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मार्गगुणशंसनथा उपगूहनं रक्षणेन च।। ११।।
एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः।
जीवः आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन।। १२।।
वात्सल्यभाव हो, जैसे तत्कालकी प्रसूतिवान गाय को बच्चे से प्रीति होती है वैसे धर्मात्मा से
प्रीति हो, एक तो यह चिन्ह है। सम्यक्त्वादि गुणोंसे अधिक हो उसका विनय–सत्कारादिक
जिसके अधिक हो, ऐसा विनय एक यह चिन्ह है। दुःखी प्राणी देखकर करुणाभाव स्वरूप
अनुकंपा जिसके हो, एक यह चिन्ह है, अनुकंपा कैसी हो? भले प्रकार दान से योग्य हो।
निर्ग्रन्थस्वरूप मोक्षमार्ग की प्रशंसा सहित हो, एक यह चिन्ह है, जो मार्ग की प्रशंसा नहीं
करता हो तो जानो कि इसके मार्ग की दृढ़ श्रद्धा नहीं है। धर्मात्मा पुरुषों के कर्मके उदयसे
[उदयवश] दोष उत्पन्न हो उसको विख्यात न करे इसप्रकार उपगूहन भाव हो, एक यह
चिन्ह है। धर्मात्मा को मार्ग से चिगता जानकर उसकी स्थिरता करे ऐसा रक्षण नामका चिन्ह है
इसको स्थितिकरण भी कहते हैं। इन सब चिन्होंको सत्यार्थ करनेवाला एक आर्जवभाव है,
क्योंकि निष्कपट परिणामसे यह सब चिन्ह प्रगट होते हैं, सत्यार्थ होते हैं, इतने लक्षणोंसे
सम्यग्दृष्टि को जान सकते हैं।
प्रगट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ जाना जाता है। जो वात्सल्य आदि भाव कहें वे आपके तो
अपने अनुभवगोचर होते हैं और अन्य के उसकी वचन काय की क्रिया से जाने जाते है,
उनकी परीक्षा जैसे अपने क्रियाविशेष से होती है वैसे ही अन्य की भी क्रिया विशेष से परीक्षा
होती है, इसप्रकार व्यवहार है। यदि ऐसा न हो तो सम्यक्त्व व्यवहार मार्गका लोप हो इसलिये
व्यवहारी प्राणीको व्यवहारका ही आश्रय कहा है, परमार्थको सर्वज्ञ जानता है।।११–१२।।
वळी मार्गगुणस्तवना थकी, उपगूहन ने स्थितिकरणथी। ११।
–आ लक्षणोथी तेम आर्जवभावथी लक्षाय छे,
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अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं।। १३।।
अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्त्वम्।। १३।।
जैनाभास इनमें श्रद्धा, उत्साह, भावना, प्रशंसा और इनकी उपासना व सेवा जो पुरुष करता
है वह जिनमत की श्रद्धारूप सम्यक्त्व को छोड़ता है, वह कुदर्शन, अज्ञान और मिथ्यात्व का
मार्ग है।
में मिथ्तामत में कुछ कारण से उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा उत्पन्न हो तो
सम्यक्त्वका अभाव हो जाय, क्योंकि जिनमत के सिवाय अन्य मतों में छद्मस्थ अज्ञानियों द्वारा
प्ररूपित मिथ्या पदार्थ तथा मिथ्या प्रवृत्तिरूप मार्ग है, उसकी श्रद्धा आवे तब जिनमत की श्रद्धा
जाती रहे, इसलिये मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग ही नहीं करना, इसप्रकार भावार्थ जानना।। १३।।
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ण जहादि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण।। १४।।
न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण।। १४।।
अर्थः––सुदर्शन अर्थात् सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप सम्यक्मार्ग उसमें उत्साह
भावना अर्थात् ग्रहण करने का उत्साह करके बारम्बार चिंतवनरूप भाव और प्रशंसा अर्थात्
मन–वचन–काय से भला जानकर स्तुति करना, सेवा अर्थात् उपासना, पूजनादिक करना और
श्रद्धा करना, इसप्रकार ज्ञानमार्गसे यथार्थ जानकर करता पुरुष है वह जिनमत की श्रद्धारूप
सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए।। १५।।
