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पैर पटके जो उससे पृथ्वी खुद जाय, इसप्रकार से चले सो तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी
है, मनुष्य नहीं है।। १५।।
छिंदहि तरुगण बहुसो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १६।।
छिनत्ति तरुगणं बहुशः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः।। १६।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके वनस्पति आदि की हिंसा से बंध होता है उसको दोष न
मान कर बंध को नहीं गिनता हुआ सस्य अर्थात् अनाज को कूटता है और वैसे ही वसुधा
अर्थात् पृथवी को खोदता है तथा बारबार तरुगण अर्थात् वृक्षों के समुह को छेदता है, ऐसा
लिंगी तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
है? इसप्रकार मानता हुआ तथा वैद्य–कर्मादिक के निमित्त औषधादिक को, धान्यको, पृथ्वी को
तथा वृक्षोंको खंड़ता है, खोदता है, छेदता है वह अज्ञानी पशु है, लिंग धारण करके श्रमण
कहलाता है वह श्रमण नहीं है।। १६।।
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दंसणणाणविहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १७।।
दर्शनज्ञानविहीनः तिर्यगयोनिः न सः श्रमणः।। १७।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह के प्रति तो निरंतर राग–प्रीति करता है
और पर जो कोई अन्य निर्दोष हैं उनको दोष लगाता है वह दर्शन–ज्ञानरहित है, ऐसा लिंगी
तिर्यंचयोनि है, पशु समान है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
अन्यके दोष लगाकर द्वेष करता है, व्यभिचारी का सा स्वभाव है, तो उसके कैसा दर्शन–
ज्ञान? और कैसा चारित्र? लिंग धारण करके लिंग के योग्य आचरण करना था वह नहीं
किया तब अज्ञानी पशु समान ही है, श्रमण कहलाता है वह आप भी मिथ्यादृष्टि है अन्य को
भी मिथ्यादृष्टि करनेवाला है, ऐसे का प्रसंग भी युक्त नहीं है।।१७।।
आयारविणयहीणो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १८।।
आचारविनयहीनः तिर्यंगयोनिः न सः श्रमणः।। १८।।
अर्थः–– जो लिंगी ‘प्रवज्या–हीन’ अर्थात् दीक्षा–रहित गृहस्थों पर और शिष्यों पर
बहुर स्नेह रखता है और आचार अर्थात् मुनियों की क्रिया और गुरुओं के विनय से रहित
होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण नहीं है।
दगज्ञानथी जे शून्य, ते तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे। १७।
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मुनि नहीं है, भ्रष्ट है, अन्य मुनियों के भाव बिगाड़ने वाला है।। १९।।
नहीं ऐसा लिंगी पशु समान है, उसको साधु नहीं कहते।। १८।।
बहुलं पि जाणमाणो भावविणट्ठो ण सो समणो।। १९।।
बहुलमपि जानन् भावविनष्टः न सः श्रमणः।। १९।।
अर्थः–––एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार प्रवृत्ति सहित जो वर्तता है वह हे मुनिवर! यदि
ऐसा लिंगधारी संयमी मुनियों के मध्य भी निरन्तर रहता है और बहुत शास्त्रोंको भी जानता है
तो भी भावोंसे नष्ट है, श्रमण नहीं है।
पासत्थ वि हु णियट्ठो भावविणट्ठो ण सो समणो।। २०।।
ने होय बहुश्रुत, तोय भावविनष्ट छे, नहि श्रमण छे। १९।
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पार्श्वस्थादपि स्फुटं विनष्टः भावविनष्टः न सः श्रमणः।। २०।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके स्त्रियों के समूह में उनका विश्वास करके ओर उनको
विश्वास उत्पन्न कराके दर्शन–ज्ञान–चारित्र को देता है उनको सम्यक्त्व बताता है, पढ़ना–
पढ़ाना, ज्ञान देता है, दीक्षा देता है, प्रवृत्ति सिखाता है, इसप्रकार विश्वास उत्पन्न करके
उनमें प्रवर्तता है वह ऐसा लिंगी तो पार्श्वस्थ से भी निकृष्ट है, प्रगट भावसे विनष्ट है, श्रमण
नहीं हैं।
मुनि को कहते हैं उससे भी वह निकृष्ट है, ऐसेको साधु नहीं कहते हैं।। २०।।
पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो समणो।। २१।।
प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्टः न सः श्रमणः।। २१।।
करता है और नित्य उसकी स्तुति करता है कि यह––बड़ी धर्मात्मा है, इसके साधुओं की
बड़ी भक्ति है, इसप्रकार से नित्य उसकी प्रशंसा करता है इसप्रकार पिंडको [शरीरको]
पालता है वह ऐसा लिंगी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव से विनष्ट है, वह
श्रमण नहीं है।
लज्जा भी नहीं आती है, इसप्रकार वह भावसे विनष्ट है, मुनित्वके भाव नहीं हैं, तब मुनि
कैसे?
