Page 57 of 394
PDF/HTML Page 81 of 418
single page version
सूत्रपाहुड][५७
ठाणे ट्ठियसम्मत्तं परलोयसुहंकरो होदि।। १४।।
स्थाने स्थित्तसम्यक्त्वः परलोक सुखंकरः भवति।। १४।।
अर्थः––जो पुरुष जिनसूत्र में तिष्ठता हुआ इच्छाकार शब्दके महान प्रधान अर्थको जानता है और स्थान जो श्रावकके भेदरूप प्रतिमाओंमें तिष्ठता हुआ सम्यक्त्व सहित वर्तता है, आरम्भादि कर्मोंको छोड़ता है, वह परलोक में सुख करने वाला होता है। भवार्थः––उत्कृष्ट श्रावक को इच्छाकार कहते हैं सो जो इच्छाकारके प्रधान अर्थ को जानता है ओर सूत्र अनुसार सम्यक्त्व सहित आरंभादिक छोड़कर उत्कृष्ट श्रावक होता है वह परलोकमें स्वर्ग सुख पाता है।।१४।। आगे कहते हैं कि–जो इच्छाकार के प्रधान अर्थको नहीं जानता और अन्य धर्मका आचरण करता है वह सिद्धिको नहीं पाता हैः––
तह विण पावदि सिद्धिं संसारत्थो पुणो भणिदो।। १५।।
तथापि न प्राप्नोति सिद्धिं संसारस्थः पुनः भणितः।। १५।।
अर्थः––‘अथ पुनः’ शब्दका ऐसा अर्थ है कि–पहली गाथामें कहा था कि जो इच्छाकारके प्रधान अर्थको जानता है वह आचारण करके स्वर्गसुख पाता है। वही अब फिर कहते हैं कि इच्छाकारका प्रधान अर्थ आत्माको चाहना है, अपने स्वरूपमें रुचि करना है। वह इसको जो इष्ट नहीं करता है और अन्य धर्मके समस्त आचरण करता है तो भी सिद्धि अर्थात् मोक्षको नहीं पाता है और उसको संसार में ही रहने वाला कहा है। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
‘ईच्छामि’ योग्य पदस्थ ते परलोकगत सुखने लहे। १४।
Page 58 of 394
PDF/HTML Page 82 of 418
single page version
५८] [अष्टपाहुड
भावार्थः––इच्छाकारका प्रधान अर्थ आपको चाहना है, सो जिसके अपने स्वरूप की रुचिरूप सम्यक्त्व नहीं है, उसको सब मुनि, श्रावककी आचरणरूप प्रवृत्ति मोक्षका कारण नहीं है।।१५।। आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करके उपदेश करते हैंः––
जेण य लहेह मोक्खं तं जाणिज्जह पयत्तेण।। १६।।
येन च लभध्वं मोक्षं तं जानीत प्रयत्नेन।। १६।।
अर्थः––पहिले कहा कि जो आत्मा को इष्ट नहीं करता है उसके सिद्धि नहीं है, इस
ही कारण से हे भव्य जीवों! तुम उस आत्मा की श्रद्धा करो, उसका श्रद्धान करो, मन–वचन–
कायसे स्वरूपमें रुचि करो, इस कारण से मोक्षको पाओ और जिससे मोक्ष पाते हैं उसको
प्रयत्न द्वारा सब प्राकरके उद्यम करके जानो। (भाव पाहुड गा॰ ८७ में भी यह बात है।)
भावार्थः––जिससे मोक्ष पाते हैं उसहकिो जानना, श्रद्धान करना यह प्रधान उपदेश है,
आगे कहते हैं कि जो जिनसूत्र को जानने वाले मुनि हैं उनका स्वरूप फिर दृढ़ करने
भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णण्णं इक्कठाणम्मि्।। १७।।
भुंजीत पाणिपात्रे दत्तमन्येन एकस्थाने।। १७।।
ते आत्मने जाणो प्रयत्ने, मुक्तिने जेथी वरो। १६।
Page 59 of 394
PDF/HTML Page 83 of 418
single page version
सूत्रपाहुड][५९
अर्थः––बाल के अग्रभाग की कोटि अर्थात् अणीमात्र भी परिग्रह का ग्रहण साधुके नहीं होता है। यहाँ आशंका है कि यदि प्ररिग्रह कुछ नहीं है तो आहार कैसे करते हैं? इसका समाधान करते हैं–आहार करते हैं तो पाणिमात्र (करपात्र) अपने हाथ में भोजन करतें हैं, वह भी अन्य का दिया हुआ प्रासुक अन्न मात्र लेते हैं, वह भी एक स्थान पर ही लेते हैं, बारंबार नहीं लेते और अन्य स्थान में नहीं लेते हैं। भावार्थः––जो मुनि आहार ही पर का दिया हुआ प्रासुक योग्य अन्नमात्र निर्दोष एकबार दिनमें अपने हाथमें लेते हैं तो अन्य परिग्रह किसलिये ग्रहण करें? अर्थात् नहीं ग्रहण करें, जिनसूत्र में इसप्रकार मुनि कहें हैं।।१७।। आगे कहते हैं कि अल्प परिग्रह ग्रहण करे उसमें दोष क्या है? उसको दोष दिखाते हैंः––
जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदम्।। १८।।
यदि लाति अल्पबहुकं ततः पुनः याति निगोदम्।। १८।।
अर्थः––मुनि यथाजात रूप हैं। जैसे, जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसे ही नग्नरूप
दिगम्बर मुद्राका धारक है, वह अपने हाथसे तिलके तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता; और
