Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 122-149 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][२३७
भावार्थः––आर्त्त–रौद्र ध्यान अशुभ है, संसार के कारण हैं। ये दोनों ध्यान जो जीवके
बिना उपदेश ही अनादिसे पाये जाते हैं, इसलिये इनको छोड़नेका उपदेश है। धर्म शुक्ल ध्यान
स्वर्ग – मोक्षके कारण हैं। इनको कभी नहीं ध्याया, इसलिय इनका ध्यान करने का उपदेश
है। ध्यानका स्वरूप ‘एकाग्रचिंतानिरोध’ कहा है; धर्मध्यानमें तो धर्मानुरागका सद्भाव है सो
धर्मके–––मोक्षमार्गके कारणमें रागसहित एकाग्रचिंतानिरोध होता है, इसलिये शुभराग के
निमित्तसे पुण्यबन्ध भी होता है और विशुद्ध भावके निमित्तसे पापकर्म की निर्जरा भी होती है।
शुक्लध्यान में आठवें नौवें दसवें गुणस्थानमें तो अव्यक्त राग है। वहाँ अनुभव अपेक्षा उपयोग
उज्ज्वल है, इसलिये ‘शुक्ल’ नाम रखा है और इससे ऊपर के गुणस्थानों में राग–कषायका
अभाव ही है, इसलिये सर्वथा ही उपयोग उज्ज्वल है, वहाँ शुक्लध्यान युक्त ही है। इतनी और
विशेषता है कि उपयोगके एकाग्रपनारूप ध्यानकी स्थिति अनतर्मुहूर्त्त की कही है। इस अपेक्षा से
तेरहवें–चौदहवें गुणस्थानमेह ध्यानका उपचार है और योगक्रियाके स्थंभनकी अपेक्षा ध्यान कहा
है। यह शुक्लध्यान कर्मकी निर्जरा करके जीवको मोक्ष प्राप्त कराता है, ऐसे ध्यानका उपदेश
जानना।। १२१।।

आगे कहते हैं कि यह ध्यान भावलिंगी मुनियोंको मोक्ष करता हैः–––
जे के वि दव्वसवणा इंदियसुहआउला ण छिंदंति।
छिंदंति भावसवणा झाणकुढारेहिं भवरुक्खं।। १२२।।
ये केऽपि द्रव्यश्रमणा ईन्द्रियसुखाकुलाः न छिंदन्ति।
छिंदन्ति भावश्रमणाः ध्यानकुठारैः भववृक्षम्।। १२२।।

अर्थः
––कई द्रव्यलिंगी श्रमण हैं, वे तो इन्द्रियसुखमें व्याकुल हैं, उनके यह धर्म –
शुक्लध्यान नहीं होता। वे तो संसाररूपी वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं हैं, और जो भावलिंगी
श्रमण हैं, वे ध्यानरूपी कुल्हाड़ेसे संसाररूपी वृक्षको काटते हैं।

भावार्थः––जो मुनि द्रव्यलिंग तो धारण करते हैं, परन्तु उसको परमार्थ सुखका अनुभव
नहीं हुआ है, इसलिये इहलोक परलोकमें इन्द्रियोंके सुख ही को चाहते हैं, तपश्चरणादिक भी
इसी अभिलाष से करते हैं उनके धर्म–शुक्ल ध्यान कैसे हो? अर्थात् नहीं होता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
द्रव्ये श्रमण इन्द्रियसुखाकुल होईने छेदे नहीं;
भववृक्ष छेदे भावश्रमणो ध्यानरूप कुठारथी। १२२।

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२३८] [अष्टपाहुड
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जिनने परमार्थ सुखका आस्वाद लिया उनको इन्द्रियसुख दुःख ही है ऐसा स्पष्ट भासित हुआ
है, अतः परमार्थ सुखका उपाय धर्म–शुक्लध्यान है उसको करके वे संसारका अभाव करते हैं,
इसलिये भावलिंगी होकर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।। १२२।।

आगे इस ही अर्थका दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंः–––
जह दीवो गब्भहरे मारुयबाहाविवज्जिओ जलइ।
तह रायाणिलरहिओ झाणपईयो वि पज्जलइ।। १२३।।
यथा दीपः गर्भगृहे मारुतबाधाविवर्जितः ज्वलति।
तथा रागानिलरहितः ध्यानप्रदीपः अपि प्रज्वलति।। १२३।।

अर्थः
––जैसे दीपक गर्भगृह अर्थात् जहाँ पवनका संचार नहीं है ऐसे मध्यके घरमें पवन
की बाधा रहित निश्चल होकर जलता है [प्रकाश करता है], वैसे ही अंतरंग मनमें रागरूपी
पवनसे रहित ध्यानरूपी दीपक भी जलता है, एकाग्र होकर ठहरता है, आत्मरूपको प्रकाशित
करता है।

भावार्थः––पहिले कहा था कि जो इन्द्रियसुखसे व्याकुल हैं उनके शुभध्यान नहीं होता
है, उसका यह दीपकका दृष्टांत है–– जहाँ इन्द्रियोंके सुख में जो राग वह ही हुआ पवन वह
विद्यमान है, उनके ध्यानरूपी दीपक कैसे निर्बाध उद्योत करे? अर्थात् न करे, और जिनके यह
रागरूपी पवन बाधा न करे उनके ध्यानरूपी दीपक निश्चल ठहरता है।। १२३।।

आगे कहते हैं कि–––ध्यानमें जो परमार्थ ध्येय शुद्ध आत्माका स्वरूप है उस स्वरूपके
आराधनमें नायक (प्रधान) पंच परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करनेका उपदेश करते हैंः–––
झायहि पंच वि गुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए।
णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे।। १२४।।
ज्यम गर्भगृहमां पवननी बाधा रहित दीपक जळे,
ते रीत रागानिलविवर्जित ध्यानदीपक पण जळे। १२३।

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भावपाहुड][२३९
ध्याय पंच अपि गुरुन् मंगलचतुः शरणलोकपरिकरितान्।
नरसुरखेचरमहितान् आराधनानायकान् वीरान्।। १२४।।

अर्थः
–––हे मुने! तू पंच गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर। यहाँ ‘अपि’ शब्द
शुद्धात्म सवरूपके ध्यानको सूचित करता है। पंच परमेष्ठी कैसे हैं? मंगल अर्थात् पाप के
नाशक अथवा सुखदायक और चउशरण अर्थात् चार शरण तथा ‘लोक’ अर्थात् लोक के
प्राणियों से अरहंत, सिद्ध, साधु, केवलीप्रणीत धर्म, ये परिकरित अर्थात् परिवारित हैं––––
युक्त
(–सहित) हैं। नर – सुर – विद्याधर सहित हैं, पुज्य हैं, इसलिये वें ‘लोकोत्तम’ कहे
जाते है, आराधनाके नायक हैं , वीर हैं, कर्मोंके जीतने को सुभट हैं और विशिष्ट लक्ष्मी को
प्राप्त हैं तथा देते हैं। इसप्रकार पंच परम गुरुका ध्यान कर।

