Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 8-35 (Darshan Pahud).

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दर्शनपाहुड][१७
अर्थः––जिस पुरुषके हृदयमें सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह निरन्तर प्रवर्तमान है उसके
कर्मरूपी रज–धूलका आवरण नहीं लगता, तथा पूर्वकालमें जो कर्मबंध हुआ हो वह भी नाशको
प्राप्त होता है।

भावार्थः––सम्यक्त्वसहित पुरुषको (निरंतर ज्ञानचेतनाके स्वामित्वरूप परिणमन है
इसलिये) कर्मके उदयसे हुए रागादिक भावोंका स्वामित्व नहीं होता, इसलिये कषायों की तीव्र
कलुषता से रहित परिणाम उज्ज्वल होते हैं; उसे जल की उपमा है। जैसे –जहाँ निरंतर
जलका प्रवाह बहता है वहाँ बालू–रेत–रज नहीं लगती; वैसे ही सम्यक्त्वी जीव कर्मके उदय
को भोगता हुआ भी कर्मसे लिप्त नहीं होता। तथा बाह्य व्यवहार की अपेक्षासे ऐसा भी तात्पर्य
जानना चाहिये कि –जिसके हृदय में निरंतर सम्यक्त्वरूपी जलका प्रवाह बहता है वह
सम्यक्त्वी पुरुष इस कलिकाल सम्बन्धी वासना अर्थात् कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रको
नमस्कारादिरूप अतिचाररूपरज भी नहीं लगता, तथा उसके मिथ्यात्व सम्बन्धी प्रकृतियोंका
आगामी बंध भी नहीं होता।। ७।।

अब, कहते हैं कि –जो दर्शनभ्रष्ट हैं तथा ज्ञान–चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं
ही परन्तु दूसरोंको भी भ्रष्ट करते हैं, ––यह अनर्थ हैः––––
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य।
एदे भट्ठ वि भट्ठा सेसं पि जणं विणासंति।। ८।।
ये दर्शनेषु भ्रष्टाः ज्ञाने भ्रष्टाः चारित्र भ्रष्टाः च।
एते भ्रष्टात् अपि भ्रष्टाः शेषं अपि जनं विनाशयंति।। ८।।

अर्थः––जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट है तथा ज्ञान–चारित्र मेह भी भ्रष्ट है वे पुरुष भ्रष्टोंमें
भी विशेष भ्रष्ट हैं कई तो दर्शन सहित हैं किन्तु ज्ञान–चारित्र उनके नहीं है, तथा कई अंतरंग
दर्शन से भ्रष्ट हैं तथापि ज्ञान–चारित्रका भली भाँति पालन करते हैं; और जो दर्शन–ज्ञान–
चारित्र इन तीनोंसे भ्रष्ट हैं वे तो अत्यन्त भ्रष्ट हैं; वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु शेष अर्थात्
अपने अतिरिक्त अन्य जनोंको भी नष्ट करते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सम्यक्त्वनीर प्रवाह जेना हृदयमां नित्ये वहे,
तस बद्धकर्मो वालुका–आवरण सम क्षयने लहे। ७।
दृग्भ्रष्ट, ज्ञाने भ्रष्टने चारित्रमां छे भ्रष्ट जे,
ते भ्रष्टथी पण भ्रष्ट छे ने नाश अन्य तणो करे। ८।

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१८][अष्टपाहुड
भावाथर्ः––यहाँ सामान्य वचन है इसलिये ऐसा भी आशय सूचित करता है कि सत्यार्थ
श्रद्धान, ज्ञान, चारित्र तो दूर ही रहा, जो अपने मत की श्रद्धा, ज्ञान, आचरण से भी भ्रष्ट हैं
वे तो निरर्गल स्वेच्छाचारी हैं। वे स्वयं भ्रष्ट हैं उसी प्रकार अन्य लोगोंको उपदेशादिक द्वारा
भ्रष्ट करते हों, तथा उनकी प्रवृत्ति देख कर लोग स्वयमेव भ्रष्ट होते हैं, इसलिये ऐसे
तीव्रकषायी निषिद्ध हैं; उनकी संगति करना भी उचित नहीं है।।८।।

अब, कहते हैं कि–––ऐसे भ्रष्ट पुरुष स्वयं भ्रष्ट हैं, वे धर्मात्मा पुरुषोंको दोष लगाकर
भ्रष्ट बतलाते हैंः––––
जो कोवि धम्मसीलो संजमतवणियमजोगगुणधारी।
तस्स य दोस कहंता भग्गा भग्गात्तणं दितिं।। ९।।
यः कोऽपि धर्मशीलः संयम तपोनियमयोगगुणधारी।
तस्य च दोषान् कथयंतः भग्ना भग्नत्वं ददति।। ९।।
अर्थः––जो पुरुष धर्मशील अर्थात् अपने स्वरूपरूप धर्मको साधनेका जिसका स्वभाव है,
तथा संयम अर्थात् इन्द्रिय–मनका निग्रह और षट्कायके जीवोंकी रक्षा, तप अर्थात् बाह्याभ्यंतर
भेदकी अपेक्षा से बारह प्रकारके तप, नियम अर्थात् आवश्यकादि नित्यकर्म, योग अर्थात्
समाधि, ध्यान तथा वर्षाकाल आदि कालयोग, गुण अर्थात् मूल गुण, उत्तरगुण –इनका धारण
करनेवाला है उसे कई मतभ्रष्ट जीव दोषोंका आरोपण करके कहते हैं कि –यह भ्रष्ट है, दोष
युक्त है, वे पापात्मा जीव स्वयं भ्रष्ट हैं इसलिये अपने अभिमान की पुष्टिके लिये अन्य धर्मात्मा
पुरुषोंको भ्रष्टपना देते हैं।

भवार्थः––पापियोंका ऐसा ही स्वभाव होता है कि स्वयं पापी हैं उसी प्रकार धर्मात्मा में
दोष बतलाकर अपने समान बनाना चाहते हैं। ऐसे पापियों की संगति नहीं करनी चाहिये
।।९।।

अब, कहते हैं कि –जो दर्शन भ्रष्ट हैं वह मूलभ्रष्ट हैं, उसको फल की प्राप्ति नहीं
होतीः––––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे धर्मशील, संयम–नियम–तप–योग–गुण धरनार छे,
तेनाय भाखी दोष, भ्रष्ट मनुष्य दे भ्रष्टत्वने। ९।

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दर्शनपाहुड][१९
जह मूलम्मि विणट्ठे दुमस्स परिवार णत्थि परिवड्ढी।
तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झंति।। १०।।
यथा मूले विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः।
तथा जिनदर्शनभ्रष्टाः मूलविनष्टाः न सिद्धयन्ति।। १०।।