यदि कुछ थोड़ा बहुत लेवे ग्रहण करे तो वह मुनि ग्रहण करने से निगोद में जाता है।
भावार्थः––मुनि यथाजातरूप दिगम्बर निर्गंथको कहते हैं। वह इसप्रकार होकरके भी
मिथ्यात्वका फल निगोद ही है। कदाचित् कुछ तपश्चरणादिक करे तो उससे शुभ कर्म बाँधकर
स्वर्गादिक पावे, तो भी एकेन्द्रिय होकर संसार ही में भ्रमण करता है।
Page 60 of 394
PDF/HTML Page 84 of 418
single page version
६०] [अष्टपाहुड
यहाँ प्रश्न है कि–मुनिके शरीर है, आहार करता है, कमंडलु, पीछी, पुस्तक रखता है, यहाँ तिल–तुषमात्र भी रखना नहीं कहा, सो कैसे? इसका समाधान यह है कि–मिथ्यात्व सहित रागभाव से अपनाकर अपने विषय–कषाय पुष्ट करने के लिये रखे उसको परिग्रह कहते हैं, इस निमित्त कुछ थोड़ा बहुत रखने का निषेध किया है और केवल संयमके निमित्तका तो सर्वथा निषेध नहीं है। शरीर तो आयु पर्यन्त छोड़ने पर भी छूटता नहीं है, इसका तो ममत्व ही छूटता है, सो उसका निषेध किया ही है। जब तक शरीर है तब तक आहार नहीं करें तो सामर्थ्य ही नहीं हो, तब संयम नहीं सधे, इसलिये कुछ योग्य आहार विधिपूर्वक शरीर से रागरहित होते हुए लेकर के शरीर को खड़ा रख कर संयम साधते हैं। कमंडलु बाह्य शौचका उपकरण है, यदि नहीं रखें तो मल–मूत्र की अशुचिता से पंच परमेष्ठी की भक्ति वंदना कैसे करें? और लोक निंद्य हों। पीछी दया का उपकरण है, यदि नहीं रखें तो जीवसहित भूमि आदिकी प्रतिलेखना किससे करें? पुस्तक ज्ञान का उपकरण है, यदि नहीं रखें तो पठन–पाठन कैसे हो? इन उपकरणोंका रखना भी ममत्वपूर्वक नहीं है, इन से राग भाव नहीं है। आहार–विहार–पठन–पाठनकी क्रिया युक्त जब तक तहे तब तक केवलज्ञान भी उत्पन्न नहीं होता है, इन सब क्रियाओं को छोड़कर शरीरका भी सर्वथा ममत्व छोड़ ध्यान अवस्था लेकर तिष्ठे , अपने स्वरूप में तीन हों तब तक परम निर्गरन्थ अवस्था होती है, तब श्रेणी को प्राप्त हुए मुनिराजके केवलज्ञान उत्पन्न होता है, अन्य क्रिया सहित हो तब तक केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, इसप्रकार निर्गरन्थपना मोक्षमार्ग जिनसूत्रमें कहा है।
श्वेताम्बर कहतें हैं कि भवस्थिति पूरी होने पर सब अवस्थाओंमें केवलज्ञान उत्पन्न होता है तो यह कहना मिथ्या है, जिनसूत्र का यह वचन नहीं है। इन श्वेताम्बरोंने कल्पितसूळ बनायें हैं उनमें लिखा होगा। फिर यहाँ श्वेताम्बर कहते हैं कि जो तुमने कहा वह वह तो उत्सर्ग मार्ग है, अपवाद मार्ग में वस्त्रादिक उपकरण रखना कहा है, जैसे तुमने धर्मोपकरण कहे वैसे ही वस्त्रादिक भी धर्मोपकरण हैं। जैसे क्षुधा की बाधा आहार से मिटा कर संयम साधते हैं, वैसे ही शीत आदिकी बाधा वस्त्र आदि से मिटा कर संयम साधते हैं, इसमें विशेष क्या? इसको कहते हैं कि इसमें तो बड़े दोष आते हैं। तथा कोई कहते हैं कि काम विकार उत्पन्न हो तब स्त्री सेवन करे तो इसमें क्या विशेष? इसलिये इसप्रकार कहना युक्त नहीं है।
Page 61 of 394
PDF/HTML Page 85 of 418
single page version
सूत्रपाहुड][६१
क्षुधाकी बाधा तो आहारसे मिटाना युक्त है। आहार के बिना देह अशक्त हो जाता है तथा छूट जावे तो अपघातका दोष आता है; परन्तु शीत आदि की बाधा तो अल्प है, यह तो ज्ञानाभ्यास आदिके साधनसे ही मिट जाती है। अपवाद–मार्ग कहा वह तो जिसमें मुनिपद रहे ऐसी क्रिया करना तो अपवाद–मार्ग है, परन्तु जिस परिग्रह से तथा जिस क्रिया से मुनिपद भ्रष्ट होकर गृहस्थके समान हो जावे वह तो अपवाद–मार्ग नहीं है। दिगम्बर मुद्रा धारण करके कमंडलु–पीछी सहित आहार–विहार–उपदेशादिक में प्रवर्ते वह अपवाद–मार्ग है और सब प्रवृत्ति को छोड़कर ध्यानस्थ हो शुद्धोपयोग में लीन हो जाने को उत्सर्ग–मार्ग कहा है। इसप्रकार मुनिपद अपने से सधता न जानकर किसलिये शिथिलाचारका पोषण करना? मुनि पद की सामर्थ्य न हो तो श्रावकधर्मका ही पालन करना, परम्परा से इसी से सिद्धि हो जावेगी। जिनसूत्र की यथार्थ श्रद्धा रखने से सिद्धि है इसके बिना अन्य क्रिया सब ही संसारमार्ग है, मोक्षमार्ग नहीं है–इसप्रकार जानना।।१८।। आगे इस ही का समर्थन करते हैंः––
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो।। १९।।