अथ मोहं सारंभं परिहर धर्मे अहिंसायाम्।। १५।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि हे भव्य! तू ज्ञान के होने पर तो अज्ञानका त्याग कर,
विशुद्ध सम्यक्त्व के होनेपर मिथ्यात्वका त्याग कर और अहिंसा लक्षण धर्म के होने पर
आरंभसहित मोह को छोड़।
स्तुति ज्ञानमार्गथी जे करे, छोडे न जिनसम्यक्त्वने। १४।
अज्ञान ने मिथ्यात्व तज, लही ज्ञान, समकित शुद्धने
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होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते।। १६।।
भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे।। १६।।
अर्थः––हे भव्य! तू संग अर्थात् परिग्रह का त्याग जिसमें हो ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और
भले प्रकार संयम स्वरूप भाव होनेपर सम्यक्प्रकार तप में प्रवर्तन कर जिससे तेरे मोह रहित
वीतरागपना होनेपर निर्मल धर्म–शुक्लध्यान हो।
ध्यान से केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिये इसप्रकार उपदेश है।। १६।।
वज्झंति मूढजीवा
वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्ध्युदयेन।। १७।।
अर्थः––मूढ़ जीव अज्ञान और मोह अर्थात् मिथ्यात्व के दोषोंसे मलिन जो मिथ्यादर्शन
अर्थात् कुमत के मार्ग में मिथ्यात्व और अबुद्धि अर्थात् अज्ञान के उदयसे प्रवृत्ति करते हैं।
निर्मोह वीतरागत्व होतां ध्यान निर्मळ होय छे। १६।
जे वर्तता अज्ञानमोहमले मलिन मिथ्यामते,
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सम्मेण य सद्रहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे।। १८।।
सम्यक्त्वेन च श्रद्रधाति च परिहरति चारित्रजान् दोषान्।। १८।।
और इसप्रकार देखना, जानना व श्रद्वान होता है तब चारित्र अर्थात् आचरण में उत्पन्न हुए
दोषोंको छोड़ता है।
आचरण करना। वस्तु है वह द्रव्य–पर्यायस्वरूप है। द्रव्यका सत्ता लक्षण है तथा गुणपर्यायवान
को द्रव्य कहते है। पर्याय दो प्रकार की है, सहवर्ती और क्रमवर्ती। सहवर्ती को गुण कहते हैं
और कमवर्ती को पर्याय कहते हैं–द्रव्य सामान्यरूपसे एक है तो भी विशेषरूप से छह हैं–जीव,
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।। १८।।
अगुरुलघु गुण के द्धारा हानि–वृद्धि का परिणमन है। पुद्गल द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप
मूर्तिकपना तो गुण हैं और स्पर्श, रस, गंध वर्णका भेदरूप परिणमन तथा अणुसे स्कन्धरूप
होना तथा शब्द, बन्ध आदिरूप होना इत्यादि पर्याय है। धर्म–अधर्म के गतिहेतुत्व–
स्थितिहेतुत्वपना तो गुण है और इस गुण के जीव–पुद्गलके गति–स्थिति के भेदोंसे भेद होते
हैं वे पर्याय हैं तथा अगु़रुलघु गुणके द्वारा हानि–वृद्धिका परिणमन होता है जो स्वभाव पर्याय
है।
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वर्तना तो गुण है और जीव और पुद्गल के निमित्त से समय आदि कल्पना सो पर्याय है
इसको व्यवहारकाल भी कहते हैं तथा हानि–वृद्धिका परिणमन वह स्वभावपर्याय है इत्यादि।
इनका स्वरूप जिन–आगमसे जानकर देखना, जानना, श्रद्धान करना, इससे चारित्र शुद्ध होता
है। बिना ज्ञान, श्रद्धान के आचरण शुद्ध नहीं होता है, इसप्रकार जानना।। १८।।
णियगुणमाराहंतो अचिरेण य कम्म परिहरइ।। १९।।
निजगुणमाराधयन् अचिरेण च कर्म परिहरति।। १९।।
अर्थः––ये पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तीन भाव हैं, ये निश्चयसे मोह अर्थात्
मिथ्यात्वरहित जीव के ही होते हैं, तब यह जीव अपना निज गुण जो शुद्धदर्शन –ज्ञानमयी
