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मोक्षपाहुड][२७७
भावार्थः––बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्वकर्म के उदय से (–उदयके वश होने से) मिथ्याभाव है इसलिये वह अपनी देह को आत्मा जानता है, वैसे ही परकी देह अचेतन है तो भी उसको परकी आत्मा मानता है (अर्थात् पर को भी देहात्मबुद्धि से मान रहा है और ऐसे मिथ्याभाव सहित ध्यान करता है) और उसमें बड़ा यत्न करता है, इसलिये ऐसे भावको छोड़ना यह तात्पर्य है।। ९।।
आगे कहते हैं कि ऐसी ही मान्यतासे पर मनुष्यादिमें मोहकी प्रवृत्ति होती हैः–––
सुयदाराईविसए मणुयाणं वइढण मोहो।। १०।।
सुतदारादिविषये मनुजानां वर्द्धंते मोहः।। १०।।
अर्थः––इसप्रकार देहमें स्व–परके अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा मनुष्यों के सुत, दारादिक जीवोंमें मोह प्रवर्तता है कैसे हैं मनुष्य – जिनने पदार्थ का स्वरूप (अर्थात् आत्मा) नहीं जाना है ऐसे हैं।
दूसरा अर्थः––[ अर्थः–––इसप्रकार देह में स्व–पर के अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा जिन मनुष्योंने पदार्थ के स्वरूपको नहीं जाना है उनके सुत, दारादिक जीवोंमें मोह की प्रवृत्ति होती है।] (भाषा परिवर्तनकार ने यह अर्थ लिखा है) भावार्थः––जिन मनुष्योंने जीव–अजीव पदार्थ का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना उनके देहमें स्वपराध्यवसाय है। अपनी देहको अपनी आत्मा जानते हैं और पर की देहको परकी आत्मा जानते हैं, उनके पुत्र स्त्री आदि कुटुम्बियोंमें मोह (ममत्व) होता है। जब वे जीव–अजीव के स्वरूप को जाने तब देह को अजीव मानें, आत्माको अमूर्तिक चैतन्य जानें, तब पर में ममत्व नहीं होता है। इसलिये जीवादिक पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह जानकर मोह नहीं करना यह बतलाया है।। १०।।
आगे कहते हैं कि मोहकर्म के उदयसे (– उदयमें युक्त होनेसे) मिथ्याज्ञान और मिथ्याभाव होते हैं, उससे आगामी भवमें भी यह मनुष्य देहको चाहता हैः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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मोहोदएण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ।। ११।।
मोहोदयेन पुनरपि अंगं मन्यते मनुजः।। ११।।
अर्थः––यह मनुष्य मोहकर्म के उदयसे (उदय के वश होकर) मिथ्याज्ञानके द्वारा मिथ्याभाव से भाया हुआ फिर आगामी जन्ममें इस अंग (देह) को अच्छा समझकर चाहता है। भावार्थः––मोहकर्मकी प्रकृति मिथ्यात्व के उदय से (उदय के वश होनेसे) ज्ञान भी मिथ्या होता है; परद्रव्य को अपना जानता है और उस मिथ्यात्व ही के द्वारा मिथ्या श्रद्धान होता है, उससे निरन्तर परद्रव्य में यह भावना रहती है कि यह मुझे सदा प्राप्त होवे, इससे यह प्राणी आगामी देहको भला जानकर चाहता है।। ११।। आगे कहते हैं कि जो मुनि देह में निरपेक्ष हैं, देह को नहीं चाहता है, उसमें ममत्व नहीं करता है वह निर्वाण को पाता हैः–––
आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं।। १२।।
आत्मस्वभावे सुरतः योगी स लभते निर्वाणम्।। १२।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि देह मेह निरपेक्ष है अर्थात् देहको नहीं चाहता है, उदासीन है, निर्द्वन्द्व है––रागद्वेषरूप इष्ट–अनिष्ट मान्यता से रहित है, निर्ममत्व है––देहादिक में ‘यह मेरा’ ऐसी बुद्धि से रहित है, निरारंभ है––इस शरीर के लिये तथा ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
निर्द्वन्द्व, निर्मम, देहमां निरपेक्ष, मुक्तारंभ जे,
२७८] [अष्टपाहुड
१ – मु० सं० प्रति में ‘सं मण्णए’ ऐसा प्राकृत पाठ है जिसका ‘स्वं मन्यते’ ऐसा संस्कृत पाठ है।
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मोक्षपाहुड][२७९ तथा अन्य लौकिक प्रयोजन के लिये आरंभ से रहित है और आत्मस्वभावमें रत है, लीन है, निरन्तर स्वभावकी भावना सहित है, वह मुनि निर्वाण को प्राप्त करता है। भावार्थः–––जो बहिरात्माके भावके छोड़कर अन्तरात्मा बनकर परमात्मा में लीन होता है वह मोक्ष प्राप्त करता है। यह उपदेश बताया है।। १२।। आगे बंध और मोक्षके कारणका संक्षेपरूप आगमका वचन कहते हैंः–––
