कुछ कार्यकारी नहीं है, कारण पाकर तत्काल बिगड़ जाते
हैं, इसलिये यह उपदेश है–––पहिले भावकी शुद्धता करके द्रव्यलिंग धारण करो। यह
द्रव्यलिंग चार प्रकारका कहा है, उसकी सूचना इसप्रकार है–––१ मस्तकके, २ दाढ़ीके और ३
मूछोंके केशोंका लोच करना, तीन चिन्ह तो ये और चौथा नीचे के केश रखना; अथवा १ वस्त्र
का त्याग, २ केशोंका लोच करना, ३ शरीरका स्नानादिसे संस्कार न करना, ४ प्रतिलेखन
मयूरपिच्छिका रखना, ऐसे भी चार प्रकारका बाह्यलिंग कहा है। ऐसे सब बाह्य वस्त्रादिकसे
रहित नग्न रहना, ऐसा नग्नरूप भावविशुद्धि बिना हँसी का स्थान है और कुछ उत्तम फल भी
नहीं है।। १११।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
करी प्राप्त आंतरलिंगशुद्धि सेव चउविध लिंगने;

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२२६] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि भाव बिगड़ने के कारण चार संज्ञा हैं, उनके संसार–भ्रमण होता है,
यह दिखाते हैंः–––
आहारभयपरिग्गहमेहुण सण्णाहि मोहिओ सि तुमं।
भमिओ संसारवणे अणाइकालं अणप्पवसो।। ११२।।
आहारभयपरिग्रह मैथुन संज्ञाभिः मोहितः असि त्वम्।
भ्रमितः संसारवने अनादिकालं अनात्मवशः।। ११२।।

अर्थः
––हे मुने! तूने आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, इन चार संज्ञाओंसे मोहित होकर
अनादिकालसे पराधीन होकर संसाररूप वनमें भ्रमण किया।

भावार्थः–– ‘संज्ञा’ नाम वांछाके जागते रहने (अर्थात् बने रहने) का है, सो आहारकी
वांछा होना, भय होना, मैथुनकी वांछा होना और परिग्रह की वांछा प्राणी के निरन्तर बनी
रहती है, यह जन्मान्तर से चली जाती है, जन्म लेते ही तत्काल प्रगट होती है। इसी के
निमित्त से कर्मोंका बंध कर संसारवन में भ्रमण करता है, इसलिये मुनियोंको यह उपदेश है कि
अब इन संज्ञाओंका अभाव करो।। ११२।।
आगे कहते हैं कि बाह्य उत्तरगुण की प्रवृत्ति भी भाव शुद्ध करके करनाः–––
बाहिरसयणत्तावणतरुमूलाईणि उत्तरगुणाणि।
पालहि भावविशुद्धो पूयालाहं ण ईहंतो।। ११३।।
बहिः शयनातापनतरुमूलादीन् उत्तरगुणान्।
पालय भावविशुद्धः पूजा लाभं न ईहमानः।। ११३।।

अर्थः
––हे मुनिवर! तू भावसे विशुद्ध होकर पूजा–लाभादिकको नहीं चाहते हुए,
बाह्यशयन, आतापन, वृक्षमूलयोग धारण करना, इत्यादि उत्तरगुणोंका पालन कर।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आहार–भय–परिग्रह–मिथुन संज्ञा थकी मोहितपणे
तुं परवशे भटकयो अनादि काळथी भवकानने। ११२।

तरूमूल, आतापन, बहिः शयनादि उत्तरगुणने
तुं शुद्ध भावे पाळ, पूजालाभथी निःस्पृहपणे। ११३।

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भावपाहुड][२२७
तुं भाव प्रथम, द्वितिय, त्रीजा, तुर्य, पंचम तत्त्वने,
भावार्थः––शीतकाल में बाहर खुले मैदानमें सोना – बैठना, ग्रीष्मकाल में पर्वत के
शिखर पर सूर्यसन्मुख आतापनयोग धारना, वर्षा कालमें वृक्षके नीचे योग धरना, जहाँ बूँदें वृक्ष
पर गिरने के बाद एकत्र होकर शरीर पर गिरें। इसमें कुछ प्रासुक का भी संकल्प है और बाधा
बहुत है, इनको आदि लेकर यह उत्तर गुण है, इनका पालन भी भावशुद्धि करके करना।
भावशुद्धि बिना करे तो तत्काल बिगड़े और फल कुछ नहीं है, इसलिये भाव शुद्ध करके करने
का उपदेश है। ऐसा न जानना कि इनको बाह्यमें करने का निषेध करते हैं। इनको भी करना
और भाव भी शुद्ध करना यह आशय है। केवल पूजा – लाभादि के लिये, अपना बड़प्पन
दिखाने के लिये करे तो कुछ फल
(लाभ) की प्राप्ति नहीं है।। ११३।।