चेतना की अराधना करता हुआ थोड़ ही काल में कर्मका नाश करता है।
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सम्यक्त्वमनुचरंतः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः।। २०।।
अर्थः––सम्यक्त्वका आचरण करते हुए धीर पुरुष संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी
कर्मोंकी निर्जरा करते हैं और कर्मोंके उदयसे हुए संसारके दुःखका नाश करते हैं। कर्म कैसे
हैं? संसारी जीवोंके मेरू अर्थात् मर्यादा मात्र हैं और सिद्ध होवे के बाद कर्म नहीं हैं।
गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती है। वहाँ संख्यात के गुणाकाररूप होती है इसलिये संख्यातगुण और
असंख्यातगुण इसप्रकार दोनों वचन कहे। कर्म तो संसार अवस्था है, जबतक है उसमें दुःख
का मोहकर्म है, उसमें मिथ्यात्वकर्म प्रधान है। समयक्त्वके होने पर मिथ्यात्वका तो अभाव ही
हुआ और चारित्र मोह दुःखका कारण है, सो यह भी जब तक है तबतक उसकी निर्जरा करता
है, इसप्रकार से अनुक्रमसे दुःख का क्षय होता है। संयमाचरणके होने पर सब दुःखोंका क्षय
होवेगा ही। सम्यक्त्वका महात्म्य इसप्रकार है कि सम्यक्त्वाचरण होने पर संयमाचरण भी शीघ्र
ही होता है, इसलिये सम्यक्त्वको मोक्षमार्ग में प्रधान जानकर इस ही का वर्णन पहिले किया
है।। २०।।
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सायारं
सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम्।। २१।।
अर्थः––संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का है––सागार और निरागार। सागार तो
परिग्रह सहित श्रावकके होता है और निरागार परिग्रहसे रहित मुनिके होता है यह निश्चय है।।
२१।।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य।। २२।।
ब्रह्म आरंभः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्ट देशविरतश्व।। २२।।
अर्थः––दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध आदिका नाम एकदेश है, और नाम ऐसे कहे
हैं––प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग,
अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, इसप्रकार ग्यारह प्रकार देशविरत है।
सागार छे
दर्शन, व्रतं सामायिकं, प्रोषध, सचित, निशिभुक्तिने,
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सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं।। २३।।
शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारम्।। २३।।
अर्थः––पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत– इसप्रकार बारह प्रकारका
संयमचरण चारित्र है जो सागार है, ग्रन्थसहित श्रावकके होता है इसलिये सागार कहा है।
कहा। यहाँ इसप्रकार जानना कि इसके केवल सम्यक्त्व ही होता है और अव्रती है अणुव्रत नहीं
है। इसके अणुव्रत अतिचार सहित होते हैं इसलिये व्रती नाम कहा है, दूसरी प्रतिमा में अणुव्रत
अतिचार रहित पालता है। इसलिये व्रत नाम कहा है। यहाँ सम्यक्त्व के अतिचार टालता है,
सम्यक्त्व ही प्रधान है इसलिये दर्शन प्रतिमा नाम है। अन्य ग्रन्थोंमें इसका स्वरूप इसप्रकार
कहा है कि–जो आठ मूलगुण का पालन करे, सात व्यसन को त्यागे, जिसके सम्यक्त्व
अतिचार रहित शुद्ध हो वह दर्शन प्रतिमा धारक है। पाँच उदम्बर फल और मद्य, माँस, मधु
इन आठोंका त्याग करना वह आठ मूलगुण हैं।
उदम्बरफल और तीन मकारका त्याग कहने से जिन वस्तुओंमें साक्षात् त्रस जीव दिखते हों
उन सब ही वस्तुओंको भक्षण नहीं करे। देवादिकके निमित्त तथा औषधादि निमित्त इत्यादि