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है––चिंतामणि रत्न पाकर कौड़ी के बदले में नष्ट करता है, इसीलिये आचार्य ने उपदेश दिया
है कि ऐसा पद पाकर इसकी बड़े यत्न से रक्षा करना,–––कुसंगति करके बिगाड़ेगा तो जैसे
पहिले संसार–भ्रमण था वैसे ही फिर संसार में अनन्त काल भ्रमण होगा और यत्नपूर्वक
मुनित्वका पालन करेगा तो शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करेगा, इसलिये जिसको मोक्ष चाहिये वह
मुनिधर्म को प्राप्त करके यत्न सहित पालन करो, परिषह का, उपसर्गका उपद्रव आवे तो भी
चलायमान मत होओ, यह श्री सर्वज्ञदेव का उपदेश है।। २२।।
अर्द्धफालक कहलाये, इनमें से फिर श्वेताम्बर हुए, इनमें से भी यापनीय हुए, इत्यादि होकर के
शिथिलाचार को पुष्ट करके के शास्त्र रचकर स्वच्छंद हो गये, इनमें से कितने ही निपट–
बिल्कुल निंद्य प्रवृत्ति करने लगे, इनका निषेध करने के लिये तथा सबको सत्य उपदेश देनेके
लिये यह ग्रंथ है, इसको समझकर श्रद्धान करना। इसप्रकार निंद्य आचरणवालों को साधु–
मोक्षमार्गी न मानना, इनकी वंदना व पूजा न करना यह उपदेश है।
पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तम ठाणं।। २२।।
पालयति कष्टसहितं सः गाहते उत्तम स्थानम्।। २२।।
अर्थः––इसप्रकार इस लिंगपाहुड शास्त्र का सर्वबुद्ध जो ज्ञानी गणधरादि उन्होंने–
उपदेश दिया है, उसको जानकर जो मुनि धर्मको कष्टसहित बड़े यत्नसे पालता है, रक्षा
करता है वह उत्तमस्थान–मोक्ष को पाता है।
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वह निंदाकूं पाय आपको अहित विथारै।
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ह्वै अरहंत जु सिद्ध फुनि, वंदूं तिनि धरी चाव।। १।।
कुन्दकुन्दाचार्य ग्रंथ की आदिमें इष्ट को नमस्काररूप मंगल करके ग्रंथ करने की प्रतिज्ञा करते
हैंः–––
तिविहेण पणमिऊणं सीलगुणाणं णिसोमेह।। १।।
त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाभ्यामि।। १।।
अर्थः––अचार्य कहते हैं कि मैं वीर अर्थात् अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमानस्वामी परम
भट्टारक को मन वचन काय से नमस्कार करके शील अर्थात् निजभावरूप प्रकृति उसके
गुणोंको अथवा शील और सम्यक्दर्शनादिक गुणोंको कहूँगा, कैसे हैं श्री वर्द्धमानस्वामी––
विशाल नयन हैं, उनके बाह्य में तो पदार्थोंको देखने का नेत्र तो विशाल है, विस्तीर्ण है,
सुन्दर है और अंतरंग में केवलदर्शन केवलज्ञानरूप नेत्र सम्स्त पदार्थोंको देखने वाले हैं और वे
कैसे हैं––––‘रक्तोत्पलकोमलसमपादं’ अर्थात् उनके चरण रक्त कमल के समान कोमल हैं,
ऐसे अन्य के नहीं हैं, इसलिये सबसे प्रशंसा करने योग्य हैं, पूजने योग्य हैं। इसका दूसरा
अर्थ ऐसा भी होता है कि रक्त अर्थात्
त्रिविधे करीने वंदना, हुं वर्णवुं शीलगुणने। १।
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सम अर्थात् रागद्वेष रहित, पाद अर्थात् जिनके वाणी के पद हैं, जिनके वचन कोमल हितमित
मधुर राग–द्वेष रहित प्रवर्तते हैं उनसे सबका कल्याण होता है।
णवरि य सीलेण विणा विसया णाणं विणासंति।। २।।