अर्थः––जिस प्रकार वृक्षका मूल विनष्ट होनेपर उसके परिवाय अर्थात् स्कंध, शाखा,
पत्र, पुष्प, फलकी वृद्धि नहीं होती, उसीप्रकार जो जिनदर्शनसे भ्रष्ट हैं–बाह्यमें तो नग्न–
दिगम्बर यथाजातरूप निग्रन्थ लिंग, मूलगुणका धारण, मयूर पिच्छिका की पींछी तथा कमण्डल
धारण करना, यथाविधि दोष टालकर खडे़ खडे़ शुद्ध आहार लेना –इत्यादि बाह्य शुद्ध वेष
धारण करते हैं, तथा अंतरंग में जीवादि छह द्रव्य, नव पदार्थ, सात तत्त्वोंका यर्थाथ श्रद्धान
एवं भेदविज्ञानसे आत्मस्वरूपका अनुभवन –ऐसे दर्शन मत से बाह्य हैं वे मूल विनष्ट हैं, उनके
सिद्धि नहीं होती, वे मोक्षफलको प्राप्त नहीं करते।

अब कहते हैं कि –जिनदर्शन ही मूल मोक्षमार्ग हैः–––
जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहु गुणो होइ।
तह जिणदंसण मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स।। ११।।
यथा मूलात् स्कंधः शाखापरिवारः बहुगुणः भवति।
तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य।। ११।।
अर्थः––जिसप्रकार वृक्षके मूल से स्कंध होते हैं; कैसे स्कंध होते हैं कि –जिनके शाखा
आदि परिवार बहुत गुण हैं। यहाँ गुण शब्द बहुतका वाचक है; उसीप्रकार गणधर देवाधिकने
जिनदर्शनको मोक्षमार्ग का मूल कहा है।

भावार्थः––जहाँ जिनदर्शन अर्थात् तीर्थंकर परमदेवने जो दर्शन ग्रहण किया उसीका
उपदेश दिया है; वह अट्ठाईस मूलगुण सहित कहा है। पांच महाव्रत,
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जयम मूलनाशे वृक्षना परिवारनी वृद्धि नहीं,
जिनदर्शनात्मक मूल होय विनिष्ट तो सिद्धि नहीं। १०।
ज्यम मूल द्वारा स्कंध ने शाखादि बहु गुण थाय छे,
त्यम मोक्षपथनुं मूल जिनदर्शन कह्युं जिनशासने। ११।

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२०][अष्टपाहुड
पाँच समिति, छह आवश्यक, पाँच इन्द्रियोंको वश में करना, स्नान नहीं करना, भूमिशयन,
वस्त्रादिकका त्याग अर्थात् दिगम्बर मुद्रा, केशलोंच करना, एकबार भोजन करना, खडे़ खडे़
आहार लेना, दंतधोवन न करना–यह अट्ठाईस मूलगुण हैं। तथा छियालीस दोष टालकर
आहार करना वह एषणा समितिमें आ गया। ईयापथ–देखकर चलना यह ईया समिति में आ
गया। तथा दयाका उपकरण मोरपुच्छ की पींछी और शौच का उपकरण कमंडल धारण
करना–ऐसा बाह्य वेष है। तथा अंतरंग में जीवादिक षट्द्रव्य, पंवास्तिकाय, सात तत्त्व, नव
पदार्थोंको यथोक्त जानकर श्रद्धान करना और भेदविज्ञान द्वारा अपने आत्मस्वरूपका चिंतवन
करना, अनुभव करना ऐसा दर्शन अर्थात् मत वह मूल संघका है ऐसा जिनदर्शन है वह
मोक्षमार्गका मूल है; इस मुलसे मोक्ष मार्ग की सर्व प्रवृत्ति सफल होती है। तथा जो इससे भ्रष्ट
हुए हैं वे इस पंचमकाल के दोष से जैसाभास हुए हैं वे श्वेताम्बर, द्राविड, यापनीय,
गोपुच्छपिच्छ, निपिच्छ–पांच संघ हुए हैं; उन्होंने सूत्र सिद्धान्त अपभ्रंश किये हैं। जिन्होंने बाह्य
वेष को बदलकर आचारणको बिगाड़ा है वे जिनमतके मूलसंघसे भ्रष्ट हैं, उनको मोक्षमार्गकी
प्रीप्ति नहीं है। मोक्षमार्ग की प्राप्ति मूलसंघके श्राद्धान–ज्ञान–आचरण ही से है ऐसा नियम
जानना।।११।।

आगे कहते हैं कि जो यथार्थ दर्शनसे भ्रष्ट हैं और दर्शनके धारकोंसे अपनी विनय
कराना चाहते हैं वे दुर्गिति प्राप्त करते हैंः––
जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं।
ते होंति लल्लमूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं।। १२।।
वे दर्शनेषु भ्रष्टाः पादयोः पातयंति दर्शनधरान्।
ते भयंति लल्लमूकाः बोधिः पुनः दुर्लभा तेषाम्।। १२।।

अर्थः––जो पुरुष दर्शनमें भ्रष्ट हैं तथा अन्य जो दर्शन के धारक हैं उन्हें अपने
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
मुद्रित संस्कृृत सटीक प्रतिमें इस गाथाका पूर्वार्द्ध इसप्रकार है जिसका यह अर्थ है कि– ‘जो दर्शनभ्रष्ट पुरुष दर्शधारियोंके चरणोंमें
नहीं गिरते हैं’ –
‘जे दंसणेसु भट्ठा पाए न पंडंति दंसणधराणं’ –
उत्तरार्थ समान है।
दृग्भ्रष्ट जे निज पाय पाडे दृष्टिना धरनारने,
ते थाय मूंगा, खंडभाषी, बोध दुर्लभ तेमने। १२।

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दर्शनपाहुड][२१
पैरों पड़ाते हैं, नमस्कारादि कराते हैं वे परभवमें लूले, मूक होते हैं, और उनके बोधी अर्थात्
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी प्राप्ति दुर्लभ होती है।

भावार्थः––जो दर्शनभ्रष्ट हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं और दर्शन के धारक हैं वे सम्यग्दृष्टि हैं;
जो मिथ्यादृष्टि होकर सम्यग्दृष्टियों से नमस्कार चाहते हैं वे तीव्र मिथ्यात्व के उदय सहित हैं,
वे पर भव में लूले, मूक होते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय होते हैं, उनके पैर नहीं होते, वे परमार्थतः
लूले, मूक हैं; इसप्रकार एकेन्द्रिय–स्थावर होकर निगोद में वास करते हैं वहाँ अनंत काल
रहते हैं; उनके दर्शन–ज्ञान–चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ होती है; मिथ्यात्वका फल निगोद ही कहा
है। इस पंचमकाल में मिथ्यामत के आचार्य बनकर लोगोंसे विनयादिक पूजा चाहते हैं उनके
लिये मालूम होता है कि त्रसराशिक काल पूरा हुआ, अब एकेन्द्रिय होकर निगोद में वास
करेंगे–इसप्रकार जाना जाता है ।।१२।।

आगे कहते हैं कि जो दर्शनभ्रष्ट हैं उनके लज्जादिक से भी पैरों पड़ते हैं वे भी उन्हीं
जैसे ही हैंः––
जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण।
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं।। १३।।
येऽपि पतन्ति च तेषां जानंतः लज्जागारवभयेन।
तेषामपि नास्ति बोधिः पापं अनुमन्यमानानाम्।। १३।।

