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सीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणं।। २०।।
शीलं विषयाणामरिः शीलं मोक्षस्य सोपानम्।। २०।।
की शुद्धता है, शील ही विषयोंका शत्रु है और शील ही मोक्ष की सीढ़ी है।
सन्मुख प्रकृति हो तो तब इस शील ही के तप आदिक सब नाम हैं–––निर्मल तप, शुद्ध
दर्शन ज्ञान, विषय – कषायों का मेटना, मोक्ष की सीढ़ी ये सब शील के नाम के अर्थ हैं, ऐसे
शील के महात्म्य का वर्णन किया है और यह केवल महिमा ही नहीं है इन सब भावों के
अविनाभावीपना बताया है।। २०।।
सव्वेसिं पिविणासदि विसयविसं दारुणं होई।। २१।।
सर्वान् अपि विनाशयति विषयविसं दारुणं भवति।। २१।।
अर्थः––जैसे विषय सेवनरूपी विष विषय–लुब्ध जीवों को विष देनेवाला है, वैसे ही
घोर तएव्र स्थावर–जंगम सब ही विष प्राणियों का विनाश करते हैं तथापि इन सब विषों में
विषयों का विष उत्कृष्ट है तीव्र है।
विष घोर जंगम–स्थावरोनुं नष्ट करतुं सर्वने,
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घोहरा आदिक का–––इन विषों से भी प्राणी मारे जाते हैं, परंतु सब विषों में विषयों का विष
अति ही तीव्र है।। २१।।
विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकंतारे।। २२।।
विषयविषपरिहता भ्रमंति संसारकांतारे।। २२।।
अर्थः––विष की वेदना से नष्ट जीव तो एक जन्म में ही मरता है परन्तु विषयरूप
विषसे नष्ट जीव अतिशयतया – बारबार संसाररूपी वन में भ्रमण करते हैं।
देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासिया जीवा।। २३।।
देवेषु अपि दौर्भाग्यं लभंते विषयासक्ता जीवाः।। २३।।
अर्थः––विषयों में आसक्त जीव नरकमें अत्यंत वेदना पाते हैं, तिर्यंचों में तथा
पण विषयविषहत जीव तो संसारकांतारे भमे। २२।
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देव होते हैं, इसप्रकार चारों गतियों में दुःख ही पाते हैं।
सेवन से आकुलता दुःख ही है, यह जीव भ्रम से सुख मानता है, सत्यार्थ ज्ञानी तो विरक्त ही
होता है।। २३।।
तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विस व खलं।। २४।।
तपः शीलमंतः कुशलाः क्षिपंते विषयं विषमिव खलं।। २४।।
अर्थः––जैसे तुषों के चलाने से, उड़ाने से मनुष्य का कुछ द्रव्य नहीं जाता है, वैसे ही
तपस्वी और शीलवान् पुरुष विषयोंको खलकी तरह क्षेपते हैं, दूर फेंक देते हैं।
हैं, वैसे ही विषयों को जानना। रस था वह तो ज्ञानियों ने जान लिया तब विषय तो खल के
समान रहे, उनके त्यागने में क्या हानि? अर्थात् कुछ भी नहीं है। उन ज्ञानियों को धन्य है जो
विषयों को ज्ञेयमात्र जानकर आसक्त नहीं होते हैं।
सूखी हड्डी चबाता है तब हड्डी की नोक मुखके तलवे में चुभती है, इससे तलवा फट जाता
है और उसमें से खून बहने लगता है, तब अज्ञानी श्वान जानता है कि यह रस हड्डी में से
निकला है और उस हड्डी को बार बार चबा कर सुख मानता है; वैसे ही अज्ञानी विषयों में
सुख मानकर बार बार भोगता है, परन्तु ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में ही सुख जाना है, उनको
विषयों के त्याग में दुःख नहीं है, ऐसे जानना।। २४।।
