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भावपाहुड][२५७
भावार्थः––दर्शनका घातक दर्शनावरण कर्म है, ज्ञानका घातक ज्ञानावरण कर्म है, सुखका घातक मोहनीय कर्म है, वीर्यका घातक अन्तराय कर्म है। इनका नाश कौन करता है? सम्यक्प्रकार जिनभावना भाकर अर्थात् जिनआज्ञा मानकर जीव–अजीव आदि तत्त्वका यथार्थ निश्चय कर श्रद्धावान् हुआ हो वह जीव करता है। इसलिये जिन आज्ञा मानकर यथार्थ श्रद्धान करो यह उपदेश है।। १४९।।
आगे कहते हैं कि इन घातिया कर्मोंका नाश होने पर ‘अनन्तचतुष्टय’ प्रकट होते हैंः– ––
णट्ठे घाइयउक्के लोयालोयं पयासेदि।। १५०।।
नष्टे घातिचतुष्के लोकालोकं प्रकाशयति।। १५०।।
अर्थः––पूर्वोक्त चार घातिया कर्मोंका नाश होने पर अनन्त ज्ञान–दर्शन–सुख और बल
भावार्थः––घातिया कर्मोंका नाश होने पर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और
लोकमें अनन्तानन्त जीवोंको, इनसे भी अनन्तानन्तगुणे पुद्गलोंको तथा धर्म–अधर्म–आकाश ये
तीनो द्रव्य और असंख्यात कालाणु इन सब द्रव्योंकी अतीत, अनागत और वर्तमानकाल संबन्धी
अनन्तपर्यायोंको भिन्न–भिन्न एक समय में स्पष्ट देखता है और जानता है। अनन्तसुख से
अत्यंततृप्तिरूप है और अनन्तशक्ति द्वारा अब किसी भी निमित्त से अवस्था पलटती (बदलती)
स्वरूपका ऐसा परमार्थ से श्रद्धान करना वह ही सम्यग्दर्शन है।। १५०।।
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२५८] [अष्टपाहुड
आगे जिसके अनन्तचतुष्टय पगट होते हैं उसको परमात्मा कहते हैं। उसके अनेक नाम हैं, उनमें से कुछ प्रकट कर कहते हैंः–––
अप्पो वि य परमप्पो कम्मविमुक्को य होइ फुडं।। १५१।।
आत्मा अपि च परमात्मा कर्मविमुक्तः च भवति स्फुटम्।। १५१।।
अर्थः––परमात्मा ज्ञानी है, शिव है, परमेष्ठी है, सर्वज्ञ है, विष्णु है, चतुर्मुख ब्रह्या है,
बुद्ध है, आत्मा है, परमात्मा है और कर्मरहित है, यह स्पष्ट जानो।
भावार्थः––‘ज्ञानी कहने से सांख्यमती ज्ञानरहित उदासीन चैतन्यमात्र मानता है उसका
मानते हैं वैसा नहीं है। ‘परमेष्ठी’ है सो परम (उत्कृष्ट) पदसे स्थित है अथवा उत्कृष्ट
वैसे नहीं है। ‘सर्वज्ञ’ है अर्थात् सब लोकालोकको जानता है, अन्य कितने ही किसी एक
प्रकरण संबन्धी सब बात जानता है उसको भी सर्वज्ञ कहते हैं वैसे नहीं है। ‘विष्णु’ है अर्थात्
जिसका ज्ञान सब ज्ञेयों में व्यापक है––अन्यमती वेदांती आदि कहते हैं कि पदार्थोंमें आप है
तो ऐसा नहीं है।
‘चतुर्मुख’ कहने से केवली अरहंत के समवसरण में वार मुख चारों दिशाओं में दिखते
ब्रह्या कोई नहीं है। ‘बुद्ध’ है अर्थात् सबका ज्ञाता है–––बौद्धमती क्षणिक को बुद्ध कहते हैं
वैसा नहीं है। ‘आत्मा’ है अपने स्वभाव ही में निरन्तर प्रवर्तता है––अन्यमती वेदान्ती सबमें
प्रवर्तते हुए आत्माको मानते हैं वैसा नहीं है। ‘परमात्मा’ है अर्थात् आत्मा को पूर्णरूप
‘अनन्तचतुष्टय’ उसके प्रगट हो गये हैं, इसलिये परमात्मा है। कर्म जो आत्मा के स्वभाव के
घातक घातियाकर्मोंसे रहित हो गये हैं इसलिये ‘कर्म विमुक्त’ हैं, अथवा कुछ करने योग्य
काम न रहा इसलिये भी कर्मविमुक्त हैं। सांख्यमती, नैयायिक सदा ही कर्मरहित मानते हैं वैसा
नहीं है।
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भावपाहुड][२५९ सांख्यमती, नैयायिक सदा ही कर्मरहित मानते हैं वैसा नहीं है। ऐसे परमात्मा के सार्थक नाम हैं। अन्यमती अपने इष्ट का नाम एक ही कहते हैं, उनका सर्वथा एकान्तके अभिप्रायके द्वारा अर्थ बिगड़ता है इसलिये यथार्थ नहीं है। अरहन्तके ये नाम नयविवक्षा से सत्यार्थ हैं , ऐसा जानो।। १५१।। आगे आचार्य कहते हैं कि ऐसा देव मुझे उत्तम बोधि देवेः–––