अर्थः––जो पुरुष दर्शन सहित हैं वे भी, जो दर्शन भ्रष्ट हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानते हुए
भी उनके पैरों पड़ते हैं, उनकी लज्जा, भय, गारवसे विनयादि करते हैं उनके भी बोधी अर्थात्
दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी प्राप्ति नहीं है, क्योंकि वे भी मिथ्यात्व जो कि पाप है उसका अनुमोदन
करते हैं। करना, कराना, अनुमोदन करना समान कहे गये हैं। यहाँ लज्जा तो इसप्रकार है
कि –हम किसी की विनय नहीं करेंगे तो लोग कहेंगे यह उद्धत है, मानी है, इसलिये हमें तो
सर्व का साधन करना है। इसप्रकार लज्जा से दर्शनभ्रष्टके भी विनयादिक करते हैं। तथा भय
इस प्रकार है कि––यह राज्यमान्य है और मंत्रविद्यादिक की सामर्थ्य युक्त है, इसकी विनय
नहीं करेंगे तो कुछ
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वली जाणीने पण तेमने गारव–शरम–भयथी नमे,
तेनेय बोध–अभाव छे पापानुमोदन होईने । १३।

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२२][अष्टपाहुड
हमारे ऊपर उपद्रव करेगा; इसप्रकार भय से विनय करते हैं। तथा गारव तनि प्रकार कहा
है;–रसगारव, ऋद्धिगारव, सातागारव। वहाँ रसगारव तो ऐसा है कि –मिष्ट, इष्ट, पुष्ट
भोजनादि मिलता रहे तब उससे प्रमादी रहता है; तथा ऋद्धिगारव ऐसा है कुछ तप के प्रभाव
आदि से ऋद्धिकी प्राप्ति हो उसका गौरव आ जाता है, उससे उद्धत, प्रमादी रहता है। तथा
सातागारव ऐसा कि शरीर निरोग हो, कुछ क्लेश का कारण न आये तब सुखीपना आ जाता
है, उसमें मग्न रहते हैं –इत्यादिक गारवभाव की मस्ती से भले–बुरे का विचार नहीं करता
तब दर्शनभ्रष्ट की भी विनय करने लग जाता है। इत्यादि निमित्तसे दर्शनभ्रष्ट की विनय करे
तो उसमें मिथ्यात्वका अनुमोदन आता है; उसे भला जाने तो आप भी उसी समान हुआ, तब
उसके बोधी कैसे कही जाये? ऐसा जानना ।।१३।।
दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणे होदि।। १४।।
द्विविधः अपि ग्रन्थत्यागः त्रिषु अपि योगेषु संयमः तिष्ठति।
ज्ञान करणशुद्धे उद्भभोजने दर्शनं भवति।। १४।।

अर्थः––जहाँ बाह्याभ्यांभेदसे दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग हो और मन–वचन–काय
ऐसे तीनों योगोंमें संयम हो तथा कृत–कारित–अनुमोदना ऐसे तीन करण जिसमें शुद्ध हों वह
ज्ञान हो, तथा निर्दोष जिसमें कृत, कारित, अनुमोदना अपनेको न लगे ऐसा, खडे़ रहकर
पाणिपात्र में आहार करें, इसप्रकार मूर्तिमंत दर्शन होता है।
भावार्थः––यहाँ दर्शन अर्थात् मत है; वहाँ बाह्य वेश शुद्ध दिखाई दे वह दर्शन; वही
उसके अंतरंग भाव को बतलाता है। वहाँ बाह्य परिग्रह अर्थात् धन–धान्यादिक और अंतरंग
परिग्रह मिथ्यात्व–कषायादि, वे जहाँ नहीं हों, यथाजात दिगम्बर मूर्ति हो, तथा इन्द्रिय–मन
को वष में करना, त्रस–स्थावर जीवोंकी दया करना, ऐसे संयमका मन–वचन–काय द्वारा
पालन हो और ज्ञान में विकार करना, कराना, अनुमोदन करना–ऐसे तीन कारणोंसे विकार न
हो और निर्दोष पाणिपात्रमें खडे़ रहकर आहार लेना इस प्रकार दर्शन की मूर्ति है वह जिनदेव
का मत है, वही वंदन–पूजन योग्य है। अन्य पाखंड वेश वंदना–पूजा योग्य नहीं है ।। १४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ज्यां ज्ञान ने संयम त्रियोगे, उभय परिग्रहत्याग छे,
जे शुद्ध स्थितिभोजन करे, दर्शन तदाश्रित होय छे। १४।

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दर्शनपाहुड][२३
आगे कहते हैं कि –इस सम्यग्दर्शनसे ही कल्याण–अकल्याणका निश्चय होता हैः–
सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी।
उवलद्धपयत्थे पुण सेयासेयं वियाणेदि।। १५।।
सम्यक्त्वात् ज्ञानं ज्ञानात् सर्वभावोपलब्धिः।
उपलब्धपदार्थे पुनः श्रेयोऽश्रेयो विजानाति।। १५।।

अर्थः––सम्यक्त्वसे तो ज्ञान सम्यक् होता है; तथा सम्यक्ज्ञानसे सर्व पदार्थों की
उपलब्धि अर्थात् प्राप्ति अर्थात् जानना होता है; तथा पदार्थों की उपलब्धि होने से श्रेय अर्थात्
कलयाण, अश्रेय अर्थात् अकल्याण इस दोनोंको जाना जाता है।

भावार्थः––सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान को मिथ्याज्ञान कहा है, इसलिये सम्यग्दर्शन होने
पर ही सम्यग्ज्ञान होता है, और सम्यग्ज्ञानसे जीवादि पदार्थोंका स्वरूप यथार्थ जाना जाता है।
तथा सब पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप जाना जाये तब भला–बुरा मार्ग जाना जाता है। इसप्रकार
मार्ग के जानने में भी सम्यग्दर्शन ही प्रधान है ।।१५।।
आगे, कल्याण–अकल्याण को जानने से क्या होता है सो कहते हैंः–
सेयोसेयविदण्हू उद्धुददुस्सील सीलवंतो वि।
सीलफलेणब्भुदयं तत्तो पुण लहइ णिव्वाणं।। १६।।
श्रेयोऽश्रेयवेत्ता उद्धृतदुःशीलः शीलवानपि।
शीलफलेनाभ्युदयं ततः पुनः लभते निर्वाणम्।। १६।।

अर्थः––कल्याण और अकल्याण मार्गको जाननेवाला पुरुष ‘उद्धृतदुःखशीलः’ अर्थात्
जिसने मिथ्यात्व स्वभाव को उड़ा दिया है –ऐसा होता है; तथा ‘शीलवानपि’ अर्थात्
सम्यक्स्वभाव युक्त भी होता है, तथा उस सम्यक्स्वभावके फलसे अभ्युदय को
प्राप्त होता है, तीर्थंकरादि पद प्राप्त करता है, तथा अभ्युदय होनेके पश्चात् निर्वाण को प्राप्त
होता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सम्यक्त्वथी सुज्ञान, जेथी सर्व भाव जणाय छे,
ने सौ पदार्थो जाणतां अश्रेय–श्रेय जणाय छे। १५।
अश्रेय–श्रेयसुण छोडी कुशील धारे शीलने,
ने शीलफलथी होय अभ्युदय, पछी मुक्ति लहे। १६।