कारणोंसे दिखते हुए त्रस जीवोंका घात न करें, ऐसा आशय है जो इसमें तो अहिंसाणुव्रत
आया। सात व्यसनों के त्याग में
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ग्रहण नहीं है; इसमें अतिलोभ के त्याग से परिग्रह का घटना आया। इसप्रकार पाँच अणुव्रत
आते हैं। इनके [व्रतादि प्रतिमाके] अतिचार नहीं टलते हैं इसलिये अणुव्रती नाम प्राप्त नहीं
करता [फिर भी] इसप्रकार से दर्शन प्रतिमा धारक भी अणुव्रती है इसलिये देशविरत
सागारसंयमाचरण चारित्र में इसको भी गिना है।।२३।।
परिहारः परमहिलायां परिग्रहारंभपरिमाणम्।। २४।।
अर्थः––थूल त्रसकायका घात, थूल मृषा अर्थात् असत्य, थूल अदत्ता अर्थात् परका बिना
दिया धन, पर महिला अर्थात् परस्त्री इनका तो परिहार अर्थात् त्याग और परिग्रह तथा
आरम्भका परिणाम इसप्रकार पाँच अणुव्रत हैं।
इसप्रकार मोटे अन्यायरूप पापकार्य जानने। इसप्रकार स्थूल पाप राजादिकके भयसे न करे वह
व्रत नहीं है, इनको तीव्र कषायके निमित्तसे तीव्र कर्मबंध के निमित्त जानकर स्वयमेव न करने
के भावरूप त्याग हो वह व्रत है। इसके ग्यारह स्थानक कहे, इनमें ऊपर–ऊपर त्याग बढ़ता
जाता है सो इसकी उत्कृष्टता तक ऐसा है कि जिन कार्योंमें त्रस जीवोंको बाधा हो इसप्रकार
के सब ही कार्य छूट जाते हैं इसलिये सामान्य ऐसा नाम कहा है कि त्रसहिंसाका त्यागी
देशव्रती होता है। इसका विशेष कथन अन्य ग्रन्थोंसे जानना।। २४।।
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भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि।। २५।।
भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि।। २५।।
अर्थः––दिशा – विदिशामें गमनका परिमाण वह प्रथम गुणव्रत है, अनर्थदण्डका वर्जना
द्वितीय गुणव्रत है, और भोगोपभोगका परिमाण तीसरा गुणव्रत है, –––इसप्रकार ये तीन
गुणव्रत हैं।
कार्यों में अपना प्रयोजन न सधे इसप्रकार पापकार्यों को न करें। यहाँ को पूछे–प्रयोजन के
बिना तो कोई भी जीव कार्य नहीं करता है, कुछ प्रयोजन विचार करके ही करता है फिर
अनर्थदण्ड क्या? इसका समाधान – समयग्दृष्टि श्रावक होता है वह प्रयोजन अपने पदके
योग्य विचारता है, पद के सिवाय सब अनर्थ है। पापी पुरुषोंके तो सब ही पाप प्रयोजन है,
उनकी क्या कथा। भोग कहनेसे भोजनादिक और उपभोग कहने से स्त्री, वस्त्र, आभूषण,
वाहनादिकोंका परिमाण करे–––इसप्रकार जानना।।२५।।
तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते।। २६।।
भोगोपभोग तणुं करे परिमाण, –गुणव्रत त्रण्य छे। २५।
सामायिकं, व्रत प्रोषधं, अतिथि तणी पूजा अने,
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तृतीयं च अतिथिपूजा चतुर्थं सल्लेखना अन्ते।। २६।।
अतिथिका पूजन है, चौथा है अंतसमय संल्लेखना व्रत है।
त्याग कर, सब गृहारंभसंबंधी क्रियासे निवृत्ति कर, एकांत स्थान में बैठकर प्रभात, मध्याह्न,
अपराह्न कुछ काल की मर्यादा करके अपने स्वरूपका चिन्तवन तथा पंचपरमेष्ठीकी भक्तिका
पाठ पढ़ना, उनकी वंदना करना इत्यादि विधान करना सामायिक है। इसप्रकार ही प्रोषध
अर्थात् अष्टमी चौदसके पर्वोंमें प्रतिज्ञा करके धर्म कार्यों में प्रवर्तना प्रोषध है। अतिथि अर्थात्
मुनियों की पूजा करना, उनको आहारदान देना अतिथिपूजन है। अंत समयमें काय और
कषायको कृश करना, समाधिमरण करना अन्त संल्लेखना है, ––इसप्रकार चार शिक्षाव्रत हैं।
सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे।। २७।।
शुद्धं संयमचरणं यतिधर्म निष्फलं वक्ष्ये।। २७।।