भावार्थः–––यहाँ पंच परमेष्ठीका ध्यान करनेके लिये कहा। उस ध्यानमें विघ्नको दूर
करने वाले ‘चार मंगल’ कहे वे यही हैं,‘चार शरण’ और ‘लोकोत्तम’ कहे हैं वे भी इन्ही को
कहे हैं। इनके सिवाय प्राणीको अन्य शरण या रक्षा करनेवाला कोई भी नहीं है और लोक में
उत्तम भी ये ही हैं। आराधना दर्शन – ज्ञान – चारित्र – तप ये चार हैं, इनके नायक
[स्वामी] भी ये ही हैं, कर्मोंको जीतनेवाले भी ये ही हैं । इसलिये ध्यान करनेवाले के लिये
इनका ध्यान श्रेष्ठ है। शुद्धस्वरूपकी प्राप्ति इनही के ध्यान से होती है, इसलिये यह उपदेश
है।। १२४।।

आगे ध्यान है वह, ‘ज्ञानका एकाग्र होना’ है, इसलिये ज्ञानके अनुभव का उपदेश करते
हैंः–––
णाणमय विमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण।
वाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति।। १२५।।
ज्ञानमयविमल शीतल सलिलं प्राप्य भव्याः भावेन।
व्याधिजरामरणवेदनादाहविमुक्ताः शिवाः भवन्ति।। १२५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ज्ञानात्म निर्मळ नीर शीतळ प्राप्त करीने, भावथी,
भवि थाय छे जर–मरण–व्याधिदाहवर्जित, शिवमयी। १२५

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२४०] [अष्टपाहुड
अर्थः––भव्य जीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जलको समयक्त्वभाव सहित पीकर और
व्याधिस्वरूप जरा–मरणकी वेदना [पीड़ा] को भस्म करके मुक्त अर्थात् संसार से रहित
‘शिव’ अर्थात् परमनंद सुखरूप होते हैं।

भावार्थः–––जैसे निर्मल और शीतल जलके पीने से पित्तकी दाहरूप व्याधि मिटकर
साता होती है, वैसे ही यह ज्ञान है वह जब यह रागादिक मलसे रहित निर्मल और आकुलता
रहित शांतभावरूप होता है, उसकी भावना कर रुचि, श्रद्धा, प्रतीति से पीवे, इससे तनमय हो
तो जरा – मरणरूप दाह – वेदना मिट जाती है और संसार से निर्वृत्त होकर सुखरूप होता
है, इसलिये भव्य जीवोंको यह उपदेश है कि ज्ञानमें लीन होओ।। १२४।।
आगे कहते हैं कि इस ध्यानरूप अग्नि में संसार के बीज आठों कर्म एक बार दग्ध हो
जाने पर पीछे फिर संसार नहीं होता है, यह बीज भावमुनिके दग्ध हो जाता हैः–––
जह बीयम्मि य दड्ढे ण वि रोहइ अंकुरो य महि वीढे।
तह कम्मबीयदड्ढे भवंकुरो भावसवणाणं।। १२६।।
यथा बीजे च दग्धे नापि रोहति अंकुरश्च महीपीठे।
तथा कर्म बीजदग्धे भवांकुरः भावश्रमणानाम्।। १२६।।

अर्थः––जैसे पृथ्वीतल पर बीज के जल जाने पर उसका अंकुर फिर नहीं उगता है,
वैसे ही भावलिंगी श्रमणके संसारका कर्मरूपी बीज दग्ध होता है इसलिये संसाररूप अंकुर फिर
नहीं होता है।

भावार्थः––संसारके बीज ‘ज्ञानावरणादि’ कर्म हैं। ये कर्म भावश्रमण के ध्यानरूप
अग्निसे भस्म हो जाते हैं, इसलिये फिर संसाररूप अंकुर किससे हो? इसलिये भावश्रमण
होकर धर्म – शुक्लध्यान से कर्मोंका नाश करना योग्य है, यह उपदेश है। कोई सर्वथा एकांती
अन्यथा कहे कि–––कर्म अनादि हैं, उसका अंत भी नहीं है, उसका भी यह निषेध है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ज्यम बीज होतां दग्ध, अंकुर भूतळे ऊगे नहीं,
त्यम कर्म बीज बत्रये भवांकुर भावश्रमणोने नहीं। १२६।

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भावपाहुड][२४१
आगे फिर भी इसी का उपदेश अर्थरूप संक्षेप से कहते हैंः–––
प्राप्ति करे छे भावमुनि;–भाख्युं जिने संक्षेपथी। १२८।
बीज अनादि है वह एकबार दग्ध हो जाने पर फिर पीछे फिर नहीं उगता है, उसी तरह इसे
जानना।। १२६।।
आगे संक्षेप से उपदेश करते हैंः––––
भावसवणो वि पावइ सुक्खाइं दुहाइं दव्वसवणो य।
इय णाउं गुणदोसे भावेण संजुदो होइ।। १२७।।
पावंति भावसहिया संखेवि जिणेहिं वज्जरियं।। १२८।।
भावश्रमणः अपि प्राप्नोति सुखानि दुःखानि द्रव्यश्रमणश्च।
इति ज्ञात्वा गुणदोषान् भावेन च संयुतः भव।। १२७।।

अर्थः
––भावश्रमण तो सुखोंको पाता है और द्रव्यश्रमण दुःखोंको पाता है, इस प्रकार
गुण – दोषोंको जानकर हे जीव! तू भावसहित संयमी बन।
भावार्थः––सम्यग्दर्शन सहित भावश्रमण होता है, वह संसारका अभाव करके सुखोंको
पाता है और मिथ्यात्वसहित द्रव्यश्रमण भेषमात्र होता है, वह संसार का अभाव नहीं कर सकता
है, इसलिये दुःखोंको पाता है। अतः उपदेश करते हैं कि दोनों के गुण – दोष जानकर
भावसहयमी होना योग्य है, यह सब उपदेशका सार है।। १२७।।
तित्थयरगणहराइं अब्भुदयपरंपराइं सोक्खाइं।
तीर्थंकरगणधरादीनि अभ्युदयपरंपराणि सौख्यानि।
प्राप्नुवंति भावश्रमणाः संक्षेपेण जिनैः भणितम्।। १२८।।