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२४][अष्टपाहुड
भावार्थः––भले–बुरे मार्गको जानता है तब अनादि संसार से लगाकर जो मिथ्याभावरूप
प्रकृति है वह पलटकर सम्यक्स्वभावरूप प्रकृति होती है; उस प्रकृति से विशिष्ट पुण्यबंधकरे
तब अभ्युदयरूप तीर्थंकरादि की पदवी प्राप्त करके निर्वाण को प्राप्त होता है ।।१६।।

आगे, कहते हैं कि ऐसा सम्यक्त्व जिनवचन से प्राप्त होता है इसलिये वे ही सर्व
दुःखोंको हरने वाले हैंः––
जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूदं।
जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं।। १७।।
जिनवचनमौषधमिदं विषयसुखविरेचनममृतभूतम्।
जरामरणव्याधिहरणंक्षयकरणं सर्वदुःखानाम्।। १७।।

अर्थः––यह जिनवचन हैं सो औषधि हैं। कैसी औषधि है? –कि इन्द्रिय विषयोंमें जो
सुख माना है उसका विरेचन अर्थात् दूर करने वाले हैं। तथा कैसे हैं? अमृतभूत अर्थात् अमृत
समान हैं और इसलिये जरामरण रूप रोगको हरनेवाले हैं, तथा सर्व दुःखोंका क्षय करने वाले
हैं।

भावार्थः––इस संसार में प्राणी विषय सुखोंका सेवन करतें हैं जिनसे कर्म बँधते हैं और
उससे जन्म–जर–मरणरूप रोगोंसे पीड़ित होते हैं; वहाँ जिन वचनरूप औषधि ऐसी है जो
विषयसुखोंसे अरुचि उत्पन्न करके उसका विरेचन करती है। जैसे –गरिष्ट आहार से जब मल
बढ़ता है तब ज्वरादि रोग उत्पन्न होते हैं और तब उसके विरेचन को हरड़ आदि औषधि
उपकारी होती है, उसीप्रकार उपकारी हैं। उन विषयोंसे वैराग्य होने पर कर्म बन्ध नहीं होता
और तब जन्म–जरा–मरण रोग नहीं होते तथा संसारके दुःख का अभाव होता है। इसप्रकार
जिनवचनोंको अमृत समान मानकर अंगीकार करना ।।१७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जिनवचनरूप दवा विषयसुखरेचिका, अमृतमयी,
छे व्याधि–मरण–जरादिहरणी, सर्व दुःख विनाशिनी। १७ ।

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दर्शनपाहुड][२५
आगे, जिनवचनमें दर्शनका लिंग अर्थात् भेष कितने प्रकारका कहा है सो कहते हैंः–
एगं जिणस्स रुवं विदियं उक्किट्ठसावयाणं तु।
अवरट्ठियाण तइयं चउत्थ पुण लिंगदंसणं णत्थि।। १८।।
एकं जिनस्य रुपं द्वितीयं उत्कृष्ट श्रावकाणां तु।
अवरस्थितानां तृतीयं चतुर्थं पुनः लिंगदर्शनं नास्ति।। १८।।

अर्थः––दर्शनमें एक तो जिन का स्वरूप है; वहाँ जैसा लिंग जिनदेव ने धारण किया
वही लिंग है; तथा दूसरा उत्कृष्ट श्रावकोंका लिंग है और तीसरा ‘अवरस्थित’ अर्थात्
जघन्यपद में स्थित ऐसी आर्यिकाओं का लिंग है; तथा चौथा लिंग दर्शन में है नहीं।

भावार्थः––जिनमत में तीन लिंग अर्थात् भेष कहते हैं। एक तो वह है जो यथाजातरूप
जिनदेव ने धारण किया; तथा दूसरा ग्यारहवीं प्रतिमा के धारी उत्कृष्ट श्रावकका है, और
तीसरा स्त्री आर्यिका हो उसका है। इसके सिवा चौथा अन्य प्रकार का भेष जिनमत में नहीं है।
जो मानते हैं वे मूल संघ से बाहर हैं ।।१८।।

आगे कहते हैं कि –ऐसा बाह्यलिंग हो उसके अन्तरंग श्रद्धान भी ऐसा ही होता है और
वह सम्यग्दृष्टि हैः–
छह दव्व णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिद्दिट्ठा।
सद्दहइ ताण रुवं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्वो।। १९।।
षट् द्रव्याणि नव पदार्थाः पंचास्तिकायाः सप्ततत्त्वानि निर्दष्टिानि।
श्रद्दधाति तेषां रुपं सः सदृष्टिः ज्ञातव्यः।। १९।।

अर्थः––छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व–यह जिनवचन में कहें हैं,
उनके स्वरूपका जो श्रद्धान के उसे सम्यग्दृष्टि जानना।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे एक जिननुं रूप, बीजुं श्रावकोत्तम–लिंग छे,
त्रीजुं कह्युं आर्यादिनुं, चोथुं न कोई कहेल छे। १८।

पंचास्तिकाय, छ द्रअ ने नव अर्थ, तत्त्वो सात छे;
श्रद्धे स्वरूपो तेमनां जाणो सुदृष्टि तेहने। १९।

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२६][अष्टपाहुड
भावार्थः––(जाति अपेक्षा छह द्रव्योंके नाम–) जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और
काल –यह तो छह द्रव्य हैं; तथा जीव, अजवि, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष और पुण्य,
पाप –यह नव तत्त्व अर्थात् नव पदार्थ हैं; छह द्रव्य काल बिना पंचास्तिकाय हैं। पुण्य–पाप
बिना नव पदार्थ सप्त तत्त्व हैं। इनका संक्षेप स्वरूप इस प्रकार है– जीव तो चेतनस्वरूप है
और चेतना दर्शन–ज्ञानमयी है; पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, गुणसहित मूर्तिक है, उसके
परमाणु और स्कंध ऐसे दो भेद हैं; स्कंध के भेद शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान भेद, तम,
छाया, आतप, उद्योत, इत्यादि अनेक प्रकार हैं; धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य ये एक एक
हैं–अमूर्तिक हैं, निष्क्रिय हैं, कालाणु असंख्यात द्रव्य है। काल को छोड़ कर पाँच द्रव्य
बहुप्रदेशी हैं इसलिये अस्तिकाय पाँच हैं। कालद्रव्य बहुप्रदेशी नहीं है इसलिये वह अस्तिकाय
नहीं है; इत्यादि उनका स्वरूप तत्त्वार्थसूत्र की टीका से जानना। जीव पदार्थ एक है और
अजीव पदार्थ पाँच हैं, जीव के कर्म बंध योग्य पुद्गलोंका आना आस्रव है, कर्मोंका बंधना बंध
है, आस्रव का रुकना संवर है, कर्मबंधका झड़ना निर्जरा है, सम्पूर्ण कर्मोंका नाश होना मोक्ष
है, जीवोंको सुख का निमित्त पुण्य है और दुःख का निमित्त पाप है;ऐसे सप्त तत्त्व और नव
पदार्थ हैं। इनका अगमके अनुसार स्वरूप जानकर श्रद्धान करनेवाले सम्यग्दृष्टि हैं ।।१९।।