केवलं च शीलेन विना विषयाः ज्ञानं विनाशयंति।। २।।
अर्थः––शील के और ज्ञान के ज्ञानियोंने विरोध नहीं कहा है। ऐसा नहीं है कि जहाँ
शील हो वहाँ ज्ञान न हो और ज्ञान हो वहाँ शील न हो। यहाँ णवरि अर्थात् विशेष है वह
कहते हैं–––शीलके बिना विषय अर्थात् इन्द्रियोंके विषय हैं यह ज्ञान को नष्ट करते हैं–––
ज्ञान को मिथ्यात्व रागद्वेषमय अज्ञानरूप करते हैं।
प्रवृत्ति से] मिथ्यात्व रागद्वेषरूप परिणाम होता है इसलिये यह ज्ञान की प्रवृत्ति कुशील नाम को
प्राप्त करती है इससे संसार बनता है, इसलिये इसको संसार प्रकृति कहते हैं, इस प्रकृति को
अज्ञानरूप कहते हैं, इस कुशील प्रकृति से संसार पर्याय में अपनत्व मानता है तथा परद्रव्यों में
इष्ट–अनिष्ट बुद्धि करता है।
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त्यागने योग्य जाने, त्यागना चाहे ऐसी प्रकृति हो तब सम्यग्दर्शनरूप भाव कहते हैं, इस
सम्यग्दर्शन भाव से ज्ञान भी सम्यक् नाम पाता है और पद के अनुसार चारित्र की प्रवृत्ति को
सुशील कहते हैं, इसप्रकार कुशील सुशील शब्दका सामान्य अर्थ है।
मोक्षसन्मुख प्रकृति हो तब सुशील कहते हैं, इसलिये ज्ञानमें और शील में विशेष नहीं कहा है,
यदि ज्ञान में सुशील न आवे तो ज्ञानको इन्द्रियों के विषय नष्ट करते हैं, ज्ञान को अज्ञान
करते हैं तब कुशील नाम पाता है।
है कि मैं शील के गुणों को कहूँगा अतः इस प्रकार जाना जाता है कि आचार्य के आशय में
सुशील ही के कहने का प्रयोजन है, सुशील ही को शीलनाम से कहते हैं, शील बिना कुशील
कहते हैं।
इन्द्रियों के विषयों से आसक्ति होती है तब वह ज्ञान नाम नहीं प्राप्त करता, इस प्रकार
जानना चाहिये। व्यवहारमें शीलका अर्थ स्त्री–संसर्ग वर्जन करने का भी है, अतः विषय सेवन
का ही निषेध है। पर द्रव्य मात्र का संसर्ग छोड़ना, आत्मामें लीन होना वह परमब्रह्मचर्य है।
इसप्रकार ये शील ही के नामान्तर जानना।। २।।
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उसको जानकर उसकी भावना करना, बारंबार अनुभव करना दुःख से [–दृढ़तर सम्यक्
पुरुषार्थ से] होता है और कदाचित् ज्ञानकी भावना सहित भी जीव हो जावे तो विषयों को
दुःख से त्यागता है।
इसलिये पहिले ऐसा कहा है कि विषय ज्ञान को बिगाड़ते हैं अतः विषयों का त्यागना ही
सुशील है।। ३।।
विसए विरत्तमेत्तो ण खवेइ पुराइयं कम्मं।। ४।।
विषये विरक्त मात्रः न क्षिपते पुरातनं कर्म।। ४।।
जाणे न आत्मा ज्ञानने, वर्ते विषयवश ज्यां लगी;
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होकर वर्त्तता है तब तक ज्ञान का अनुभव नहीं होता है, इष्ट–अनिष्ट भाव ही रहते हैं और
ज्ञानका अनुभव हुए बिना कदाचित् विषयोंको त्यागे तो वर्तमान विषयोंको छोड़े परन्तु पूर्वकर्म
बाँधे थे उनका तो – ज्ञानका अनुभव हुए बिना क्षय नहीं होता है, पूर्व कर्म बंध को क्षय करने
में
संजम हीणो य तवो जइ चरइ णिरत्थयं सव्वं।। ५।।
संयमहीनं च तपः यदि चरति निरर्थंकं सर्वम्।। ५।।
अर्थः––ज्ञान यदि चारित्र रहित हो तो वह निरर्थक है और लिंग का ग्रहण यदि
दर्शनरहित हो तो वह भी निरर्थक है त–ा संयमरहित तप भी निरर्थक है, इस प्रकार ये
