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भावपाहुड][१५७ पंचेन्द्रिय पशु – पक्षी – जलचर आदिमें परस्पर घात तथा मनुष्यादि द्वारा वेदना, भूख, तृषा, रोकना, बध–बंधन इत्यादि द्वारा दुःख पाये। इसप्रकार तिर्यंचगति में असंख्यात अनन्तकालपर्यंत दुःख पाये ।। १०।। आगे मनुष्यगति के दुःखोंको कहते हैंः–––
दुक्खाइं मणुयजम्मे पत्तो सि अणंतयं कालं।। ११।।
दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोऽसि अनन्तकं कालं।। ११।।
अर्थः––हे जीव! तुने मनुष्यगति में अनंतकाल तक आगंतुक अर्थात् अकस्मात्
वज्रपातादिकका आ–गिरना, मानसिक अर्थात् मन में ही होने वाले विषयों की वांछा होना और
तदनुसार न मिलना, सहज अर्थात् माता, पितादि द्वारा सहजसे ही उत्पन्न हुआ तथा राग–
द्वेषादिक से वस्तुके इष्ट–अनिष्ट मानने के दुःखका होना, शारीरिक अर्थात् व्याधि, रोगादिक
तथा परकृत छेदन, भेदन आदिसे हुए दुःख ये चार प्रकार के और चार से इनको आदि लेकर
अनेक प्रकार के दुःख पाये ।। ११।।
आगे देवगति के दुःखों को कहते हैंः–––
संपत्तो सि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ।। १२।।
संप्राप्तोऽसि महायश! दुःखं शुभभावनारहितः।। १२।।
उपादानका–योग्यताका ज्ञान करानेके लिये यह उपचरित व्यवहार से कथन है।]
दुःखो लह्यां निःसीम काळ मनुष्य करो जन्ममां। ११।
सुर–अप्सराना विरहकाळे हे महायश! स्वर्गमां,
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१५८] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे महाशय! तुने सुरनिलयेषु अर्थात् देवलोक में सुरप्सरा अर्थात् प्यारे देव तथा प्यारी अप्सरा के वियोगकाल में उसके वियोग संबन्धी दुःख तथा इन्द्रादिक बडे़ ऋद्धिधारियोंको देख कर अपने को हीन मानने के मानसिक तीव्र दुःखोंको शुभभावना से रहित होकर पाये हैं। भावार्थः––यहाँ ‘महाशय’ इसप्रकार सम्बोधन किया। उसका आशय यह है कि जो मुनि निर्गं्रथलिंग धारण करे और द्रव्यलिंगी मुनिकी समस्त क्रिया करे, परन्तु आत्मा के स्वरूप शुद्धोपयोग के सन्मुख न हो उसको प्रधानतया उपदेश है कि मुनि हुआ वह तो बड़ा कार्य किया, तेरा यश लोकमें प्रसिद्ध हुआ, परन्तु भली भावना अर्थात् शुद्धात्मतत्त्वका अभ्यास उसके बिना तपश्चरणादि करके स्वर्गमें देव भी हुआ तो वहाँ भी विषयोंका लोभी होकर मानसिक दुःखसे ही तप्तायमान हुआ।। १२।। आगे शुभभावना से रहित अशुभ भावना का निरूपण करते हैंः––
भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ।। १३।।
भावयित्वा द्रव्यलिंगी प्रहीणदेवः दिवि जातः।। १३।।
अर्थः––हे जीव! तू द्रव्यलिंगी मुनि होकर कान्दर्पी आदि पाँच अशुभ भावना भाकर
प्रहीणदेव अर्थात् नीच देव होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ।
भावार्थः––कान्दर्पी, किल्विषिकी, संमोही, दानवी और अभियोगिकी–––ये पाँच अशुभ
किल्विष आदि नीच देव होकर मानसिक दुःख को प्राप्त होता है।। १३।।
आगे द्रव्यलिंगी पार्श्वस्थ आदि होते हैं उनको कहते हैंः––
तुं स्वर्गलोके हीन देव थयो, दरवलिंगीपणे,
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भावपाहुड][१५९
भाउण दुहं पत्तो कु भावणा भाव बीएहिं।। १४।।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावना भाव बीजैः।। १४।।
अर्थः––हे जीव! तू पार्श्वस्थ भावना से अनादिकालसे लेकर अनन्तबार भाकर दुःखको
प्राप्त हुआ। किससे दुःख पाया? कुभावना अर्थात् खोटी भावना, उसका भाव वे ही हुए दुःखके
बीज, उनसे दुःख पाया।
भावार्थः––जो मुनि कहलावे और वास्तिका बाँधकर आजीविका करे उसे ‘पार्श्वस्थ’
वेषधारी को ‘कुशील’ कहते हैं। जो वैद्यक ज्योतिषविद्या मंत्रकी आजिविका करे, राजादिकका