एसो जिणउवदेसो समासदो१ बंधमुक्खस्स।। १३।।
एषः जिनोपदेशः समासतः बंधमोक्षस्य।। १३।।
अर्थः––जो जीव परद्रव्यमें रत है, रागी है वह तो अनेक प्रकारके कर्मों से बाँधता है,
कर्मोंका बंध करता है और जो परद्रव्यसे विरत है–––रागी नहीं है वह अनेक प्रकारके कर्मों
से छूटता है, तह बन्धका और मोक्षका संक्षेपमें जिनदेव का उपदेश है।
भावार्थः–– बंध–मोक्षके कारणकी कथनी अनेक प्रकार से है उसका यह संक्षेप हैः–– जो परद्रव्य से रागभाव तो बंधका कारण और विरागभाव मोक्षका कारण है, इसप्रकार संक्षेप से जिनेन्द्रका उपदेश है।। १३।।
आगे कहते हैं कि जो स्वद्रव्य में रत है वह सम्यग्दृष्टि होता है और कर्मोंका नाश करता हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! नियमथी निजद्रअरत साधु सुद्रष्टि होय छे,
१ ‘सदो’ के स्थानपर ‘’सओ’ पाठान्तर। २ पाठान्तरः – सो साहू। ३ मु० सं० प्रति में ‘दुट्ठट्ठकम्माणि’ पाठ है।
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अर्थः––जो मुनि स्वद्रव्य अर्थात् अपनी आत्मामें रत है, रुचि सहित हे वह नियम से
सम्यग्दृष्टि है और वह ही सम्यक्त्वस्वभावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट आठ कर्मों का क्षय –
नाश करता है।
भावार्थः–– यह भी कर्मके नाश करने के कारणका संक्षेप कथन है। जो अपने स्वरूप की श्रद्धा, रुचि, प्रतीति, आचरणसे युक्त है वह नियम से सम्यग्दृष्टि है, इस सम्यक्त्वभाव से परिणाम करता हुआ मुनि आठ कर्मों का नाश करके निर्वाण को प्राप्त करता है।। १४।। आगे कहते हैं कि जो परद्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होकर कर्मोंको बाँधता हैः–––
मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं।। १५।।
मिथ्यात्वपरिणतः पुनः बध्यते दुष्टाष्ट कर्मभिः।। १५।।
और वह मिथ्यात्वभावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट अष्ट कर्मों से बँधता है।
भावार्थः–––यह बंधके कारण का संक्षेप है। यहाँ साधु कहने से ऐसा बताया है कि जो बाह्य परिग्रह छोड़कर निर्ग्रंथ हो जावे तो भी मिथ्यादृष्टि होता हुआ संसार के दुःख देनेवाले अष्ट कर्मों से बँधता है।। १५।। आगे कहते हैं कि परद्रव्य ही से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य ही से सुगति होती हैः–– – ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
२८०] [अष्टपाहुड
१ पाठान्तरः–– स साधुः। २ मु० सं० प्रतिमेह ‘क्षिपते’ ऐसा पाठ है।
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मोक्षपाहुड][२८१
इय णाऊण सदव्वे कुणइ रई विरह इयरम्मि।। १६।।
इति ज्ञात्वा स्वद्रव्ये कुरुत रतिं विरतिं इतरस्मिन्।। १६।।
अर्थः––परद्रव्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्यसे सुगति होती है यह स्पष्ट (– प्रगट)
परद्रव्य उनसे विरति करो।
भावार्थः––लोकमें भी यह रीति है कि अपने द्रव्यसे रति करके अपना ही भोगता है वह
लेकर भोगता है उसको उसको दुःख होता है, आपत्ति उठानी पड़ती है। इसलिये आचार्य ने
संक्षेप में उपदेश दिया है कि अपने आत्मस्वभावमें रति करो इससे सुगति है, स्वर्गादिक भी
इसी से होते हैं और मोक्ष भी इसी से होता है और परद्रव्य से प्रीति मत करो इससे दुर्गति
होती है, संसार में भ्रमण होता है।
यहाँ कोई कहता है कि स्वद्रव्यमें लीन होने से मोक्ष होता है और सुगति – दुर्गति तो
कहा है कि परद्रव्य से विरक्त होकर स्वद्रव्य में लीन होवे तब विशुद्धता बहुत होती है, उस
विशुद्धता के निमित्त से शुभकर्म भी बँधते हैं और जब अत्यंत विशुद्धता होती है तब कर्मों की
निर्जरा होकर मोक्ष होता है, इसलिये सुगति–दुर्गतिका होना कहा यह युक्त है, इसप्रकार
जानना चाहिये।। १६।।
आगे शिष्य पूछता है कि परद्रव्य कैसा है? उसका उत्तर आचार्य कहते हैंः–––
तं परदव्वं भणियं अवितत्थं सव्वदरिसीहिं।। १७।।
–ए जाणी, निजद्रव्ये रमो, परद्रव्यथी विरमो तमे। १६।
आत्मस्वभावेतर सचित्त, अचित्त, तेमज मिजे,
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तत् परद्रव्यं भणितं अवितत्थं सर्वदर्शिभिः।। १७।।