आचरण करे तो सब निरर्थक हैं।
अहिंसादिक का विपर्यय हो तब तप भी निष्फल हो, इस प्र्रकार से इनका आचरण निष्फल
होता है।। ५।।
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संजमसहिदो य तवो थोओ वि महाफलो होइ।। ६।।
संयमसहितं च तपः स्तोकमपि महाफलं भवति।। ६।।
अर्थः––ज्ञान तो चारित्रसे शुद्ध और लिंगका ग्रहण दर्शन से शुद्ध तथा संयमसहित
तप, ऐसे थोड़ा भी आचरण करे तो महाफलरूप होता है।
उसके बिना मुनिका भेष भी श्रेष्ठ नहीं है, इन्द्रिय संयम प्राणसंयम सहित उपवासादिक तप
थोड़ा भी करे तो बड़ा होता है और विषयाभिलास तथा दयारहित बड़े कष्ट सहित तप करे तो
भी फल नहीं होता है, ऐसे जानना।। ६।।
हिंडंति चादुरगद्दिं विसएसु विमोहिया मूढा।। ७।।
हिंडंते चर्तुगतिं विषयेषु विमोहिता मूढाः।। ७।।
अर्थः––कई मूढ़ मोही पुरुष ज्ञानको जानकर भी विषयरूप भावों में आसक्त होते हुए
चतुर्गतिरूप संसार में भ्रमण करते हैं,क्योंकि विषयों से विमोहित होने पर ये फिर भी जगत में
प्राप्त होंगे इसमें भी विषय–कषयों का ही संस्कार है।
तप जे ससंयम, ते भले थोडुं, महाफलयुक्त छे। ६।
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छिंदंति चादुरगदिं तवगुणजुत्ता ण संदेहो।। ८।।
छिन्दन्ति चतुर्गतिं तपोगुण युक्ताः न संदेहः।। ८।।
अर्थः––जो ज्ञान को जानकर और विषयों से विरक्त होकर ज्ञानकी बारबार अनुभवरूप
भावना सहित होते हैं वे तप और गुण अर्थात् मूलगुण उत्तरगुणयुक्त होकर चतुर्गतिरूप संसार
को छेदते हैं, इसमें संदेह नहीं है।
होता है––यह शीलसहित ज्ञानरूप मार्ग है।। ८।।
तह जीवो वि विसुद्धं णाणविसलिलेण विमलेण।। ९।।
तथा जीवोऽपि विशुद्धः ज्ञानविसलिलेन विमलेन।। ९।।
अर्थः––जैसे कांचन अर्थात् सुवर्ण खडिया अर्थात् सुहागा [– खडिया क्षार] और नमक
के लेप से विशुद्ध निर्मल कांतियुक्त होता है वैसे ही जीव भी विषय–कषायों के मलरहित
निर्मल ज्ञानरूप जलसे प्रक्षालित होकर कर्मरहित विशुद्ध होता है।
निःशंक ते तप गुण सहित छेदे चतुर्गतिभ्रमणने। ८।
धमतां लवण–खडी लेपपूर्वक कनक निर्मळ थाय छे,
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करे तो कर्मों का नाश करे, अनन्तचतुष्टय प्राप्त करके मुक्त हो शुद्धात्मा होता है, यहाँ सुवर्ण
का तो दृष्टांत है वह जानना।। ९।।
जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रज्जंति।। १०।।
ये ज्ञानगर्विताः भूत्वा विषयेषु रज्जन्ति।। १०।।
अर्थः––जो पुरुष ज्ञान गर्वित होकर ज्ञान मद से विषयों में रंजित होते हैं सो यह ज्ञान
का दोष नहीं है, वे मंदबुद्धि कुपुरुष हैं उनका दोष है।
विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष नहीं है––यह पुरुष मंदबुद्धि है और
कुपुरुष है उसका दोष है, पुरुष का होनहार खोटा होता है तब बुद्धि बिगड़ जाती है, फिर
ज्ञान को प्राप्त कर उसके मद में मस्त हो विषय–कषायों में आसक्त हो जाता है तो यह
दोष–अपराध पुरुष का है, ज्ञान का नहीं है। ज्ञान का कार्य तो वस्तु को जैसी हो वैसी बता
देना ही है, पीछे प्रवर्तना तो पुरुष का कार्य है, इसप्रकार जानना चाहिये।। १०।।