सेवक होवे इसप्रकार के वेषधारीको ‘संसक्त’ कहते हैं। जो जिनसूत्र से प्रतिकूल, चारित्र से
भ्रष्ट आलसी, इसप्रकार वेषधारी को ‘अवसन्न’ कहते हैं। गुरुका आश्रय छोड़कर एकाकी
स्वच्छन्द प्रवर्ते, जिन आज्ञाका लोप करे, ऐसे वेषधारीको ‘मृगचारी’ कहते हैं। इसकी भावना
भावे वह दुःख ही को प्राप्त होता है।। १४।।
ऐसे देव होकर मानसिक दुःख पाये इसप्रकार कहते हैंः––
होऊण हीणदेवो पत्तो बहु माणसं दुक्खं।। १५।।
भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दुःखम्।। १५।।
अर्थः––हे जीव! तू हीन देव होकर अन्य महद्धिक देवोंके गुण, विभूति और ऋद्धि का
अनेक प्रकारका महात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुःखोंको प्राप्त हुआ।
ते भावीने दुर्भावनाद्नक बीजथी दुःखो लह्यां। १४।
रे! हीन देव थई तुं पाम्यो तीव्र मानस दुःखने,
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१६०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––स्वर्गमें हीन देव होकर बड़े ऋद्धिधारी देवके अणिमादि गुणकी विभूति देखे तथा देवांगना आदि का बहुत परिवार देखे और आज्ञा, ऐश्वर्य आदिका महात्म्य देखे तब मनमें इसप्रकार विचारे कि मैं पुण्यरहित हूँ, ये बड़े पुण्यवान् हैं, इनके ऐसी विभूति महात्म्य ऋद्धि है, इसप्रकार विचार करनेसे मानसिक दुःख होता है।। १५।। आगे कहते हैं कि अशुभ भावनासे नीच देव होकर ऐसे दुःख पाते हैं, ऐसा कह कर इस कथनका संकोच करते हैंः–––
होऊण कुदेवत्तं पत्तो सि अणेयवाराओ।। १६।।
भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तः असि अनेकवारान्।। १६।।
अर्थः––हे जीव! तू चार प्रकार की विकथा में आसक्त होकर, मद से मत्त और जिसके
अशुभ भावना का ही प्रकट प्रयोजन है इसप्रकार अनेकबार कुदेवपने को प्राप्त हुआ।
भावार्थः––स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा और राजकथा इन चार विकाथाओंमें
भावना ही का प्रयोजन धारण कर अनेकबार नीच देवपनेको प्राप्त हुआ, वहाँ मानसिक दुःख
पाया।
यहाँ यह विशेष जानने योग्य है कि विकथादिकसे नीच देव भी नहीं होता है, परन्तु
विकथादिकमें रक्त हो तब नीच देव होता है, इसप्रकार जानना चाहिये।। १६।।
आगे कहते हैं कि ऐसी कुदेवयोनि पाकर वहाँ से चय जो मनुष्य तिर्यंच होवे, वहाँ गर्भमें
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भावपाहुड][१६१
वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीय मुणिवयर।। १७।।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर!।। १७।।
अर्थः––हे मुनिप्रवर! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की वस्तीमें
बहुकाल रहा। कैसे है वह वस्ती? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, वीभत्स (घिनवानी) है और
भावार्थः––यहाँ ‘मुनिप्रवर’ ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूप से मुनियोंको उपदेश है। जो
कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारणकर चार गतियोंमें ही भ्रमण किया, देव भी हुआ
तो वहाँ से चयकर इसप्रकारके मलिन गर्भवासमें आया, वहाँ भी बहुतबार रहा।। १७।।
आगे फिर कहते हैं कि इसप्रकारके गर्भवास से निकलकर जन्म लेकर माताओं का दूध
अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं।। १८।।
अन्यासामन्यासां महायश! सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १८।।
अर्थः–– हे महाशय! उस पूर्वोक्त गर्भवास में अन्य–अन्य जन्ममें अन्य–अन्य माता के
स्तन दूध तूने समूद्रके जलसे भी अतिशयकर अधिक पिया है।
निकृष्टमळभरपूर, अशूचि, बीभत्स गर्भाशय विषे। १७।
जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनुं
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१६२] [अष्टपाहुड