अर्थः––आत्मस्वभावसे अन्य सचित्त तो स्त्री, पुत्रादिक जीव सहित वस्तु तथा अचित्त
धन, धान्य, हिरण्य सुवर्णादिक अचेतन वस्तु और मिश्र आभूषणादि सहित मनुष्य तथा कुटुम्ब
सहित गृहादिक ये सब परद्रव्य हैं, इसप्रकार जिसने जीवादिक पदार्थोंका स्वरूप नहीं जाना
उसको समझाने के लिये सर्वदर्शी सर्वज्ञ भगवानने कहा है अथवा ‘अवितत्थं’ अर्थात् सत्यार्थ
कहा है।
भावार्थः––अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा सिवाय अन्य चेतन, अचेतन, मिश्र वस्तु हैं वे सब
आगे कहते हैं कि आत्मस्वभाव स्वद्रव्य काह वह इस प्रकार हैः–––
सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं।। १८।।
दुष्टाष्टकर्मरहितं अनुपमं ज्ञानविग्रहं नित्यम्। शुद्धं जिनैः भणितं आत्मा भवति स्वद्रव्यम्।। १८।।
अर्थः––संसार के दुःख देने वाले ज्ञानावरादिक दुष्ट अष्टकर्मों से रहित ओर जिसको किसी की उपमा नहीं ऐसा अनुपम, जिसको ज्ञान ही शरीर है और जिसका नाश नहीं है ऐसा अविनाशी नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकार रहित केवलज्ञानमयी आत्मा जिन भगवान् सर्वज्ञ ने कहा है वह ही स्वद्रव्य है। भावार्थः––ज्ञानानन्दमय, अमूर्तिक, ज्ञानमूर्ति अपनी आत्मा है वही एक स्वद्रव्य है, अन्य सब चेतन, अचेतन, मिश्र परद्रव्य हैं।। १८।।
आगे कहते हैं कि जो ऐसे निजद्रव्यका ध्यान करते हैं वे निर्वाण पाते हैंः–––
ते जिणवराण मग्गे अणुलग्गा लहहिं णिव्याणं।। १९।।
जे शुद्ध भाख्यो जिनवरे, ते आतमा स्वद्रअ छे। १८।
२८२] [अष्टपाहुड
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मोक्षपाहुड][२८३
ते जिनवराणां मार्गे अनुलग्नाः लभते निर्वाणम्।। १९।।
अर्थः––जो मुनि परद्रव्यसे पराङ्मुख होकर स्वद्रव्य जो निज आत्मद्रव्यका ध्यान करते हैं वे प्रगट सुचरित्र अर्थात् निर्दोष चारित्रयुक्त होते हुए जिनवर तीर्थंकरोंके मार्गका अनुलग्न – (अनुसंधान, अनुसरण) करते हुए निर्वाणको प्राप्त करते हैं। भावार्थः––परद्रव्य का त्याग कर जो अपने स्वरूप का ध्यान करते हैं वे निश्चय – चारित्ररूप होकर जिनमार्ग में लगते हैं, वे मोक्ष को प्राप्त करेत हैं।। १९।।
आगे कहते हैं कि जिनमार्ग में लगा हुआ शुद्धात्माका ध्यान कर मोक्षको प्राप्त करता है, तो क्या उससे स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकता है? अवश्य ही प्राप्त कर सकता हैः–––
जेण लहइ णिव्वाणं ण लहइकिं तिण सुरलोयं।। २०।।
येन लभते निर्वाणं न लभते किं तेन सुरलोकम्।। २०।।
अर्थः–– योगी ध्यानी मुनि है वह जिनवर भगवानके मतसे शुद्ध आत्माको ध्यानमें ध्याता है उससे निर्वाण को प्राप्त करता है, तो उससे क्या स्वर्ग लोक नहीं प्राप्त कर सकते हैं? अवश्य ही प्राप्त कर सकते हैं। भावार्थः––कोई जानता होगा कि जो जिनमार्ग में लगकर आत्माका ध्यान करता है वह मोक्षको प्राप्त करता है और स्वर्ग तो इससे होता नहीं है, उसको कहा है कि जिनमार्ग में प्रवर्तने वाला शुद्ध आत्मा का ध्यान के मोक्ष प्राप्त करात है, तो उससे स्वर्ग लोक क्या कठिन है? यह तो उसके मार्गमें ही है।। २०।। आगे इस अर्थको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैंः––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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सो किं कोसद्धं पि हु ण सक्कए जाउ भुवणचले।। २१।।
स किं कोशार्द्धमपि स्फुटं न शक्नोति यातुं भुवनतले।। २१।।
अर्थः–– जो पुरुष बड़ा भार लेकर एक दिनमें सौ योजन चला जावे वह इस पृथ्वीतलपर आधा कोश क्या न चला जावे? यह प्रगट–स्पष्ट जानो। भावार्थः––जो पुरुष बड़ा भार लेकरोक दिन में सौ योजन चले उसके आधा कोश चलना तो अत्यंत सुगम हुआ, ऐसे ही जिनमार्ग से मोक्ष पावे तो स्वर्ग पाना तो अत्यंत सुगम है।। २१।। आगे इसी अर्थका अन्य दृष्टांत कहते हैंः–––
सो किं जिप्पइ इक्किं णरेण संगामए सुहडो।। २२।।
स किं जीयते एकेन नरेण संग्रामे सुभटः।। २२।।