आगे तत्त्वकी भावना करने का उपदेश करते हैंः––––
भावहि पढमं तच्चं बदियं तदियं चउत्थं पंचमयं।
तियरणसुद्धो अप्पं अणाइणिहणं तिवग्गहरं।। ११४।।
भावय प्रथमं तत्त्वं द्वितीयं तृतीयं चतुर्थं पंचमकम्।
त्रिकरणशुद्धः आत्मानं अनादिनिधनं त्रिवर्गहरम्।। ११४।।

अर्थः
––हे मुने! तू प्रथम जो जीवतत्त्व उसका चिन्तन कर, द्वितीय अजीवतत्त्वका
चिन्तन कर, तृतीय आस्रवतत्त्व का चिन्तन कर, चतुर्थ बन्धतत्त्वका चिन्तन कर, पँचम
संवरतत्त्वका चिन्तन कर और त्रिकरण अर्थात् मन–वचन–काय, कृत–कारित–अनुमोदना से
शुद्ध होकर आत्मस्वरूपका चिन्तन कर; जो आत्मा अनादिनिधन है और त्रिवर्ग अर्थात् धर्म,
अर्थ तथा काम इनको हरनेवाला है।

भावार्थः––प्रथम ‘जीवतत्त्व’ की भावना तो, ‘सामान्य जीव’ दर्शन–ज्ञानमयी चेतना–
स्वरूप है, उसकी भावना करना। पीछे ऐसा मैं हूँ इसप्रकार आत्मतत्त्वकी भावना करना
दूसरा
अजीवतत्त्व’ है सो सामान्य अचेतन जड़ है, यह पाँच भेदरूप पुद्गल, धर्म,
अधर्म, आकाश, काल हैं इनका विचार करना। पीछे भावना करना कि ये हैं वह मैं नहीं हूँ।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आद्यंत रहित त्रिवर्गहर जीवने, त्रिकरण विशुद्धिए। ११४।

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२२८] [अष्टपाहुड
तीसरा आस्रवतत्त्व’ है वह जीव–पुद्गल के संयोगजनित भाव हैं, इनमें अनादि कर्म
सम्बन्ध से जीवके भाव (भाव–आस्रव) तो राग–द्वेष–मोह हैं और अजीव पुद्गलके भावकर्म के
उदयरूप मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योग द्रव्यास्रव हैं। इनकी भावना करना कि ये
(असद्भूत व्यवहारनय अपेक्षा) मुझे होते हैं, [अशुद्ध निश्चयनयसे] रागद्वेषमोह भाव मेरे हैं,
इनसे कर्मोंका बन्ध होता है, उससे संसार होता है इसलिये इनका कर्त्ता न होना–––[स्वमें
अपने ज्ञाता रहना]।

चौथा
बन्धतत्त्व’ है वह मैं रागमोहद्वेषरूप परिणमन करता हूँ वह तो मेरी चेतनाका
विभाव है, इससे जो बँधते हैं वे पुद्गल हैं, कर्म पुद्गल हैं, कर्म पुद्गल ज्ञानावरण आदि आठ
प्रकार होकर बँधता है, वे स्वभाव–प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चारप्रकार होकर
बँधते हैं, वे मेरे विभाव तथा पुद्गल कर्म सब हेय हैं, संसार के कारण हैं, मुझे रागद्वेष
मोहरूप नहीं होना है, इसप्रकार भावना करना।

पाँचवाँ
संवरतत्त्व’ है वह राग–द्वेष–मोहरूप जीवके विभाव हैं, उनका न होना और
दर्शन–ज्ञानरूप चेतनाभाव स्थिर होना यह ‘संवर’ है, वह अपना भाव है और इसी से पुद्गल
कर्मजनित भ्रमण मिटता है।