होहदि परिणिव्वाणं जीवानां चरित सुद्धाणं।। ११।।
सम्यक्त्वसंयुत ज्ञान दर्शन, तप अने चारित्रथी,
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भविष्यति परिनिर्वाणं जीवानां चारित्रशुद्धानाम्।। ११।।
अर्थः––ज्ञान दर्शन तप इनका सम्यक्त्वभाव सहित आचरण हो तब चारित्र से शुद्ध
जीवोंको निर्वाण की प्राप्ति होती है।
मुनिपना, यह हो तो २२ प्रकार व्यवहार के भेद हैं।]
अत्थि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्त चित्ताणं।। १२।।
अस्ति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्तचित्तानाम्।। १२।।
अर्थः––जिन पुरुषों का चित्त विषयों से विरक्त है, शील की रक्षा करते हैं, दर्शन से
शुद्ध हैं और जिनका चारित्र दृढ़ है ऐसे पुरुषों को ध्रुव अर्थात् निश्चयसे–नियमसे निर्वाण होता
है।
है, ––– ऐसे पुरुषोंको नियम से निर्वाण होता है। जो विषयों में आसक्त है, उनके शील
बिगड़ता है तब दर्शन शुद्ध न होकर चारित्र शिथिल हो जाता है, तब निर्वाण भी नहीं होता
है, इसप्रकार निर्वाण मार्ग में शील ही प्रधान है।। १२।।
कहता है तो उसका ज्ञान भी निरर्थक हैः–––
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उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं।। १३।।
उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम्।। १३।।
अर्थः–– जो पुरुष इष्१ मार्ग को दिखाने वाले ज्ञानी हैं और विषयों से विमोहित हैं तो
भी उनको मार्ग की प्राप्ति कही है, परन्तु जो उन्मार्ग को दिखाने वाले हैं उनको तो ज्ञान की
प्राप्ति भी निरर्थक है।
है कि–––ज्ञान प्राप्त करके कदाचित् चारित्र मोह के उदय से [–उदयवश] विषय न छूटे
वहाँ तक तो उनमें विमोहित रहे और मार्ग की प्ररूपणा करे विषयोंके त्याग रूप ही करे
उसको तो मार्ग की प्राप्ति होती भी है, परन्तु जो मार्ग ही को कुमार्गरूप प्ररूपण करे विषय–
सेवन को सुमार्ग बतावे तो उसकी तो ज्ञान–प्राप्ति भी निरथर्र ही है, ज्ञान प्राप्त करके भी
मिथ्यामार्ग प्ररूपे उसके ज्ञान कैसा? वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है।
उदय प्रबल हो तब तक विषय नहीं छूटते है इसलिये अविरत है, परन्तु जो सम्यग्दृष्टि नहीं है
और ज्ञान भी बड़ा हो, कुछ आचरण भी करे, विषय भी छोड़े और कुमार्ग का प्ररूपण करे तो
वह अच्छा नहीं है, उसका ज्ञान और विषय छोड़ना निरर्थक है, इसप्रकार जानना चाहिये।।
१३।।
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मदोन्मत्त हैं , परन्तु वे यदि शील औेर गुणों से रहित हैं तो उनका मनुष्य जनम निरर्थक है।
शीलवदणाण रहिदा ण हु ते आराधया होंति।। १४।।
शीलव्रतज्ञानरहिता न स्फुटं ते आराधका भवंति।। १४।।
अर्थः––जो बहुत प्रकारके शास्त्रों को जानते हैं और कुमत कुशास्त्रकी प्रशंसा करने
वाले हैं वे शीलव्रत और ज्ञान रहित हैं वे इनके आराधक नहीं हैं।
प्रशंसा करते हैं––ये तो मिथ्यात्व के चिन्ह हैं, जहाँ मिथ्यात्व है वहाँ ज्ञान भी मिथ्या है और
विषय–कषायों से रहित होने को शील कहते हैं वह भी उनके नहीं है, व्रत भी उनके नहीं है,
कदाचित् कोई व्रताचरण करते हैं तो भी मिथ्याचारित्ररूप है, इसलिये दर्शन–ज्ञान–चारित्र के