अब व्यवहार–निश्चयके भेद से सम्यक्त्वको दो प्रकार का कहते हैंः–
जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं।
ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं।। २०।।
जीवादीनां श्रद्धानं सम्यक्तत्वं जिनवरैः प्रज्ञप्तम्।
व्यवहारात् निश्चयतः आत्मैव भवति सम्यक्त्वम्।। २०।।

अर्थः––जिन भगवानने जीव आदि पदार्थोंके श्रद्धानको व्यवहार–सम्यक्त्व कहा है और
अपने आत्माके ही श्रद्धान को निश्चय–सम्यक्त्व कहा है।

भावार्थः––तत्त्वार्थका श्रद्धान व्यवहारसे सम्यक्त्व है और अपने आत्मस्वरूपके अनुभव
द्वारा उसकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, आचरण सो निश्चयसे सम्यक्त्व है, यह सम्यक्त्व आत्मासे
भिन्न वस्तु नहीं है आत्माही का परिणाम है सो आत्मा ही है। ऐसे सम्यक्त्व और आत्मा एक ही
वस्तु है यह निश्चयका आशय जानना ।।२०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जीवादिना श्रद्धानने सम्यक्त्व भाख्युं छे जिने;
व्यवहारथी, पण निश्चये आत्मा ज निज सम्यक्त्व छे। २०।

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दर्शनपाहुड][२७
अब कहते हैं कि यह सम्यग्दर्शन ही सब गुणोंमें सार है उसे धारण करोः–
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण।
सारं गुणरयणत्तय सोवाणं पढम मोक्खस्स।। २१।।
एवं जिनप्रणीतं दर्शनरत्नं धरत भावेन।
सारं गुणरत्नत्रये सोपानं प्रथमं मोक्षस्य।। २१।।

अर्थः––ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जिनेश्वर देवका कहा हुआ दर्शन है सो गुणोंमें और दर्शन–
ज्ञान–चारित्र इन तीन रत्नोंमें सार है –उत्तम है और मोक्ष मन्दिर में चढ़नेके लिये पहली
सीढ़ी है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि –हे भव्य जीवों! तुम इसको अंतरंग भाव से धारण
करो, बाह्य क्रियादिक से धारण करना तो परमार्थ नहीं है, अंतरंग की रुचि से धारण करना
मोक्षका कारण है ।। २१।।

अब कहते हैं कि –जो श्रद्धान करता है उसीके सम्यक्त्व होता हैः–
जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केइ तं च सद्दहणं।
केवलिजिणेहिं भणियं सद्दहमाणस्स सम्मत्तं।। २२।।
यत् शक्नोति तत् क्रियते यत् च न शक्नुयात् तस्य च श्रद्धानम्।
केवलिजिनैः भणितं श्रद्धानस्य सम्यक्त्वम्।। २२।।

अर्थः––जो करने को समर्थ हो वह तो करे और जो करने को समर्थ न हो वह श्रद्धान
करे क्योंकि केवली भगवानने श्रद्धान करनेवाले को सम्यक्त्व कहा है।

भावाथर्ः–यहाँ आशय ऐसा है कि यदि कोई कहे कि –सम्यक्त्व होने के बादमें सब
परद्रव्य–संसारको हेय जानते हैं। जिसको हेय जाने उसको छोड़ मुनि बनकर चारित्रका पालन
करे तब सम्यक्त्वी माना जावे, इसके समाधानरूप यह गाथा है। जिसने सब परद्रव्यको हेय
जानकर
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
नियमसार गाथा १५४
ए जिनकथित दर्शनरतनने भावथी धारो तमे,
गुण रत्नत्रयमां सार ने जे प्रथम शिवसोपान छे। २१।

थई जे शके करवुं अने नव थई शके ते श्रद्धवुं;
सम्यक्त्व श्रद्धावंतने सर्वज्ञ जिनदेवे कह्युं। २२।

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२८][अष्टपाहुड
निजरूपको उपादेय जाना, श्रद्धान किया तब मिथ्याभाव तो दूर हुआ, परन्तु जब तक
[चारित्रमें प्रबल दोष है तब तक] चारित्र मोह कर्मका उदय प्रबल होता है [और] तबतक
चारित्र अंगीकार करने की सामर्थ्य नहीं होती। जितनी सामर्थ्य है उतना तो करे और शेषका
श्रद्धान करे, इसप्रकार श्रद्धान करनेवाले को ही भगवान ने सम्यक्त्व कहा है ।।२२।।

अब आगे कहते हैं कि जो दर्शन–ज्ञान–चारित्र में स्थित हैं वे वंदन करने योग्य हैंः–
दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकालसुपसत्था।
ए दे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं।। २३।।
दर्शनज्ञानचारित्रे तपोविनये नित्यकाल सुप्रस्वस्थाः।
ऐ ते तु वन्दनीया ये गुणवादिनः गुणधराणाम्।। २३।।

अर्थः––दर्शन–ज्ञान–चारित्र, तप तथा विनय इनमें जो भले प्रकार स्थित है वे प्रशस्त
हैं, सरागने योगय हैं अथवा भले प्रकार स्वस्थ हैं लीन हैं और गणधर आचार्य भी उनके
गुणानुवाद करते हैं अतः वे वंदने योग्य हैं। दूसरे जो दर्शनादिक से भ्रष्ट हैं और गुणवानोंसे
मत्सरभाव रखकर विनयरूप नहीं प्रवर्तते वे वंदने योग्य हैं ।।२३।।

अब कहते हैं कि–जो यथाजातरूप को देखकर मत्सरभावसे वन्दना नहीं करते हैं वे
मिथ्यादृष्टि ही हैंः–
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तर–णिच्कालसुपत्ता
दृग, ज्ञान ने चारित्र, तप, विनये सदाय सुनिष्ठ जे,
ते जीव वंदन योग्य छे – गुणधर तणा गुणवादी जे। २३।

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दर्शनपाहुड][२९
सहजुप्पण्णं रुवं दट्ठं जो मण्णए ण मच्छरिओ।
सो संजमपडिवण्णो मिच्छादट्ठी हवइ एसो।। २४।।
सहजोत्पन्नं रुपं दृष्ट्वा यः मन्यते न मत्सरी।
सःसंयमप्रतिपन्नः मिथ्यादृष्टिः भवति एषः।। २४।।

अर्थः––जो सहजोत्पन्न यथाजातरूप को देखकर नहीं मानते हैं, उसका विनय सत्कार
प्रीति नहीं करते हैं और मत्सर भाव करते हैं वे संयमप्रतिपन्न हैं, दीक्षा ग्रहण की है फिर भी
प्रत्यक्ष मिथ्यादृष्टि हैं।