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अंग खंड़ अर्थात् अर्द्ध गोल सदृश प्रशंसा योग्य होते हैं, कई अंग भ्रद्र अर्थात् सरल सीधे
प्रशंसा योग्य होते हैं और कई अंग विशाल अर्थात् विस्तीर्ण चोड़े प्रशंसा योग्य होते हैं,
इसप्रकार सबही अंग यथास्थान शोभा पाते हुए भी अंगों में यह शील नामका अंग ही उत्तम
है, यह न हो तो सबही अंग शोभा नहीं पाते हैं, यह प्रसिद्ध है।
अंगेषु च प्राप्तेषु च सर्वेषु च उत्तमं शीलं।। २५।।
प्रधान कहा है, जितने सम्यग्दर्शनादिक मोक्ष के अंग हैं वे शील ही के परिवार हैं ऐसा पहिले
कह आये हैं।। २५।।
संसारे भमिदव्यं अरयघरट्टं व भूदेहिं।। २६।।
दुर्मतविमोहित विषयलुब्ध जनो ईतरजन साथमां,
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संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरट्टं इव भूतैः।। २६।।
अर्थः––जो कुसमय अर्थात् कुमत से मूढ़ हैं वे ही अज्ञानी हैं और वे ही विषयों में
लोलुपी हैं–––आसक्त हैं, वे जैसे अरहट में घड़ी भ्रमण करती है वैसे ही संसार में भ्रमण
करते हैं, उनके साथ अन्य पुरुषों के भी संसार में दुःख सहित भ्रमण होता है।
प्रसन्न होता है, [–यह तो ब्रह्मानंद है] यह परमेश्वर की बड़ी भक्ति है, ऐसा कह कर
अत्यंत आसक्त होकर सेवन करते हैं। ऐसा ही उपदेश दूसरों को देकर विषयों में लगते हैं, वे
आप तो अरहट की घड़ी की तरह संसार में भ्रमण करते ही हैं, अनेक प्रकार के दुःख भोगते
हैं परन्तु अन्य पु्रुषों को भी उनमें लगा कर भ्रमण कराते हैं, इसलिये यह विषय सेवन दुःख
ही के लिये है, दुःख ही का कारण है, ऐसा जानकर कुमतियों का प्रसंग न करना,
विषयासक्त्पना छोड़ना, इससे सुशीलपना होता है।।२६।।
तं छिन्दन्ति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण।। २७।।
अर्थः––जो विषयों के रागरंग करके आप ही कर्म की गाँठ बाँधी है उसको कृतार्थ
पुरुष [––उत्तम पुरुष] तप संयम शील के द्वारा प्राप्त हुआ जो गुण उसके द्वारा छेदते हैं––
खोलते हैं।
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अदृष्ट हो जाय, तब उस संधि को टाँके का झालने वाला ही पहिचान कर खोले, वैसे ही
आत्माने अपने ही रागादिक भावों से कर्मों की गाँठ बांधी है उसको आप ही भेदविज्ञान करके
रागादिकके और आपके जो भेद हैं उस संधि को पहिचान कर तप संयम शीलरूप भावरूप
शस्त्रों के द्वारा कर्म बंध को काटता है, ऐसा जानकर जो कृतार्थ पुरुष है वे अपने प्रयोजन के
करनेवाले हैं, वे इस शीलगुणको अंगीकार करके आत्मा को कर्म से भिन्न करते हैं, यह
परुषार्थ पुरुषों का कार्य है।। २७।।
आत्मा तप विनय शीलवान इन रत्नोंमें शीलसहित शोभा पाता है, क्योंकि जो शील सहित
हुआ उसने अनुत्तर अर्थात् जिससे आगे और नहीं है ऐसे निर्वाणपद को प्राप्त किया।
सोहेंतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो।। २८।।
शोभते च सशीलः निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः।। २८।।
जानना।। २८।।
जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं।। २९।।
सोहंत जीव सशील पामे श्रेष्ठ शिवपदने अहो! २८।
देखाय छे शुं मोक्ष स्त्री–पशु–गाय–गर्दभ–श्वाननो?
