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भी उसको परकी आत्मा मानता है
सुयदाराईविसए मणुयाणं वइढण मोहो।। १०।।
सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धंते मोहः।। १०।।
होती है।]
जानते हैं, उनके पुत्र स्त्री आदि कुटुम्बियोंमें मोह
नहीं होता है। इसलिये जीवादिक पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह जानकर मोह नहीं करना यह
बतलाया है।। १०।।
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मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ।। ११।।
मोहोदयेन पुनरपि अंगं मन्यते मनुजः।। ११।।
अर्थः––यह मनुष्य मोहकर्म के उदयसे
होता है, उससे निरन्तर परद्रव्य में यह भावना रहती है कि यह मुझे सदा प्राप्त होवे, इससे
यह प्राणी आगामी देहको भला जानकर चाहता है।। ११।।
आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं।। १२।।
आत्मस्वभावे सुरतः योगी स लभते निर्वाणम्।। १२।।
उदासीन है, निर्द्वन्द्व है––रागद्वेषरूप इष्ट–अनिष्ट मान्यता से रहित है, निर्ममत्व है––देहादिक
में ‘यह मेरा’ ऐसी बुद्धि से रहित है, निरारंभ है––इस शरीर के लिये तथा
निर्द्वन्द्व, निर्मम, देहमां निरपेक्ष, मुक्तारंभ जे,
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निरन्तर स्वभावकी भावना सहित है, वह मुनि निर्वाण को प्राप्त करता है।
एसो जिणउवदेसो समासदो
एषः जिनोपदेशः समासतः बंधमोक्षस्य।। १३।।
अर्थः––जो जीव परद्रव्यमें रत है, रागी है वह तो अनेक प्रकारके कर्मों से बाँधता है,
कर्मोंका बंध करता है और जो परद्रव्यसे विरत है–––रागी नहीं है वह अनेक प्रकारके कर्मों
से छूटता है, तह बन्धका और मोक्षका संक्षेपमें जिनदेव का उपदेश है।
से जिनेन्द्रका उपदेश है।। १३।।
रे! नियमथी निजद्रअरत साधु सुद्रष्टि होय छे,
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परिणाम करता हुआ मुनि आठ कर्मों का नाश करके निर्वाण को प्राप्त करता है।। १४।।
अर्थः––जो मुनि स्वद्रव्य अर्थात् अपनी आत्मामें रत है, रुचि सहित हे वह नियम से
सम्यग्दृष्टि है और वह ही सम्यक्त्वस्वभावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट आठ कर्मों का क्षय –
नाश करता है।
मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं।। १५।।
मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्ट कर्मभिः।। १५।।
और वह मिथ्यात्वभावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट अष्ट कर्मों से बँधता है।
अष्ट कर्मों से बँधता है।। १५।।
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इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरह इयरम्मि।। १६।।
इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन्।। १६।।
अर्थः––परद्रव्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्यसे सुगति होती है यह स्पष्ट
परद्रव्य उनसे विरति करो।
लेकर भोगता है उसको उसको दुःख होता है, आपत्ति उठानी पड़ती है। इसलिये आचार्य ने
संक्षेप में उपदेश दिया है कि अपने आत्मस्वभावमें रति करो इससे सुगति है, स्वर्गादिक भी
इसी से होते हैं और मोक्ष भी इसी से होता है और परद्रव्य से प्रीति मत करो इससे दुर्गति
होती है, संसार में भ्रमण होता है।
कहा है कि परद्रव्य से विरक्त होकर स्वद्रव्य में लीन होवे तब विशुद्धता बहुत होती है, उस
विशुद्धता के निमित्त से शुभकर्म भी बँधते हैं और जब अत्यंत विशुद्धता होती है तब कर्मों की
निर्जरा होकर मोक्ष होता है, इसलिये सुगति–दुर्गतिका होना कहा यह युक्त है, इसप्रकार
जानना चाहिये।। १६।।
तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं।। १७।।
–ए जाणी, निजद्रव्ये रमो, परद्रव्यथी विरमो तमे। १६।
आत्मस्वभावेतर सचित्त, अचित्त, तेमज मिजे,
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तत् परद्रव्यं भणितं अवितत्थं सर्वदर्शिभिः।। १७।।
अर्थः––आत्मस्वभावसे अन्य सचित्त तो स्त्री, पुत्रादिक जीव सहित वस्तु तथा अचित्त
धन, धान्य, हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु और मिश्र आभूषणादि सहित मनुष्य तथा कुटुम्ब
सहित गृहादिक ये सब परद्रव्य हैं, इसप्रकार जिसने जीवादिक पदार्थोंका स्वरूप नहीं जाना
उसको समझाने के लिये सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवानने कहा है अथवा ‘अवितत्थं’ अर्थात् सत्यार्थ
कहा है।
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं।। १८।।
शुद्धं जिनैः भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम्।। १८।।
अविनाशी नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकार रहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान् सर्वज्ञ ने
कहा है वह ही स्वद्रव्य है।
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्याणं।। १९।।
जे शुद्ध भाख्यो जिनवरे, ते आतमा स्वद्रअ छे। १८।
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है उससे निर्वाण को प्राप्त करता है, तो उससे क्या स्वर्ग लोक नहीं प्राप्त कर सकते हैं?