तिहुवणभवणपदीवी देउ ममं उत्तमं बोहिं।। १५२।।
त्रिभुवनभवनप्रदीपः ददातु मह्यं उत्तमां बोधिम्।। १५२।।
रहित, सकल (शरीरसहित) और तीन भुवनरूपी भवन को प्रकाशित करने के लिये प्रकृष्ट
भावार्थः––यहाँ और तो पूर्वोक्त प्रकार जानना, परन्तु ‘सकल’ विशेषणका यह आशय
और वचन की प्रवृत्ति शरीर बिना नहीं होती है, इसलिये अरहंतका आयुकर्मके उदय से शरीर
सहित अवस्थान रहता है और सुस्वर आदि नामकर्मके उदय से वचन की प्रवृत्ति होती है। इस
तरह अनेक जीवोंका कल्याण करने वाला उपदेश होता रहता है। अन्यमतियोंके ऐसा अवस्थान
आगे कहते हैं कि जो अरहंत जिनेश्वर के चरणोंको नमस्कार करते हैं वे संसार की जन्मरूप बेलको काटते हैंः–––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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२६०] [अष्टपाहुड
ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभावसत्थेण।। १५३।।
ते जन्मवल्लीमूलं खनंति वरभावशस्त्रेण।। १५३।।
अर्थः––जो पुरुष परम भक्ति अनुराग से जिनवर के चरणकमलोंको नमस्कार करते हैं
वे श्रेष्ठभावरूप ‘शस्त्र’ से जन्म अर्थात् संसाररूपी बेलके मूल जो मिथ्यात्व आदि कर्म, उनको
नष्ट कर डालते हैं (खोद डालते हैं)।
भावार्थः––अपनी श्रद्धा–रुचि–प्रतीति से जो जिनेश्वरदेवको नमस्कारकरता है, उनके
होता है कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका यह चिन्ह है, इसलिये मालूम होता है कि इसके
मिथ्यात्वका नाश हो गया, अब आगामी संसारकी वृद्धि इसके नहीं होगी, इसप्रकार बताया
है।। १५३।।
आगे कहते हैं कि जो जिनसम्यक्त्व को प्राप्त परुष है सो वह आगामी कर्म से लिप्त
तथा भावेन न लिप्यते कषायविषयैः सत्पुरुषः।। १५४।।
अर्थः––जैसे कमलिनी का पत्र अपने स्वभावसे ही जलसे लिप्त नहीं होता है, वैसे ही
सम्यग्दृष्टि सत्पुरुष है वह अपने भावसे ही क्रोधादिक कषाय और इन्द्रियोंके विषयोंमें लिप्त
नहीं होता है।
ते जन्मवेलीमूळने वर भावशस्त्र वडे रखणे। १५३।
ज्यम कमलिनीना पत्रने नहि सलिललेप स्वभावथी,
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भावपाहुड][२६१
भावार्थ––सम्यग्दृष्टि पुरुष के मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का तो सर्वथा अभाव ही है, अन्य कषायोंका यथासंभव अभाव है। मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीके अभाव से ऐसा भाव होता है। यद्यपि परद्रव्यमात्र के कर्तृत्वकी बुद्धि तो नहीं है, परन्तु शेष कषायोंके उदय से कुछ राग– द्वेष होता है, उसको कर्मके उदय के निमित्तसे हुए जानता है, इसलिये उसमें भी कर्तृत्वबुद्धि नहीं है, तो भी उन भावोंको रोगके समान हुए जानकर अच्छा नहीं समझता है। इसप्रकार अपने भावोंसे ही कषाय–विषयोंसे प्रीति–बुद्धि नहीं है, इसलिये उनसे लिप्त नहीं होता है, जलकमलवत् निर्लेप रहता है। इससे आगामी कर्मका बन्ध नहीं होता है, संसारकी वृद्धि नहीं होती है, ऐसा आशय है।।१५४।। आगे कहते हैं कि जो पूर्वोक्त भाव सहित सम्यग्दृषि्१ सत्परुष हैं वे ही सकल शील संयमादि गुणोंसे संयुक्त हैं , अन्य नहीं हैंः–––
अर्थः––पूवोक्त भाव सहित सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और शील संयम गुणोंसे सकल कला
अर्थात् संपूर्ण कलावान होते हैं, उनही को हम मुनि कहते हैं। जो सम्यग्दृष्टि नहीं हैं,