अर्थः––जो कोई सुभट संग्राममें सब ही संग्रमाके करनेवालोंके साथ करोड़ मनुष्योंको भी सुगमतासे जीते वह सुभट एक मनुष्यको क्या न जीते? अवश्य ही जीते। भावार्थः––जो जिनमार्गमें प्रवर्ते वह कर्मका नाश करे ही, तो क्या स्वर्ग के रोकने वाले एक पापकर्म का नाश न करें? अवश्य ही करें।। २२।। आगे कहते हैं कि स्वर्ग तो तपसे [शुभरागरूपी तप द्वारा] सब ही प्राप्त करते हैं, परन्तु ध्यानके योग से स्वर्ग प्राप्त करते हैं वे उस ध्यानके योगसे मोक्ष भी प्राप्त करते हैंः––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते व्यक्तिथी क्रोशार्ध पण नव जई शकाय शुं भूतळे? २१।
जे सुभट होय अजेय कोटि नरोथी–सैनिक सर्वथी,
२८४] [अष्टपाहुड
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मोक्षपाहुड][२८५
जो पावइ सो पावइ परलोए सासयं सोक्खं।। २३।।
यः प्राप्नोति सः प्राप्नोति परलोके शाश्वतं सौख्यम्।। २३।।
अर्थः––शुभरागरूपी तप द्वारा स्वर्ग तो सब ही पाते हैं तथापि जो ध्यानके योगसे स्वर्ग पाते हैं वे ही ध्यानके योगसे परलोक में शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं। भावार्थः––कायक्लेशादिक तप तो सब ही मतके धारक करते हैं, वे तपस्वी मंदकषायके निमित्त से सब ही स्वर्गको प्राप्त करते हैं , परन्तु जो ध्यान के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं वे जिनमार्ग में कहे हुए ध्यान के योगसे परलोक में जिसमें शाश्वत सुख है ऐसे निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। २३।। आगे ध्यानके योग से मोक्षको प्राप्त करते हैं उसको दृष्टांत दार्ष्टांत द्वारा करते हैंः–––
कालाईलद्धीए अप्पा परमप्पओ हवदि।। २४।।
कालादिलब्ध्या आत्मा परमात्मा भवति।। २४।।
अर्थः––जैसे सुवर्ण–पाषाण सोधने की सामग्रीके संबंध से शुद्ध सुवर्ण हो जाता है वैसे ही काल आदि लब्धि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप सामग्री की प्राप्ति से यह आत्मा कर्मके संयोग से अशुद्ध है वही परमात्मा हो जाता है। भावार्थः–––सुगम है।।२४।। आगे कहते है कि संसार में व्रत, तपसे स्वर्ग होता है वह व्रत तप भला है परन्तु अव्रतादिक से नरकादिक गति होती है वह अव्रतादिक श्रेष्ठ नहीं हैः––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते आतमा परलोकमां पामे सुशाश्वत सौख्यने। २३।
ज्यम शुद्धता पामे सुवर्ण अतीव शोभन योगथी,
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छाया तवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरु भेयं।। २५।।
छाया तपस्थितानां प्रतिपालयतां गुरु भेदः।। २५।।
अर्थः––व्रत और तपसे स्वर्ग होता है वह श्रेष्ठ है, परन्तु अव्रत और अतपसे प्राणी को
नरकगति में दुःख होता है वह मत होवे, श्रेष्ठ नहीं है। छाया और आतप में बैठने वाले के
प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है।
भावार्थः––जैसे छायाका कारण तो वृक्षादिक हैं उनकी छायामें जो बैठे वह सुख पावे
है वह दुखको प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें बड़ा भेद है; इसप्रकार ही जो व्रत, तपका
आचरण करता है वह स्वर्गके सुखको प्राप्त करता है और जो इनका आचरण नहीं करता है,
विषय–कषायादिकका सेवन करता है वह नरक के दुःख को प्राप्त करता है, इसप्रकार इनमें
बड़ा भेद है। इसलिये यहाँ कहनेका यह आशय है कि जब तक निर्वाण न हो तब तक व्रत तप
आदिक में प्रवर्तना श्रेष्ठ है, इससे सांसारिक सुख की प्राप्ति है और निर्वाणके साधन में भी ये
सहकारी हैं। विषय–कषायादिक की प्रवृत्तिका फलतो केवल नरकादिकके दुःख हैं, उन दुःखोंके
कारणोंका सेवन करना यह तो बड़ी भूल है, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५।।
आगे कहते हैं कि संसार में रहे तबतक व्रत, तप पालना श्रेष्ठ कहा, परन्तु जो संसार
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छांये अने तडके प्रतीक्षाकरणमां बहु भेद छे। २५।
संसार–अर्णव रुद्रथी निःसरण ईच्छे जीव जे,
२८६] [अष्टपाहुड
१ – मुद्रित संस्कृत प्रति में ‘संसारमहण्णवस्स रुद्दस्स’ ऐसा पाठ है जिसकी संस्कृत ‘संसारमहार्णवस्य रुद्रस्य’ ऐसी है।
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मोक्षपाहुड][२८७
कर्मेन्धनानां दहनं सः ध्यायति आत्मानां शुद्धम्।। २६।।