अर्थः
––जो भाव सहित मुनि हैं वे अभ्युदयसहित तीर्थंकर – गणधर आदि पदवी के
सुखोंको पाते हैं, यह संक्षेप से कहा है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! भावश्रमण सुखो लहे ने द्रव्यमुनि दुःखो लहे;
तुं भावथी संयुक्त था, गुणदोष जाणी ए रीते। १२७।
तीर्थेश–गणनाथादिगत अभ्युदययुत सौख्यो तणी,

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२४२] [अष्टपाहुड
भावार्थः––– तीर्थंकर गणधर चक्रवर्ती आदि पदों के सुख बड़े अभ्युदय सहित हैं,
उनको भावसहित सम्यग्दृष्टि मुनि पाते हैं। यह सब उपदेशका संक्षेप कहा है इसलिये
भावसहित मुनि होना योग्य है।। १२८।।

आगे आचार्य कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं उनको धन्य हैं, उनको हमारा नमस्कार
होः––
ते धण्णा ताण णमो दंसणवरणाणचरण सुद्धाणं।
भावसहियाण णिच्चं तिविहेण पणट्ठमायाणं।। १२९।।
ते धन्याः तेभ्य नमः दर्शनवरज्ञानचरणशुद्धेभ्यः।
भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः।। १२९।।

अर्थः
–––आचार्य कहते हैं कि जो मुनि सम्यग्दर्शन श्रेष्ठ
(विशिष्ट) ज्ञान और निर्दोष
चारित्र इनसे शुद्ध हैं इसीलिये भाव सहित हैं और प्रणष्ट हो गई है माया अर्थात् कपट
परिणाम जिनके ऐसे हैं वे धन्य हैं। उनके लिये हमारा मन–वचन–काय से सदा नमस्कार हो।

भावार्थः––भावलिंगीयोंमें जो दर्शन–ज्ञान–चारित्र से शुद्ध हैं उनके प्रति आचार्य को
भक्ति उत्पन्न हुई है, इसलिये उनको धन्य कहकर नमस्कार किया है वह युक्त है, जिनके
मोक्षमार्ग में अनुराग है, उनमें मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति में प्रधानता दिखती है, उनको नमस्कार
करें।। १२९।।

आगे कहते हैं कि जो भावश्रमण हैं वे देवादिककी ऋद्धि देखकर मोहको प्राप्त नहीं होते
हैंः––
इड्ढिमतुलं विउव्विय किण्णरकिंपुरिसअमरखयरेहिं।
तेहिं विण जाइ मोहं जिण भावण भाविओ धीरो।। १३०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते छे सुधन्य, त्रिधा सदैव नमस्करण हो तेमने,
जे भावयुत, दृगज्ञानचरणविशुद्ध, माया मुक्त छे। १२९।
खेचर–सुरादिक विक्रियाथी ऋद्धि अतुल करे भले,
जिनभावना परिणत सुधीर लहे न त्यां पण मोहने। १३०।

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भावपाहुड][२४३
आगे इसहीका समर्थन है कि ऐसी ऋद्धि भी नहीं चाहता है तो अन्य सांसारिक सुख
की क्या कथा?–
मुनिप्रवर जे जाणे, जुए ने चिंतवे छे मोक्षने? १३१।
ऋद्धिमतुलां विकुर्वभ्दिः किंनरकिंपुरुषामरखचरैः।
तैरपि न याति मोहं जिनभावना भावितः धीरः।। १३०।।

अर्थः
–––जिनभावना [सम्यक्त्व भावना] से वासित जीव किंनर, किंपरुष देव;
कल्पवासी देव और विद्याधर, इनसे विक्रियारूप विस्तार की गई अतुल–ऋद्धियोंसे मोहको
प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि सम्यदृष्टि जीव कैसा है? धीर है, दृढ़बुद्धि है अर्थात् निःशंकित
अंग का धारक है।
भावार्थः––जिसके जिनसम्यक्त्व दृढ़ है उसके संसारकी ऋद्धि तृणवत् है, परमार्थ सुख
की ही भावना है, विनाशीक ऋद्धिकी वांछा क्यों हो? ।। १३०।।
किं पुण गच्छइ मोहं णरसुरसुक्खाण अप्पसाराणं।
जाणंतो पस्संतो चिंतंतो मोक्ख मुणिधवलो।। १३१।।
किं पुनः गच्छति मोहं नरुरसुखानां अल्पसाराणाम्।
जानन् पश्यन् चिंतयन् मोक्षं मुनिधवलः।। १३१।।

अर्थः
––सम्यग्दृष्टि जीव पूर्वोक्त प्रकारकी भी ऋद्धि को नहीं चाहता है तो मुनिधवल
अर्थात् मुनिप्रधान है वह अन्य जो मनुष्य देवोंके सुख – भोगादिक जिनमें अल्प सार है उनमें
क्या मोहको प्राप्त हो? कैसा है मुनिधवल? मोक्ष को जानता है, उसही की तरफ दृष्टि है,
उसही का चिन्तन करता है।

भावार्थः––जो मुनिप्रधान हैं उनकी भावना मोक्षके सुखोंमें है। वे बड़ी बड़ी देव
विद्याधरोंकी फैलाई हुई विक्रियाऋद्धिमें भी लालसा नहीं करते हैं तो किंचित्मात्र विनाशीक जो
मनुष्य, देवोंके भोगादिकका सुख उनमें वांछा कैसे करे? अर्थात् नहीं करे।। १३१।।

आगे उपदेश करते हैं कि जबतक जरा आदिक न आवे तबतक अपना हित कर लोः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ –––संस्कृत मुद्रित प्रतिमें ‘विकृतां’ पाठ है।
तो देव–नरनां तुच्छ सुख प्रत्ये लहे शुं मोहने,

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२४४] [अष्टपाहुड
रे आक्रमे न जरा, गदाग्नि दहे न तनकुटि ज्यां लगी,
उत्थरइ जा ण जरओ रोयग्गी जा ण डहइ देहउडिं।
इन्दिय बलं ण वियलइ ताव तुमं कुणहि अप्पहियं।। १३२।।
आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहति देहकुटीम्।
इन्द्रियबलं न विगलति तावत् त्वं कुरु आत्महितम्।। १३२।।

अर्थः
––हे मुने! जब तक तेरे जरा
(बुढ़ापा) न आवे तथा जब तक रोगरूपी अग्नि
तेरी देहरूपी कुटी को भस्म न करे और जब तक इन्द्रियोंका बल न घटे तब तक अपना हित
करलो।