मलिनचित्त सहित मिथ्यादृष्टि हैं और बहुत दोषोंका आवास (स्थान) है वह तो भेष धारण
भावार्थः––जो सम्यग्दृष्टि है और शील (–उत्तरगुण) तथा संयम (–मूलगुण) सहित
क्रोधादि विकाररूप बहुत दोष पाये जाते हैं, वह तो मुनि का भेष धारण करता है तो भी
श्रावकके समान भी नहीं है, श्रावक सम्यग्दृष्टि हो और गृहस्थाचारके पाप सहित हो तो भी
उसके बराबर वह–केवल भेष मात्रको धारण करने वाला मुनि––नहीं है, ऐसा आचार्य ने कहा
है।। १५५।।
२ पाठान्तरः – तान् अपि
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२६२] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि होकर जिनने कषायरूप सुभट जीते वे ही धीरवीर हैंः–– –
दुज्जयपबल बलुद्धर कसायभड णिज्जिया जेहिं।। १५६।।
दुर्जयप्रबलबलोद्धतकषायभटाः निर्जिता यैः।। १५६।।
हुआ मलिनता रहित उज्ज्वल तीक्षण खड्ग, उससे जिनको जीतना कठिन है ऐसे दुर्जय,
प्रबल तथा बलसे उद्धत कषायरूप सुभटों को जीते, वे ही धीरवीर सुभट हैं, अन्य संग्रामादिक
में जीतनेबाले तो ‘कहने के सुभट’ हैं।
भावार्थः––युद्ध में जीतनेवाले शूरवीर तो लोकमें बहुत हैं, परन्तु कषायों को जीतनेवाले
जीतकर चारित्रवान् होते हैं वे मोक्ष पाते हैं, ऐसा आशय है।। १५६।।
आगे कहते हैं कि जो आप दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप होते हैं वे अन्यको भी उन सहित करते हैं, उनको धन्य हैः–––
विसयमयरहरपडिया भविया उत्तारिया जेहिं।। १५७।।
विषयमकरधरपतिताः भव्याः उत्तारिताः यैः।। १५७।।
अर्थः––जिन सत्परुषों ने विषयरूप मकरधर (समुद्र) में पड़े हुए भव्यजीवोंको –
क्वत्या सुदुर्जय–उग्रबळ–मदमत्त–सुभट–कषायने। १५६।
छे धन्य ते भगवंत, दर्शन ज्ञान–उत्तम कर वडे,
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भावपाहुड][२६३ इन्द्रादिक से पुज्य ज्ञानी धन्य हैं। भावार्थः––इस संसार–समुद्रसे आप तिरें और दूसरोंको तिरा देवें वह मुनि धन्य हैं। धनादिक सामग्रीसहितको ‘धन्य’ कहते हैं, वह तो ‘कहने के धन्य’ हैं।। १५७।। आगे फिर ऐसे मुनियोंकी महिमा करते हैंः––––
विसयविसपुप्फफुल्लिय लुणंति मुणि णाणसत्थेहिं।। १५८।।
विषयविषपुष्पपुष्पितां लुनंति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः।। १५८।।
अर्थः––माया (कपट) रूपी बेल जो मोहरूपी वृक्ष पर चढ़ी हुई है तथा विषयरूपी विष
निःशेष कर देते हैं।
भावार्थः––यह मायाकषाय गूढ़ है, इसका विस्तार भी बहुत है, मुनियों तक फैलती है,
१५८।।
आगे फिर उन मुनियोंके सामर्थ्य को कहते हैंः–––
ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण।। १५९।।
ते सर्वदुरितस्तंभं घ्नंति चारित्रखड्गेन।। १५९।।
चारित्ररूपी खड्गसे पापरूपी स्तंभको हनते हैं अर्थात् मूलसे काट डालते हैं।
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२६४] [अष्टपाहुड
भावार्थः––परद्रव्यसे ममत्वभावको ‘मोह’ कहते हैं। ‘मद’–––जाति आदि परद्रव्य संबंधसे गर्व होने को ‘मद’ कहते हैं। ‘गौरव’ तीन प्रकार का है–––ऋद्धि गौरव, सात गौरव और रसगौरव। जो कुछ तपोबलसे अपनी महंतता लोकमें हो उसका अपनेको मद आवे, उसमें हर्ष माने वह ‘ऋद्धिगौरव’ है। यदि अपने शरीरमें रोगादिक उत्पन्न न हों तो सुख माने तथा प्रमाद युक्त होकर अपना महंतपना माने ‘सातगौरव’ है। यदि मिष्ट–पुष्ट रसीला आहारादिक मिले तो उसके निमित्तसे प्रमत्त होकर शयनादिक करे ‘रसगौरव’ है। मुनि इसप्रकार गौरव से तो रहित हैं और परजीवों की करुणासे सहित हैं; ऐसा नहीं है कि परजीवोंसे मोहममत्व नहीं है इसलिये निर्दय होकर उनको मारते हैं, परन्तु जब तक राग अंश रहता है तब तक पर जीवों की करुणा ही करते हैं, उपकारबुद्धि रहती है। इसप्रकार ज्ञानी मुनि पाप जो अशुभकर्म उसका चारित्र के बल से नाश करते हैं।। १५९।। आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार मूलगुण और उत्तरगुणों से मंडित मुनि हैं वे जिनमत में शोभा पाते हैंः–––