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ये शोधयंति चतुर्थं द्रश्यतां जनैः सर्वैंः।। २९।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं कि––यह सब लोग देखो––श्वान, गर्दभ इनमें और गौ आदि
पशु तथा स्त्री इनमें किसी का मोक्ष होना दिखता है? वह तो दिखता नहीं है। मोक्ष तो चौथा
पुरुषार्थ है, इसलिये जो चतुर्थ परुषार्थ को शोधते हैं उन्ही के मोक्ष का होना देखा जाता है।
शोधते हैं और पुरुष ही उसको हेरते हैं–––उसकी सिद्ध करते है,ं अन्य अन्य श्वान गर्दभ
बैल पशु स्त्री इनके मोक्ष का शोधना प्रसिद्ध नहीं है, जो हो तो मोक्ष का पुरुषार्थ ऐसा नाम
क्यों हो? यहाँ आशय ऐसा है कि मोक्ष शील से होता है, और श्वान गर्दभ आदिक हैं वे तो
अज्ञानी हैं कुशील हैं, उनका स्वभाव प्रकृति ही ऐसी है कि पलट कर मोक्ष होने योग्य तथा
उसके शोधने योग्य नहीं हैं, इसलिये पुरुष को मोक्ष का साधन शील को जानकर अंगीकार
करना, सम्यग्दर्शनादिक है वह तो शील ही के परिवार पहिले कहे ही हैं इसप्रकार जानना
चाहिये।। २९।।
तो सो सच्चइपुत्तो दसपुव्वीओविकिं गदो णरयं।। ३०।।
वर्हि सः सात्यकिपुत्रः दशपूर्विकः किं गतः नरकं।। ३०।।
अर्थः––जो विषयों में लोल अर्थात् लोलुपी – आसक्त और ज्ञानसहित ऐसे ज्ञानियों ने
मोक्ष साधा हो तो दश पूर्वको जाननेवाला रुद्र नरक को क्यों गया?
करनेवाला हुआ, मुनिपद से भ्रष्ट होकर कुशील सेवन किया इसलिये नरक में गया, यस कथा
पुराणों में प्रसिद्ध है।। ३०।।
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दश पूर्वको जानने वाला जो रुद्र उसका भाव निर्मल क्यों नहीं हुआ, इसलिये ज्ञात होता है
कि भाव निर्मल शील से होते हैं।
ज्ञान ही से मोक्ष की सिद्धि होती नहीं, शील के बिना मुनि भी हो जाय तो भ्रष्ट हो जाता है।
इसलिये शील को प्रधान जानना।। ३१।।
दसपुव्वियरस भावो य ण किं पुणु णिम्मलो जादो।। ३१।।
दशपूर्विकस्य भावः च न किं पुनः निर्मलः जातः।। ३१।।
ता लेहदि अरुहपयं भणियंजिणवड्ढमाणेण।। ३२।।
तत् लभते अर्हतादं भणितं जिनवर्द्धमानेव।। ३२।।
अर्थः––विषयों से विरक्त है सो जीव नरक की बहुत वेदना को भी गँचाता है––वहाँ
भी अति दुःखी नहीं होता और वहाँ से निकल कर तीर्थंकर होता है ऐसा जिन वर्द्धमान
भगवान् ने कहा है।
विषये विरक्त करे सुसह अति–उग्र नारकवेदना,
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भली भावना भावे तब नरक–वेदना भी अल्प हो जाती है और वहाँ से निकलकर अरहंतपद
प्राप्त करके मोक्ष पाता है, ऐसा विषयों से विरक्तभाव वह शीलका ही महात्म्य जानो। सिद्धांत
में इस प्रकार का कहा है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और वैराग्य की शक्ति नियम से होती है,
वह वैराग्यशक्ति है वही शील का एकदेश है इसप्रकार जानना।। ३२।।
शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः।। ३३।।
अर्थः––एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार [–बहुत प्रकार] जिनके प्रत्यक्ष
ज्ञान–दर्शन पाये जाते हैं और जिनके लोक–अलोक का ज्ञान है ऐसे जिनदेव ने कहा है कि
शील से अक्षातीत–––जिनमें इन्द्रियरहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख है ऐसा मोक्षपद होता है।
है; बहुत कहाँ तक कहें इतना ही बहुत प्रकार से कहा जानो।।३३।।
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आचाररूप अग्नि और शीलरूपी पवन की सहायता पाकर पुरातन कर्मबंध को दग्ध करके
आत्मा को शुद्ध करता है, इसप्रकार शील ही प्रधान है। पाँच आचारों में चारित्र कहा है और