भावार्थः––वृद्ध अवस्थामें देह रोगोंसे जर्जरित हो जाता है, इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं
तब असमर्थ होकर इस लोकके कार्य उठना–बैठना भी नहीं कर सकता है तब परलोकसम्बन्धी
तपश्चरणादिक तथा ज्ञानाभ्यास और स्वरूपका अनुभवादि कार्य कैसे करे? इसलिये यह
उपदेश है कि जब तक सामर्थ्य है तब तक अपना हितरूप कार्य कर लो।। १३२।।
आगे अहिंसाधर्म के उपदेशका वर्णन करते हैंः–––
छज्जीव छडायदणं णिच्चं मणवयणकायजोएहिं।
कुरु दय परिहर मुणिवर भावि अपुव्वं महासत्तं
।। १३३।।
षट्जीवान् षडायतनानां नित्यं मनोचचनकाययोगैः।
कुरु दयां परिहर मुनिवर भावय अपूर्व महासत्वम्।। १३३।।

अर्थः
––हे मुनिवर! तू छहकाय के जीवों पर दया कर और छह अनायतों को
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘महासत्त’ ऐसा संबोधन पद किया है जिसका सं० छाया ‘महासत्व’ है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘षट्जीवषटयतनानां’ एक पद किया है।
बळ इन्द्रियोनुं नव घटे, करी ले तुं निजहित त्यां लगी। १३२।

छ अनायतन तज, कर दया षट्जीवनी
त्रिविधे सदा,
महासत्त्वने तुं भाव रे! अपूरवपणे हे मुनिवरा! १३३।

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भावपाहुड][२४५
आगे कहते हैं कि–––जीवका तथा उपदेश करने वाले का स्वरूप जाने बिना सब
जीवों के प्राणों का अहार किया, इसप्रकार दिखाते हैंः–––
मन, वचन, कायके योगों से छोड़ तथा अपूर्व जो पहिले न हुआ ऐसा महासत्त्व अर्थात् सब
जीवों में व्यापक
(ज्ञायक) महासत्त्व चेतना भावको भा।

भावार्थः––अनादिकालसे जीवका स्वरूप चेतनास्वरूप न जाना इसलिये जीवोह की
हिंसा की, अतः यह उपदेश है कि–––अब जीवात्माका स्वरूप जानकर, छहकायके जीवोंपर
दयाकर। अनादि ही से आप्त, आगम, पदार्थका और इनकी सेवा करनेवालों का सवरूप जाना
नहीं, इसलिये अनाप्त आदि छह अनायतन जो मोक्षमार्ग के स्थान नहीं हैं उनको अच्छे
समझकर सेवन किया, अतः यह उपदेश है कि अनायतन का परिहार कर। जीवके स्वरूप के
उपदेशक ये दोनों ही तूने पहिले जाने नहीं, न भावना की, इसलिये अब भावना कर,
इसप्रकार उपदेश है।। १३३।।
दसविहपाणाहारो अणंतभवसायरे भमंतेण।
भोयसुहकारणट्ठं कदो य तिविहेण सयल जीवाणं।। १३४।।
दशविधप्राणाहारः अनन्त भवसायरे भ्रमता।
भोगसुखकारणार्थं कृतश्च त्रिविधेन सकलजीवानां।। १३४।।

अर्थः––हे मुने! तूने अनंतभवसागरमें भ्रमण करते हुए, सकल त्रस, स्थावर जीवोंके
दश प्रकारके प्राणों का आहार, भोग–सुखके कारण के लिये मन, वचन, कायसे किया।

भावार्थः––अनादिकाल से जिनमतके उपदेशके बिना अज्ञानी होकर तूने त्रस, स्थावर
जीवोंके प्राणोंका आहार किया इसलिये अब जीवोंका स्वरूप जानकर जीवोंकी दया पाल,
भोगाभिलाष छोड़, यह उपदेश है।। १३४।।

फिर कहते हैं कि ऐसे प्राणियोंकी हिंसा से संसार में भ्रमण कर दुःख पायाः––
–––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
––––––––––––––
भमतां अमित भवसागरे, तें भोगसुखना हेतुए,
सहु जीव–दशविधप्राणनो आहार कीधो त्रण विधे। १३४।

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२४६] [अष्टपाहुड
पाणिवहेहि महाजस चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि।
उप्पजंत मरंतो पत्तो सि णिरंतरं दुक्खं।। १३५।।
प्राणिवधैः महायशः! चतुरशीतिलक्षयोनिमध्ये।
उत्पद्यमानः क्षियमाणः प्राप्तोऽसि निरंतरं दुःखम्।। १३५।।

अर्थः
––हे मुने! हे महायश! तूने प्राणियों के घात से चौरासी लाख योनियों के मध्य में
उत्पन्न होते हुए ओर मरते हुए निरंतर दुःख पाया।

भावार्थः––जिनमत के उपदेश के बिना, जीवोंकी हिंसासे यह जीव चौरासी लाख
योनियोंमें उत्पन्न होता है और मरता है। हिंसा से कर्मबंध होता है, कर्मबन्ध के उदय से
उत्पत्ति – मरणरूप संसार होता है। इसप्रकार जन्म – मरण के दुःख सहता है, इसलिये
जीवोंकी दया का उपदेश है।। १३५।।

आगे उस दया ही का उपदेश करते हैंः––––
जीवाणमथयदाणं देहि मुणी पाणिभूयसत्ताणं।
कल्लाणसुहणिमित्तं परंपरा तिविहसुद्धीए।। १३६।।
जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्त्वानाम्।
कल्याणसुखनिमित्तं परंपरया त्रिविध शुद्धया।। १३६।।

अर्थः
––हे मुने! जीवों को और प्राणीभूत सत्त्वों को अपना परंपरा से कल्याण और सुख
होने के लिये मन, वचन, काय की शुद्धता से अभयदान दे।

भावार्थः––‘जीव’ पंचेन्द्रिय को कहते हैं, ‘प्राणी’ विकलत्रय को कहते हैं, ‘भूत’
वनस्पति को कहते हैं और ‘सत्त्व’ पृथ्वी, अप्, तेज, वायु को कहते हैं। इन सब जीवोंको
अपने समान जानकर अभयदान देने का उपदेश है। इससे शुभ प्रकृतियों का बंध होने से
अभ्युदयका सुख होता है,
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
प्राणीवधोथी हे महायश! योनि लख चोराशीमां,
उत्पत्तिनां ने मरणनां दुःखो निरंतर तें लह्यां। १३५।

तुं भूत–प्राणी–सत्त्व–जीवने त्रिविध शुद्धि वडे मुनि,
दे अभय, जे कल्याणसौख्य निमित्त पारंपर्यथी। १३६।

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भावपाहुड][२४७
शत–एंशी किरिवादीना, चोराशी तेथी विपक्षना,
परम्परा से तीर्थंकरपद पाकर मोक्ष पाता है, यह उपदेश है।। १३६।।