तारावलिपरियरिओ पुण्णिमइंदुव्व पवणपहे।। १६०।।
तारावलीपरिकरितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथं।। १६०।।
मुनीन्द्ररूपी चंद्रमा शोभा पाता है।
सघळा दुरितरूप थंभने घाते चरण–तरवारथी। १५९।
तारावली सह जे रीते पूर्णेन्दु शोभे आभमां,
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भावपाहुड][२६५
भावार्थः––अट्ठाईस मूलगुण, दशलक्षण धर्म, तीन गुप्ति और चौरासी लाख उत्तरगुणोंकी मालासहित मुनि जिनमतमें चन्द्रमाके समान शोभा पाता है, ऐसे मुनि अन्यमत में नहीं हैं।। १६०।। आगे कहते हैं कि जिनके इसप्रकार विशुद्ध भाव हैं वे सत्पुरुष तीर्थंकर आदि पदके सुखोंको पाते हैंः––––
चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्ध भावा णरा पत्ता।। १६१।।
चारणमुन्यर्द्धी; विशुद्धभावा नराः प्राप्ताः।। १६१।।
भावार्थः––पहिले इसप्रकार निर्मल भावोंके धारक पुरुष हुए वे इस प्रकारके पदों के
आगे कहते हैं कि मोक्षका सुख भी ऐसे ही पाते हैंः–––
पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा।। १६२।।
चारणमुनींद्रसुऋद्धिने सुविशुद्धभाव नरो लहे। १६१।
जिनभावनापरिणत जीवो वरसिद्धि सुख अनुपम लहे,
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२६६] [अष्टपाहुड
प्राप्तो वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः।। १६२।।
अर्थः––जो जिन भावना से भावित जीव हैं वे ही सिद्धि अर्थात् मोक्ष के सुखको पाते
हैं। कैसा है सिद्धिसुख? ‘शिव’ है, कल्याणरूप है, किसीप्रकार उपद्रव सहित नहीं है,
‘अजरामरलिंग’ है अर्थात् जिसका चिन्ह वृद्ध होना और मरना इन दोनोंसे रहित है, ‘अनुपम’
है, जिसको संसारके सुखकी उपमा नहीं लगती है, ‘उत्तम’ (सर्वोत्तम) है, ‘परम’
सुखको जिन–भक्त पाता है, अन्यका भक्त नहीं पाता है।। १६२।।
आगे आचार्य प्रार्थना करते हैं कि जो ऐसे सिद्ध सुख को प्राप्त हुए सिद्ध भगवान वे
दिंतु वरभावसुद्धिं दंसण णाणे चरित्ते य।। १६३।।
अर्थः––सिद्ध भगवान मुझे दर्शन, ज्ञान में और चारित्र में श्रेष्ठ उत्तमभाव की शुद्धता
देवें। कैसे हैं सिद्ध भगवान्? तीन भुवन से पूज्य हैं, शुद्ध हैं, अर्थात् द्रव्यकर्म और नोकर्म रूप
मल से रहित हैं, निरंजन हैं अर्थात् रागादि कर्मसे रहित हैं, जिनके कर्मकी उत्पत्ति नहीं है,
नित्य है–––प्राप्त स्वभावका फिर नाश नहीं है।
भावार्थः––आचार्य ने शुद्धभावका फल सिद्ध अवस्था और जो निश्चय इस फलको प्राप्त
आगे भावके कथन का संकोच करेत हैंः–––
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भावपाहुड][२६७
अण्णे वि य वावारा भावम्मि परिठ्ठिया सव्वे।। १६४।।
अन्ये अपि च व्यापाराः भावे परिस्थिताः सर्वे।। १६४।।
कुछ व्यापार है वह सब ही शुद्धभावमें समस्तरूपसे स्थित है।
भावार्थः––पुरुषके चार प्रयोजन प्रधान हैं––धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। अन्य भी जो कुछ
सिद्धि है, इसप्रकार संक्षेपसे कहना जानो, अधिक क्या कहें? ।। १६४।।
आगे इस भावपाहुडको पूर्ण करते हुए इसके पढ़ने–सुनने व भावना करनेका