इसप्रकार इन पाँच तत्त्वोंकी भावना करने में आत्मतत्त्वकी भावना प्रधान है, उससे
कर्मकी निर्जरा होकर मोक्ष होता है। आत्माका भाव अनुक्रम से शुद्ध होना यह तो
निर्जरातत्त्व’ हुआ और सब कर्मोंका अभाव होना यह ‘मोक्षतत्त्व’ हुआ।
इसप्रकार सात तत्त्वोंकी भावना करना। इसीलिये आत्मतत्त्वका विश्लेषण किया कि
आत्मतत्त्व कैसा है–––धर्म, अर्थ, काम इस त्रिवर्गका अभाव करता है। इसकी भावना से
त्रिवर्ग से भिन्न चौथा पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ है वह होता है। यह आत्मा ज्ञान–दर्शनमयी चेतनास्वरूप
अनादिनिधन है, इसका आदि भी नहीं और निधन
(नाश) भी नहीं है। ‘भावना’ नाम बारबार
अभ्यास करने, चिन्तन करने का है वह मन–वचन–कायसे आप करना तथा दूसरे को कराना
और करने वाले को भला जानना–––ऐसे त्रिकरण शुद्ध करके भावना करना। माया–निदान
शल्य नहीं रखना, ख्याति, लाभ, पूजाका आशय न रखना। इसप्रकार से तत्त्व की भावना
करने से भाव शुद्ध होते हैं।

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भावपाहुड][२२९
स्त्री आदि पदार्थों परसे भेदज्ञानी का विचार।
अर्थः––हे मुने! जबतक वह जीवादि तत्त्वोंको नहीं भाता है और चिन्तन करने योग्य
का चिन्तन नहीं करता है तब तक जरा और मरणसे रहित मोक्षस्थानको नहीं पाता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––

इसप्रकार उदाहरण इसप्रकार है कि–––जब स्त्री आदि इन्द्रियगोचर हों (दिखाई दें)
तब उनके विषयमें तत्त्वविचार करना कि यह स्त्री है वह क्या है? जीवनामक तत्त्वकी पयार्य
है, इसका शरीर है वह तो पुद्गल तत्त्वकी पर्याय है, यह हावभाव चेष्टा करती है, वह इस
जीव के विकार हुआ है यह आस्रवतत्त्व है और बाह्य चेष्टा पुद्गल की है, इस विकार से इस
स्त्री की आत्मा के कर्म का बन्ध होता है। यह विकार इसके न हो तो ‘आस्रव’ ‘बन्ध’ न हों।
कदाचित् मैं भी इसको देखकर विकाररूप परिणमन करूँ तो मेरे भी ‘आस्रव’ ‘बन्ध’ हों।
इसलिये मुझे विकाररूप न होना यह ‘संवर’ तत्त्व है। बन सके तो कुछ उपदेश देकर इसका
विकार दूर करूँ [ऐसा विकल्प राग है] वह राग भी करने योग्य नहीं है––––स्वसन्मुख
ज्ञातापने में धैर्य रखना योग्य है। इसप्रकार तत्त्वकी भावना से अपना भाव अशुद्ध नहीं होता है,
इसलिये जो दृष्टिगोचर पदार्थ हों उनमें इसप्रकार तत्त्वकी भावना रखना, यह तत्त्व की भावना
का उपदेश है।।११४।।

आगे कहते हैं कि ऐसे तत्त्वकी भावना जब तक नहीं है तब तक मोक्ष नहीं हैः–––
जाव ण भावइ तच्चं जाव ण चिंतेइ चिंतणीथाइं।
ताव ण पावइ जीवो श्ररमरणविवज्जियं ठाणं।। ११५।।
यावन्न भावयति तत्त्वं यावन्न चिंतयति चिंतनीयानि।
तावन्न प्राप्नोति जीवः जरामरणविवर्जितं स्थानम्।। ११५।।

भावार्थः––तत्त्वकी भावना तो पहिले कही वह चिन्तन करने योग्य धर्मशुक्ल– ध्यानका
विषयभूत जो ध्येय वस्तु अपना शुद्ध दर्शनज्ञानमयी चेतनाभाव और ऐसी ही अरहंत–सिद्ध
परमेष्ठी का स्वरूप, उसका चिन्तन जब तक इस आत्माके न हो तब तक संसार से निवृत्त
होना नहीं है, इसलिये तत्त्वकी भावना और शुद्धस्वरूपके ध्यानका उपाय निरन्तर रखना यह
उपदेश है।। ११५।।
भावे न ज्यां लगी तत्त्व, ज्यां लगी चिंतनीय न चिंतवे,
जीव त्यां लगी पामे नहीं जर–मरणवर्जित स्थानने। ११५।