स गर्ह्यः जिनवचने परिग्रह रहितः निरागारः।। १९।।
अर्थः––जिसके मत में लिंग जो भेष उसके परिग्रहका अल्प तथा बहुत ग्रहण करना
कहा है वह मत तथा उसका श्रद्धावान पुरुष गर्हित है, निंदायोग्य है, क्योंकि जिनवचन में
परिग्रह ही निरागार है, निर्दोष मुनि है, इसप्रकार कहा है।
भावार्थः––श्वेताम्बरादिक के कल्पित सूत्रोंमें भेषमें अल्प–बहुत परिग्रह का ग्रहण कहा
कहा है ।।१९।।
आगे कहते हैं कि जिनवचनमें ऐसा मुनि वन्दने योग्य कहा हैः––
Page 62 of 394
PDF/HTML Page 86 of 418
single page version
६२] [अष्टपाहुड
णिग्गंथमोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो य।। २०।।
निर्ग्ररंथमोक्षमार्गः स भवति हि वन्दनीयः च।। २०।।
अर्थः––जो मुनि पंच महाव्रत युक्त हो और तीन गुप्ति संयुक्त हो वह संयत है,
संयमवान है और निर्गरन्थ मोक्षमार्ग है तथा वह ही प्रगट निश्चयसे वंदने योग्य है।
भावार्थः––अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह–इन पाँच महाव्रत सहित हो
वंदने योग्य है। जो कुछ अल्प–बहुत परिग्रह रखे सो महाव्रती संयमी नहीं है, यह मोक्षमार्ग
नहीं है और गृहस्थके समान भी नहीं है।।२०।।
आगे कहते हैं कि पूर्वोक्त एक भेष तो मुनिका कहा अब दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावकका
भिक्खं भमेइ पत्ते समिदी भासेण मोणेण।। २१।।
भिक्षां भ्रमति पात्रे समिति भाषया मौनेन।। २१।।
अर्थः––द्वितीय लिंग अर्थात् दूसरा भेष उत्कृष्ट श्रावक जो गृहस्थ नहीं है इसप्रकार
उत्कृष्ट श्रावकका कहा है वह उत्कृष्ट श्रावक ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है, वह भ्रमण करके
भिक्षा द्वारा भोजन करे और पत्ते अर्थात् पात्रमें भोजन करे तथा हाथमें करे और समिति रूप
प्रवर्तता हुआ भाषासमिति रूप बोले अथवा मौन से रहे।
निर्ग्रन्थ मुक्तिमार्ग छे ते; ते खरेखर वंद्य छे। २०।
Page 63 of 394
PDF/HTML Page 87 of 418
single page version
सूत्रपाहुड][६३
भावार्थः––एक तो मुनि यथाजातरूप कहा और दूसरा यह उत्कृष्ट श्रावकका कहा, वह ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक उत्कृष्ट श्रावक है, वह एक वस्त्र तथा कोपीन मात्र धारण करता है और भिक्षा भोजन करता है, पात्र में भी भोजन करता है और करपात्र में भी करता है, समितिरूप वचन भी कहता है अथवा मौन भी रहता है, इसप्रकार यह दूसरा भेष है ।।२१।। आगे तीसरा लिंग स्त्रीका कहते हैंः––
अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेदि।। २२।।
आर्या अपि एकवस्त्रा वस्त्रावरणेन भुंक्ते।। २२।।
अर्थः––स्त्रियोंका लिंग इसप्रकार है–एक काल में भोजन करे, बार–बार भोजन नहीं
करे, आर्यिका भी हो तो एक वस्त्र धारण करे और भोजन करते समय भी वस्त्रके आवरण
सहित करे, नग्न नहीं हो।
भावार्थः––स्त्री आर्यिका भी हो और क्षुल्लिका भी हो; वे दोनों ही भोजन तो दिन में
इसप्रकार तीसरा स्त्रीका लिंग है।।२२।।
आगे कहते हैं कि–वस्त्र धारक के मोक्ष नहीं, मोक्षमार्ग नग्नपणा ही हैः––
Page 64 of 394
PDF/HTML Page 88 of 418
single page version
६४] [अष्टपाहुड
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।। २३।।
नग्नः विमोक्षमार्गः शेषा उन्मार्गकाः सर्वे।। २३।।
अर्थः––जिनशास्त्र में इसप्रकार कहा है कि–वस्त्र को धारण करने वाला सीझता नहीं
है, मोक्ष नहीं पाता है, यदि तीर्थंकर भी हो जबतक गृहस्थ रहे तब तक मोक्ष नहीं पाता है,
दीक्षा लेकर दीगम्बररूप धारण करे तब मोक्ष पावे, क्योंकि नग्नपना ही मोक्षमार्ग है, शेष सब
लिंग उन्मार्ग हैं।
भावार्थः––श्वेताम्बर आदि वस्त्रधारकके भी मोक्ष होना कहते हैं वह मिथ्या है, यह
आगे, स्त्रियोंकी दीक्षा नहीं है इसका कारण कहते हैंः––
भणिओ सुहुमो काओ तासिं कह होइ पवज्जा।। २४।।
भणितः सूक्ष्मः कायः तासां कथं भवति प्रव्रज्या।। २४।।
अर्थः––स्त्रियोंके लिंग अर्थात् योनिमें, स्तनांतर अर्थात् दोनों कूचोंके मथ्यप्रदेश में तथा
कक्ष अर्थात् दोनों कांखों में, नाभिमें सूक्ष्मकाय अर्थात् दृष्टिसे अगोचर जीव कहें हैं, अतः
इसप्रकार स्त्रियोंके १प्रवज्या अर्थात् दीक्षा कैसे हो?