भावार्थः–– जन्म–जन्ममें अन्य–अन्य माता के स्तनका दूध इतना पिया कि उसको एकत्र करें तो समुद्र के जलसे भी अतिशयकर अधिक हो जावे। यहाँ अतिशयका अर्थ अनन्तगुणा जानना, क्योंकि अनन्तकाल का एकत्र किया हुआ दूध अनन्तगुणा हो जाता है।। १८।। आगे फिर कहते हैं कि जन्म लेकर मरण किया तब माताके रोने के अश्रुपातका जल भी इतना हुआः––
रुण्णाण णयणणीरं सायरसलिलादु अहिययरं।। १९।।
रुदितानां नयननीरं सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १९।।
अर्थः–– हे मुने! तूने माताके गर्भमें रहकर जन्म लेकर मरण किया, वह तेरे मरणसे
अन्य–अन्य जन्ममें अन्य–अन्य माताके रुदनके नयनोंका नीर एकत्र करें तब समुद्रके जलसे भी
अतिशयकर अधिकगुणा हो जावे अर्थात् अनन्तगुणा हो जावे।
आगे फिर कहते हैं कि जितने संसार में जन्म लिये, उनमें केश, नख, नाल कटे,
पुंजइ जइ को वि जए हयदि य गिरिसमधिया
रासी।। २०।।
पुञ्जयति यदि कोऽपि देवः भवति च गिरिसमाधिकः राशिः।। २०।।
अर्थः––हे मुने! इस अनन्त संसारसागरमें तूने जन्म लिये उनमें केश, नख, नाल और
अस्थि कटे, टूटे उनका यदि देव पुंज करे तो मेरू पर्वतसे भी अधिक राशि हो जाये,
अनन्तगुणा हो जावे।। २०।।
नयनो थकी जळ जे वह्यां ते उदधिजळथी अति घणां। १९।
निःसीम भवमां त्यक्त तुज नख–नाळ–अस्थि–केशने
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भावपाहुड][१६३
उषितोऽसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः।। २१।।
अर्थः––हे जीव! तू जलमें, थल अर्थात् भूमिमें, शिखि अर्थात् अग्निमें, पवन में, अम्बर
अर्थात् आकाश में, गिरि अर्थात् पर्वतमें, सरित् अर्थात् नदीमें, दरी पर्वतकी गुफा में, तरु
अर्थात् वृक्षोंमें, वनोंमें और अधिक क्या कहें सब ही स्थानोंमें, तीन लोकमें अनात्मवश अर्थात्
पराधीन होकर बहुत काल तक रहा अर्थात् निवास किया।
भावार्थः–– निज शुद्धात्माकी भावना बिना कर्म के आधीन होकर तीन लोकमें सर्व दुःख
आगे कहते हैं कि हे जीव! तूने इस लोकमें सर्व पुद्गल भक्षण किये तो भी तृप्त नहीं
पत्तो सि तो ण तितिं १पुणरुत्तं ताइं भुजंतो।। २२।।
प्राप्तोऽसि तन्न तृप्तिं पुनरुक्तान् तान भुंजानः।। २२।।
पाठान्तर ‘वणाइं’, ‘वणाई’।
वण आत्मवशता चिर वस्यो सर्वत्र तुं त्रण भुवनमां। २१।
भक्षण कर्यां तें लोकवर्ती पुद्गलोने सर्वने,
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१६४] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे जीव! तूने इस लोकके उदय में वर्तते जो पुद्गल स्कन्ध, उन सबको ग्रसे अर्थात् ग्रहण किये और उनही को पुनरुक्त अर्थात् बारबार भोगता हुआ भी तृप्ति को प्राप्त न हुआ। फिर कहते हैंः––
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं।। २३।।
तदपि न तृष्णाछेदः जातः चिन्तय भवमथनम्।। २३।।
अर्थः––हे जीव! तूने इस लोक में तृष्णासे पीड़ित होकर तीन लोकका समस्त जल
पिया, तो भी तृषाका व्युच्छेद न हुआ अर्थात् प्यास न बुझी, इसलिये तू इस संसारका मथन
अर्थात् तेरे संसारका नाश हो, इसप्रकार निश्चय रत्नत्रयका चिन्तन कर।
भावार्थः––संसारमें किसी भी तरह तृप्ति नहीं है, जैसे अपने संसारक अभाव हो वैसे
उपदेश है।। २३।।
आगे फिर कहते हैंः––
ताणं णत्थि पमाणं अणंत भवसायरे धीर।। २४।।
तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर!।। २४।।
अर्थः–– हे मुनिवर! हे धीर! तूने इस अनन्त भवसागरमें कलेवर अर्थात् शरीर
तोपण तृषा छेदाई ना; चिंतव अरे! भवछेदने। २३।
हे धीर! हे मुनिवर! ग्रह्यां–छोड्यां शरीर अनेक तें,