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२३०] [अष्टपाहुड
रे! पाप सघळुं, पुण्य सघळुं, थाय छे परिणामथी;
मिथ्या–कषाय–अविरति–योग अशुभलेश्यान्वित वडे,
आगे कहते है कि पाप–पुण्यका और बन्ध–मोक्षका कारण परिणाम ही हैः–––
पावं हवइ असेसं पुण्णमसेसं च हवइ परिणामा।
परिणामादो बंधो मुक्खो जिणसासणे दिट्ठो।। ११६।।
पापं भवति अशेषं पुण्यमशेषं च भवति परिणामात्।
परिणामाद्बंधः मोक्षः जिनशासने द्रष्टः।। ११६।।

अर्थः
––पाप–पुण्य, बंध–मोक्ष का कारण परिणाम ही को कहा है। जीवके मिथ्यात्व,
विषय–कषाय, अशुभलेश्यारूप तीव्र परिणाम होते हैं, उनसे तो पापास्रवका बंध होता है।
परमेष्ठी की भक्ति, जीवों पर दया इत्यादिक मंदकषाय शुभलेश्यारूप परिणाम होते हैं, इससे
पुण्यास्रवका बंध होता है। शुद्धपरिणामरहित विभावरूप परिणाम से बंध होता है। शुद्धभावके
सन्मुख रहना, उसके अनुकूल शुभ परिणाम रखना, अशुभ परिणाम सर्वथा दूर करना, यह
उपदेश है।। ११६।।

आगे पुण्य–पापका बंध जैसे भावोंसे होता है उनको कहते हैं। पहिले पाप–बंधके
परिणाम कहते हैंः––
मिच्छत्त तह कसायासंजमजोगेहिं असुहलेसेहिं।
बंधइ असुहं कम्मं जिणवयणपरम्मुहो जीवो।। ११७।।
मिथ्यात्वं तथा कषायासंयमयोगैः अशुभलेश्यैः।
बध्नति अशुभं कर्मं जिनवचनपराङ्मुखः जीवः।। ११७।।

अर्थः
––मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योग जिनमें अशुभलेश्या पाई जाती है
इसप्रकारके भावोंसे यह जीव जिनवचनसे पराङमुख होता है––––अशुभकर्मको बाँधता है वह
पाप ही बाँधता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परिणामथी छे बंध तेम ज मोक्ष जिनशासनमहीं। ११६।
जिनवचपराङ्मुख आतमा बांधे अशुभरूप कर्मने। ११७।

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भावपाहुड][२३१
विपरीत तेथी भावशुद्धिप्राप्त बांधे शुभने;
भावार्थः––‘मिथ्यात्वभाव’ तत्त्वार्थ का श्रद्धान रहित परिणाम है। ‘कषाय’ क्रोधादिक
हैं। ‘असंयम’ परद्रव्यके ग्रहणरूप है त्यागरूप भाव नहीं, इसप्रकार इन्द्रियोंके विषयोंसे प्रीति
ओर जीवोंकी विराधना सहित भाव है। ‘योग’ मन–वचन–कायके निमित्त से आत्मप्रदेशों का
चलना है। ये भाव जब तीव्र कषाय सहित कृष्ण, नील, कपोत अशुभ लेश्यारूप हों तब इस
जीव के पापकर्म का बंध होता है। पापबंध करनेवाला जीव कैसा है? उसके जिनवचन की
श्रद्धा नहीं है। इस विशेषण का आशय यह है कि अन्यमत के श्रद्धानी के जो कदाचित्
शुभलेश्या के निमित्त से पुण्यका भी बंध हो तो उसको पाप ही में गिनते हैं। जो जिनआज्ञा में
प्रवर्तता है उसके कदाचित् पाप भी बंधे तो वह पुण्य जीवों की ही पंक्ति में गिना जाता है,
मिथ्यादृष्टिको पापी जीवों में माना है और सम्यग्दृष्टिको पुण्यवान् जीवोंमें माना जाता है।
इसप्रकार पापबंधके कारण कहे।। ११७।।
आगे इससे उलटा जीव है वह पुण्य बाँधता है, ऐसा कहते हैंः–––
तव्विवरीओ बंधइ सुहकम्मं भावसुद्धिभावण्णो।
दुविहपयारं बंधइ संखेपेणेव वज्जरियं।। ११८।।
तद्विपरीतः बध्नाति शुभकर्म भावशुद्धिमापन्नः।
द्विविधप्रकारं बध्नाति संक्षेपेणैव कथितम्।। ११८।।