यहाँ सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना।। ३४।।
जलणो वि पवण सहिदो डहंति पोरायणं कम्मं।। ३४।।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म।। ३४।।
अर्थः––सम्यक्त्व–ज्ञान–दर्शन–वीर्य ये पँच आचार है वे आत्मा का आश्रय पाकर
पुरातन कर्मोंको वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे कि पवन सहित अग्नि पुराने सुखे ईंधन को दग्ध
कर देती है।
तवविणयशीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता।। ३५।।
तपोविनयशील सहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः।। ३५।।
अर्थः––जिन पुरुषों ने इन्द्रियोंको जीत लिया है इसी से विषयों से विरक्त हो गये हैं,
और धीर हैं, परिषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं, तप विनय शीलसहित हैं वे
अष्ट कर्मों को दूर करके सिद्धगति जो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
विजितेन्द्रि विषय विरक्त थई, धरीने विनय–तप–शीलने,
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शाखा, पत्र, पुष्प, फल सुन्दर हों और छायादि करके रागद्वेष रहित सब लोकका समान
उपकार करे उस वृक्ष की महिमा सब लोग करते हैं; ऐसे ही मुनि भी ऐसा हो तो सबके द्वारा
महिमा करने योग्य होता है।। ३६।।
सो सीलो स महप्पा भमिज्ज गुणवित्थरं भविए।। ३६।।
सः शीलः स महात्मा भ्रमेत गुणविस्तारः भव्ये।। ३६।।
अर्थः––जिस मुनि का जन्मरूप वृक्ष लावण्य अर्थात् अन्य को प्रिय लगता है ऐसे सर्व
अंग सुन्दर तथा मन वचन काय की चेष्टा सुन्दर और शील अर्थात् अंतरंग मिथ्यात्व विषय
रहित परोपकारी स्वभाव, इन दोनों में प्रवीण निपुण हो वह शीलवान् है महात्मा है उसके
गुणोंका विस्तार लोकमें भ्रमता है, फैलता है।
जे श्रमण केरुं जन्मतरु लावण्य–शील समृद्ध छे,
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अपने वीर्य [शक्ति] के आधीन है, जिना बने उतना हो परन्तु सम्यग्दर्शन से बोधि अर्थात्
रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, इसके होने पर विशेष ध्यानादिक भी यथाशक्ति होते ही हैं और
इससे शक्ति भी बढ़ती है। ऐसे कहने में भी शील ही का महात्म्य जानना, रत्नत्रय है वही
आत्मा का स्वभाव है, उसको शील भी कहते हैं।।३७।।
सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधिं।। ३७।।
अर्थः––ज्ञान, ध्यान, योग, दर्शन की शुद्धता ये तो वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन
से जिनशासन में बोधि को प्राप्त करते हैं, रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है।
सील सलिलेण ण्हादा ते सिद्धालय सुहं जंति।। ३८।।
शील सलिलेन स्नाताः ते सिद्धालय सुखं यांति।। ३८।।
हैं, जिनके तप ही धन है तथा धीर हैं ऐसे होकर मुनि शीलरूप जलसे स्नानकर शुद्ध हुए हैं
वे सिद्धालय जो सिद्धोंके रहने का स्थान है उसके सुखों को प्राप्त होते हैं।
अंगीकार करते हैं–––मुनि होते हैं, धीर वीर बन कर परिषह उपर्सग आने पर भी चलायमान
नहीं होते है तब शील जो स्वरूप की प्राप्ति की पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुण की पूर्णता
वही हुआ निर्मल जल उससे स्नान करके सब कर्ममल को धोकर सिद्ध हुए, वह मोक्ष मंदिरमें
रहकर वहाँ परमानन्द अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख को भोगते हैं, यह शीलका महात्म्य
है। ऐसा शील जिनवचन
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पप्फोडियकम्मरवा हवंति आराहणापयडा।। ३९।।
प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाप्रकटाः।। ३९।।