अर्थः––जो जीव रुद्र अर्थात् बड़े विस्ताररूप संसाररूपी समुद्र से निकलना चाहता है वह जीव कर्मरूपी ईंधनको दहन करनेवाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता है। भावार्थः––निर्वाण की प्राप्ति कर्मका नाश हो तब होती है और कर्मका नाश शुद्धात्मा के ध्यान से होता है अतः जो संसारसे निकलकर मोक्षको चाहे वह शुद्ध आत्मा जो कि––– कर्ममलसे रहित अनन्तचतुष्टय सहित [निज निश्चय] परमात्मा है उसका ध्यान करता है। मोक्षका उपाय इसके बिना अन्य नहीं है।। २६।। आगे आत्माका ध्यान करनेकी विधि बताते हैंः–––
लोय ववहारविरदो अप्पा झाएह झाणत्थो।। २७।।
लोकव्यवहारविरतः आत्मानं ध्यायति ध्यानस्थः।। २७।।
अर्थः––मुनि सब कषयोंको छोड़कर तथा गारव, मद, राग, द्वेष तथा मोह इनको छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यानमें स्थित हुआ आत्माका ध्यान करता है। भावार्थः––मुनि आत्माका ध्यान ऐसा होकर करे–––प्रथम तो क्रोध, मान, माया, लोभ इन सब कषायोंको छोड़े, गारवको छोड़े, मद जाति आदिके भेदसे आठ प्रकारका है उसको छोड़े, रागद्वेष छोड़े और लोकव्यवहार जो संघमें रहनेमें परस्पर विनयाचार, वैयावृत्य, धमोरुपदेश, पढ़ना, पढ़ाना है उसको भी छोड़े, ध्यान में स्थित होजावे, इसप्रकार आत्माका ध्यान करे। यहाँ कोई पूछे कि–––सब कषायोंका छोड़ना कहा है उसमें तो गारव मदादिक आ गये फिर इनको भिन्न भिन्न क्यों कहे? उसका समाधान इसप्रकार है कि––ये सब कषायों में तो गर्भित हैं किन्तु विशेषरूपसे बतलाने के लिये भिन्न भिन्न कहे हैं। कषाय ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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की प्रवृत्ति इसप्रकार है––जो अपने लिये अनिष्ट हो उससे क्रोध करे, अन्यको नीचा मानकर मान करे, किसी कार्य निमित्त कपट करे, आहारादिकमें लोभ करे। यह गारव है वह रस, ऋद्धि और सात––ऐसे तीन प्रकारका है ये यद्यपि मानकषायमें गर्भित हैं तो भी प्रमादकी बहुलता इनमें है इसलिये भिन्नरूपसे कहे हैं। मद–जाति, लाभ, कुल, रूप, तप, बल, विद्या, ऐश्वर्य इनका होता है वह न करे। राग–द्वेष प्रीति–अप्रीति को कहते हैं, किसीसे प्रीति करना, किसी से अप्रीति करना, इसप्रकार लक्षणके भेदसे भेद करके कहा। मोह नाम परसे ममत्वभावका है, संसारका ममत्व तो मुनिके है ही नहीं परन्तु धर्मानुरागसे शिष्य आदि में ममत्व का व्यवहार है वह भी छोड़े। इसप्रकार भेद– विवक्षा से भिन्न भिन्न कहे हैं, ये ध्यान के घातक भाव हैं, इनको छोड़े बिना ध्यान होता नहीं है इसलिये जैसे ध्यान हो वैसे करे।।२७।। आगे इसीको विशेषरूप से कहते हैंः–––
मोणव्वएण जोइ जोयत्थो जोयए अप्पा।। २८।।
मौनव्रतेन योगी योगस्थः द्योतयति आत्मानम्।। २८।।
अर्थः––योगी ध्यानी मुनि है वह मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप–पुण्य इनको मन–वचन–काय
से छोड़कर मौनव्रतके द्वारा ध्यानमें स्थित होकर आत्माका ध्यान करता है।
भावार्थः––कई अन्यमती योगी ध्यानी कहलाते हैं, इसलिये जैनलिंगी भी किसी
द्रव्यलिंगीके धारण करने से ध्यानी माना जाय तो उसके निषेध के निमित्त इसप्रकार कहा है– ––मिथ्यात्व और अज्ञान को छोड़कर आत्माके स्वरूपको यथार्थ जानकर सम्यक् श्रद्धान तो जिसने नहीं किया उसके मिथ्यात्व–अज्ञान तो लगा रहा तब ध्यान किसका हो तथा पुण्य–पाप दोनों बंधस्वरूप हैं इनमें प्रीति–अप्रीति रहती है, जब तक मोक्षका स्वरूप भी जाना नहीं है तब ध्यान किसका हो और [सम्यक् प्रकार स्वरूपगुप्त स्वअस्तिमें ठहरकर] मन वचनकी प्रवृत्ति छोड़कर मौन न करे तो एकाग्रता कैसे हो? ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
२८८] [अष्टपाहुड
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मोक्षपाहुड][२८९ इसलिये मिथ्यात्व, अज्ञान, पुण्य, पाप, मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति छोड़ना ही ध्यान में युक्त कहा है; इसप्रकार आत्माका ध्यान करनेसे मोक्ष होता है।। २८।। आगे ध्यान करनेवाला मौन धारण करके रहता है वह क्या विचारकर रहता है, यह कहते हैंः–––