अर्थः
–– उस पूर्वोक्त जिनवचनका श्रद्धानी मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव शुभकर्मको
बाँधता है जिसने कि––––भावों में विशुद्धि प्राप्त है। ऐसे दोनों प्रकार के जीव शुभाशुभ कर्म
को बाँधते हैं, यह संक्षेप से जिनभगवान् ने कहा है।

भावार्थः––पहिले कहा था कि जिनवचनसे पराङमुख मिथ्यात्व सहित जीव है, उससे
विपरीत जिनआज्ञाका श्रद्धानी सम्यग्दृष्टि जीव विशुद्धभाव को प्राप्त होकर शुभ कर्मको बाँधता
है, क्योंकि इसके सम्यक्त्वके महात्म्यसे ऐसे उज्ज्वल भाव हैं जिनसे मिथ्यात्वके साथ बँधने
वाली पापप्रकृतियोंका अभाव है। कदाचित् किंचित् कोई पापप्रकृति बँधती है तो उसका अनुभाग
मंद होता है,
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
–ए रीत बांधे अशुभ–शुभ; संक्षेपथी ज कहेल छे। ११८।

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२३२] [अष्टपाहुड
कुछ तीव्र पापफल का दाता नहीं होता। इसलिये सम्यग्दृष्टि शुभकर्म ही के बाँधने वाला है––
–इसप्रकार शुभ–अशुभ कर्म के बंधका संक्षेप से विधान सर्वज्ञदेवने कहा है, वह जानना
चाहिये।। ११८।।
आगे कहते हैं कि हे मुने! तू ऐसी भावना करः––––
णाणावरणादीहिं य अट्ठहिं कम्मेहिं बेढिओ य अहं।
डहिऊण इण्हिं पयडमि अणंतणाणाइगुणचित्तां।। ११९।।
ज्ञानावरणादिभिः च अष्टभिः कर्मभिः वेष्टितश्च अहं।
दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुण चेतनां।। ११९।।

अर्थः
––हे मुनिवर! तू ऐसी भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से वेष्ठित हूँ,
इसलिये इनको भस्म करके अनन्तज्ञानादि गुण जिनस्वरूप चेतनाको प्रगट करूँ।

भावार्थः––अपने को कर्मों से वेष्ठित माने और उनसे अनन्तज्ञानदि गुण आच्छादित माने
तब उन कर्मोंके नाश करनेका विचार कर, इसलिये कर्मों के बंधकी और उनके अभावकी
भावना करने का उपदेश है। कर्मों का अभाव शुद्धस्वरूप के ध्यान से होता है, उसी के करने
का उपदेश है।
कर्म आठ हैं––––१ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ मोहनीय, ४ अंतराय ये चार घातिया
कर्म हैं, इनकी प्रकृति सैंतालीस हैं, केवलज्ञानावरण से अनन्तज्ञान आच्छादित है,
केवलदर्शनावरण से अनन्तदर्शन आच्छादित है, मोहनीय से अनन्तसुख प्रगट नहीं होता है और
अंतराय से अनन्तवीर्य प्रगट नहीं होता है, इसलिये इनका नाश करो। चार अघाति कर्म हैं
इनसे अव्याबाध, अगुरुलघु, सूक्ष्मता और अवगाहना ये गुण
(–––की निर्मल पयार्य) प्रगट
नहीं होते हैं, इन अघाति कर्मों की प्रकृति एकसौ एक हैं। घातिकर्मों का नाश होने पर
अघातिकर्मों का स्वयमेव अभाव हो जाता है, इसप्रकार जानना चाहिये।। ११६।।

आगे इन कर्मों का नाश होने के लिये अनेक प्रकार का उपदेश है, उसको संक्षेप से
कहते हैंः––––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वेष्टित छुं हुं ज्ञानावरणकर्मादि कर्माष्टक वडे;
बाळी, हुं प्रगटावुं अमितज्ञानादिगुणवेदन हवे। ११९।