भावार्थः––स्त्रियोंके योनी, स्तन, कांख, नाभिमें पंचेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति निरंतर कहीं है, इनके महाव्रतरूप दीक्षा कैसे हो? महाव्रत कहे हैं वह उपचारसे कहे हैं, परमार्थसे नहीं है, –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ पाठान्तर – प्रवज्या।
नहि वस्त्रधर सिद्धि लहे, ते होय तीर्थंकर भले;
बस नग्न मुक्तिमार्ग छे, बाकी बधा उन्मार्ग छे। २३।
स्त्रीने स्तनोनी पास, कक्षे, योनिमां नाभि विषे,
Page 65 of 394
PDF/HTML Page 89 of 418
single page version
सूत्रपाहुड][६५ स्त्री अपने सामर्थ्य की हद्द को पहुँचकर व्रत धारण करती है इस अपेक्षा से उपचार से महाव्रत कहे हैं।।२४।। आगे कहते हैं कि यदि स्त्री भी दर्शन से शुद्ध होतो पापरहित है, भली हैः––
धोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण पव्वया भणिया।। २५।।
धोरं चरित्वा चारित्रं स्त्रीषु न पापका भणिता।। २५।।
अर्थः––स्त्रियोंमें जो स्त्री दर्शन अर्थात् यथार्थ जिनमत की श्रद्धासे शुद्ध है वह भी
मार्गसे संयुक्त कही गई है। जो घोर चारित्र, तीव्र तपश्चरणादिक आचारणसे पापरहित होती
है इसलिये उसे पापयुक्त नहीं कहते हैं।
भावार्थः––स्त्रियोंमें जो स्त्री सम्यक्त्व सहित हो और तपश्चरण करे तो पाप रहित
आगे कहते हैं कि स्त्रियोंके ध्यानकी सिद्धि भी नहीं हैः––
विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसु ण संकया झाणा।। २६।।
विद्यते मासा तेषां स्त्रीषु न शंकया ध्यानम्।। २६।।
अर्थः––उन स्त्रियोंके चित्तसे शुद्धता नहीं है, वैसे ही स्वभावसे भी उनके ढीला भाव है,
शिथिल परिणाम है और उसके मासा अर्थात् मास–मास में रुधिर का स्राव विद्यमान है उसकी
शंका रहती है, उससे स्त्रियोंके ध्यान नहीं है।
छो चरण घोर चरे छतां स्त्रीने नथी दीक्षा कही। २५।
मनशुद्धि पूरी न नारीने, परिणाम शिथिल स्वभावथी,
Page 66 of 394
PDF/HTML Page 90 of 418
single page version
६६] [अष्टपाहुड
भावार्थः––ध्यान होता है वह चित्त शुद्ध हो, दृढ़ परिणाम हों, किसी तरह की शंका न हो तब होता है, सो स्त्रियोंके यह तीनों ही कारण नहीं हैं तब ध्यान कैसे हो? ध्यानके बिना केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो और केवलज्ञान के बिना मोक्ष नहीं है, श्वेताम्बरादिक मोक्ष कहते हैं वह मिथ्या है ।।२६।। आगे सूत्रपाहुडको समाप्त करते हैं, सामान्यरूप से सुखका कारण कहते हैंः––
इच्छा जाहु णियत्ता ताह णियत्ताइं सव्वदुक्खाइं।। २७।।
इच्छा येभ्यः निवृत्ताः तेषां निवृत्तानि सर्वदुःखानि।। २७।।
अर्थः––जो मुनि ग्राह्य अर्थात् ग्रहण करने योग्य वस्तु आहार आदिकसे तो अल्प–ग्राह्य
हैं, थोड़ा ग्रहण करते हैं, जैसे कोई पुरुष बहुत जलसे भरे हुए समुद्रमें से अपने वस्त्र को
धोनेके लिये वस्त्र धोनेमात्र जल ग्रहण करता है, और जिन मुनियोंके इच्छा निवृत्त हो गई
उनके सब दुःख निवृत्त हो गये।
भावार्थः––जगत में यह प्रसिद्ध है कि जिनके संतोष है वे सुखी हैं, इस न्याय से यह
किंचित्मात्र भी नहीं है, देह से भी विरक्त हैं इसलिये परम संतोषी हैं, और आहारादि कुछ
ग्रहण योग्य हैं उनमें से भी उल्प को ग्रहण करते हैं इसलिये वे परम संतोषी हैं, वे परम सुखी
हैंं, यह जिनसूत्र के श्रद्धानका फल है, अन्य सूत्र में यथार्थ निवृत्तिका प्ररूपण नहीं है, इसलिये
कल्याणके सुख को चाहने वालोंको जिनसूत्रका निरंतर सेवन करना योग्य है ।।२७।।
Page 67 of 394
PDF/HTML Page 91 of 418
single page version
सूत्रपाहुड][६७
सकल तत्त्व परकास करै जगताप निवारै,
करि स्वपर भेद निर्णय सकल, कर्म नाशि शिव लहत मुनि ।।१।।
भव्यपाय शिवमग लहै नमूं तास गुणमाल।।२।।
Page 68 of 394