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भावपाहुड][१६५ अनेक ग्रहण किये और छोडे़, उनका परिमाण नहीं है। भावार्थः––हे मुनिप्रधान! तू इस शरीरसे कुछ स्नेह करना चाहता है तो इस संसारमें इतने शरीर छोड़े और ग्रहण किये कि उनका कुछ परिमाण भी नहीं किया जा सकता है। आगे कहते हैं कि जो पर्याय स्थिर नहीं है, आयुकर्मके आधीन है वह अनेक प्रकार क्षीण हो जाती हैः––
आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ।। २५।।
रसविज्जजोयधारण अणयपसंगेहिं विविहेहिं।। २६।।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तो सि तं मित्त।। २७।।
आहारोच्छ्वासानां निरोधनात् क्षीयते आयु।। २५।।
हिमज्वलनसलिल गुरुतर पर्वततरु रोहणपतनभङ्गैः।
रसविद्यायोगधारणानय प्रसंगैः विविधैः।। २६।।
इति तिर्यग्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उत्पद्य बहुवारम्
अपमृत्यु महादुःखं तीव्रं प्राप्तोऽसि त्वं मित्र?।। २७।।
आयुष्यनो क्षय थाय छे आहार–श्वासनिरोधथी। २५।
हिम–अग्नि–जळथी, उच्च–पर्वत वृक्षरोहणपतनथी,
अन्याय–रसविज्ञान–योगप्रधारणादि प्रसंगथी। २६।
हे मित्र! ए रीत जन्मीने चिरकाळ नर–तिर्यंचमां,
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१६६] [अष्टपाहुड अर्थः––विषभक्षणसे, वेदना की पीड़ा के निमित्तसे, रक्त अर्थात् रुधिरके क्षय से, भयसे, शस्त्रके घात से, संक्लेश परिणामसे, आहार तथा श्वासके निरोधसे इन कारणोंसे आयुका क्षय होता है। हिम अर्थात् शीत पालेसे, अग्निसे, जलसे, बड़े पर्वत पर चढ़कर पड़नेसे, बडे़ वृक्ष पर चढ़कर गिरनेसे, शरीरका भंग होनेसे, रस अर्थात् पारा आदिकी विद्या उसके संयोग से धारण करके भक्षण करे इससे, और अन्याय कार्य, चोरी, व्यभिचार आदिके निमित्तसे –––इसप्रकार अनेकप्रकारके कारणोंसे आयुका व्युच्छेद (नाश) होकर कुमरण होता है। इसलिये कहते हैं कि हे मित्र! इसप्रकार तिर्यंच मनुष्य जन्ममें बहुतकाल बहुतबार उत्पन्न होकर अपमृत्यु अर्थात् कुमरण सम्बन्धी तीव्र महादुःखको प्राप्त हुआ। भावार्थः––इस लोकमें प्राणीकी आयु (जहाँ सोपक्रम आयु बंधी है उसी नियम के अनुसार) तिर्यंच–मनुष्य पर्यायमें अनेक कारणोंसे छिदती है, इससे कुमरण होता है। इससे मरते समय तीव्र दुःख होता है तथा खोटे परिणामोंसे मरण कर फिर दुर्गतिही में पड़ता है; इसप्रकार यह जीव संसार में महादुःख पाता है। इसलिये आचार्य दयालु होकर बारबार दिखाते हैं और संसारसे मुक्त होनेका उपदेश करते हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५–२६–२७।। आगे निगोद के दुःख को कहते हैंः–––
अतोमुहुत्तममज्झे पत्तो सि निगोयवासम्मि।। २८।।
अन्तर्मुहूर्त्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे।। २८।।
अर्थः––हे आत्मन! तू निगोद के वास में एक अंतर्मुहूर्त्त में छियासठ हजार तीनसौ
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भावपाहुड][१६७
भावार्थः––निगोद में एक श्वास में अठारहवें भाग प्रमाण आयु पाता है। वहाँ एक मुहूर्त्तके सैंतीससौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास गिनते हैं। उनमें छत्तीससौ पिच्यासी श्वासोच्छ्वास और एक श्वासके तीसरे भागके छ्यासठ हजार तीनसौ छत्तीस बार निगोद में जन्म–मरण होता है। इसका दुःख यह प्राणी सम्यग्दर्शनभाव पाये बिना मिथ्यात्वके उदयके वशीभूत होकर सहता है। भावार्थः––अंतर्मुहूर्त्तमें छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म–मरण कहा, वह अठ्यासी श्वास कम मुहूर्त्त इसप्रकार अंतर्मुहूर्त्त जानना चाहिये।। २८।। [विशेषार्थः–––गाथामें आये हुए ‘निगोद वासम्मि’ शब्द की संस्कृत छाया में ‘निगोत वासे’ है। निगोद एकेन्द्रिय वनस्पति कायिक जीवोंके साधारण भेदमें रूढ़ है, जब कि निगोत शब्द पांचों इन्द्रियोंके सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके लिये प्रयुक्त होता है। अतः यहाँ जो ६६३३६ बार मरण की संख्या है वह पांचों इन्द्रियों को सम्मिलित समझाना चाहिये।। २८।।] इसही अंतर्मुहूर्त्तके जन्म–मरण में क्षुद्रभवका विशेष कहते हैंः–––
पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतोमुहुत्तस्स।। २९।।
पंचेन्द्रियाणां चतुर्विंशति क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्त्तस्य।। २९।।
अर्थः––इस अंतर्मुहूर्त्तके भवोंमें दो इन्दियके क्षुद्रभव अस्सी, तेइन्द्रियके साठ, चौइन्द्रिय
के चालीस और पंचेन्द्रियके चौबीस, इसप्रकार हे आत्मन्! तू क्षुद्रभव जान।
भावार्थः––क्षुद्रभव अन्य शास्त्रों में इसप्रकार गने हैं। पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और
स्थानोंके भव तो एक––एकके छह हजार बार उसके छ्यासठ हजार एकसौ बत्तीस हुए और
इस गाथा में कहे वे भव दो इन्द्रिय आदिके दो सौ वार, ऐसे ६६३३६ एक अंतर्मुहूर्त्तमें क्षुद्रभव
हैं।। २९।।
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१६८] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि हे आत्मन्! तूने इस दीर्घसंसार में पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयकी प्राप्ति बिना भ्रमण किया, इसलिये अब रत्नत्रय धारण करः––
इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तय समायरह।। ३०।।
इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर।। ३०।।
अर्थः––हे जीव! तूने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिये इस
दीर्घकालसे – अनादि संसारमें पहिले कहे अनुसार भ्रमण किया, इसप्रकार जानकर अब तू
उस रत्नत्रयका आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है।
भावार्थः––निश्चय रत्नत्रय पाये बिना यह जीव मिथ्यात्वके उदयसे संसार में भ्रमण
आगे शिष्य पूछता है कि वह रत्नत्रय कैसा है? उसका समाधान करते हैं कि रत्नत्रय
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति।। ३१।।
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति।। ३१।।
अर्थः––जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूपका अनुभव कर तद्रुप होकर श्रद्धान
करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्माको जानना सम्यग्ज्ञान है,
भाख्युं जिनोए आम; तेथी रत्नत्रयने आचरो। ३०।
निज आद्नमां रत क्वव जे ते प्रगट सम्यग्द्रष्टि छे,
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भावपाहुड][१६९ उस आत्मामें आचरण करके रागद्वेषरूप न परिणमना सम्यक्चारित्र है। इसप्रकार यह निश्चयरत्नत्रय है, मोक्षमार्ग है। भावार्थः––आत्माका श्रद्धान–ज्ञान–आचरण निश्चयरत्नत्रय है और बाह्यमें इसका व्यवहार – जीव अजीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान, तथा जानना और परद्रव्य परभावका त्याग करना इसप्रकार निश्चय–व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है। वहाँ निश्चय तो प्रधान है, इसके बिना व्यवहार संसार स्वरूप ही है। व्यवहार है वह निश्चय का साधनस्वरूप है, इसके बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं है और निश्चय की प्राप्ति हो जाने के बाद व्यवहार कुछ नहीं है इसप्रकार जानना चाहिये।। ३१।। आगे संसार में इस जीव ने जन्म मरण किये हैं वे कुमरण किये, अब सुमरण का उपदेश कते हैंः–––
भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव!।। ३२।।
भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव!।। ३२।।
अर्थः––हे जीव! इस संसार में अनेक जन्मान्तरोंमें अन्य कुमरण मरण जैसे होते हैं वैसे
तू मरा। अब तू जिस मरण का नाश हो जाय इसप्रकार सुमरण भा अर्थात् समाधिमरण की
भावना कर।