आगे यह जीव षट् अनायतन के प्रसंगसे मिथ्यात्वसे संसार में भ्रमण करता है उसका
स्वरूप कहते हैं। पहिले मिथ्तात्व के भेदोंको कहते हैः–––
असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी।
सत्तट्ठी अण्णाणी वेणइया होंति बत्तीसा।। १३७।।
अशीविशतं क्रियावादिनामक्रियमाणं च भवति चतुरशीतिः।
सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवति द्वात्रिशत्।। १३७।।

अर्थः
–––एकसौ अस्सी क्रियावादी हैं, चौरासी अक्रियावादियों के भेद हैं, अज्ञानी
सड़सठ भेदरूप हैं और विनयवादी बत्तीस हैं।

भावार्थः––वस्तु का स्वरूप अनन्तधर्मस्वरूप सर्वज्ञ ने कहा है, वह प्रमाण और नयसे
सत्यार्थ सिद्ध होता है। जिनके मत में सर्वज्ञ नहीं हैं तथा सर्वज्ञसे स्वरूपका यथार्थ रूपसे
निश्चय करके उसका श्रद्धान नहीं किया है––ऐसे अन्यवादियोंने वस्तुका एक धर्म ग्रहण करके
उसका पक्षपात किया कि हमने इसप्रकार माना है, वह ‘ऐसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है।’
इसप्रकार विधि–निषेध करके एक–एक धर्मके पक्षपाती हो गये, उनके ये संक्षेप से तीनसौ
त्रेसठ भेद हो गये हैं।

क्रियावादीः–––कई तो गमन करना, बैठना, खड़े रहना, खाना, पीना, सोना, उत्पन्न
होना, नष्ट होना, देखना, जानना, करना, भोगना, भूलना, याद करना, प्रीति करना, हर्ष
करना, विषाद करना, द्वेष करना, जीना, मरना इत्यादिक क्रियायें हैं; इनको जीवादिक पदार्थों
के देख कर किसी ने किसी क्रियाका पक्ष किया है और किसी ने किसी क्रिया का पक्ष किया
है। ऐसे परम्परा क्रियाविवाद से भेद हुए हैं, इनके संक्षेप एकसौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं,
विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं।

कई
अक्रियावादी हैं, ये जीवादिक पदार्थों में क्रिया का अभाव मानकर आपसमें
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
बत्रीश सडसठ भेद छे वैनयिक ने अज्ञानीना। १३७।

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२४८] [अष्टपाहुड
विवाद करते हैं। कई कहते हैं जीव जानता नहीं है, कई कहते हैं कुछ करता नहीं है, कई
कहते हैं भोगता नहीं है, कई कहते हैं उत्पन्न नहीं होता है, कई कहते हैं नष्ट नहीं होता है,
कई कहते हैं गमन नहीं करता है और कई कहते हैं ठहरता नहीं है–––इत्यादि क्रिया के
अभाव से पक्षपात से सर्वथा एकान्ती होते हैं। इनके संक्षेपसे चौरासी भेद हैं।

कई
अज्ञानवादी हैं, इनमें कई तो सर्वज्ञ का अभाव मानते हैं, कई कहते हैं जीव अस्ति
है यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव नास्ति है यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव नित्य है
यह कौन जाने? कई कहते हैं जीव अनित्य है यह कौन जाने? इत्यादि संशय–विपर्यय–
अनध्यवसायरूप होकर विवाद करते है। इनके संक्षेपसे सड़सठ भेद हैं। कई विनयवादी हैं,
उनमें से कई कहते हैं देवादिकके विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं गुरुके विनय से सिद्धि है,
कई कहते हैं माताके विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि पिता के विनय से सिद्धि है, कई
कहते हैं कि राजा के विनय से सिद्धि है, कई कहते हैं कि सेवक के विनय से सिद्धि है,
इत्यादि विवाद करते हैं। इनके संक्षेप से बत्तीस भेद हैं। इसप्रकार सर्वथा एकान्तवादियोंके
तीनसौत्रेसठ भेद संक्षेप से हैं, विस्तार करने पर बहुत हो जाते हैं, इनमें कई ईश्वरवादी हैं,
कई कालवादी हैं, कई स्वभाववादी हैं, कई विनयवादी हैं, कई आत्मवादी हैं। इनका स्वरूप
गोम्मटसारादि ग्रन्थोंसे जानना, ऐसे मिथ्यात्व के भेद हैं।। १३७।।

आगे कहते हैं कि अभव्यजीव अपनी प्रकृतिको नहीं छोड़ता है, उसका मिथ्यात्व नहीं
मिटता हैः–––
ण मुयइ पयडि अभव्वो सुट्ठु वि आयण्णिऊण जिणधम्मं।
गुडदुद्धं पि पिता ण पण्णया णिव्विसा होंति।। १३८।।
न मुंचति प्रकृतिमभव्यः सुष्ठु अपि आकर्ण्य जिनधर्मम्।
गुडदुग्धमपि पिबंतः न पन्नगाः निर्विषाः भवंति।। १३८।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सुरीते सुणी जिनधर्म पण प्रकृति अभअ नहीं तजे,
साकर सहित क्षीरपानथी पण सर्प नहि निर्विष बने। १३८।

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भावपाहुड][२४९
अर्थः––अभव्यजीव भलेप्रकार जिनधर्मको सुनकर भी अपनी प्रकृतिको नहीं छोड़ता है ।
यहाँ दृष्टाहत है कि सर्प गुड़सहित दूधको पीते रहने पर भी विष रहित नहीं होता है।

भावार्थः––जो कारण पाकर भी नहीं छूटता है उसे ‘प्रकृति’ या ‘स्वभाव’ कहते हैं।
अभव्यका यह स्वभाव है कि जिसमें अनेकान्त तत्त्वस्वरूप है ऐसे वीतराग– विज्ञानस्वरूप
जिनधर्म मिथ्यात्व को मिटाने वाला है, उसका भले प्रकार स्वरूप सुनकर भी जिसका
मिथ्यात्वस्वरूप भाव नहीं बदलता है वह वस्तुका स्वरूप है, किसी का नहीं किया हुआ है।
यहाँ, उपदेश – अपेक्षा इसप्रकार जानना कि जो अभव्यरूप प्रकृति तो सर्वज्ञ गम्य है, तो भी
अभव्य की प्रकृति के समान अपनी प्रकृति न रखना, मिथ्यात्व को छोड़ना यह उपदेश है।।
१३८।।

आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हैंः–––
मिच्छत्तछण्णदिट्ठी दुद्धीए दुम्मएहिं दोसेहिं।
धम्मं जिणपण्णत्तं अभव्वजीवो ण रोचेदि।। १३९।।
मिथ्यात्वछन्नद्रष्टिः दुर्धिया दुर्मतैः दोषैः।
धर्म जिनप्रज्ञप्तं अभव्यजीवः न रोचयति।। १३९।।