PDF/HTML Page 92 of 418
single page version
चारित धर्म बखानिये सांचो मोक्ष उपाय ।।१।।
प्राकृत गाथा बंधकी करूं वचनिका पंथ ।।२।।
इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके अब चारित्रपाहुड़ प्राकृत गाथाबद्ध की देशभाषामय वचनिकाका हिन्दी अनुवाद लिखा जाता है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य प्रथम ही मंगलके लिये इष्टदेव को नमस्कार करके चारित्रपाहुड़को कहने की प्रतिज्ञा करते हैंः––
वंदित्तु तिजगवंदा अरहंता भव्वजीवेहिं ।। १।।
णाणं दंसण सम्मं चारित्तं सोहिकारणं तेसिं।
मोक्खाराहणहेउं चारित्तं पाहुडं वोच्छे ।। २।। युग्मम्।
वंदित्वा त्रिजगद्वंदितान् अर्हतः भव्यजीवैः ।। १।।
ज्ञानं दर्शनं सम्यक् चारित्रं शुद्धिकारणं तेषाम्।
मोक्षाराधनहेतुं चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ।। २।। युग्मम्।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि मैं अरहंत परमेष्ठीको नमस्कार करके चारित्रपाहुड़ को
कहूँगा। अरहंत परमेष्ठी कैसे हैं? अरहंत ऐसे प्राकृत अक्षर की अपेक्षा तो ऐसा अर्थ है–अकार
आदि अक्षरसे तो ‘अरि’ अर्थात् मोहकर्म, रकार अक्षरकी अपेक्षा रज अर्थात् ज्ञानावरण
दर्शनावरण कर्म, उस ही रकार से रहस्य अर्थात् अंतराय कर्म–इसप्रकार से चार घातिया
कर्मोंको हनना–घताना जिनके हुआ वे अरहन्त हैं। संस्कृतकी अपेक्षा ‘अर्ह’ ऐसा पूजा अर्थ में
धातु है उससे ‘अर्हन्’ उससे ऐसा निष्पन्न हो तब पूजा योग्य हो उसको अर्हत् कहते हैं वह
भव्य जीवोंसे पूज्य है। परमेष्ठी कहने से परम इष्ट अर्थात्
Page 69 of 394
PDF/HTML Page 93 of 418
single page version
चारित्रपाहुड][६९ उत्कृष्ट पूज्य हो उसे परमेष्ठी कहते हैं अथवा परम जो उत्कृष्ट पद में तिष्ठे वह परमेष्ठी है। इसप्रकार इन्द्रादिक से पूज्य अरहन्त परमेष्ठी हैं। सर्वज्ञ हैं, सब लोकालोक स्वरूप चराचर पदार्थों को प्रत्यक्ष जाने वह सर्वज्ञ है। सर्वदर्शी अर्थात् सब पदार्थोंको देखने वाले हैं। निर्मोह हैं, मोहनीय नामके कर्म की प्रधान प्रकृति मिथ्यात्व है उससे रहित हैं। वीतराग हैं, जिनके विशेषरूप से राग दूर हो गया हो सो वीतराग हैं, उनके चारित्र मोहनीय कर्मके उदयसे (–उदयवश) हो ऐसा रागद्वेष भी नहीं है। त्रिजगद्धंद्य हैं, तीन जगत के प्राणी तथा उनके स्वामी इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्तियोंसे वंदने योग्य हैं। इसप्रकारसे अरहन्त पदको विशेष्य करके और अन्य पदोंको विशेषण करने पर इसप्रकार भी अर्थ होता है, परन्तु वहाँ अरहन्त भव्य जीवों से पूज्य हैं इसप्रकार विशेषण होता है। चारित्र कैसा है? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र ये तीन आत्माके परिणाम हैं, उनके शुद्धताका कारण है, चारित्र अंगीकार करने पर सम्यग्दर्शनादि परिणाम निर्दोष होता है। चारित्र मोक्ष के आराधन का कारण है, –इसप्रकार चारित्र पाहुड़ (प्राभृत) ग्रंथको कहूँगा, इसप्रकार आचार्य ने मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा की है।।१–२।। आगे सम्यग्दर्शनादि तीन भावों का स्वरूप कहते हैंः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते त्रिजगवंदित, भव्यपूजित अर्हतोने वंदीने; १।
भाखीश हुं चारित्रप्राभृत मोक्षने आराधवा,
Page 70 of 394
PDF/HTML Page 94 of 418
single page version
७०] [अष्टपाहुड
णाणस्स पिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं।। ३।।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम्।। ३।।
अर्थः––जो जानता है वह ज्ञान है, जो देखता है वह दर्शन है ऐसे कहा है। ज्ञान और
दर्शन के समायोग से चारित्र होता है।
भावार्थः––जाने वह तो ज्ञान और देखे, श्रद्धान हो वह दर्शन तथा दोनों एक रूप