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भावपाहुड][२३३
चोराशी लाख गुणो, अढार हवर भेदो शीलना,
सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाइं।
भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्प लावेण किं बहुणा।। १२०।।
शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगुणगणानां लक्षाणि।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किं बहुना।। १२०।।

अर्थः
––शील अठारह हजार भेदरूप है और उत्तरगुण चौरासी लाख हैं। आचार्य कहते
हैं कि हे मुने! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनोंसे क्या? इन शीलोंको और उत्तरगुणों को
सबको तू निरन्तर भा, इनकी भावना – चिन्तन – अभ्यास निरन्तर रख, जैसे इनकी प्राप्ति
हो वैसे ही कर।

भावार्थः––‘आत्मा– जीव’ नामक वस्तु अनन्तधर्म स्वरूप है। संक्षेप से इसकी दो
परिणति हैं, एक स्वाभाविक एक विभाव रूप। इनमें स्वाभाविक तो शुद्धदर्शनज्ञानमयी
चेतनापरिणाम है और विभावपरिणाम कर्म के निमित्त से हैं। ये प्रधानरूप से तो मोहकर्म के
निमित्त से हुए हैं। संक्षेप से मिथ्यात्व रागद्वेष हैं, इनके विस्तार से अनेक भेद हैं। अन्य कर्मों
के उदय से विभाव होते हैं उनमें पौरुष प्रधान नहीं हैं, इसलिये उपदेश–अपेक्षा वे गौण हैं;
इसप्रकार ये शील और उत्तरगुण स्वभाव–विभाव परिणति के भेद से भेदरूप करके कहे हैं।

शील की प्ररूपणा दो प्रकार की है––––एक स्वद्रव्य–परद्रव्य के विभागकी अपेक्षा है
और दूसरे स्त्री के संसर्ग की अपेक्षा है। परद्रव्य का संसर्ग मन, वचन, काय से और कृत,
कारित, अनुमोदना से न करना। इनको आपसमें गुणा करने से नौ भेेद होते हैं। आहार, भय,
मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञा हैं, इनसे परद्रव्य का संसर्ग होता है उसका न होना, ऐसे नौ
भेदोंका चार संज्ञाओं से गुणा करने पर छत्तीस होते हैं। पाँच इन्द्रियोंके निमित्त से विषयों का
संसर्ग होता है, उनकी प्रवृत्ति के अभाव रूप पाँच इन्द्रियों से छत्तीस को गुणा करने पर
एकसौ अस्सी होते हैं। पृथ्वी, अप, तेज, वायु, प्रत्येक, साधारण ये तो एकेन्द्रिय और दो
इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय ऐसे दश भेदरूप जीवोंका संसर्ग, इनकी हिंसारूप
प्रवर्तन से परिणाम विभावरूप होते हैं सो न करना, ऐसे एकसौ अस्सी भेदोंको दस से गुणा
करने पर अठारहसौ होते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
–सघलुंय प्रतिदिन भाव; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला? १२०।

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२३४] [अष्टपाहुड
पाषाण
इन्दिया
चेतन देवी
कृत
परिग्रह
मनुष्यिणी
द्रव्य
प्रत्याख्यानावरण
क्रोधादिक कषाय और असंयम परिणाम से परद्रव्य संबंधी विभाव परिणाम होते हैं उनके
अभावरूप दसलक्षण धर्म है, उनसे गुणा करने से अठारह हजार होते हैं। ऐसे परद्रव्य के
संसर्गरूप कुशील के अभावरूप शीलके अठारह हजार भेद हैं। इनके पालने से परम ब्रह्मचर्य
होता है, ब्रह्म
(
आत्मा
)
में प्रर्वतने और रमने को ‘ब्रह्मचर्य’ कहते हैं।