जाणगं दिस्सदे १णेव तम्हा झंपेमि केणहं।। २९।।
ज्ञायकं द्रश्यते न तत् तस्मात् जल्पामि केन अहम्।। २९।।
अर्थः––जिसरूप को मैं देखता हूँ वह रूप मूर्तिक वस्तु है, जड़ है, अचेतन है, सब प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है और मैं ज्ञायक हूँ, अमूर्तिक हूँ। यह तो जड़ अचेतन है सब प्रकारसे, कुछ भी जानता नहीं है, इसलिये मैं किससे बोलूँ? भावार्थः––यदि दूसरा कोई परस्पर बात करने वाला हो तब परस्पर बोलना संभव है, किन्तु आत्मा तो अमूर्तिक है उसको वचन बोलना नहीं है और जो रूपी पुद्गल है वह अचेतन है, किसी को जानता नहीं देखता नहीं। इसलिये ध्यान केनेवाला कहता है कि––मैं किससे बोलूँ? इसलिये मेरे मौन है।। २६।। आगे कहते हैं कि इसप्रकार ध्यान करनेसे सब कर्मोंके आस्रवका निरोध करके संचित कर्मोंका नाश करता हैंः–––
जोयत्थो जाणए जोई जिणदेवेण भासियं।। ३०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आस्रव समस्त निरोधीने क्षय पूर्वकर्म तणो करे,
१ पाठान्तरः– णं तं, णंत।
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योगस्थः जानाति योगी जिनदेवेन भाषितम्।। ३०।।
अर्थः––योग ध्यानमें स्थित हुआ योगी मुनि सब कर्मोंके आस्रवका निरोध करके
संवरयुक्त होकर पहिले बाँधे हुए कर्म जो संचयरूप हैं उनका क्षय करता है, इसप्रकार
जिनदेवने कहा हे वह जानो।
भावार्थः––ध्यानसे कर्मका आस्रव रुकता है इससे आगामी बंध नहीं होता है और पूर्व
ध्यानका महात्म्य है।। ३०।।
आगे कहते हैं कि जो व्यवहार तत्पर है उसके यह ध्यान नहीं होता हैः–––
जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे।। ३१।।
यः जागर्ति व्यवहारे सः सुप्तः आत्मनः कार्ये।। ३१।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि व्यवहार में सोता है वह अपने स्वरूप के काममें जागता
है और जो व्यवहार में जागता है वह अपने आत्ममकार्य में सोता है।
भावार्थः––मुनिके संसारी व्यवहार तो कुछ है नहीं और यदि है तो मुनि कैसा? वह तो
नहीं है; सब प्रवृत्तियोंकी निवृत्ति करके ध्यान करता है वह व्यवहारमें सोता हुआ कहलाता है
और अपने आत्मस्वरूपमें लीन होकर देखता है, जानता है वह अपने आत्मकार्य में जागता है।
परन्तु जो इस व्यवहार में तत्पर है–––सावधान है, स्वरूप की दृष्टि नहीं है वह व्यवहार में
जागता हुआ कहलाता है।। ३१।।
आगे यह कहते हैं कि योगी पूर्वोक्त कथनको जानके व्यवहारको छोड़कर आतमकार्य
करता हैः––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
२९०] [अष्टपाहुड
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मोक्षपाहुड][२९१
झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेहिं।। ३२।।
ध्यायति परमात्मानं यथा भणितं जिनवरेन्द्रैः।। ३२।।
अर्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त कथनको जानकर योगी ध्यानी मुनि है वह सर्व व्यवहारको
सब प्रकार ही छोड़ देता है और परमात्माका ध्यान करता है––जैसे जिनवरेन्द्र तीर्थंकर
सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसे ही परमात्माका ध्यान करता है।
भावार्थः––सर्वथा सर्व व्यवहारको छोड़ना कहा, उसका आशय इसप्रकार है कि–––
है वैसे ही परमात्माका ध्यान करना। अन्यमती परमात्माका स्वरूप अनेक प्रकारसे अन्यथा कहते
हैं उसके ध्यानका भी वे अन्यथा उपदेश करते हैं उसका निषेध किया है। जिनदेवने
परमात्माका तथा ध्यानका भी स्वरूप कहा वह सत्यार्थ है, प्रमाणभूत है वैसे ही जो योगीश्वर
करते हैं वे ही निर्वाण को प्राप्त करते हैं।। ३२।।
आगे जिनदेवने जैसे ध्यान अध्ययन प्रवृत्ति कही है वैसे ही उपदेश करते हैंः–––
रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सया कुणह।। ३३।।
रत्नत्रयसंयुक्तः ध्यानाध्ययनं सदा कुरु।। ३३।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि जो पाँच महाव्रत युक्त हो गया तथा पाँच समिति व तीन गुप्तियोंसे युक्त हो गया और सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूपी रत्नत्रयसे संयुक्तहो गया, ऐसे बनकर हे मुनिराजों! तुम ध्यान और अध्ययन–शास्त्रके अभ्यासको सदा करो। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परमात्मने ध्यावे यथा उपदिष्ट जिनदेवो वडे। ३२।