आगे कहते हैं कि जो तीन भाव जीवके हैं उनकी शुद्धता के लिये चारित्र दो प्रकार का
तिण्हं पि सोहणत्थे जिणभणियं दुविह चारित्तं।। ४।।
त्रयाणामपि शोधनार्थं जिनभणितं द्विविधं चारित्रं।। ४।।
अर्थः––ये ज्ञान आदिक तीन भाव कहे, ये अक्षय और अनन्त जीवके भाव हैं, इनको
शोधने के लिये जिनदेव ने दो प्रकार का चारित्र कहा है।
भावार्थः––जानना, देखना और आचरण करना ये तीन भाव जीवके अक्षयानंत हैं,
लोकको जाननेवाला ज्ञान है, इसप्रकार ही दर्शन है, इसप्रकार ही चारित्र है तथापि घातिकर्म
के निमित्त से अशुद्ध हैं, जो ज्ञान–दर्शन–चारित्ररूप हैं इसलिये श्री जिनदेव ने इनको शुद्ध
करने के लिये इनका चारित्र [आचरण करना] दो प्रकार का कहा है ।।४।।
ने ज्ञान–दर्शनना समायोगे सुचारित होय छे। ३।
आ भाव त्रण आत्मा तणा अविनाश तेम अमेय छे;
Page 71 of 394
PDF/HTML Page 95 of 418
single page version
चारित्रपाहुड][७१
विदियं संजमचरणं जिणणाणसदेसियं तं पि।। ५।।
द्वितीयं संयमचरणं जिनज्ञानसंदेशितं तदपि।। ५।।
अर्थः––प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरणस्वरूप चारित्र है, वह जिनदेवके ज्ञान–दर्शन–
श्रद्धानसे किया हुआ शुद्ध है। दूसरा संयमका आचरणस्वरूप चारित्र है, वह भी जिनदेवके
ज्ञानसे दिखाया हुआ शुद्ध है।
भावार्थः––चारित्र को दो प्रकार का कहा है। प्रथम तो सम्यक्त्वका आचरण कहा वह
अतिचार मल दोष कहे, उनका परिहार करके शुद्ध करना तथा उसके निःशंकितादि गुणोंका
प्रगट होना वह सम्यक्त्वचरण चारित्र है और जो महाव्रत आदि अंगीकार करके सर्वज्ञके
आगममें कहा वैसे संयमका आचरण करना, और उसके अतिचार आदि दोषोंको दूर करना,
संयमचरण चारित्र है, इसप्रकार संक्षेप से स्वरूप कहा।।५।।
आगे सम्यक्त्वचरण चारित्रके मल दोषोंका परिहार करके आचरण करना कहते हैंः––
परिहर सम्मत्तमला जिणभणिया तिविहजोएण।। ६।।
बीजुं चरित संयमचरण, जिनज्ञानभाषित तेय छे। ५।
इम जाणीने छोडो त्रिविध योगे सकल शंकादिने,
Page 72 of 394
PDF/HTML Page 96 of 418
single page version
७२] [अष्टपाहुड
परिहर सम्यक्त्वमलान् जिनभणितान् त्रिविधयोगेन।। ६।।
अर्थः––ऐसे पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वाचरण चारित्रको जानकर मिथ्यात्व कर्मके उदयसे
हुए शंकादिक दोष सम्यक्त्वको अशुद्ध करने वाले मल हैं ऐसा जिनदेव ने कहा है, इनको मन,
वचन, कायके तीनों योगों से छोड़ना।
भावार्थः––सम्यक्त्वाचरण चारित्र, शंकादि दोष सम्यक्त्व के मल हैं, उनको त्यागने पर
कहते हैं––जिनवचनमें वस्तु का स्वरूप कहा उसमें संशय करना शंका दोष है; इसके होने
पर सप्तभय के निमित्त से स्वरूप से चिग जाय वह भी शंका है। भोगों की अभिलाषा कांक्षा
दोष है, इसके होने पर भोगोंके लिये स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है। वस्तुके स्वरूप अर्थात् धर्म
में ग्लानि करना जुगुप्सा दोष है, इसके होने पर धर्मात्मा पुरुषोंके पूर्वकर्म के उदय से बाह्य
मलिनता देखकर मत से चिग जाना होता है।
देव–गुरु–धर्म तथा लौकिक कार्यों में मूढ़ता अर्थात् यथार्थ स्वरूपको न जानना सो
सग्रन्थ गुरु तथा लोगोंके बिना विचार किये ही मानी हुई अनेक क्रिया विशेषोंसे विभवादिककी
प्राप्तिके लिये प्रवृत्ति करने से यथार्थ मत से भ्रष्ट हो जाता है। धर्मात्मा पुरुषों में कर्म के उदय
से कुछ दोष उत्पन्न हआ देखकर उनकी अवज्ञा करना सो अनुपगूहन दोष है, इसके होने
पर धर्मसे छूट जाना होता है। धर्मात्मा पुरुषोंको कर्मके उदयके वश से धर्मसे चिगते देखकर
उनकी स्थिरता न करना सो अस्थितिकरण दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसको
धर्मसे अनुराग नहीं है और अनुरागका न होना सम्यक्त्व में दोष है।