अर्थः––सर्वगुण जो मूलगुण उत्तरगुणों से जिसमें कर्म क्षीण हो गये हैं, सुख–दुःख से
रहित हैं, जिनमें मन विशुद्ध है और जिसमें कर्मरूप रज को उड़ा दी है ऐसी अराधना प्रगट
होती र्है।
उससे रहित होता है, पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढ़े तब उपयोग विशुद्ध हो, कषायों
का उदय अव्यक्त हो तब सुख–दुःख की वेदना मिटे, पीछे मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम
ज्ञानके द्वारा कुछ ज्ञेय से ज्ञेयान्तर होनेका विकल्प होता है वह मिटकर एकत्ववितर्क अविचार
नामका शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है यह मनका विकल्प मिटकर विशुद्ध
होना है।
आराधना प्रगट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। अन्यके आराधना का एक देश होता है अंत में
उसका आराधन करके स्वर्ग प्राप्त होता है, वहाँ सागरो पर्यन्त सुख भोग वहाँ से चय कर
मनुष्य हो आराधन को संपूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसप्रकार जानना, यह जिनवचन का
और शील का महात्म्य है।। ३९।।
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सीलं विसयविरागो णाणं पुणकेरिसं भणियं।। ४०।।
शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीद्रशं भणितं।। ४०।।
अर्थः––अरहंतों में शुभ भक्ति का होना सम्यक्त्व है, वह कैसा है? सम्यग्दर्शन से
विशुद्ध है तत्त्वार्थों का निश्चय–व्यवहारस्वरूप श्रद्धान और बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगम्बररूप का
धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दर्शन से विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंत
भक्तिरूप सम्यक्त्व है, विषयों से विरक्त होना शील है और ज्ञान भी यही है तथा इससे भिन्न
ज्ञान कैसा कहा है? सम्यक्त्व शील बिना तो ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप अज्ञान है।
सहित हो, ऐसा जिन मार्ग में कहा है, इससे भिन्न ज्ञान कैसा है? इससे भिन्न ज्ञान को तो
हम ज्ञान नहीं कहते हैं, इनके बिना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व व शील हो वह
जिनागम से होते हैं। वहाँ जिसके द्वारा सम्यक्त्व शील हुए और उसकी भक्ति न हो तो
सम्यक्त्व कैसे कहा जावे, जिके वचन द्वारा यह प्राप्त किया जाता है उसकी भक्ति हो तब
जाने कि इसके श्रद्धा हुई और जब सम्यक्त्व हो तब विषयों से विरक्त होय ही हो, यदि
विरक्त न हो तो संसार और मोक्ष का स्वरूप क्या जाना? इसप्रकार सम्यक्त्व शील के संबंध
से ज्ञान की तथा शास्त्र की महिमा है। ऐसे यह जिनागम है सो संसार में निवृत्ति करके मोक्ष
प्राप्त कराने वाला है, वह जयवंत हो। यह सम्यक्त्व सहित ज्ञान की महिमा है वही अंतमंगल
जानना।। ४०।।
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विशेष मिथ्यात्व, कषाय आदि अनेक हैं इनको रागद्वेष मोह भी कहते हैं, इनके भेद संक्षेप से
चौरासी लाख किये हैं, विस्तार से असंख्यात अनंत होते हैं इनको कुशील कहते हैं। इनके
अभावरूप संक्षेप से चौरासी लाख उत्तरगुण हैं, इन्हें शील कहते हैं, यह तो सामान्य परद्रव्य
के संबंध की अपेक्षा शील–कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री के संग की
अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहें हैं, इनका अभाव शील के अठारह हजार भेद हैं,
इनको जिनागम से जानकर पालना। लोक में भी शील की महिमा प्रसिद्ध है, जो पालते हैं
स्वर्ग–मोक्ष के सुख पाते हैं, उनको हमारा नमस्कार है वे हमारे भी शील की प्राप्ति करो, यह
प्रार्थना है।
वरतै ताहि कुशीलभाव भाखे कुरंग धरि!