जो पढइ सुणइ भावइ सो पावइ अविचलं ठाणं।। १६५।।
यः पठति श्रृणोति भावयति सः प्राप्नोति अविचलं स्थानम्।। १६५।।
अर्थः––इसप्रकार इस भावपाहुड का सर्वबुद्ध – सर्वज्ञदेवने उपदेश दिया है, इसको जो
भव्यजीव सम्यक्प्रकार पढ़ते हैं, सुनते हैं और इसका चिन्तन करते हैं चे शाश्वत सुखके स्थान
मोक्षको पाते हैं।
भावार्थः–– यह भावपाहुड ग्रंथ सर्वज्ञकी परम्परा से अर्थ लेकर आवार्य ने कहा है,
अपना कर्त्तव्य प्रधान कर नहीं कहा है। इसके पढ़ने –सुननेका फल मोक्ष कहा, वह युक्त ही
है। शुद्धभाव से मोक्ष होता है और इसके पढ़ने से शुद्ध भाव होते हैं।
बीजाय बहु व्यापार, ते सौ भाव मांही रहेल छे। १६४।
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२६८] [अष्टपाहुड [नोंध–––यहाँ सवश्रयी निश्चय में शुद्धता करे तो निमित्त में शास्त्र–पठनादि में व्यवहारसे निमित्तकारण – परंपरा कारण कहा जाय। अनुपचार – निश्चय बिना उपचार –व्यवहार कैसे? इसप्रकार इसका पढ़ना, सुनना, धारण और भावना करना परंपरा मोक्षका कारण है। इसलिये हे भव्य जीवो! इस भावपाहुड को पढ़ो, सुनो, सुनाओ, भावो और निरन्तर अभ्यास करो जिससे भाव शुद्ध हों और सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी पूर्णताको पाकर मोक्षको प्राप्त करो तथा वहाँ परमानन्दरूप शाश्वत सुख को भोगो। इसप्रकार श्री कुन्दकुन्दनामक आचार्य ने भावपाहुड ग्रंथ पूर्ण किया। इसका संक्षेप ऐसे है–––जीव नामक वस्तुका एक असाधारण शुद्ध अविनाशी चेतन स्वभाव है। इसकी शुद्ध, अशुद्ध दो परिणति हैं। शुद्ध दर्शन–ज्ञानोपयोगरूप परिणमना ‘शुद्ध परिणति’ है, इसको शुद्धभाव कहते हैं। कर्मके निमित्तसे राग–द्वेष–मोहादिक विभावरूप परिणमना ‘अशुद्ध परिणति’ है, इसको अशुद्ध भाव कहते हैं। कर्मका निमित्त अनादि से है इसलिये अशुद्धभावरूप अनादिही से परिणमन कर रहा है। इस भाव से शुभ– अशुभ कर्मका बंध होता है, इस बंधके उदय से फिर शुभ या अशुभ भावरूप (–अशुद्ध भावरूप) परिणमन करता है, इसप्रकार अनादि संतान चला आता है। जब इष्टदेवतादिककी भक्ति, जीवोंकी दया, उपकार, मंदकषायरूप परिणमन करता है तब तो शुभकर्मका बंध करता है; इसके निमित्तसे देवादिक पर्याय पाकर कुछ सुखी होता है। जब विषय–कषाय तीव्र परिणामरूप परिणमन करता है तब पापका बंध करता है, इसके उदय में नरकादिक पाकर दुःखी होता है।
इसप्रकार संसार में अशुद्धभाव से अनादिकालसे यह जीव भ्रमण करता है। जब कोई काल ऐसा आवे जिसमें जिनेश्वरदेव––सर्वज्ञ वीतरागके उपदेश को प्राप्ति हो और उसका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण करे तब स्व और परका भेदज्ञान करके शुद्ध– अशुद्ध भावका स्वरूप जानकर अपने हित – अहितका श्रद्धान रुचि प्रतीति आचरण हो तब शुद्धदर्शनज्ञानमयी शुद्ध चेतना परिणमन को तो ‘हित’ जाने, इसका फल संसार की निवृत्ति है इसको जाने, और अशुद्धभावका फल संसार है इसको जाने, तब शुद्धभावके ग्रहणका और अशुद्धभावके त्यागका उपाय करे। उपाय का स्वरूप जैसे सर्वज्ञ–वीतरागके आगममें कहा है वैसे करे।
इसका स्वरूप निशचय–व्यवहारात्मक सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग कहा है। शुद्धभावरूप के श्रद्धान –ज्ञान –चारित्र को ‘निश्चय’ कहा है और जिनदेव सर्वज्ञ–वीतराग तथा उनके वचन और उन वचनोंके अनुसार प्रवर्तनेवाले मुनि श्रावक उनकी भक्ति वन्दना विनय वैयावृत्य करना ‘व्यवहार’ है, क्योंकि यह मोक्षमार्ग में प्रवर्ताने को उपकारी हैं। उपकारी का उपकार मानना न्याय है, उपकार लोपना अन्याय है।