धर्मात्मा पुरुषोंसे विशेष प्रीती न करना अवात्सल्य दोष है, इसके होने पर सम्यक्त्वका अभाव प्रगट सूचित होता है। धर्मका महात्म्य शक्ति के अनुसार प्रगट न करना अप्रभावना दोष है, इसके होने पर ज्ञात होता है कि इसके धर्मके महात्म्यकी श्रद्धा प्रगट नहीं हुई है।––– इसप्रकार यह आठ दोष सम्यक्त्वके मिथ्यात्वके उदय से (उदयके वश में होने से) होते हैं, जहाँ ये तीव्र हों वहाँ तो मिथ्यात्व प्रकृति का उदय बताते हैं, सम्यक्त्वका अभाव बताते हैं और जहाँ कुछ मंद अतिचाररूप हों तो सम्यक्त्व –प्रकृति नामक मिथ्यात्वकी प्रकृति के उदय से हों वे अतिचार कहलाते हैं, वहाँ क्षयोपशमिक सम्यक्त्वका सद्भाव होता है; परमार्थसे विचार करें तो अतिचार त्यागने ही योग्य हैं।
Page 73 of 394
PDF/HTML Page 97 of 418
single page version
चारित्रपाहुड][७३
इन दोषोंके होने पर अन्य भी मल प्रगट होते हैं, वे तीन मूढ़ताएँ हैं–––– १ देवमूढ़ता, २ पाखण्डमूढ़ता, ३ लोकमूढ़ता। किसी वर की इच्छा से सरागी देवों की उपासना करना उनकी पाषाणादि में स्थापना करके पूजना देवमूढ़ता है। ढ़ोंगी गुरुओंमें मूढ़ता–परिग्रह, आरंभ, हिंसादि सहित पाखण्डी (ढ़ोंगी) भेषधारियोंका सत्कार, पुरस्कार करना पाखण्डी– मूढ़ता है। लोकमूढ़ता अन्य मतवालोंके उपदेशसे तथा स्वयं ही बिना विचारे कुछ प्रवृत्ति करने लग जाय वह लोकमूढ़ता है, जैसे सूर्य के अर्घ देना, ग्रहण में स्नान करना, संक्रांति में दान करना, अग्निका सत्कार करना, देहली, घर, कुआ पूजना, गायकी पूंछको नमस्कार करना, गायके मूत्रको पीना, रत्न, घोडा आदि वाहन, पृथ्वी, वृक्ष, शस्त्र, पर्वत आदिककी सेवा–पूजा करना, नदी–समुद्रको तीर्थ मानकर उनमें स्नान करना, पर्वतसे गिरना, अग्नि में प्रवेश करना इत्यादि जानना। छह अनायतन हैं–––कुदेव, कुगुरु, कुशास्त्र और इनके भक्त––ऐसे छह हैं, इनको धर्म स्थान जानकर इनकी मनसे प्रशंसा करना, वचन से सराहना करना, काय से वंदना करना। ये धर्मके स्थान नहीं हैं इसलिये इनको अनायतन कहते हैं। जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य इनका गर्व करना आठ मद हैं। जाति माता पक्ष है, लाभ धनादिक कर्मके उदय के आश्रय है, कुल पिता पक्ष है, रूप कर्मोदयाश्रित है, तप अपने स्वरूपको साधने का साधन है, बल कर्मोदयाश्रित है, विद्या कर्मके क्षयोपशमाश्रित है, ऐश्वर्य कर्मोदयाश्रित है, इनका गर्व क्या? परद्रव्यके निमित्तसे होने वाले का गर्व करना सम्यक्त्वका अभाव बताता है अथवा मलिनता करता है। इसप्रकार ये पच्चीस, सम्यक्त्वके मल दोष हैं, इनका त्याग करने पर सम्यक्त्व शुद्ध होता है, वही सम्यक्त्वाचरण चारित्र का अंग है।।६।।
Page 74 of 394
PDF/HTML Page 98 of 418
single page version
७४] [अष्टपाहुड
उवगूहण ठिदिकरणं वच्छल्ल पहावणा य ते अट्ठ।। ७।।
उपगूहनं स्थितीकरणं वात्सल्यं प्रभावना च ते अष्टौ।। ७।।
अर्थः––निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण,
वात्सल्य और प्रभावना ये आठ अंग हैं।
भावार्थः––ये आठ अंग पहिले कहे हुए शंकादि दोषोंके अभाव से प्रगट होते हैं, इनके
जिसने जिनवचन में शंका न की, निर्भय हो छीके की लड़ काट कर के मंत्र सिद्ध किया। निः
कांक्षितका सीता, अनंतमती, सुतारा आदिका उदाहरण है, जिन्होंने भोगों के लिये धर्म को नहीं
छोड़ा। निर्विचिकित्साका उद्दायन राजाका उदाहरण है, जिसने मुनिका शरीर अपवित्र देखकर
भी ग्लानि नहीं की। अमूढ़दृष्टिका रेवती रानी का उदाहरण है, जिसको विद्याधर ने अनेक
महिमा दिखाई तो भी श्रद्धानसे शिथिल नहीं हुई।
उपगूहनका जिनेन्द्रभक्त सेठका उदाहरण है, जिस चोरने ब्रह्मचारी का भेष बना करके