अर्थः
––दुर्मत जो सर्वथा एकान्त मत, उनसे प्ररूपित अन्यमत, वे ही हुए दोष उनके
द्वारा अपनी दुर्बुद्धि से
(मिथ्यात्व से) आच्छादित है बुद्धि जिसकी, ऐसा अभव्यजीव है उसे
जिनप्रणीत धर्म नहीं रुचता है, वह उसकी श्रद्धा नहीं करता है, उसमें रुचि नहीं करता है।

भावार्थः––मिथ्यात्व के उपदेश से अपनी दुर्बुद्धि द्वारा जिसके पास मिथ्यादृष्टि है
उसको जिनधर्म नहीं रुचता है, तब ज्ञात होता है कि ये अभव्यजीव के भाव हैं। यथार्थ
अभव्यजीव को तो सर्वज्ञ जानते हैं, परन्तु ये अभव्य जीवके चिन्ह हैं, इनसे परीक्षा द्वारा जाना
जाता है।। १३९।।

आगे कहते हैं कि ऐसे मिथ्यात्व के निमित्त से दुर्गति का पात्र होता हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
दुर्बद्धि–दुर्मतदोषथी मिथ्यात्वआवृत्तदग रहे,
आत्मा अभव्य जिनेंद्र ज्ञापित धर्मनी रुचि नव करे। १३९।

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२५०] [अष्टपाहुड
–––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
––––––––––––––
मिथ्यात्वघरसंसारमां रखड्यो अनादि काळथी। १४१।
कुच्छियधम्मम्मि रओ कुच्छियपासंडि भत्ति संजुत्तो।
कुच्छियतवं कुणंतो कुच्छियगइभायणो होइ।। १४०।।
कुत्सित धर्मे रतः कुत्सितपाषंडि भक्ति संयुक्तः।
कुत्सिततपः कुर्वन् कुत्सितगति भाजनं भवति।। १४०।।

अर्थः
––आचार्य कहते हैं कि जो कुत्सित
(निंद्य) मिथ्याधर्म में रत (लीन) हैं, जो
पाखण्डी निंद्यभेषियों की भक्तिसंयुक्त हैं, जो निंद्य मिथ्यात्वधर्म पालता है, मिथ्यादृष्टियों की
भक्ति करता है और मिथ्या अज्ञानतप करता है, वह दुर्गति ही पाता है, यह उपदेश है।।
१४०।।

आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते है कि ऐसे मिथ्यात्वसे मोहित जीव संसार
भ्रमण करता हैः–––
इय मिच्छत्तावासे कुणयकुसत्थेहिं मोहिओ जीवो।
भमिओ अणाइकालं संसारे धीर चिंतेहि।। १४१।।
इति मिथ्यात्वावासे कुनयशास्त्रैः मोहितः जीवः।
भ्रमितः अनादिकालं संसारे धीर! चिन्तय।। १४१।।

अर्थः–– इति अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार मिथ्यात्वका आवास (स्थान) यह मिथ्यादृष्टियों का
संसार में कुनय – सर्वथा एकान्त उन सहित कुशास्त्र, उनसे मोहित (बेहोश) हुआ यह जीव
अनादिकाल से लगाकर संसार में भ्रमण कर रहा है, ऐसे हे धीर मुने! तू विचार कर।

भावार्थः––आचार्य कहते हैं कि पूर्वोक्त तीन सौ त्रेसठ कुवादियों से सर्वथा
एकांतपक्षरूप कुनयद्वारा रचे हुए शास्त्रोंसे मोहित होकर यह जीव संसार में अनादिकालसे
भ्रमण करता है, सो हे धीर मुनि! अब ऐसे कुवादियों की संगति भी मत कर, यह उपदेश है।।
१४१।।
कुत्सित धरम–रत, भक्ति जे पाखंडी कुत्सितनी करे,
कुत्सित करे तप, तेह कुत्सित गति तणुं भाजन बने। १४०।
हे धीर! चिंतव–जीव आ मोहित कुनय–दुःशास्त्रथी,

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भावपाहुड][२५१
आगे कहते हैं कि–––पूर्वोक्त तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड़ियों का मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में
मन लगाओः–––
पासंडी तिण्णि सया तिसट्ठि भेया उमग्ग मुत्तूण।
रुंभहि मणु जिणमग्गे असप्पलावेण किं बहुणा।। १४२।।
पाखण्डिनः त्रीणि शतानि त्रिषष्टि भेदाः उन्मार्गं मुक्त्वा।
रुन्द्धि मनः जिनमार्गे असत्प्रलापेन किं बहुना।। १४२।।
अर्थः–––हे जीव! तीन सौ त्रेसठ पाखण्ड़ियों के मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में अपने
मनको रोक
(लगा) यह संक्षेप है और निरर्थक प्रलापरूप कहनेसे क्या?
भावार्थः––इसप्रकार मिथ्यात्वका वर्णन किया। आचार्य कहते हैं कि बहुत निरर्थक
वचनालाप से क्या? इतना ही संक्षेप से कहते है कि तीनसौ त्रेसठ कुवादि पाखण्डी कहे
उनका मार्ग छोड़कर जिनमार्ग में मनको रोको, अन्यत्र न जाने दो। यहाँ इतना और विशेष
जानना कि––कालदोष से इस पंचमकाल में अनेक पक्षपातसे मन–मतांतर हो गये हैं, उनको
भी मिथ्या जानकर उनका प्रसंग न करो। सर्वथा एकान्तका पक्षपात छोड़कर अनेकान्तरूप
जिनवचन की शरण लो।। १४२।।
आगे सम्यग्दर्शनका निरूपण करते हैं, पहिले कहते हैं कि’सम्यग्दर्शन रहित प्राणी
चलता हुआ मृतक’ हैः–––
जीवविमुक्तः शवः दर्शनमुक्तश्च भवति चलशवः।
शवः लोके अपूज्यः लोकोत्तरे चलशवः।। १४३।।
जविविमुक्को सबओ दंसणमुक्को य होइ चलसबओ।
सबओ लोयअपुज्जो लोउत्तरयम्मि चलसबओ।। १४३।।

अर्थः
––लोकमें जीवरहित शरीरको ‘शव’ कहते हैं, ‘मृतक’ या ‘मुरदा’ कहते हैं, वैसे
ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष ‘चलता हुआ मृतक’ है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
उन्मार्गने छोडी त्रिशत–तेसठप्रमित पाखंडीना,
जिनमार्गमां मन रोक; बहु प्रलपन निरर्थथी शुं भला? १४२।

जीवमुक्त शब कहेवाय‘चल शब’ जाण दर्शनमुक्तने;
शब लोक मांही अपूज्य, चल शब होय लोकोत्तर विषे। १४३।