भावार्थः––जो यथाजातरूप को देख कर मत्सर भावसे उसका विनय नहीं करते हैं तो
ज्ञात होता है कि –इनके इस रूप की श्रद्धा–रुचि नहीं है। ऐसी श्रद्धा–रुचि बिना तो
मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। यहाँ आशय ऐसा है कि–जो श्वेताम्बरादिक हुए वे दिगम्बर रूपके प्रति
मत्सरभाव रखते हैं और उसका विनय नहीं करते हैं उनका निषेध है।।२४।।
आगे इसी को दृढ़ करते हैंः––
अमराण वंदियाणं रुवं दट्ठूण सीलसहियांण।
जे गारव करंति य सम्मत्तविवज्जिया होंति।। २५।।
अमरैः वंदितानां रुपं दृष्टवा शीलसहितानाम्।
ये गौरवं कुर्वन्ति च सम्यक्त्त्वविवर्जिताः भवंति।। २५।।

अर्थः––देवोंसे वंदने योग्य शील सहित जिनेश्वर देवके यथाजातरूप को देखकर जो
गोैरव करते हैं, विनयादिक नहीं करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित हैं।

भावार्थः––जिस यथाजातरूपको देखकर अणिमादिक ऋद्धियोंके धारक देव भी चरणोंमें
गिरते हैं उसको देखकर मत्सरभावसे नमस्कार नहीं करते हैं उनके सम्यक्त्व कैसे? वे
सम्यक्त्व से रहित ही हैं ।।२५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ज्यां रूप देखी साहजिक, आदर नहीं मत्सर वडे,
संयम तणो धारक भले ते होय पण कुदृष्टि छे। २४।
जे अमरवंदित शीलयुत मुनिओतणु रूप जोईने,
मिथ्याभिमान करे अरे! ते जीव दृष्टिविहीन छे। २५।

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३०][अष्टपाहुड
अब आगे कहते हैं कि असंयमी वंदने योग्य नहीं हैः–
अस्संजदं ण वन्दे वत्थविहीणोवि तो ण वंदिज्ज।
दोण्णि वि होंति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। २६।।
असंयतं न वन्देत वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्यते।
द्वौ अपि भवतः समानौ एकः अपि न संयतः भवति।। २६।।

अर्थः––असंयमी को नमस्कार नहीं करना चाहिये। भावसंयम नहीं हो और बाह्यमें वस्त्र
रहित हो वह भी वंदने योग्य नहीं है क्योंकि यह दोनों ही संयम रहित समान हैं, इनमें एक
भी संयमी नहीं है।

भावार्थः––जिसने गृहस्थका भेष धारण किया है वह तो असंयमी है ही, परन्तु जिसने
बाह्यमें नग्नरूप धारण किया है और अंतरंग में भावसंयम नहीं है तो वह भी असंयमी ही है,
इसलिये यह दोनों ही असंयमी ही हैं। अतः दोनों ही वंदने योग्य नहीं हैं। यहाँ आशय ऐसा है,
अर्थात्, ऐसा नहीं जानना चाहिये कि –जो आचार्य यथाजातरूपको दर्शन कहते आये हैं वह
केवल नग्नरूप ही यथाजातरूप होगा, क्योंकि आचार्य तो बाह्य–अभ्यंतर सब परिग्रहसे रहित
हो उसको यथाजातरूप कहते हैं। अभ्यंतर भावसंयम बिना बाह्य नग्न होनेसे तो कुछ संयम
होता नहीं है ऐसा जानना। यहाँ कोई पूछे –बाह्य भेष शुद्ध हो, आचार निर्दोष पालन
करनेवाले को अभ्यंतर भावमें कपट हो उसका निश्चय कैसे हो, तथा सूक्ष्मभाव केवलीगम्य हैं,
मिथ्यात्व हो उसका निश्चय कैसे हो, निश्चय बिना वंदनेकी क्या रीति? उसका समाधान––
ऐसे कपटका जब तक निश्चय नहीं हो तब तक आचार शुद्ध देखकर वंदना करे उसमें दोष
नहीं है, और कपट का किसी कारण से निश्चय हो जाये तब वंदना नहीं करें, केवलीगम्य
मिथ्यात्वकी व्यवहारमें चर्चा नहीं है, छद्मस्थके ज्ञानगम्यकी चर्चा है। जो अपने ज्ञानका विषय
ही नहीं उसका बाध–निर्बाध करने का व्यवहार नहीं है। सर्वज्ञभगवानकी भी यही आज्ञा है।
व्यवहारी जीवको व्यवहारका ही शरण है ।।२६।।
[नोट – एक गुणका दूसरे आनुषंगिक गुण द्वारा निश्चय करना व्यवहार है, उसी का नाम
व्यवहारी जीवको व्यवहार का शरण है।]

आगे इस ही अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वंदो न अणसंयत, भले हो नग्न पण नहि वंद्य ते;
बन्ने समानपणुं धरे, एकके न संयमवंत छे। २६।

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दर्शनपाहुड][३१
ण वि देहो वंदिज्जइ ण वि य कुलो ण विय जाइसंजुत्तो।
को वंदमि गुणहीणो ण हु सवणो णेव सावओ होइ।। २७।।
नापि देहो वंद्यते नापि च कुलं नापि च जातिसंयुक्तः।
कः वंद्यते गुणहीनः न खलु श्रमणः नैव श्रावकः भवति।। २७।।

अर्थः––देह को भी नहीं वंदते हैं और कुलको भी नहीं वंदते है तथा जातियुक्तको भी
नहीं वंदते हैं क्योंकि गुण रहित हो उसको कौन वंदे? गुण बिना प्रकट मुनि नहीं, श्रावक भी
नहीं है।

भावार्थः––लोकमें भी ऐसा न्याय है जो गुणहीन हो उसको कोई श्रेष्ठ नहीं मानता है,
देह रूपवान हो तो क्या, कुल बड़ा होतो क्या, जाति बड़ी होतो क्या। क्योंकि, मोक्षमार्ग में तो
दर्शन–ज्ञान–चारित्र गुण हैं। इनके बिना जाति, कुल, रूप आदि वंदनीय नहीं हैं, इनसे मुनि
श्रावकपना नहीं आता है। मुनि–श्रावकपना तो समयदर्शन–ज्ञान–चारित्र से होता है, इसलिये
जिनको धारण है वही वंदने योग्य हैं। जाति, कुल आदि वंदने योग्य नहीं हैं ।।२७।।

अब कहते हैं कि जो तप आदिसे संयुक्त हैं उनको नमस्कार करता हूँः–
वंदमि तवसावण्णा सीलं च गुणं च बंभचेरं च।
सिद्धिगमणं च तेसिं सम्मत्तेण सुद्धभावेण।। २८।।
वन्दे तपः श्रमणान् शीलं च गुणं च ब्रह्मचर्यं च।
सिद्धिगमनं च तेषां सम्यक्त्वेन शुद्धभावेन।। २८।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१॰ ‘कं वन्देगुणहीनं’ षपाहुड में पाठ है ।
२॰ ‘तव समण्णा’ छाया –[तपः समापन्नात्] ‘तवसउण्णा’ ‘तवसमाणं’ ये तीन पाठ मुद्रित षट्प्राभृतकी पुस्तक
तथा उसकीीटप्पणी में है। ३॰ ‘सम्मत्तेणेव’ ऐसा पाठ होने से पाद भंग नहीं होता।
नहि देह वंद्य न वंद्य कुल, नहि वंद्य जन जाति थकी;
गुणहीन क्यम वंदाय? ते साधु नथी, श्रावक नथी। २७।