स्त्रीके संसर्ग की अपेक्षा इसप्रकार है–– स्त्री दो प्रकार की है, अचेतन स्त्री काष्ठ
पाषाण लेप
(
चित्राम
)
ये तीन, इनका मन और काय दो से संसर्ग होता है, यहाँ वचन नहीं है
इसलिये दो से गुणा करने पर छह होते हैं। कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर
अठारह होते हैं। पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर नब्बे होते हैं। द्रव्य–भावसे गुणा करने पर
एकसौ अस्सी होते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से गुणा करने पर सातसो
बीस होते हैं। चेतन स्त्री देवी, मनुष्यिणी, तिर्यंचणी ऐसे तीन, इन तीनों को मन, वचन,
कायसे गुणा करने पर नौ होते हैं। इनको कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर सत्ताईस
होते हैं। इनको पाँच इन्द्रियों से गुणा करने पर एकसौ पैंतीस होते हैं। इनको द्रव्य और भाव
इन दो से गुणा करने पर दो सौ सत्तर होते हैं। इनको चार संज्ञासे गुणा करने पर एक
हजार अस्सी होते हैं। इनको अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन,
क्रोध, मान, माया, लोभ इन सोलह कषायोंसे गुणा करने पर सत्रह हजार दो सौ अस्सी होते
हैं। ऐसे अचेतन स्त्रीके सातसौ बीस मिलाने पर अठारह हजार होते हैं। ऐसे स्त्रीके संसर्ग
से विकार परिणाम होते हैं सो कुशील है, इनके अभाव परिणाम शील है इसकी भी ‘ब्रह्यचर्य’
संज्ञा है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अचेतनः काष्ठ,
मन
कृतकारित
द्रव्य
क्रोध, मान,
स्त्री चित्राम
काय
अनुमोदना
भाव
मान,
लोभ
७२०

आहार
अनंतानुबन्धी क्रोध
मन
अप्रत्याख्यानावरण मान
स्त्री
वचन कारित इन्द्रियाँ
भय
माया
तिर्यंचिणी
काय
अनुमोदना
भाव
मैथुन
संज्वलन
लोभ
४ ४ ४
१७२८०
–––
–––
१८०००

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भावपाहुड][२३५
चौरासी लाख उत्तरगुण ऐसे हैं जो आत्माके विभावपरिणामोंके बाह्यकारणोंकी अपेक्षा भेद
होते हैं। उनके अभावरूप ये गुणोंके भेद हैं। उन विभावोंके भेदोंकी गणना संक्षेप से ऐसे है––१
हिंसा, २ अनृत, ३ स्तेय, ४ मैथुन, ५ परिग्रह, ६ क्रोध, ७ मान, ८ माया, ९ लोभ, १०
भय, ११ जुगुप्सा, १२ अरति, १३ शोक, १४ मनोदुष्टत्व, १५ वचनदुष्टत्व, १६
कायदुष्टत्व, १७ मिथ्यात्व, १८ प्रमाद, १९ पैशून्य, २० अज्ञान, २१ इन्द्रियका अनुग्रह ऐसे
इक्कीस दोष हैं। इनको अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार इन चारों से गुणा करने पर
चौरासी होते हैं। पृथ्वी – अप् – तेज – वायु प्रत्येक साधारण ये स्थावर ऐकेन्द्रिय जीव छह
और विकल तीन, पंचेन्द्रिय एक ऐसे जीवोंके दस भेद, इनका परस्पर आरम्भ से घात होता है
इनको परस्पर गुणा करने पर सौ
(१००) होते हैं। इनसे चौरासी को गुणा करने पर चौरासी
सौ होते है, इनको दस ‘शील–विराधने’ से गुणा करने पर चौरासी हजार होते हैं। इन दसके
नाम ये हैं १ स्त्रीसंसर्ग, २ पुष्टरसभोजन, ३ गंधमालयका ग्रहण, ४ सुन्दर शयनासनका ग्रहण,
५ भूषणका मंडन, गीतवादित्रका प्रसंग, ७ धनका संप्रयोजन, ८ कुशीलका संसर्ग, ९
राजसेवा, १० रात्रिसंचरण ये ‘शील – विराधना’ है। इनके आलोचना के दस दोष हैं––
गुरुओं के पास लगे हुए दोषोंकी आलोचना करे सो सरल होकर न करे कुछ शल्य रखें,
उसके दस भेद किये हैं, इनके गुणा करने पर आठ लाख चालीस हजार होते हैं। आलोचना
को आदि देकर प्रायश्चित्तके दस भेद हैं इनसे गुणा करने पर चौरासी लाख होते हैं। सो सब
दोषोंके भेद हैं, इनके अभाव से गुण होते हैं। इनकी भावना रखें, चिन्तन और अभ्यास रखें,
इनकी सम्पूर्ण प्राप्ति होने का उपाय रखें; इसप्रकार इसकी भावना का उपदेश है।
आचार्य कहते हैं कि बारबार बहुत वचनके प्रलापसे तो कुछ साध्य नहीं है, जो कुछ
आत्माके भावकी प्रवृत्तिके व्यवहारके भेद हैं उनकी ‘गुण’ संज्ञा है, उनकी भावना रखना। यहाँ
इतना और जानना कि गुणस्थान चौदह कहें हैं, उस परिपाटीसे गुण दोषों का विचार है।
मिथ्यात्व सासादन मिश्र इन तीनोंमें से तो विभाव परिणति ही है, इनमें तो गुण का विचार ही
नहीं है। अविरत, देशविरत आदिमें शीलगुणका ऐकदेश आता है। अविरतमें मिथ्यात्व
अनन्तानुबन्धी कषाय के अभावरूप गुणका एकदेश सम्यक्त्व और तीव्र रागद्वेषका अभावरूप गुण
आता है और देशविरत में कुछ व्रतका एकदेश आता है। प्रमत्तमें महाव्रत सामायिक चारित्र का
एकदेश आता है क्योंकि पापसंबन्धी रागद्वेष तो वहाँ नहीं है, परन्तु धर्मसंबन्धी राग है और
‘सामायिक’ रागद्वेष के अभाव का नाम है, इसलिये सामायिक का एकदेश ही कहा है। यहाँ
स्वरूपके संमुख होनेमें क्रियाकांडके सम्बन्ध से प्रमाद है, इसलिये ‘प्रमत्त’ नाम दिया है।