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भावपाहुड][२६९ स्वरूपके साधक अहिंसा आदि महाव्रत तथा रत्नत्रयरूप प्रवृत्ति, समिनि, गुप्तिरूप प्रर्वतना और इसमें दोष लगने पर अपनी निंदा गर्हादिक करना, गुरुओंका दिया हुाा प्रायश्चित लेना, शक्ति के अनुसार तप करना, परिषह सहना, दसलक्षणधर्म में प्रवर्तना इत्यादि शुद्धात्मा के अनुकूल क्रियारूप प्रर्वतना, इनमें कुछ रागका अंश रहता है तब तक शुभकर्म का बंध होता है, तो भी वह प्रधान नहीं है, क्योंकि इनमें प्रर्वतनेवाले के शुभकर्म के फल की इच्छा नहीं है, इसलिये अबंधतुल्य है,–––इत्यादि प्रवृत्ति आगमोक्त ‘व्यवहार–मोक्षमार्ग’ है। इसमें प्रवृत्तिरूप परिणाम हैह तो भी निवृत्ति प्रधान है, इसलिये निश्चय–मोक्षमार्ग में विरोध नहीं है। इसप्रकार निश्चय–व्यवहारस्वरूप मोक्षमार्ग का संक्षेप है। इसी को ‘शुद्धभाव’ कहा है। इसमें भी सम्यग्दर्शन को प्रधान कहा है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना सब व्यवहार मोक्षका कारण नहीं है और सम्यग्दर्शनके व्यवहारमें जिनदेव की भक्ति प्रधान है, यह सम्यग्दर्शनको बताने के लिये मुख्य चिन्ह है, इसलिये जिन भक्ति निरन्तर करना और जिन आज्ञा मानकर आगमोक्त मार्गमें प्रवर्तना यह श्रीगुरुका उपदेश है। अन्य जिन–आज्ञा सिवाय सब कुमार्ग हैं, उनका प्रसंग छोड़ना; इसप्रकार करने से आत्मकल्याण होता है। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१– ‘शुद्धभाव’ का निरूपण दो प्रकार से किया गया है; जैसे ‘मोक्षमार्ग दो नहीं हैं’ किन्तु उसका निरूपण दो प्रकार का है, इसीप्रकार शुद्धभाव को यहाँ दो प्रकार के कहे हैं वहाँ निश्चयनय से ओर व्यवहारनयसे कहा है ऐसा समझना चाहिये। निश्चय सम्यग्दर्शनादि है उसे ही व्य० मान्य है और उसे ही निरतिचार व्यवहार रत्नत्रयादि में व्यवहार से ‘शुद्धत्व’ अथवा ‘शुद्ध संप्रयोगत्व’ का आरोप आता है जिसको व्यवहार में ‘शुद्धभाव’ कहा है, उसी को निश्चय अपेक्षा अशुद्ध कहा है– विरुद्ध कहा है, किन्तु व्यवहारनय से व्यवहार विरुद्ध नहीं है।
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२७०] [अष्टपाहुड
कर्म शुभाशुभ बांधि उदै भरमै संसारै।
पावै दुःख अनंत च्यारि गतिमें डुलि सारै।।
सर्वज्ञदेशना पायकै तजै भाव मिथ्यात्व जब।
निजशुद्धभाव धरि कर्महरि लहै मोक्ष भरमै न तब।।
नमूं पाय पाऊं स्वपद, जाचूं यहै करार।। २।
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भये सिद्ध निज ध्यानतैं नमूं मोक्ष सुखदाय।। १।।
इसप्रकार मंगलके लिये सिद्धोंको नमस्कार कर श्रीकुन्दकुन्द आचार्यकृत ‘मोक्षपाहुड’ ग्रंथ प्राकृत गाथाबद्ध है, उसकी देशभाषामय वचनिका लिखते हैं। प्रथम ही आचार्य मंगलके लिये परमात्मा को नमस्कार करते हैंः–––
त्यक्ता च परद्रव्यं नमो नमस्तस्मै देवाय।। १।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जिनने परद्रव्यको छोड़कर, द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म
खिर गये हैं ऐसे होकर, निर्मल ज्ञानमयी आत्माको प्राप्त कर लिया है इसप्रकारके देवको
हमारा नमस्कार हो – नमस्कार हो! दो बार कहने में अति प्रीतियुक्त भाव बताये हैं।
भावार्थः––यह ‘मोक्षपाहुड’ का प्रारंभ है। यहाँ जिनने समस्त परद्रव्य को छोड़
ज्ञानात्म आत्मा प्राप्त कीधो, नमुं नमुं ते देवने। १।