ताहि तजैं मुनिराय पाप निज शुद्धरूप जल;
धोय कर्मरज होय सिद्धि पावै सुख अविचल।।
जो पालै सबविधि तिनि नमूं पाउं जिन भव न जनम मैं।।
उत्तम शरण सदा लहूं फिरि न परूं भवकूप।। २।।
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कृत है और टिप्पण पहिले किसी ओर ने किया है। इनमें कइ गाथा तथा अर्थ अन्य प्रकार हैं,
मेरे विचार में आया उनका आश्रय भी लिया है ऐार जैसा अर्थ मुझे प्रतिभाषित हुआ वैसा
लिखा है। लिंगपाहुड और शीलपाहुड इन दोनों पाहुड की टीका टिप्पण मिली नहीं इसलिये
गाथाका अर्थ जैसा प्रति भास में आया वैसा लिखा है।
प्रतिभासमें आया उसके अनुसार अर्थ लिखा है। प्राकृत व्याकरणाादि का ज्ञान मेरे में विशेष
नहीं है इसलिये कहीं व्याकरण से तथा आगम से शब्द और अर्थ अपभ्रंश हुआ होतो बुद्धिमान
पंडित मूलग्रंथ विचार कर शुद्ध करके पढ़ना, मुझे अल्पबुद्धि जानकर हँसी मत करना, क्षमा
करना, सत्पुरुषों का स्वभाव उत्तम होता है, दोष देखकर क्षमा ही करते हैं।
है। इसमें सम्यग्दर्शन को दृढ़ करने का प्रधान रूप से वर्णन है, इसलिये अल्प बुद्धि भी वाँचे
पढ़ें अर्थ का धारण करें तो उनके जिनमत का श्रद्धान दृढ़ हो। यह प्रयोजन जानकर जैसा
अर्थ प्रतिभास में आया वैसा लिखा है ओर जो बड़े बुद्धिमान हैं वे मूल ग्रन्थ को पढ़ कर ही
श्रद्धान दृढ़ करेंगे, मेरे कोई ख्याति लाभ पूजा का तो प्रयोजन है नहीं, धर्मानुराग से यह
वचनिका लिखी है, इसलिये बुद्धिमानों के क्षमा ही करने योग्य है।
मोक्षपाहुडकी गाथा १०६। लिंगपाहुडकी गाथा २२। शीलपाहुडकी गाथा ४०। ऐसे पाहुड आठोंकी
गाथाकी संख्या ४०२ हैं।
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बोधजैन का जांनि आनका सरन निवारन,
भाव आत्मा बुद्ध मांनि भावन शिव कारन।
भव्यजीव संगति भली मेटै कुकरमलेप।। २।।
जयपुर पुर सुवस वसै तहाँ राज जगतेश।
लाके न्याय प्रतापतैं सुखी ढुढ्राहर देश।। ३।।
जैनधर्म जयवंत जग किछु जयपुरमैं लेश।
तामधि जिनमंदिर घणे तिनको भलो निवेश।। ४।।
तिनिमैं तेरापंथको मंदिर सुन्दर एव।
धर्मध्यान तामैं सदा जैनी करै सुसेव।। ५।।
पंडित तिनिमैं बहुत हैं मैं भी इक जयचंद।
र्प्रेया सबकै मन कियो करन वचनिका मंद।। ६।।
कुन्दकुन्द मुनिराजकृत प्राकृत गाथासार।
पाहुड अष्ट उदार लखि करी वचनिका तार।। ७।।
अक्षर अर्थ सु वांचि पढ़ि नहिं राखयो संदेह।। ८।।
तौऊ कछू प्रमादतैं बुद्धि मंद परभाव।
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विध्न टलै शुभबंध ह्वै यह कारन है मोहु।। १०।।
संवत्सर दस आठ सत सतसठि विक्रमताय।
मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय।। ११।।