अवश्य ही प्राप्त कर सकते हैं।
ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्नाः लभते निर्वाणम्।। १९।।
अर्थः––जो मुनि परद्रव्यसे पराङ्मुख होकर स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्यका ध्यान करते
हैं वे प्रगट सुचरित्र अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त होते हुए जिनवर तीर्थंकरोंके मार्गका अनुलग्न –
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइकिं तिण सुरलोयं।। २०।।
येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम्।। २०।।
प्रवर्तने वाला शुद्ध आत्मा का ध्यान के मोक्ष प्राप्त करात है, तो उससे स्वर्ग लोक क्या कठिन
है? यह तो उसके मार्गमें ही है।। २०।।
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भी सुगमतासे जीते वह सुभट एक मनुष्यको क्या न जीते? अवश्य ही जीते।
सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाउ भुवणचले।। २१।।
स किं कोशार्द्धमपि स्फुटं न शक्नोति यातुं भुवनतले।। २१।।
अर्थः–– जो पुरुष बड़ा भार लेकर एक दिनमें सौ योजन चला जावे वह इस
पृथ्वीतलपर आधा कोश क्या न चला जावे? यह प्रगट–स्पष्ट जानो।
है।। २१।।
सो किं जिप्पइ इक्किं णरेण संगामए सुहडो।। २२।।
स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः।। २२।।
ते व्यक्तिथी क्रोशार्ध पण नव जई शकाय शुं भूतळे? २१।
जे सुभट होय अजेय कोटि नरोथी–सैनिक सर्वथी,
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जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं।। २३।।
यः प्राप्नोति सः प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम्।। २३।।
पाते हैं वे ही ध्यानके योगसे परलोक में शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं।
करते हैं वे जिनमार्ग में कहे हुए ध्यान के योगसे परलोक में जिसमें शाश्वत सुख है ऐसे
निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। २३।।
कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि।। २४।।
कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति।। २४।।
कर्मके संयोग से अशुद्ध है वही परमात्मा हो जाता है। भावार्थः–––सुगम है।।२४।।
ते आतमा परलोकमां पामे सुशाश्वत सौख्यने। २३।
ज्यम शुद्धता पामे सुवर्ण अतीव शोभन योगथी,
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छाया तवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरु भेयं।। २५।।
छाया तपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरु भेदः।। २५।।
अर्थः––व्रत और तपसे स्वर्ग होता है वह श्रेष्ठ है, परन्तु अव्रत और अतपसे प्राणी को
नरकगति में दुःख होता है वह मत होवे, श्रेष्ठ नहीं है। छाया और आतप में बैठने वाले के
प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है।
है वह दुखको प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है; इसप्रकार ही जो व्रत, तपका
आचरण करता है वह स्वर्गके सुखको प्राप्त करता है और जो इनका आचरण नहीं करता है,
विषय–कषायादिकका सेवन करता है वह नरक के दुःख को प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें
बड़ा भेद है। इसलिये यहाँ कहनेका यह आशय है कि जब तक निर्वाण न हो तब तक व्रत तप
आदिक में प्रवर्तना श्रेष्ठ है, इससे सांसारिक सुख की प्राप्ति है और निर्वाणके साधन में भी ये
सहकारी हैं। विषय–कषायादिक की प्रवृत्तिका फलतो केवल नरकादिकके दुःख हैं, उन दुःखोंके