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२७२] [अष्टपाहुड उन देवको मंगलके लिये नमस्कार किया यह युक्त है। जहाँ जैसा प्रकरण वहाँ वैसी योग्यता। यहाँ भाव–मोक्ष तो अरहंत के है और द्रव्य–भाव दोनों प्रकारके मोक्ष परमेष्ठी के हैं, इसलिये दोनों को नमस्कार जानो।। १।। आगे इसप्रकार नमस्कार कर ग्रंथ करने की प्रतिज्ञा करते हैंः–––
वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम्।। २।।
अर्थः––आचार्य कहेत हैं कि उस पूर्वोक्त देवको नमस्कार कर, परमात्मा जो उत्कृष्ट
शुद्ध आत्मा उसको, परम योगीश्वर जो उत्कृष्ट – योग्य ध्यानके करने वाले मुनिराजों के
लिये कहूँगा। कैसा है पूर्वोक्त देव? जिनके अनन्त और श्रेष्ठ ज्ञान – दर्शन पाया जाता है,
विशुद्ध है – कर्ममल से रहित है, जिसका पद परम–उत्कृष्ट है।
भावार्थः––इस ग्रंथ में मोक्ष को जिस कारणसे पावे और जैसा मोक्षपद है वैसा वर्णन करेंगे, इसलिये उस रीति उसी की प्रतीज्ञा की है। योगीश्वरोंके लिये कहेंगे, इसका आशय यह है कि ऐसे मोक्षपद को शुद्ध परमात्माके ध्यानके द्वारा प्राप्त करते हैं, उस ध्यान की योग्यता योगीश्वरों के ही प्रधानरूपसे पाई जाती है, गृहस्थों के यह ध्यान प्रधान नहीं है।। २।।
आगे कहते हैं कि जिस परमात्माको कहने की प्रतीज्ञा की है उसको योगी ध्यानी मुनि जानकर उसका ध्यान करके परम पदको प्राप्त करते हैंः–––
अव्वाबाहमणंतं अणोवमं लहइ णिव्वाणं।। ३।।
––––––––––––––
कहुं परमपद–परमातमा प्रकरण परमयोगीन्द्रने। २।
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मोक्षपाहुड][२७३
अव्याबाधमनंतं अनुपमं लभते निर्वाणम्।। ३।।
अर्थः––आगे कहेंगे कि परमात्माको जानकर योगी (– मुनि) योग (– ध्यान) में
निर्वाण? ‘अव्याबाध’ है, – जहाँ किसी प्रकार की बाधा नहीं है। ‘अनंत’ है –जिसका नाश
नहीं है। ‘अनुपम’ है,–– जिसको किसी की उपमा नहीं लगती है।
भावार्थः––आचार्य कहते हैं कि ऐसे परमात्माको आगे कहेंगे जिसके ध्यानमें मुनि निरंतर अनुभव करके केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त करते हैं। यहाँ यह तात्पर्य है कि परमात्मा के ध्यान से मोक्ष होता है।। ३।। आगे परमात्मा कैसा है ऐसा बतानेके लिये आत्माको तीन प्रकार दिखाते हैंः––
तत्थ परो झाइज्जइ अंतो वाएण चइवि बहिरप्पा।। ४।।
तत्र परं ध्यायते अन्तरुपायेन त्यज बहिरात्मानम्।। ४।।
अंतरात्माके उपाय द्वारा बहिरात्माको छोड़कर परमात्माका ध्यान करना चाहिये।
भावार्थः––बहिरात्मपन को छोड़कर अंरतात्मारूप होकर परमात्माका ध्यान करना
आगे तीन प्रकारके आत्माका स्वरूप दिखाते हैंः–––
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२७४] [अष्टपाहुड
कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो।। ५।।
कर्मकलंक विमुक्तः परमात्मा भण्यते देवः।। ५।।
अर्थः––अक्ष अर्थात् स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ वह तो बाह्य आत्मा है, क्योंकि इन्द्रियों से
स्पर्श आदि विषयोंका ज्ञान होता है तब लोग कहते हैं––––ऐसे ही जो इन्द्रियाँ हैं वही
आत्मा है, इसप्रकार इन्द्रियों को बाह्य आत्मा कहते हैं। अंतरात्मा है वह अंतरंग में आत्माका
प्रकट अनुभवगोचर संकल्प है, शरीर और इन्द्रियों से भिन्न मन के द्वारा देखने जानने वाला
है वह मैं हूँ, इसप्रकार स्वसंवेदनगोचर संकल्प वही अन्तरात्मा है। तथा परमात्मा कर्म जो
द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक तथा भावकर्म जो राग–द्वेष–मोहादिक और नोकर्म जो शरीरादिक
कलंकमल उससे विमुक्त–रहित, अनंतज्ञानादिक गुण सहित वही परमात्मा, वही देव है,