तुं पंचसमित त्रिगुप्त ने संयुक्त पंचमहाव्रते,
१ पाठान्तरः– जिणवरिदेणं।
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एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना ये पाँच समिति और मन, वचन, कायके निग्रहरूप तीन गुप्ति–––यह तेरह प्रकारका चारित्र जिनदेव ने कहा है उससे युक्त हो और निश्चय– व्यवहाररूप, मन्यगदर्शन–ज्ञान–चारित्र कहा है, इनसे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन करनेका उपदेश है। इनमें प्रधान तो ध्यान ही है और यदि इसमें मन न रुके तो शास्त्र अभ्यासमें मनको लगावे यह भी ध्यानतुल्य ही है, क्योंकि शास्त्रमें परमात्माके स्वरूपका निर्णय है सो यह ध्यानका ही अंग है।। ३३।। आगे कहते हैं कि जो रत्नत्रय की आराधना करता है वह जीव आराधक ही हैः–
आराहणाविहणं तस्स फलं केवलं णाणं।। ३४।।
आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम्।। ३४।।
अर्थः––रत्नत्रय समयग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी आराधना करते हुए जीवको आराधक
जानना और आराधनाके विधानका फल केवलज्ञान है।
भावार्थः––जो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रकी आराधना करता है वह केवलज्ञानको प्राप्त
आगे कहते हैं कि शुद्धात्मा है वह केवलज्ञान है और केवलज्ञान है वह शुद्धात्मा हैः––
सो जिणवरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं णाणं।। ३५।।
आराधनानुं विधान केवलज्ञानफळदायक अहो! ३४।
छे सिद्ध, आत्मा शुद्ध छे सर्वज्ञानीदर्शी छे,
२९२] [अष्टपाहुड भावार्थः––अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग, ये पाँच महाव्रत, ईर्या, भाषा,
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मोक्षपाहुड][२९३
सः जिनवरैः भणितः जानीहि त्वं केवलं ज्ञानं।। ३५।।
अर्थः––आत्मा जिनवरदेव ने ऐसा कहा है, केसा है? सिद्ध है––किसी से उत्पन्न नहीं हुआ है स्वयंसिद्ध है, शुद्ध है–––कर्ममलसे रहित है, सर्वज्ञ है–––सब लोकालोक को जानता है और सर्वदर्शी है–––सब लोक–अलोक को देखता है, इसप्रकार आत्मा है वह हे मुनि! उसहीको तू केवलज्ञान जान अथवा उस केवलज्ञान ही को आत्मा जान। आत्मा में और ज्ञान में कुछ प्रदेशभेद नहीं है, गुण–गुणी भेद है वह गौण है। यह आराधना का फल पहिले केवलज्ञान कहा, वही है।। ३५।। आगे कहते हैं कि जो योगी जिनदेवके मतसे रत्नत्रयकी आराधना करता है वह आत्माका ध्यान करता हैः–––
सो झायदि अप्पाणं परिहरइ परं ण संदेहो।। ३६।।
सः ध्यायति आत्मानं परिहरति परं न सन्देहः।। ३६।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि जिनेश्वरदेवके मतकी आज्ञासे रत्नत्रय–सम्यग्दर्शन, ज्ञान,
चारित्रकी निश्चयसे आराधना करता है वह प्रगटरूप से आत्माका ही ध्यान करता है, क्योंकि
रत्नत्रय आत्माका गुण है और गुण–गुणीमें भेद नहीं है। रत्नत्रय की आराधना है वह आत्माकी
ही आराधना है वह ही परद्रव्यको छोड़ता है इसमें संदेह नहीं है।
भावार्थः––सुगम है।। ३६।। पहिले पूछा था कि आत्मा में रत्नत्रय कैसे है उसका उत्तर अब आचार्य कहते हैंः––– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं।। ३७।।
तत् चारित्रं भणितं परिहारः पुण्यपापानाम्।। ३७।।
परिहार है वह चारित्र है, इसप्रकार जानना चाहिये।
भावार्थः––यहाँ जाननेवाला तथा देखनेवाला और त्यागनेवाला दर्शन, ज्ञान, चारित्रको
कर्त्ता आत्मा है, इसलिये ये तीन आत्मा ही है, गुण–गुणीमें कोई प्रदेशभेद नहीं होता है।
इसप्रकार रत्नत्रय है वह आत्मा ही है, इसप्रकार जानना।।३७।।
आगे इसी अर्थ को अन्य प्रकासे कहते हैंः–––
चारित्तं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहिं।। ३८।।
चारित्रं परिहारः प्रजल्पितं जिनवरेन्द्रैः।। ३८।।
अर्थः––तत्वरुचि सम्यक्त्व है, तत्त्वका ग्रहण सम्यग्ज्ञान है, परिहार चारित्र है,
इसप्रकार जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेवने कहा है।
भावार्थः––जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन तत्त्वोंका श्रद्धान रुचि