कारणोंका सेवन करना यह तो बड़ी भूल है, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५।।
छांये अने तडके प्रतीक्षाकरणमां बहु भेद छे। २५।
संसार–अर्णव रुद्रथी निःसरण ईच्छे जीव जे,
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कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आत्मानां शुद्धम्।। २६।।
अर्थः––जो जीव रुद्र अर्थात् बड़े विस्ताररूप संसाररूपी समुद्र से निकलना चाहता है
वह जीव कर्मरूपी ईंधनको दहन करनेवाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है।
कर्ममलसे रहित अनन्तचतुष्टय सहित [निज निश्चय] परमात्मा है उसका ध्यान करता है।
मोक्षका उपाय इसके बिना अन्य नहीं है।। २६।।
लोय ववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो।। २७।।
लोकव्यवहारविरतः आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः।। २७।।
छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यानमें स्थित हुआ आत्माका ध्यान करता है।
छोड़े, रागद्वेष छोड़े और लोकव्यवहार जो संघमें रहनेमें परस्पर विनयाचार, वैयावृत्य,
धमोरुपदेश, पढ़ना, पढ़ाना है उसको भी छोड़े, ध्यान में स्थित होजावे, इसप्रकार आत्माका
ध्यान करे।
तो गर्भित हैं किन्तु विशेषरूपसे बतलाने के लिये भिन्न भिन्न कहे हैं। कषाय
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मान करे, किसी कार्य निमित्त कपट करे, आहारादिकमें लोभ करे। यह गारव है वह रस,
ऋद्धि और सात––ऐसे तीन प्रकारका है ये यद्यपि मानकषायमें गर्भित हैं तो भी प्रमादकी
बहुलता इनमें है इसलिये भिन्नरूपसे कहे हैं।
लक्षणके भेदसे भेद करके कहा। मोह नाम परसे ममत्वभावका है, संसारका ममत्व तो मुनिके है
ही नहीं परन्तु धर्मानुरागसे शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है वह भी छोड़े। इसप्रकार भेद–
विवक्षा से भिन्न भिन्न कहे हैं, ये ध्यान के घातक भाव हैं, इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं
है इसलिये जैसे ध्यान हो वैसे करे।।२७।।
मोणव्वएण जोइ जोयत्थो जोयए अप्पा।। २८।।
मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम्।। २८।।
अर्थः––योगी ध्यानी मुनि है वह मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप–पुण्य इनको मन–वचन–काय
से छोड़कर मौनव्रतके द्वारा ध्यानमें स्थित होकर आत्माका ध्यान करता है।
––मिथ्यात्व और अज्ञान को छोड़कर आत्माके स्वरूपको यथार्थ जानकर सम्यक् श्रद्धान तो
जिसने नहीं किया उसके मिथ्यात्व–अज्ञान तो लगा रहा तब ध्यान किसका हो तथा पुण्य–पाप
दोनों बंधस्वरूप हैं इनमें प्रीति–अप्रीति रहती है, जब तक मोक्षका स्वरूप भी जाना नहीं है
तब ध्यान किसका हो और [सम्यक् प्रकार स्वरूपगुप्त स्वअस्तिमें ठहरकर] मन वचनकी
प्रवृत्ति छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो?
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कहा है; इसप्रकार आत्माका ध्यान करनेसे मोक्ष होता है।। २८।।
जाणगं दिस्सदे
ज्ञायकं द्रश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम्।। २९।।
अर्थः––जिसरूप को मैं देखता हूँ वह रूप मूर्तिक वस्तु है, जड़ है, अचेतन है, सब
प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ, अमूर्तिक हूँ। यह तो जड़ अचेतन है सब
प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है, इसलिये मैं किससे बोलूँ?