अन्यदेव कहना उपचार है।
भावार्थः–––बाह्य आत्मा तो इन्द्रियों को कहा तथा अंतरात्मा देहमें स्थित देखना – जानने जिसके पाया जाता है ऐसा मन के द्वारा संकल्प है और परमात्मा कर्मकलंक से रहित कहा। यहाँ ऐसा बताया है कि यह जीव ही जबतक बाह्य शरीरादिक को ही आत्मा जानता है तब तक तो बहिरात्मा है, संसारी है, जब यही जीव अंतरंग में आत्मा को जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है, तब अन्तरात्मा है और यह जीव जब परमात्मा के ध्यान से कर्मकलंक से रहित होता है तब पहिले तो केवलज्ञान प्राप्त कर अरहंत होता है, पीछे सिद्धपद को प्राप्त करता है, इन दोनों ही को परमात्मा कहते हैं। अरहंत तो भाव–कलंक रहित हैं और सिद्ध द्रव्य–भावरूप दोनों ही प्रकार के कलंक से रहित हैं, इसप्रकार जानो।। ५।। आगे उस परमात्मा विशेषण द्वारा स्वरूप कहते हैंः––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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मोक्षपाहुड][२७५
परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो।। ६।।
परमेष्ठी परमजिनः शिवंकरः शाश्वतः सिद्धः।। ६।।
अर्थः––परमात्मा ऐसा है – मलरहित है – द्रव्यकर्म भावकर्मरूप मलसे रहित है,
कलत्यक्त (– शरीर रहित) है अनिंद्रिय (– इन्द्रिय रहित) है, अथवा अनिंदित अर्थात् किसी
तो भी उनरूप नहीं होता है, और न उनसे रागद्वेष है, परमेष्ठी है – परमपद में स्थित है,
परम जिन है –सब कर्मोंको जीत लिये हैं, शिवंकर है – भव्यजीवोंको परम मंगल तथा
मोक्षको करता है, शाश्वता (– अविनाशी) है, सिद्ध है–––अपने स्वरूपकी सिद्धि करके
भावार्थः––ऐसा परमात्मा है, जो इसप्रकारके परमात्माका ध्यान करता है वह ऐसा ही
आगे भी यही उपदेश करते हैंः–––
झाइज्जइ परमप्पा उवइट्ठं जिणवरिंदेहिं।। ७।।
ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरैन्द्रैः।। ७।।
अर्थः––बहिरात्मपन को मन वचन काय से छोड़कर अन्तरात्माका आश्रय लेकर
परमात्माका ध्यान करो, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर परमदेव ने उपदेश दिया है।
परमेष्ठी, केवळ, परमजिन, शाश्वत, शिवंकर सिद्ध छे। ६।
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२७६] [अष्टपाहुड
भावार्थः––परमात्मा के ध्यान करने का उपदेश प्रधान करके कहा है, इसीसे मोक्ष पाते हैं।। ७।। आगे बहिरात्मा की प्रवृत्ति कहते हैंः–––
णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मुढदिट्ठीओ।। ८।।
निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढद्रष्टिस्तु।। ८।।
अर्थः––मूढ़दृष्टि अज्ञानी मोही मिथ्यादृष्टि है वह बाह्य पदार्थ – धन, धान्य, कुटुम्ब
आदि इष्ट पदार्थों में स्फुरित (– तत्पर) मनवाला है तथा इन्द्रियोंके द्वारा अपने स्वरूप से
है––निश्चय करता है, इसप्रकार मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है।
भावार्थः–––ऐसा बहिरात्माका भाव है उसको छोड़ना।। ८।।
आगे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि अपनी देहके समान दूसरोंकी देहको देखकर उसको दूसरे की आत्मा मानता हैः–––
अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परम भावेन।। ९।।
अर्थः–––मिथ्यादृष्टि पु्रुष अपनी देहके समान दूसरे की देहको देख करके यह देह
अचेतन है तो भी मिथ्याभाव से आत्मभाव द्वारा बड़ा यत्न करके परकी आत्मा ध्ताया है अर्थात्
समझता है।
निज देह अध्यवसित करे आत्मापणे जीव मूढधी। ८।
निजदेह सम परदेह देखी मूढ त्यां उद्यम करे,