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२५२] [अष्टपाहुड
मृतक तो लोकमें अपूज्य है, अग्निसे जलाया जाता है या पृथ्वी में गाड़ दिया जाता है और
‘दर्शनरहित चलता हुआ मुरदा’ लोकोत्तर जो मुनि – सम्यग्दृष्टि उनमें अपूज्य है, वे उसको
वंदनादि नहीं करते हैं। मुनिभेष धारण करता है तो भी उसे संघके बाहर रखते हैं अथवा
परलोकमें निंद्यगति पाकर अपूज्य होता है।
आगे सम्यक्त्वका महानपना कहते हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
त्यम अधिक छे सम्यक्त्व ऋषिश्रावक–द्विविध धर्मो विषे। १४४।

भावार्थः––सम्यग्दर्शन बिना पुरुष मृतकतुल्य है।। १४३।।
जह तारयाण चंदो मयराओ मयउलाण सव्वाणं।
अहिओ तह सम्मत्तो रिसिसावयदुविहधम्माणं।। १४४।।
यथा तारकाणां चन्द्रः मृगराजः मृगकुलानां सर्वेषाम्।
अधिकः तथा सम्यक्त्वं ऋषिश्रावकद्विविध धर्माणाम्।। १४४।।

अर्थः––जैसे ताराओं के समूह में चंद्रमा अधिक हैं और मृगकुल अर्थात् पशुओं के समूह
में मृगराज (सिंह) अधिक हैं, वैसे ही ऋषि (मुनि) और श्रावक इन दो प्रकार के धर्मों में
सम्यक्त्व हैं वह अधिक हैं।

भावार्थः––व्यवहारधर्म की जितनी प्रवृत्तियाँ हैं उनमें सम्यक्त्व अधिक, इसके बिना सब
संसारमार्ग बंधका कारण है।। १४४।।

फिर
कहते हैंः–––
जह फणिराओ सोहइ फणमणिमाणिक्ककिरण विप्फुरिओ।
तह विमल दंसणधरो जिणभत्ती पवयणे जीवो।। १४५।।
१ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘रेहइ’ पाठ है जिसका संस्कृत छाया में ‘राजते’ पाठान्तर है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘जिणभत्तीपवयणो’ ऐसा एक पद रूप पद है, जिसकी संस्कृत ‘जिनभक्तिप्रवचन’ है। यह
पाठ यतिभंग सा मालूम होता है।
ज्यम चंद्र तारागण विषे, मृगराज सौ मृगकुल विषे,

नागेन्द्र शोभे फेणमणिमाणिकय किरणे चमकतो,
ते रीत शोभे शासने जिनभक्त दर्शननिर्मळो। १४५।

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भावपाहुड][२५३
यथा फणिराजः शोभते फणमणि माणिक्यकिरण विस्फुरितः।
तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः।। १४५।।

अर्थः
––जैसे फणिराज
(धरणेन्द्र) है सो फण जो सहस्त्र फण उनमें लगे हुए मणियों
के बीच जो लाल – माणिक्य उनकी किरणोंसे विस्फुरित (देदीप्यमान) शोभा पाता है, वैसे ही
जिनभक्तिसहित निर्मल सम्यक्दर्शन का धारक जीव प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग के प्ररूपण में
शोभा पाता है।

भावार्थः–––सम्यक्त्व सहित जीवकी जिन–प्रवचनमें बड़ी अधिकता है। जहाँ – तहाँ
(सब जगह) शास्त्रों में सम्यक्त्वकी ही प्रधानता कही है।। १४५।।

आगे सम्यग्दर्शन सहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैंः–––
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले।
भाविय
तववयविमलं जिणलिंगं दंसणविसुद्धं।। १४६।।
यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले।
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शन विशुद्धम्।। १४६।।

अर्थः
––जैसे निर्मल आकाश मंडल में तारोंके समूह सहित चन्द्रमाका बिंब शोभा पाता
है, वैसे ही जिनशासन में दर्शनसे विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतोंसे निर्मल
जिनलिंग है सो शोभा पाता है।

भावार्थः––जिनलिंग अर्थात् ‘निर्ग्रंथ मुनिभेष’ यद्यपि तप–व्रतसहित निर्मल है, तो भी
सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं पाता है। इसके होने पर ही अत्यन्त शोभायमान होता है।।
१४६।।
आगे कहते हैं कि ऐसा जानकर दर्शनरत्नको धारण करो, ऐसा उपदेश करते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘तह वयविमलं’ ऐसा पाठ है, जिसकी संस्कृत ‘तथा व्रतमिलं’ है।
२ इस गाथाका चतुर्थ पाद यतिभंग है। इसकी जगह ‘जिनलिगं दंसणेम सुविसुद्धं’ होना ठीक जाँचता है।
शशिबिंब तारकवृंद सह निर्मळ नभे शोभे घणुं,
त्यम शोभतुं तपव्रतविमळ जिनलिंग दर्शन निर्मळुं। १४६।

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२५४] [अष्टपाहुड
१ पाठान्तरः – जीवो णिद्दिट्ठो।
ईम जाणीने गुणदोष धारो भावथी दगरत्नने,
इय णाउं गुणदोसं दंसणरयणं घरेह भावेण।
सारं गुणरयणाणं सोवाणं पढम मोक्खस्स।। १४७।।
इति ज्ञात्वा गुणदोषं दर्शनरत्नं धरतभावेन।
सारं गुणरत्नानां सोपानं प्रथमं मोक्षस्य।। १४७।।

अर्थः
––हे मुने! तू ‘इति’ अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार सम्यक्त्वके गुण और मिथ्यात्वके
दोषोंको जानकर सम्यक्त्वरूपी रत्नको भावपूर्वक धारण कर। यह गुणरूपी रत्नोंमें सार है और
मोक्षरूपी मंदिरका प्रथम सोपान है अर्थात् चढ़ने के लिये पहिली सीढ़ी है।

भावार्थः––जितने भी व्यवहार मोक्षमार्ग के अंग हैं, (गृहस्थके दान – पूजादिक और
मुनिके महाव्रत – शीलसंयमादिक) उन सबमें सार सम्यग्दर्शन है, इससे सब सफल हैं,
इसलिये मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दर्शन अंगीकार करो, यह प्रधान उपदेश है।। १४७।।

आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शन किसको होता है? जो जीव, जीवपदार्थ के स्वरूप को
जानकर इसकी भावना करे, इसका श्रद्धान करके अपने को जीव पदार्थ जानकर अनुभव द्वारा
प्रतीति करे उसके होता है। इसलिये अब यह जीवपदार्थ कैसा है उसका स्वरूप कहते हैंः––