प्रतीति सम्यग्दर्शन है, इनही को जानना सम्यग्ज्ञान है और परद्रव्यके परिहार संबंधी क्रिया की निवृत्ति चारित्र है; इसप्रकार जिनेश्वरदेवने कहा है, इनको निश्चय–व्यवहार नयसे आगमके अनुसार साधना।। ३८।। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे पाप तेम ज पुण्यनो परिहार ते चारित कह्युं। ३७।
छे तत्त्वरुचि, तत्त्वतणुं ग्रहण सद्ज्ञान छे,
२९४] [अष्टपाहुड
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मोक्षपाहुड][२९५
दंसणविहीणपुरिसो ण लहइ तं इच्छियं लाहं।। ३९।।
दर्शनविहीन पुरुषः न लभते तं इष्टं लाभम्।। ३९।।
अर्थः––जो पुरुष दर्शनसे शुद्ध है वह ही शुद्ध है, क्योकि जिसका दर्शन शुद्ध है वही
निर्वाण को पाता है और जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह पुरुष ईप्सित लाभ अर्थात्
मोक्षको प्राप्त नहीं कर सकता है।
भावार्थः––लोकमें प्रसिद्ध है कि कोई पुरुष कोई वस्तु चाहे और उसकी रुचि प्रातीति
है।। ३९।।
आगे कहते हैं कि ऐसा सम्यग्दर्शनको ग्रहण करने का उपदेश सार है, उसको जो
तं सम्मत्तं भणियं सवणाणं सावयाणं पि।। ४०।।
तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि।। ४०।।
अर्थः––इसप्रकार सम्यग्दर्शन – ज्ञान – चारित्रका उपदेश सार है, जो जरा व मरण
को हरनेवाला है, इसको जो मानता है श्रद्धान करता है वह ही सम्यक्त्व कहा है। वह मुनियों
तथा श्रावकोंको सभी को कहा है इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान चारित्र को अंगीकार करो।
भावार्थः––जीवके जितने भाव हैं उनमें समयग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र सार हैं उत्तम
दर्शनरहित जे पुरुष ते पामे न इच्छित लाभने। ३९।
जरमरणहर आ सारभूत उपदेश श्रद्धे स्पष्ट जे,
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हैं, जीवके हित हैं, और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है क्योंकि इसके बिना ज्ञान, चारित्र भी मिथ्या कहलाते हैं, इसलिये सम्यग्दर्शन प्रधान जानकर पहिले अंगीकार करना, यह उपदेश मुनि तथा श्रावक सभीको है।। ४०।। आगे सम्यग्ज्ञानका स्वरूप कहते हैंः–––
तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं।। ४१।।
तत् संज्ञानं भणितं अवितथं सर्वदर्शिभिः।। ४१।।
अर्थः––जो योगी मुनि जीव –अजीव पदार्थके भेद जिनवरके मतसे जानता है वह सम्यग्ज्ञान है ऐसा सर्वदर्शी – सबको देखनेवाले सर्वज्ञ देव ने कहा है अतः वह ही सत्यार्थ है, अन्य छद्मस्थका कहा हुआ सत्यार्थ नहीं है असत्यार्थ है, सर्वज्ञका कहा हुआ ही सत्यार्थ है। भावार्थः––सर्वज्ञदेव ने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये जाति अपेक्षा छह द्रव्य कहे हैं। [संख्या अपेक्षा एक, एक, असंख्य और अनंतानंत हैं।] इनमें जीव को दर्शन– ज्ञानमयी चेतनास्वरूप कहा है, यह सदा अमूर्तिक है अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्णसे रहित है। पुद्गल आदि पाँच द्रव्योंको अजीव कहे हैं ये अचेतन हैं – जड़ हैं। इनमें पुद्गल स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्दसहित मूर्तिक (–रूपी) हैं, इन्द्रियगोचर है, अन्य अमूर्तिक हैं। आकश आदि चार तो जैसे हैं वैसे ही रहते हैं। जीव और पुद्गल के अनादि संबंध हैं। छद्मस्थके इन्द्रियगोचर पुद्गल स्कंध हैं उनको ग्रहण करके जीव राग–द्वेष–मोहरूपी परिणमन करता है शरीरादिको अपना मानता है तथा इष्ट–अनिष्ट मानकर राग–द्वेषरूप होता है, इससे नवीन पुद्गल कर्मरूप होकर बंधको प्राप्त होता है, यह निमित्त–नैमित्तिक भाव है, इसप्रकार यह जीव अज्ञानी होता हुआ जीव–पुद्गलके भेदको न जानकर मिथ्याज्ञानी होता है। इसलिये आचार्य कहते हैं कि जिनदेवके मत से जीव–अजीवका भेद जानकर सम्यग्दर्शन का स्वरूप जानना। इसप्रकार जिनदेवने कहा वह ही सत्यार्थ है, प्रमाण–नयके द्वारा ऐसे ही सिद्ध होता है इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने सब वस्तुको प्रत्यक्ष देखकर कहा है। ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
२९६] [अष्टपाहुड