सम्यक्त्वसंयुक्त शुद्ध भावे वंदुं छुं मुनिराजने,
तस ब्रह्मचर्य, सुशीलने, गुणने तथा शिवगमनने। २८।

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३२][अष्टपाहुड
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो तप सहित श्रमणपना धारण करते हैं उनको तथा
उनके शीलको, उनके गुणको व ब्रह्मचर्यको मैं सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव से नमस्कार करता हूँ
क्योंकि उनके उन गुणोंसे – सम्यक्त्व सहित शुद्धभावसे सिद्धि अर्थात् मोक्ष उसके प्रति गमन
होता है।

भावार्थः––पहले कहा कि –देहादिक वंदने योग्य नहीं है, गुण वंदने योग्य हैं। अब
यहाँ गुण सहित की वंदना की है। वहाँ जो तप धारण करके गृहस्थपना छोड़कर मुनि हो गये
हैं उनको तथा उनके शील–गुण–ब्रह्मचर्य सम्यक्त्व सहित शुद्धभावसे संयुक्तहों उनकी वंदना
की है। यहाँ शील शब्दसे उत्तरगुण और गुण शब्दसे मूलगुण तथा ब्रह्मचर्य शब्दसे आत्मस्वरूप
में मग्नता समझना चाहिये ।।२८।।

आगे कोई आशंका करता है कि– संयमी को वंदने योग्य कहा तो समवसरणादि विभूति
सहित तीर्थंकर हैं वे वंदने योग्य हैं या नहीं? उसका समाधान करने के लिये गाथा कहते हैं
कि– जो तीर्थंकर परमदेव हैं वे सम्यक्त्वसहित तप के माहात्म्यसे तीर्थंकर पदवी पाते हैं वे
वंदने योग्य हैंः–
चउसट्ठि चमरसहिओ चउतीसहि अइसएहिं संजुत्तो।
अणवरबहुसत्तहिओ कम्मक्खयकारणीणमित्तो।। २९।।
चतुःषष्टिचमरसहितः चतुस्त्रिंशद्भिरतिशयैः संयुक्तः।
अनवरतबहुसत्त्वहितः कर्मक्षयकारणनिमित्तः।। २९।।

अर्थः––जो चौसठ चंवरोंसे सहित हैं, चौंतीस अतिशय सहित हैं, निरन्तर बहुत
प्राणियोंका हित जिनसे होता है ऐसे उपदेश के दाता हैं, और कर्मके क्षय का कारण हैं ऐसे
तीर्थंकर परमदेव हैं वे वंदने योग्य हैं।

भावार्थः––यहाँ चौसठ चँवर चौंतीस अतिशय सहित विशेषणोंसे तो तीर्थंकरका प्रभुत्व
बताया है और प्राणियोंका हित करना तथा कर्मक्षयका कारण विशेषणसे दूसरे
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१॰ अणुचरबहुसत्तहिओ (अनुचरबहुसत्त्वहितः) मुद्रित षट्प्राभृतमें यह पाठ है।
२॰ ‘निमित्ते’ मुद्रित षट्प्राभृतमेझ ऐसा पाठ है।
चोसठ चमर संयुक्त ने चोत्रीस अतिशय युक्त जे;
बहुजीव हितकर सतत, कर्मविनाशकारण–हेतु छे। २९।

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दर्शनपाहुड][३३
उपकार करनेवालापना बताया है, इन दोनों ही कारणोंसे जगतमें वंदने पूजने योग्य हैं।
इसलिये इसप्रकार भ्रम नहीं करना कि–तीर्थंकर कैसे पूज्य हैं, यह तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतराग हैं।
उनके समवसरणादिक विभूति रचकर इन्द्रादिक भक्तजन महिमा करते हैं। इनके कुछ प्रयोजन
नहीं हैं, स्वयं दिगम्बरत्व को धारण करते हुए अंतरिक्ष तिष्ठते हैं ऐसा जानना ।।२९।।

आगे मोक्ष किससे होता है सो कहते हैंः–
णाणेण दंसणेण व तवेण चरियेण संजमगुणेण।
चउहिं पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।। ३०।।
ज्ञानेन दर्शनेन च तपसा चारित्रेण संयमगुणेन।
चतुर्णामपि समायोगे मोक्षः जिनशासने दृष्टः।। ३०।।

अर्थः––ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र से इन चारोंका समायोग होने पर जो संयमगुण हो
उससे जिन शासनमें मोक्ष होना कहा है ।।३०।।

आगे इन ज्ञान आदि के उत्तरोत्तर सारपना कहते हैंः–
णाणं णरस्स सारो सारो वि णरस्स होइ सम्मत्तं।
सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिव्वाणं।। ३१।।
ज्ञानं नरस्य सारः सारः अपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम्।
सम्यक्त्वात् चरणं चरणात् भवति निर्वाणम्।। ३१।।

अर्थः––पहिले तो इस पुरुषके लिये ज्ञान सार है क्योंकि ज्ञानसे सब हेय–उपादेय जाने
जाते हैं फिर उस पुरुषके लिये सम्यक्त्व निश्चय से सार है क्योंकि सम्यक्त्व बिना ज्ञान मिथ्या
नाम पाता है, सम्यक्त्वसे चारित्र होता है क्योंकि सम्यक्त्व बिना चारित्र भी मिथ्या ही है,
चारित्र से निर्वाण होता है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
संयम थकी, वा ज्ञान–दर्शन–चरण–तप छे चार जे;
ए चार केरा योगथी, मुक्ति कही जिनशासने। ३०।

रे! ज्ञान नरने सार छे, सम्यक्त्व नरने सार छे;
सम्यक्त्वथी चारित्र ने चारित्रथी मुक्ति लहे। ३१।

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३४][अष्टपाहुड
भावार्थः––चारित्रसे निर्वाण होता है और चारित्र ज्ञानपूर्वक सत्यार्थ होता है तथा ज्ञान
सम्यक्त्वपूर्वक सत्यार्थ होता है इसप्रकार विचार करने से सम्यक्त्वके सारपना आया। इसलिये
पहिले तो सम्यक्त्व सार है, पीछे ज्ञान चारित्र सार हैं। पहिले ज्ञानसे पदार्थोंको जानते हैं अतः
पहिले ज्ञान सार है तो भी सम्यक्त्व बिना उसका भी सारपना नहीं है, ऐसा जानना ।।३१।।

आगे इसी अर्थ को दृढ़ करते हैंः–
णाणम्मि दंसणम्मि य तवेण चरिएण सम्मसहिएण।
चोउण्हं पि समाजोगे सिद्धा जीवा ण सन्देहो।। ३२।।
ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वसहितेन।
चतुर्णामपि समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः।। ३२।।

अर्थः––ज्ञान और दर्शनके होनेपर सम्यक्त्व सहित तप करके चारित्रपूर्वक इन चारों का
समायोग होने से जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह नहीं है।

भावार्थः––पहिले जो सिद्ध हुए हैं वे सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों के
संयोग से ही हुए हैं यह जिनवचन हैं, इसमें संदेह नहीं है ।।३२।।