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२३६] [अष्टपाहुड
अप्रमत्त में स्वरूप साधन में तो प्रमाद नहीं है, परन्तु कुछ स्वरूपके साधने का राग व्यक्त है,
इसलिये यहाँ भी सामायिक का एकदेश ही कहा है। अपूर्वकरण–अनिवृत्तिकरण में राग व्यक्त
नहीं है, अव्यक्तकषायका सद्भाव है, इसलिये सामायिक चारित्र की पूर्णता कही।
सूक्ष्मसांपरायमें अव्यक्त कषाय भी सूक्ष्म रह गई, इसलिये इसका नाम ‘सूक्ष्मसांपराय’ रखा।
उपशांतमोह क्षीणमोहमें कषायका अभाव ही है, इसलिये जैसा आत्माका मोह विकाररहित शुद्धि
स्वरूप था उसका अनुभव हुआ, इसलिये ‘यथाख्यातचरित्र’ नाम रखा। ऐसे मोहकर्मके
अभावकी अपेक्षा तो यहाँ ही उत्तर गुणोंकी पूर्णता कही जाती है, परन्तु आत्माका स्वरूप
अनन्तज्ञानादि स्वरूप है सो घातिकर्मके नाश होने पर आनन्तज्ञानादि प्रगट होते हैं तब
‘सयोगकेवली’ कहते हैं। इसमें भी कुछ योगोंकी प्रवृत्ति है, इसलिये ‘अयोगकेवली’ चौदहवाँ
गुणस्थान है। इसमें योगों की प्रवृत्ति मिट कर आत्मा अवस्थित हो जाती है तब चौरासी लाख
उत्तरगुणोंकी पूर्णता कही जाती है। ऐसे गुणस्थानोंकी अपेक्षा उत्तरगुणोंकी प्रवृत्ति विचारने योग्य
है। ये बाह्य अपेक्षा भेद हैं, अंतरंग अपेक्षा विचार करें तो संख्यात, असंख्यात, अनन्तभेद होते
हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। १२०।।

आगे भेदोंके विकल्पसे रहित होकर ध्यान करनेका उपदेश करते हैंः–––
झायहि धम्मं सुक्कं अट्ट रउद्दं च झाण मुत्तूण।
रुद्दट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं।। १२१।।
ध्याय धर्म्यं शुक्लं आर्त्तं रौद्रं च ध्यानं मुक्त्वा।
रौद्रार्त्ते ध्याते अनेन जीवेन चिरकालम्।। १२१।।

अर्थः
–– हे मुनि! तू आर्त्त – रौद्र ध्यानको छोड़ और धर्म – शुक्लध्यान है उन्हें ही
कर, क्योंकि रौद्र और आर्त्तध्यान तो इस जीवने अनादिकालसे बहुत समय तक किये हैं।
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ध्या धर्म्य तेमज शुक्लने, तक्व आर्त तेम ज रौद्रने;
चिरकाळ ध्यायां आर्त तेम ज रौद्र ध्यानो आ जीवे। १२१।