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जिसमें पापाचरणका लेश नहीं है, निकल अर्थात् कला से निःक्रांत है, सम्पूर्ण है, श्रावकधर्म की
तरह एकदेश नहीं है।। २७।।
पंच समिदि तय गुत्ती संजमचरणं णिरायारं।। २८।।
पंच समितयः तिस्रः गुप्तयः संयमचरणं निरागारम्।। २८।।
अर्थः––पाँच इन्द्रियोंका संवर, पाँच व्रत ये पच्चीस क्रियाके सद्भाव होनेपर होते हैं,
पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे निरागार संयमचरण चारित्र होता है।। २८।।
ण करेदि रायदोसे पंचेंदियसंवरो भणिओ।। २९।।
न करोति रागद्वेषौ पंचेन्द्रियसंवरः भणितः।। २९।।
अर्थः––अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे पदार्थ जिनको लोग अपने मानें ऐसे सजीवद्रव्य स्त्री
पुजादिक और अजीवद्रव्य धन धान्य आदि सब पुद्गल द्रव्य आदिमें रागद्वेष न करे वह पाँच
इन्द्रियोंका संवर कहा है।
वळी पांच समिति, त्रिगुप्ति–अण–आगार संयमचरण छे। २८।
सुमनोज्ञ ने अमनोज्ञ जीव–अजीवद्रव्योने विषे
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इसप्रकार राग–द्वेष मुनि नहीं करते हैं उनके संयमचरण चारित्र होता है।।२९।।
तुरियं अबंभविरई पंचम संगम्मि विरई य।। ३०।।
तुर्यं अब्रह्मविरतिः पंचम संगे विरतिः च।। ३०।।
जं च महल्लाणि तदो
यच्च महन्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि।। ३१।।
अब्रह्मविरमण, संगविरमण – छे महाव्रत पांच ए। ३०।
मोटा पुरुष साधे, पूरव मोटा जनोए आचर्यां,
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लेश भी नहीं है–––इसप्रकार ये पाँच महाव्रत हैं।
अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होंति।। ३२।।
अवलोक्यभोजनेन अहिंसाया भावना भवंति।। ३२।।
अर्थः––वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ऐसे दो तो गुप्तियाँ, ईयासमिति, भले प्रकार कमंडलु
आदिका ग्रहण – निक्षेप यह आदाननिक्षेपणा समिति और अच्छी तरह देखकर विधिपूर्वक शुद्ध
भोजन करना यह एषणा समिति, –––इसप्रकार ये पाँच अहिंसा महाव्रतकी भावना हैं।
योगोंकी निवृत्ति करनी तो भले प्रकार गुप्तिरूप करनी और प्रवृत्ति करनी तो समितिरूप करनी,
ऐसे निरन्तर अभ्याससे अहिंसा महाव्रत दृढ़ रहता है, इसी आशयसे इनको भावना कहते हैं।।
३२।।
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विदियस्स भावणाए ए पंचैव य तहा होंति।। ३३।।
द्वितीयस्य भावना इमा पंचेव च तथा भवंति।। ३३।।
अर्थः––क्रोध, भय, हास्य, लोभ और मोह इनसे विपरीत अर्थात् उलटा इनका अभाव
ये द्वितीय व्रत सत्य महाव्रत की भावना है।
सूत्रविरुद्ध बोलता है, मिथ्यात्वका अभाव होनेपर सूत्रविरुद्ध नहीं बोलता है, अनुवीचीभाषणका
यही अर्थ हुआ इसमें अर्थ भेद नहीं है।। ३३।।
एषणाशुद्धिसहितं साधर्मिसमविसंवादः।। ३४।।
तेना विपर्ययभाव ते छे भावना बीजा व्रते। ३३।
सूना अगर तो त्यक्त स्थाने वास, पर–उपरोध ना,
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ग्रामादिकमें निवास करना, परोपरोध अर्थात् जहाँ दूसरेकी रुकावट न हो, वस्तिकादिकको
अपना कर दूसरोंको रोकना, इसप्रकार नहीं करना, एषणाशुद्धि अर्थात् आहार शुद्ध लेना और
साधर्मियोंसे विसंवाद न करना। ये पाँच भावना तृतीय महाव्रतकी है।
चाहिये जहाँ अदत्त का दोष न लगे और आहार भी इस प्रकार लें जिसमें अदत्तका दोष न लगे
तथा दोनों की प्रवृत्तिमें साधर्मी आदिकसे विसंवाद उत्पन्न न हो। इसप्रकार ये पाँच भावना
कही हैं, इनके होने से अचौर्य महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३४।।