आराधने वाले नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं।। १४।।
सीलगुणवज्जिदाणं णिरत्थयं माणुसं जम्म।। १५।।
शील गुणवर्जितानां निरर्थकं मानुषं जन्म।। १५।।
व्रत–शील–ज्ञानविहीन छे तेथी न आराधक खरे। १४।
हो रूपश्री गर्वित, भले लावण्य यौवन कान्ति हो,
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सुन्दर, धन, संपदा प्राप्त करके इनके गर्व से मदोन्मत्त रहेत हैं तो उन्होंने मनुष्य जन्म
निष्फल खोया, मनुष्यजन्म में सम्यग्दर्शनादिक का अंगीकार करना और शील संयम पालना
योगय था, वह तो अंगीकार किया नहीं तब निष्फल ही गया।
मद करे उसे मिथ्यादृष्टि ही जानना तथा लक्ष्मीरूप यौवन कांति से मंडित हो और शीलरहित
व्यभिचारी हो तो उसकी लोक में निंदा ही होती है।। १५।।
वेदेऊण सुदेसु य तेसु सुयं उत्तम शीलं।। १६।।
विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तमं शीलम्।। १६।।
जिनागम इनमें उन व्याकरणादिक को और श्रुत अर्थात् जिनागम को जानकर भी, इनमें शील
हो वही उत्तम है।
उत्तम नहीं है।। १६।।
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सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए।। १७।।
श्रुतपारग प्रचुराः णं दुःशीला अल्पकाः लोके।। १७।।
हैं उनका देव भी वल्लभ होता है, उनकी सेवा करने वाले सहायक होते हैं। जो श्रुतपारग
अर्थात् शास्त्र के पार पहुँचे हैं, ग्यारह अंग तक पढ़े हैं ऐसे बहुत हैं और उनमें कई शीलगुण
से रहित हैं, दुःशील हैं, विषय–कषायों में असक्त हैं तो वे लोक में ‘अल्पका’ अर्थात् न्यून हैं,
वे मनुष्यों के भी प्रिय नहीं होते हैं तब देव कहाँ से सहायक हों?
थोड़ा भी हो तो उसके उपकारी सहायक देव भी होते हैं तब मनुष्य तो सहायक होते ही हैं।
शील गुणवाला सबका प्यारा होता है।। १७।।
सीलं जेसु सुसीलं सुजीविदं माणुसं तेसिं।। १८।।
शीलं येषु सुशीलं सुजीविदं मानुष्यं तेषाम्।। १८।।
अर्थः––जो सब प्राणियों में हीन है, कुलादिक से न्यून है और रूप से विरूप है सुन्दर
नहीं है, ‘पतितसुवयसः’ अर्थात् अवस्था से सुन्दर नहीं है, वृद्ध हो गये हैं,
लोके कुशील जनो, भले श्रुतपारगत हो, तुच्छ छे। १७।
सौथी भले हो हीन, रूपविरूप, यौवनभ्रष्ट हो,
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मनुष्यपना सुजीवित है, जीना अच्छा है।
है।। १८।।
सम्मद्दंसण णाणं तओय सीलस्स परिवारो।। १९।।
सम्यग्दर्शन ज्ञान तपश्य शीलस्य परिवारः।। १९।।
अर्थः–––जीव दया, इन्द्रियों का दमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन,
ज्ञान, तप–––ये सब शील के परिवार हैं।
प्रकृति हो वह सुशील है, इसको मोक्षसन्मुख प्रकृति कहते हैं। ऐसे सुशील के ‘जीवदयादिक’
गाथा में कहे वे सब ही परिवार हैं, क्योंकि संसारप्रकृति पलटे तब संसार देह से वैराग्य हो
और मोक्ष से अनुराग हो तब ही सम्यग्दर्शनादिक परिणाम हों, फिर जितनी प्रकृति हो वह सब
मोक्षके सन्मुख हो, यही सुशील है। जिसके संसारका अंत आता है उसके यह प्रकृति होती है
और यह प्रकृति न हो तब तक संसार भ्रमण ही है, ऐसे जानना।। १९।।