छिपाया। स्थितिकरण का वारिषेण का उदाहरण है, जिसने पुष्पदंत ब्राह्मणको मुनिपद से
शिथिल हुआ जानकर दृढ़ किया। वात्सल्यका विष्णुकुमारका उदाहरण है, जिनने अकंपन आदि
मुनियोंका उपसगर निवारण किया। प्रभावना में वज्रकुमार मुनिका उदाहरण है, जिसने
विद्याधर से सहायता पाकर धर्मकी प्रभावना की। ऐसे आठ अंग प्रगट होने पर सम्यक्त्वाचरण
चारित्र होता है, जैसे शरीर में हाथ, पैर होते हैं वैसे ही सम्यक्त्व के अंग हैं। ये न हों तो
विकलांग होता है।।७।।
आगे कहते हैं कि इसप्रकार पहला सम्यक्त्वाचरण चारित्र होता हैः–––
Page 75 of 394
PDF/HTML Page 99 of 418
single page version
चारित्रपाहुड][७५
जं चरइ णाणजुत्तं पढमं सम्मतचरणचारित्तं।। ८।।
तच्चैव गुणविशुद्धं जिनसम्यक्त्वं सुमोक्षस्थानाय। तत् चरति ज्ञानयुक्तं प्रथमं सम्यक्त्व चरणचारित्रम्।। ८।।
अर्थः––वह जिनसम्यक्त्व अर्थात् अरहंत जिनदेव की श्रद्धा निःशंकित आदि गुणोंसे विशुद्ध हो उसका यथार्थ ज्ञानके साथ आचरण करे वह प्रथम सम्यक्त्वचरण चारित्र है, वह मोक्षस्थान के लिये होता है। भावार्थः––सर्वज्ञभाषित तत्त्वार्थकी श्रद्धा निःशंकित आदि गुण सहित, पच्चीस मल दोष रहित, ज्ञानवान आचरण करे उसको सम्यक्त्वचरण चारित्र कहते हैं। यह मोक्ष की प्रप्ति के लिये होता है क्योंकि मोक्षमार्ग में पहिले सम्यग्दर्शन कहा है इसलिये मोक्षमार्ग में प्रधान यह ही है।।८।। आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार सम्यक्त्वचरण चरित्र को अंगीकार करे तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता हैः––
णाणी अमूढदिट्ठी अचिरे पावंति णिव्वाणं ।। ९।।
ज्ञानिनः अमूढद्रष्टयः अचिरं प्राप्नुवंति निर्वाणम् ।। ९।।
अर्थः––जो ज्ञानी होते हुए अमूढ़दृष्टि होकर सम्यक्त्वचरण चारित्रसे शुद्ध होता है और
जो संयमचरण चारित्र से सम्यक् प्रकार शुद्ध हो तो शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
भावार्थः––जो पदार्थोंके यथार्थ ज्ञान से मूढ़दृष्टि रहित विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होकर सम्यक्चारित्र स्वरूप संयम का आचारण करे तो शीघ्र ही मोक्ष को पावे, संयम अंगीकार करने पर स्वरूपके साधनरूप एकाग्र धर्मध्यान के बलसे सातिशय अप्रमत्त ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आचरवुं ज्ञान समेत, ते सम्यक्त्वचरण चरित्र छे। ८।
सम्यक्त्वचरणविशुद्धने निष्पन्नसंयमचरण जो,
Page 76 of 394
PDF/HTML Page 100 of 418
single page version
७६] [अष्टपाहुड गुणस्थानरूप हो श्रेणी चढ़ अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान उत्पन्न कर अघातिकर्मका नाश करके मोक्ष प्राप्त करता है, यह सम्यक्त्वचरण चारित्रका ही माहात्म्य है।।९।। आगे कहते हैं कि जो सम्यक्त्व के आचरण से भ्रष्ट हैं और वे संयमका आचरण करते हैं तो भी मोक्ष नहीं पाते हैंः–––
अण्णाणणाणमूढा तह वि ण पावंति णिव्वाणं।। १०।।
सम्यक्त्वचरणभ्रष्टाः संयमचरणं चरन्ति येऽपि नराः। अज्ञानज्ञानमूढाःतथाऽपि न प्राप्नुवंति निर्वाणम्।। १०।।
अर्थः––जो पुरुष सम्यक्त्वचरण चारित्रसे भ्रष्ट है और संयमका आचरण करते हैं तो भी वे अज्ञान से मूढ़दृष्टि होते हुए निर्वाण को नहीं पाते हैं।
भावार्थः––सम्यक्त्वचरण चारित्रके बिना संयमचरण चारित्र निर्वाणका कारण नहीं है क्योंकि सम्यग्ज्ञानके बिना तो ज्ञान मिथ्या कहलाता है, सो इसप्रकार सम्यक्त्वके बिना चारित्र के भी मिथ्यापना आता है।।१०।।
आगे प्रश्न उत्पन्न होता है कि इसप्रकार सम्यक्त्वचरण चारित्र के चिन्ह क्या हैं जिनसे उसको जानें, इसके उत्तररूप गाथामें सम्यक्त्व के चिन्ह कहते हैंः–––
मग्गगुणसंसणाए अवगूहण रक्खणाए य।। ११।।
जीवो आराहंतो जिणसम्मत्तं अमोहेण।। १२।।