पुट्ठियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि।। ३५।।
पौष्टिकरसैः विरतः भावनाः पंचापि तुर्ये।। ३५।।
अर्थः––स्त्रियोंका अवलोकन अर्थात् राग भाव सहित देखना, पूर्वकालमें भोगे हुए
भोगोंका स्मरण करना, स्त्रियोंसे संसक्त वस्तिकामें रहना, स्त्रियोंकी कथा करना, पौष्टिक
रसोंका सेवन करना, इन पाँचोंसे विकार उत्पन्न होता है, इसलिये इनसे विरक्त रहना, ये
पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं।
महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३५।।
महिलानिरीक्षण–पूर्वरतिस्मृति–निकटवास, त्रियाकथा,
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रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति।। ३६।।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावनाः भवन्ति।। ३६।।
अर्थः––शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध ये पाँच इन्द्रियोंके विषय समनोज्ञ अर्थात् मन को
अच्छे लगने वाले और अमनोज्ञ अर्थात् मन को बुरे लगने वाले हों तो इन दोनों में राग द्वेष
आदि न करना परिग्रहत्यागव्रत की ये पाँच भावना है।
अपरिग्रह महाव्रत की कही गई हैं।। ३६।।
संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पंच समितीः।। ३७।।
अर्थः––ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ संयमकी
शुद्धताके लिये कारण हैं, इसप्रकार जिनदेव कहते हैं।
करवा न रागविरोध, व्रत पंचम तणी ए भावना। ३६।
ईर्या, सुभाषा, एषणा, आदान ने निक्षेप–ए,
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‘इति’ अर्थात् प्रवृत्ति जिसमें हो सो समिति है। चलते समय जूडा प्रमाण
अंतराय टालकर, चौदह मलदोष रहित शुद्ध आहार लेता है, धर्मोपकरणोंको उठाकर ग्रहण
करे सो यत्नपूर्वक लेते है; ऐसे ही कुछ क्षेपण करें तब यत्न पूर्वक क्षेपण करते हैं, इसप्रकार
निष्प्रमाद वर्ते तब संयमका शुद्ध पालन होता है, इसीलिये पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है।
इसप्रकार संयमचरण चारित्रकी प्रवृत्तिका वर्णन किया।। ३७।।
णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि।। ३८।।
ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि।। ३८।।
अर्थः––जिनमार्गमें जिनेश्वरदेवने भव्यजीवोंके संबोधनेके लिये जैसा ज्ञान और ज्ञानका
स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसको हे भव्यजीव! तू जान।
स्वरूप है वही निर्बाध सत्यार्थ है और ज्ञान है वही आत्मा है तथा आत्माका स्वरूप है, उसको
जानकर उसमें स्थिरता भाव करे, परद्रव्योंसे रागद्वेष नहीं करे वही निश्चयचारित्र है, इसलिये
पूर्वोक्त महाव्रतादिकी प्रवृत्ति करके इस ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होना इसप्रकार उपदेश है।।
३८।।
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रायादिदोसरहिओ जिणसासणे
रागादिदोषरहितः जिनशासने मोक्षमार्ग इति।। ३९।।
अर्थः––जो पुरुष जीव और अजीवका भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है और
रागादि दोषोंसे रहित होता है, इसप्रकार जिनशासनमें मोक्षमार्ग है।
सम्यक्चारित्र होता है, वही जिनमत में मोक्षमार्गका स्वरूप कहा है। अन्य मतवालोंने अनेक
प्रकारसे कल्पना करके कहा है वह मोक्षमार्ग नहीं है।। ३९।।
जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं।। ४०।।
यत् ज्ञात्वा योगिनः अचिरेण लभंते निर्वाणम्।। ४०।।
रागादिविरहित थाय छे–जिनशासने शिवमार्ग जे। ३९।
दृग, ज्ञान ने चारित्र–त्रण जाणो परम श्रद्धा वडे,