कत्ता भोइ अमुत्तो सरीरमित्तो अणाइणिहणो य।
दंसणणाणुवओगो
णिद्दिट्ठो जिणवरिंदेहिं।। १४८।।
कर्त्ता भोक्ता अमूर्त्तः शरीरमात्रः अनादिनिधनः च।
दर्शनज्ञानोपयोगः निर्दिष्टः जिनवरेन्द्रैः।। १४८।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
२ पाठान्तरः – जीवः निर्दिष्टः।
जे सार गुणरत्नो विषे ने प्रथम शिवसोपान छे। १४७।

कर्ता तथा भोक्ता, अनादि–अनंत, देहप्रमाण ने,
वणमूर्ति, दगज्ञानोपयोगी जीव भाख्यो जिनवरे। १४८।

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भावपाहुड][२५५
अर्थः–––––‘जीव’ नामक पदार्थ है सो कैसा है–––कर्त्ता है, भोक्ता है, अमूर्तिक है,
शरीरप्रमाण है, अनादि निधन है, दर्शन – ज्ञान उपयोगवाला है, इसप्रकार जिनवरेन्द्र
सर्वज्ञदेव वीतराग ने कहा है।

भावार्थः––यहाँ ‘जीव’ नामक पदार्थ के छह विशेषण कहे। इनका आशय ऐसा है कि–
–––
१ – ‘कर्ता’ कहा, वह निश्चयनय से अपने अशुद्ध भावोंका अज्ञान अवस्था में आप ही
कर्ता है तथा व्यवहारनयसे ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों का कर्ता है और शुद्धनय से अपने
शुद्धभावों का कर्ता है।

भोक्ता’ कहा, वह निश्चयनयसे तो अपने ज्ञान – दर्शनमयी चेतनाभावका
भोक्ता है और व्यवहार नयसे पुद्गलकर्मके फल जो सुख–दुःख आदिका भोक्ता है।

३ – ‘अमूर्तिक’ कहा, वह निश्चयसे तो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द ये पुद्गल के
गुण–पर्याय हैं, इनसे रहित अमूर्तिक है और व्यवहार से जबतक पुद्गल कर्मसे बंधा है तब
तक ‘मूर्तिक’ भी कहते हैं।

४ – ‘शरीरपरिमाण’ कहा, वह निश्चयसे तो असंख्यातप्रदेशी लोकपरिमाण है, परन्तु
संकोच – विस्तारशक्तिसे शरीर से कुछ कम प्रदेश प्रमाण आकार में है।

५ – ‘अनादिनिधन’ कहा, वह पर्यायदृष्टि से देखने पर तो उत्पन्न होता है, नष्ट
होता है, तो भी द्रव्यदृष्टिसे देखा जाये तो अनादिनिधन सदा नित्य अविनाशी है।
६ – ‘दर्शन – ज्ञान उपयोगसहित’ कहा, वह देखने–जाननेरूप उपयोगस्वरूप
चेतनारूप है।
इन विशेषणोंसे अन्यमती अन्यप्रकार सर्वथा एकान्तरूप मानते हैं उनका निषेध भी
जानना चाहिये। ‘कर्ता’ विशेषणसे तो सांख्यमती सर्वथा अकर्ता मानता है उसका निषेध है।
भोक्ता’ विशेषणसे बौद्धमती क्षणिक मानकर कहता है कि कर्म को करने वाला तो ओर है
तथा भोगने वाला ओर है, इसका निषेध है। जो जीव कर्म करता है उसका फल वही जीव
भोगता है, इस कथन से बौद्धमती के कहने का निषेध है। ‘अमूर्तिक’ कहने से मीमांसक
आदि इसे शरीर सहित मूर्तिक ही मानते हैं, उनका निषेध है। ‘शरीरप्रमाण’ कहने से
नैयायिक, वैशेषिक, वेदान्ती आदि सर्वथा, सर्वव्यापक मानते हैं उनका निषेध है।
अनादिनिधन’ कहनेसे बौद्धमती सर्वथा क्षणस्थायी मानता है , उसका निषेध है।
दर्शनज्ञानउपयोगमयी’ कहने से सांख्यमती

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२५६] [अष्टपाहुड
आगे कहते है कि यह जीव ‘ज्ञान–दर्शन उपयोगमयी है’, किन्तु अनादि पौद्गलिक
कर्मके संयोग से इसके ज्ञान –दर्शन की पूर्णता नहीं होती है, इसलिये अल्प ज्ञान–दर्शन
अनुभव में आता है और उसमें अज्ञानके निमित्त से इष्ट– अनिष्ट बुद्धिरूप राग–द्वेष–मोह
भावके द्वारा ज्ञान– दर्शनमें कलुषतारूप सुख–दुःखादिक भाव अनुभवमें आते हैं। यह जीव
निजभावनारूप सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है तब ज्ञान – दर्शन – सुख –वीर्यके घातक कर्मोंका
नाश करता है, ऐसा दिखाते हैंः–––
तो ज्ञानरहित चेतनामात्र मानता है, नैयायिक, वैशेषिक, गुणगुणीके सर्वथा भेद मानकर ज्ञान
और जीवके सर्वथा भेद मानते हैं, बौद्धमतका विशेष ‘विज्ञानाद्वैतवादी’ ज्ञानमात्र ही मानता है
और वेदांती ज्ञानका कुछ निरूपण ही नहीं करता है, इन सबका निषेध है।

इसप्रकार सर्वज्ञका कहा हुआ जीवका स्वरूप जानकर अपने को ऐसा मानकर श्रद्धा,
रुचि, प्रतीति करना चाहिये। जीव कहने से अजीव पदार्थ भी जाना जाता है, अजीव न हो तो
जीव नाम कैसे होता? इसलिये अजीव का स्वरूप क्या है, वैसा ही उसका श्रद्धान आगम
अनुसार करना। इसप्रकार अजीव पदार्थ का स्वरूप जानकर और दोनोंके संयोग से अन्य
आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन भावों की प्रवृत्ति होती है। इनका आगम के अनुसार
स्वरूप जानकर श्रद्धान करने से सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१४८।।
दंसणणाणावरणं मोहणियं अंतराइयं कम्मं।
णिट्ठवइ भविय जीवो सम्मं जिणभावणाजुत्तो।। १४९।।
दर्शन ज्ञानावरणं मोहनीयं अन्तरायकं कर्म।
निष्ठापयति भव्यजीवाः सम्यक् जिनभावनायुक्तः।। १४९।।

अर्थः
––सम्यक्प्रकार जिनभावनासे युक्त भव्यजीव है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण,
मोहनीय, अन्तराय इन चार घातिया कर्मोंका निष्ठानपन करता है अर्थात् सम्पूर्ण अभाव करता
है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
दगज्ञानआवृति, मोह तेमज अंतरायक कर्मने
सम्यक्पणे जिनभावनाथी भव्य आत्मा क्षय करे। १४९।