है, किसी को जानता नहीं देखता नहीं। इसलिये ध्यान केनेवाला कहता है कि––मैं किससे
बोलूँ? इसलिये मेरे मौन है।। २६।।
जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं।। ३०।।
आस्रव समस्त निरोधीने क्षय पूर्वकर्म तणो करे,
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योगस्थः जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम्।। ३०।।
अर्थः––योग ध्यानमें स्थित हुआ योगी मुनि सब कर्मोंके आस्रवका निरोध करके
संवरयुक्त होकर पहिले बाँधे हुए कर्म जो संचयरूप हैं उनका क्षय करता है, इसप्रकार
जिनदेवने कहा हे वह जानो।
ध्यानका महात्म्य है।। ३०।।
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।। ३१।।
यः जागर्ति व्यवहारे सः सुप्तः आत्मनः कार्ये।। ३१।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के काममें जागता
है और जो व्यवहार में जागता है वह अपने आत्ममकार्य में सोता है।
नहीं है; सब प्रवृत्तियोंकी निवृत्ति करके ध्यान करता है वह व्यवहारमें सोता हुआ कहलाता है
और अपने आत्मस्वरूपमें लीन होकर देखता है, जानता है वह अपने आत्मकार्य में जागता है।
परन्तु जो इस व्यवहार में तत्पर है–––सावधान है, स्वरूप की दृष्टि नहीं है वह व्यवहार में
जागता हुआ कहलाता है।। ३१।।
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झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं।। ३२।।
ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः।। ३२।।
अर्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त कथनको जानकर योगी ध्यानी मुनि है वह सर्व व्यवहारको
सब प्रकार ही छोड़ देता है और परमात्माका ध्यान करता है––जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर
सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करता है।
है वैसे ही परमात्माका ध्यान करना। अन्यमती परमात्माका स्वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा कहते
हैं उसके ध्यानका भी वे अन्यथा उपदेश करते हैं उसका निषेध किया है। जिनदेवने
परमात्माका तथा ध्यानका भी स्वरूप कहा वह सत्यार्थ है, प्रमाणभूत है वैसे ही जो योगीश्वर
करते हैं वे ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। ३२।।
रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह।। ३३।।
रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु।। ३३।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो पाँच महाव्रत युक्त हो गया तथा पाँच समिति व तीन
गुप्तियोंसे युक्त हो गया और सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी रत्नत्रयसे संयुक्तहो गया, ऐसे
बनकर हे मुनिराजों! तुम ध्यान और अध्ययन–शास्त्रके अभ्यासको सदा करो।
परमात्मने ध्यावे यथा उपदिष्ट जिनदेवो वडे। ३२।
तुं पंचसमित त्रिगुप्त ने संयुक्त पंचमहाव्रते,
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गुप्ति–––यह तेरह प्रकारका चारित्र जिनदेव ने कहा है उससे युक्त हो और निश्चय–
व्यवहाररूप, मन्यगदर्शन–ज्ञान–चारित्र कहा है, इनसे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन
करनेका उपदेश है। इनमें प्रधान तो ध्यान ही है और यदि इसमें मन न रुके तो शास्त्र
अभ्यासमें मनको लगावे यह भी ध्यानतुल्य ही है, क्योंकि शास्त्रमें परमात्माके स्वरूपका निर्णय
है सो यह ध्यानका ही अंग है।। ३३।।
आराहणाविहणं तस्स फलं केवलं णाणं।। ३४।।
आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम्।। ३४।।
अर्थः––रत्नत्रय समयग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी आराधना करते हुए जीवको आराधक
जानना और आराधनाके विधानका फल केवलज्ञान है।
सो जिणवरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं णाणं।। ३५।।
आराधनानुं विधान केवलज्ञानफळदायक अहो! ३४।
छे सिद्ध, आत्मा शुद्ध छे सर्वज्ञानीदर्शी छे,
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सः जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं।। ३५।।
अर्थः––आत्मा जिनवरदेव ने ऐसा कहा है, केसा है? सिद्ध है––किसी से उत्पन्न नहीं
हुआ है स्वयंसिद्ध है, शुद्ध है–––कर्ममलसे रहित है, सर्वज्ञ है–––सब लोकालोक को
जानता है और सर्वदर्शी है–––सब लोक–अलोक को देखता है, इसप्रकार आत्मा है वह हे
मुनि! उसहीको तू केवलज्ञान जान अथवा उस केवलज्ञान ही को आत्मा जान। आत्मा में और