भावार्थः––मरण संक्षेपसे अन्य शास्त्रोंमें सत्रह प्रकार के कहे हैं। वे इसप्रकार हैं––१
पंडितमरण, ७––आसन्नमरण, ८––बालपंडितमरण, ९––सशल्यमरण, १०––पलायमरण, ११–
–वर्शात्तमरण, १२––विप्राणमरण, १३––गृध्रपृष्ठमरण, १४––भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५––
इंगिनीमरण, १६––प्रायोपगमनमरण और १७––केवलिमरण, इसप्रकार सत्रह हैं।
व्यवहार साथमें होते है। निमित्तके बिना अर्थ शास्त्रमें जो कहा है उससे विरूद्ध निमित्त नहीं होता ऐसा समझना।]
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१७०] [अष्टपाहुड
इनका स्वरूप इसप्रकार है – आयुकर्मका उदय समय–समयमें घटता है वह समय– समय मरण है, यह आवीचिकामरण है।। १।। वर्तमान पर्यायका अभाव तद्भवमरण है।। २।। जैसा मरण वर्तमान पर्यायका हो वैसा ही अगली पर्यायका होगा वह अवधिमरण है। इसके दो भेद हैं–––जैसा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग वर्तमानका उदय आया वैसा ही अगली का उदय आवे वह [१] सर्वावधिमरण है और एकदेश बंध–उदय हो तो [२] देशावधिमरण कहलाता है।। ३।। वर्तमान पर्याय का स्थिति आदि जैसा उदय था वैसा अगलीका सर्वतो वा देशतो बंध– उदय न हो वह आद्यन्तमरण है।। ४।। पाँचवाँ बालमरण है, वह पाँच प्रकार का है–––१ अव्यक्तबाल, २ व्यवहारबाल, ३ ज्ञानबाल, ४ दर्शनबाल, ५ चारित्रबाल। जो धर्म, अर्थ, काम इन कामोंको न जाने, जिसका शरीर इनके आचरण के लिये समर्थ न हो वह ‘अव्यक्तबाल’ है। जो लोकके और शास्त्रके व्यवहार को न जाने तथा बालक अवस्था हो वह ‘व्यवहारबाल’ है। वस्तुके यथार्थज्ञान रहित ‘ज्ञानबाल’ है। तत्त्वश्रद्धानरहित मिथ्यादृष्टि ‘दर्शनबाल’ है। चारित्ररहित प्राणी ‘चारित्रबाल’ है। इनका मरना सो बाल मरण है। यहाँ प्रधानरूपसे दर्शनबाल का ही ग्रहण है क्योंकि सम्यक्दृष्टि को अन्यबालपना होते हुए भी दर्शनपंडितता के सद्भावसे पंडितमरण में ही गिनते हैं। दर्शनबालका मरण संक्षेपमें दो प्रकारका कहा है––इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त। अग्निसे, धूमसे, शस्त्रसे, विषसे, जलसे, पर्वतके किनारेपर से गिर ने से, अति शीत–उष्णकी बाधा से, बंधनसे, क्षुधा–तृषाके रोकनेसे, जीभ उखाड़ने से और विरूद्ध आहार करने से बाल (अज्ञानी) इच्छापूर्वक मरे सो ‘इच्छाप्रवृत्त’ है तथा जीने का इच्छुक हो और मर जावे सो ‘अनिच्छाप्रवृत्त’ है।। ५।।
पंडितमरण चार प्रकार का है–––१ व्यवहार पंडित, २ सम्यक्त्वपंडित, ३ ज्ञानपंडित, ४ चारित्रपंडित। लोकशास्त्र के व्यवहार में प्रवीण हो वह ‘व्यवहार पंडित’ है। सम्यक्त्व सहित हो ‘सम्यक्त्वपंडित’ है। सम्यग्ज्ञान सहित हो ‘ज्ञानपंडित’ है। सम्यक्चारित्र सहित हो ‘चारित्रपंडित’ है। यहाँ दर्शन–ज्ञान–चारित्र सहित पंडितका ग्रहण है, क्योंकि व्यवहार–पंडित मिथ्यादृष्टि बालमरण में आ गया।। ६।।
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भावपाहुड][१७१
मोक्षमार्गमें प्रवर्तने वाला साधु संघसे छूटा उसको ‘आसन्न’ कहते हैं। इसमें पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, संसक्त भी लेने; इसप्रकार के पंचप्रकार भ्रष्ट साधुओंका मरण ‘आसन्नमरण’ है। सम्यग्दृष्टि श्रावक का मरण ‘बालपंडित मरण’ है।। ८।। सशल्यमरण दो प्रकार का है––––मिथ्यादर्शन, माया, निदान ये तीन शल्य तो ‘भावशल्य’ है और पंच स्थावर तथा त्रस में असैनी ये ‘द्रव्यशल्य’ सहित हैं, इसप्रकार ‘सशल्यमरण’ है।। ९।। जो प्रशस्तक्रियामें आलसी हो, व्रतादिकमें शक्ति को छिपावे, ध्यानादिक से दूर भागे, इसप्रकार मरण ‘पलायमरण’ है।। १०।। वशार्त्तमरण चार प्रकार का है–––वह आर्त्त – रौद्र ध्यानसहित मरण है, पाँच इन्द्रियोंके विषयोंमें राग–द्वेष सहित मरण ‘इन्द्रियवशार्त्तमरण’ है। साता – असाता की वेदना सहित मरे ‘वेदनावशार्त्तमरण’ है। क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायके वश से मरे ‘कषायवशार्त्तमरण’ है। हास्य विनोद कषाय के वश से मरे ‘नोकषायवशार्त्तमरण’ है ।। ११।। जो अपने व्रत क्रिया चारित्र में उपसर्ग आवे वह सहा भी न जावे और भ्रष्ट होने का भय आवे तब अशक्त होकर अन्न–पानी का त्याग कर मरे ‘विप्राणसमरण’ है।। १२।। शस्त्र ग्रहणका मरण हो ‘गृध्रपृष्ठमरण’ है।। १३।। अनुक्रमसे अन्न–पानीका यथाविधि त्याग कर मरे ‘भक्तप्रत्याख्यानमरण’ है।। १४।। संन्यास करे और अन्यसे वैयावृत्त करावे ‘इंगिनीमरण’ है।। १५।।
प्रायोपगमन संन्यास करे और किसी से वैयावृत्त न करावे, तथा अपने आप भी न करे, प्रतिमायोग रहे ‘प्रायोपगमनमरण’ है।। १६।।
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१७२] [अष्टपाहुड
इसप्रकार सत्रह प्रकार कहे। इनका संक्षेप इसप्रकार है–––मरण पाँच प्रकार के हैं––१ पंडितपंडित, २ पंडित, ३ बालपंडित, ४ बाल, ५ बालबाल। जो दर्शन ज्ञान चारित्र के अतिशय सहित हो वह पंडितपंडित है और इनकी प्रकर्षता जिनके न हो वह पंडित है, सम्यग्दृष्टि श्रावक वह बालपंडित और पहिले चार प्रकारके पंडित कहे उनमेह से एक भी भाव जिसके नहीं है वह बाल है तथा जो सबसे न्यून हो वह बालबाल है। इनमें पंडितपंडितमरण, पंडितमरण और बालपंडितमरण ये तीन प्रशस्त सुमरण कहे हैं, अन्य रीति होवे वह कुमरण है। इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र एकदेश सहित मरे वह ‘सुमरण’ है; इसप्रकार सुमरण करने का उपदेश है।। ३२।। आगे यह जीव संसारमें भ्रमण करता है, उस भ्रमणके परावर्तन का स्वरूप मनमें धारणकर निरूपण करते हैं। प्रथम ही सामान्यरूप लोकके प्रदेशों की अपेक्षासे कहते हैंः–––
जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो।। ३३।।
यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः।। ३३।।
अर्थः––यह जीव द्रव्यलिंग का धारक मुनिपना होते हुए भी जो तीनलोक प्रमाण सर्व
मरण न किया हो।
भावार्थः––द्रव्यलिंग धारण करके भी इस जीवने सर्व लोकमें अनन्तबार जन्म और मरण
भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से मोक्ष की (––निजपरमात्मदशा की) प्राप्ति नहीं हुई––ऐसा
आगे इसी अर्थ को दृढ़ करने के लिये भावलिंग को प्रधान कर कहते हैंः–––
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भावपाहुड][१७३
जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण।। ३४।।
जिनलिंगेन अपि प्राप्तः परम्पराभावरहितेन।। ३४।।
अर्थः––यह जीव इस संसार में जिसमें परम्परा भावलिंग न होने से अनंतकाल पर्यन्त
जन्म–जरा–मरण से पीड़ित दुःख को ही प्राप्त हुआ।
भावार्थः––द्रव्यलिंग धारण किया और उसमें परम्परासे भी भावलिंग की प्राप्ति न हुई
यहाँ आशय इसप्रकार है कि–––द्रव्यलिंग है वह भावलिंग का साधन है, परन्तु
इसप्रकार है तो द्रव्यलिंग पहले क्यों धारण करें? उसको कहते हैं कि–––इसप्रकार माने तो
व्यवहार का लोप होता है, इसलिये इसप्रकार मानना जो द्रव्यलिंग पहिले धारण करना,
इसप्रकार न जानना कि इसी से सिद्धि है। भावलिंगी को प्रधान मानकर उसके सन्मुख उपयोग
रखना, द्रव्यलिंगको यत्नपूर्वक साधना, इसप्रकार का श्रद्धान भला है।। ३४।।
अर्थ – जब यह जीव आगम भाषा से कालादि लब्धिको प्राप्त करता है तथा अध्यात्म भाषा से शुद्धात्माके सन्मुख परिणामरूप स्वसंवेदनज्ञान को प्राप्त करता है।’ (पंचास्तिकाय गा० १५०–१५१ जयसेनाचार्य टीका)(४) विशेष देखो मोक्षमार्गप्रकाशक अ० ९।।
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१७४] [अष्टपाहुड
गहिउज्झियाइं बहुसो अणंतभवसायरे १जीव।। ३५।।
गृहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीवः।। ३५।।
अर्थः––इस जीवने इस अनन्त अपार भवसमुद्रमें लोककाशके जितने प्रदेश हैं उन प्रति
समय समय और पर्याय के आयुप्रमाण काल और जैसा योगकषाय के परिणमनस्वरूप परिणाम
और जैसा गति जाति आदि नाम कर्मके उदयसे हुआ नाम और काल जैसा उत्सर्पिणी–
अवसर्पिणी उनमें पुद्गलके परमाणुरूप स्कन्ध, उनको बहुतबार अनन्तबार ग्रहण किये और
छोडे़।
भावार्थः––भावलिंग बिना लोकमें जितने पुद्गल स्कन्ध हैं उन सबको ही ग्रहण किये
आगे क्षेत्रको प्रधान कर कहते हैंः–––
मुत्तूणट्ठ पएसा जत्थण ढुरुढुल्लिओ जीयो।। ३६।।
मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः।। ३६।।
अर्थः–यह लोक तीनसौ तेतालीस राजू प्रमाण क्षेत्र है, उसके बीच मेरूके नीचे
गोस्तनाकार आठ प्रदेश हैं, उनको छोड़कर अन्य प्रदेश ऐसा न रहा जिसमें यह जीव नहीं
जन्मा – मरा हो।
बहुशः शरीर ग्रह्यां–तज्यां निःसीम भवसागर विषे। ३५।
त्रणशत–अधिक चाळीश–त्रण रज्जुप्रमित आ लोकमां
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भावपाहुड][१७५
भावार्थः––‘ढुरुढुल्लिओ’ इसप्रकार प्राकृत में भ्रमण अर्थके धातुका आदेश है और क्षेत्रपरावर्तन में मेरूके नीचे आठ लोकके मध्यमें हैं उनको जीव अपने शरीरके अष्टमध्य प्रदेश बना कर मध्यदेश उपजता है, वहाँ से क्षेत्रपरावर्तन का प्रारंभ किया जाता है, इसलिये उनको पुनरुक्त भ्रमण में नहीं गिनते हैं।। ३६।। [देखो गो० जी० काण्ड गाथा ५६० पृ० २६६ मूलाचार अ० ९ गाथा १४ पृ० ४२८] आगे यह जीव शरीर सहित उत्पन्न होता है और मरता है, उस शरीरमें रोग होते हैं, उनकी संख्या दिखाते हैंः–––
अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया।। ३७।।
अवशेषे च शरीरे रोगाः भण कियन्तः भणिताः।। ३७।।
अर्थः––इस मनुष्य के शरीर में एक एक अंगुलमें छ्यानवे छ्यानवे रोग होते हैं, तब
कहो, अवशेष समस्त शरीर में कितने रोग कहें।। ३७।।
आगे कहते हैं कि जीव! उन रोगोंका दुःख तूने सहाः–––
एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं।। ३८।।
एवं सहसे महायशः। किं वा बहुभिः लपितैः।। ३८।।
अर्थः––हे महाशय! हे मुने! तूने पूर्वोक्त रोगोंको पूर्वभवोंमें तो परवश सहे, इसप्रकार
ही फिर सहेगा, बहुत कहने से क्या?
तो केटला रोगो, कहो, आ अखिल देह विषे, भला! ३७।
ए रोग पण सघळा सह्या तें पूर्वभवमां परवशे;
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१७६] [अष्टपाहुड
भावार्थः––यह जीव पराधीन होकर सब दुःख सहता है। यदि ज्ञानभावना करे और दुःख आने पर उससे चलायमान न हो, इस तरह स्ववश होकर सहे तो कर्मका नाश कर मुक्त हो जावे, इसप्रकार जानना चाहिये।। ३८।। आगे कहते हैं कि अपवित्र गर्भवास में भी रहाः––
उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं।। ३९।।
उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तेः।। ३९।।
अर्थः––हे मुने! तूने इसप्रकार के मलिन अपवित्र उदर में नव मास तथा दस मास
प्राप्त कर रहा। कैसा है उदर? जिसमें पित्त और आंतोंसे वेष्टित, मूत्रका स्रवण, फेफस अर्थात्
जो रुधिर बिना मेद फूल जावे, कालिज्ज अर्थात् कलेजा, खून, खरिस अर्थात् अपक्व मलसे
मिला हुआ रुधिर श्लेष्म और कृमिजाल अर्थात् लट आदि जीवोंके समूह ये सब पाये जाते हैं–
––इसप्रकार स्त्री के उदर में बहुत बार रहा।। ३९।।
फिर इसी को कहते हैः–––
छद्दिखरिसाण मज्झे जढरे वसिओ सि जणणीए।। ४०।।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः।। ४०।।
अर्थः––हे जीव! तू जननी (माता) के उदर (गर्भ) में रहा, वहाँ माताके और पिताके
त्यां मास नव–दश तुं वस्यो बहु वार जननी–उदरमां ३९।
जननी तणुं चावेल ने खाधेल एठुं खाईने,