आगे कहते हैं कि –लोकमें सम्यग्दर्शनरूप रत्न अमोलक है वह देव–दानवोंसे पूज्य
हैः–
कल्लाणपरंपरया लहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं।
सम्मद्दंसणरयणं अग्धेदि सुरासुरे लोए।। ३३।।
कल्याणपरंपरया लभंते जीवाः विशुद्धसम्यक्त्वम्।
सम्यग्दर्शनरत्नं अर्ध्यते सुरासुरे लोके।। ३३।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१॰ पाठान्तरः– चोण्हं
दृग–ज्ञानथी, सम्यक्त्वयुत चारित्रथी ने तप थकी,
–ए चारना योगे जीवो सिद्धि वरे, शंका नथी। ३२।
कल्याण श्रेणी साथ पामे क्वव समकित शुद्धने;
सुर–असुर केरा लोकमां सम्यक्त्वरत्न पुजाय छे। ३३।

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दर्शनपाहुड][३५
अर्थः––जीव विशुद्ध सम्यक्त्व को कल्याणकी परम्परा सहित पाते हैं इसलिये
सम्यग्दर्शन रत्न है वह इस सुर–असुरोंसे भरे हुए लोकमें पूज्य है।

भावार्थः––विशुद्ध अर्थात् पच्चीस मलदोषोंसे रहित निरतिचार सन्थम्यक्त्वसे कल्याणकी
परम्परा अर्थात् तीर्थंकर पद पाते हैं, इसीलिये यह सम्यक्त्व–रत्न लोकमें सब देव, दानव और
मनुष्योंसे पूज्य होता है। तीर्थंकर प्रकृतिके बंधके कारण सोलहकारण भावना कही हैं उनमें
पहली दर्शनविशुद्धि है वही प्रधान है, यही विनयादिक पंद्रह भावनाओंका कारण है, इसलिये
सम्यग्दर्शन के ही प्रधानपना है।।३३।।

अब कहते हैं कि जो उत्तम गोत्र सहित मनुष्यत्वको पाकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति से मोक्ष
पाते हैं यह सम्यक्त्व का महात्म्य हैः–
लद्धूण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गोत्तेण।
लद्धूण य सम्मतं अक्खयसोक्खं च लहदि मोक्खं च।। ३४।।
लब्ध्वा च मनुजत्त्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण।
लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च।। ३४।।

अर्थः––उत्तम गोत्र सहित मनुष्यपना प्रत्यक्ष प्राप्त करके और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करके
अविनाशी सुखरूप केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, तथा उस सुख सहित मोक्ष प्राप्त करते हैं।
भावार्थः––यह सब सम्यक्त्वका महात्म्य है ।।३४।।

अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि –जो सम्यक्त्व के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करते हैं वे
तत्काल ही प्राप्त करते हैं या कुछ अवस्थान भी रहते हैं? उसके समाधानरूप गाथा कहते
हैंः–
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१॰ दट्ठूण पाठान्तर।
२॰ ‘अक्खयसोक्खं लहदि मोक्खं च’ पाठान्तर ।
रे! गोत्र उत्तमथी सहित मनुजत्वने जीव पामीने,
संप्राप्त करी सम्यक्त्व, अक्षय सौख्य ने मुक्ति लहे। ३४।

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३६][अष्टपाहुड
विहरदि जाव जिणिंदो सहसद्रु सुलक्खणेहिं संजुत्तो।
चउतीस अइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया।। ३५।।
विहरति यावत् जिनेन्द्रः सहस्राष्ट लक्षणैः संयुक्तः।
चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता।। ३५।।

अर्थः––केवलज्ञान होने के बाद जिनेन्द्र जबतक इस लोक में आर्यखंडमें विहार करते हैं
तबतक उनकी यह प्रतिमा अर्थात् शरीर सहित प्रतिबिम्ब उसको ‘थावर’ प्रतिमा इस नाम से
कहते हैं। वे जिनेन्द्र कैसे हैं। एक हजार आठ लक्षणोंसे संयुक्त हैं। वहाँ श्री वृक्षको आदि
लेकर एकसौ आठ तो लक्षण होते हैं। तिल मुसको आदि लेकर नौ सौ व्यंजन होते हैं। चौंतीस
अतिशयोंमें दस तो जन्म से ही लिये हुए उत्पन्न होते हैंः––– १ निःस्वेदता, २ निर्मलता, ३
श्वेतरुधिरता, ४ समचतुरस्त्र संसथान, ५ वज्रवृष्खानाराच संहनन, ६ सुरूपता, ७ सुगंधता, ८
सुलक्षणता, ९ अतुलवीर्य, १० हितमित वचन–––ऐसे दस होते हैं। घातिया कर्मोंके क्षय होने
पर दस होते हैंः– १ शतयोजन सुभिक्षता, २ आकाशगमन, ३ प्राणिवधका अभाव, ४
कवलाहारका अभाव, ५ उपसगरका अभाव, ६ चतुर्मुखपना, ७ सर्वविद्या प्रभुत्व, ८ छाया
रहितत्व, ९ लोचन निस्पंदन रहितत्व, १० केश–नख वृद्धि रहितत्व ऐसे दस होते हैं। देवों
द्वारा किये हुए चौदह होते हैंः–––सकलार्द्धमागधी भाषा, २ सर्वजीव मैत्री भाव, ३
सर्वऋतुफलपुष्प प्रादुर्भाव, ४ दर्पणके समान पृथ्वी होना, ५ मंद सुगंध पवन का चलना, ६ सारे
संसार में आनन्दका होना, ७ भूमी कंटकादिक रहित होना, ८ देवों द्धारा गंधोदककी वर्षा
होना, ९ विहारके समय चरण कमलके नीचे देवों द्वारा सुवर्णमयी कमलोंकी रचना होना, १०
भूमि धान्यनिष्पत्ति सहित होना, ११ दिशा–ााकाश निर्मल होना, १२ देवोंका अह्वानन शब्द होना,
१३ धर्मचक्रा आगे चलना, १४ अष्ट मंगल द्रव्य होना–––ऐसे चौदह होते हैं। सब मिलकर
चौंतीस हो गये। आठ प्रातिहार्य होते हैं, उनके नामः–––१ अशोकवृक्ष २ पुष्पवृष्टि, ३
दिव्यध्वनी, ४ चामर, ५ सिंहासन, ६ छत्र, ७ भामंडल, ८ दुन्दुभिवादित्र ऐसे आठ होते हैं। ऐसे
अतिशय सहित अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त, अनन्तसुख, अनन्तवीर्य सहित––– तीर्थंकर
परमदेव जबतक जीवोंके सम्बोधन निमित्त विहार करते विराजते हैं तबतक स्थावर प्रतिमा
कहलाते हैं। ऐसे स्थावर प्रतिमा कहने से तीर्थंकर केवलज्ञान होने के बाद में अवस्थान बताया
है और धातुपाषाण की प्रतिमा बना कर स्थापित करते हैं वह इसीका व्यवहार है ।।३५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
चोत्रीस अतिशययुक्त, अष्ट सहस्र लक्षणधरपणे;
जिनचन्द्र विहरे ज्यां लगी, ते बिंब स्थावर उक्त छे। ३५।