ज्ञान में कुछ प्रदेशभेद नहीं है, गुण–गुणी भेद है वह गौण है। यह आराधना का फल पहिले
केवलज्ञान कहा, वही है।। ३५।।
सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो।। ३६।।
सः ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः।। ३६।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेवके मतकी आज्ञासे रत्नत्रय–सम्यग्दर्शन, ज्ञान,
चारित्रकी निश्चयसे आराधना करता है वह प्रगटरूप से आत्माका ही ध्यान करता है, क्योंकि
रत्नत्रय आत्माका गुण है और गुण–गुणीमें भेद नहीं है। रत्नत्रय की आराधना है वह आत्माकी
ही आराधना है वह ही परद्रव्यको छोड़ता है इसमें संदेह नहीं है।
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तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं।। ३७।।
तत् चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम्।। ३७।।
परिहार है वह चारित्र है, इसप्रकार जानना चाहिये।
कर्त्ता आत्मा है, इसलिये ये तीन आत्मा ही है, गुण–गुणीमें कोई प्रदेशभेद नहीं होता है।
इसप्रकार रत्नत्रय है वह आत्मा ही है, इसप्रकार जानना।।३७।।
चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं।। ३८।।
चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रैः।। ३८।।
अर्थः––तत्वरुचि सम्यक्त्व है, तत्त्वका ग्रहण सम्यग्ज्ञान है, परिहार चारित्र है,
इसप्रकार जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेवने कहा है।
निवृत्ति चारित्र है; इसप्रकार जिनेश्वरदेवने कहा है, इनको निश्चय–व्यवहार नयसे आगमके
अनुसार साधना।। ३८।।
जे पाप तेम ज पुण्यनो परिहार ते चारित कह्युं। ३७।
छे तत्त्वरुचि, तत्त्वतणुं ग्रहण सद्ज्ञान छे,
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दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं।। ३९।।
दर्शनविहीन पुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम्।। ३९।।
अर्थः––जो पुरुष दर्शनसे शुद्ध है वह ही शुद्ध है, क्योकि जिसका दर्शन शुद्ध है वही
निर्वाण को पाता है और जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह पुरुष ईप्सित लाभ अर्थात्
मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता है।
है।। ३९।।
तं सम्मत्तं भणियं सवणाणं सावयाणं पि।। ४०।।
तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि।। ४०।।
अर्थः––इसप्रकार सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्रका उपदेश सार है, जो जरा व मरण
को हरनेवाला है, इसको जो मानता है श्रद्धान करता है वह ही सम्यक्त्व कहा है। वह मुनियों
तथा श्रावकोंको सभी को कहा है इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान चारित्र को अंगीकार करो।
दर्शनरहित जे पुरुष ते पामे न इच्छित लाभने। ३९।
जरमरणहर आ सारभूत उपदेश श्रद्धे स्पष्ट जे,
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सम्यग्ज्ञान है ऐसा सर्वदर्शी – सबको देखनेवाले सर्वज्ञ देव ने कहा है अतः वह ही सत्यार्थ है,
अन्य छद्मस्थका कहा हुआ सत्यार्थ नहीं है असत्यार्थ है, सर्वज्ञका कहा हुआ ही सत्यार्थ है।
मिथ्या कहलाते हैं, इसलिये सम्यग्दर्शन प्रधान जानकर पहिले अंगीकार करना, यह उपदेश
मुनि तथा श्रावक सभीको है।। ४०।।
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं।। ४१।।
तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः।। ४१।।
ज्ञानमयी चेतनास्वरूप कहा है, यह सदा अमूर्तिक है अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित है।
पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंको अजीव कहे हैं ये अचेतन हैं – जड़ हैं। इनमें पुद्गल स्पर्श, रस,
गंध, वर्ण, शब्दसहित मूर्तिक
इन्द्रियगोचर पुद्गल स्कंध हैं उनको ग्रहण करके जीव राग–द्वेष–मोहरूपी परिणमन करता है
शरीरादिको अपना मानता है तथा इष्ट–अनिष्ट मानकर राग–द्वेषरूप होता है, इससे नवीन
पुद्गल कर्मरूप होकर बंधको प्राप्त होता है, यह निमित्त–नैमित्तिक भाव है, इसप्रकार यह
जीव अज्ञानी होता हुआ जीव–पुद्गलके भेदको न जानकर मिथ्याज्ञानी होता है। इसलिये
आचार्य कहते हैं कि जिनदेवके मत से जीव–अजीवका भेद जानकर सम्यग्दर्शन का स्वरूप
जानना। इसप्रकार जिनदेवने कहा वह ही सत्यार्थ है, प्रमाण–नयके द्वारा ऐसे ही सिद्ध होता
है इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने सब वस्तुको प्रत्यक्ष देखकर कहा है।