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रोकना, बध–बंधन इत्यादि द्वारा दुःख पाये। इसप्रकार तिर्यंचगति में असंख्यात अनन्तकालपर्यंत
दुःख पाये
दुक्खाइं मणुयजम्मे पत्तो सि अणंतयं कालं।। ११।।
दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोऽसि अनन्तकं कालं।। ११।।
अर्थः––हे जीव! तुने मनुष्यगति में अनंतकाल तक आगंतुक अर्थात् अकस्मात्
वज्रपातादिकका आ–गिरना, मानसिक अर्थात् मन में ही होने वाले विषयों की वांछा होना और
तदनुसार न मिलना, सहज अर्थात् माता, पितादि द्वारा सहजसे ही उत्पन्न हुआ तथा राग–
द्वेषादिक से वस्तुके इष्ट–अनिष्ट मानने के दुःखका होना, शारीरिक अर्थात् व्याधि, रोगादिक
तथा परकृत छेदन, भेदन आदिसे हुए दुःख ये चार प्रकार के और चार से इनको आदि लेकर
अनेक प्रकार के दुःख पाये ।। ११।।
संपत्तो सि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ।। १२।।
संप्राप्तोऽसि महायश! दुःखं शुभभावनारहितः।। १२।।
उपादानका–योग्यताका ज्ञान करानेके लिये यह उपचरित व्यवहार से कथन है।]
दुःखो लह्यां निःसीम काळ मनुष्य करो जन्ममां। ११।
सुर–अप्सराना विरहकाळे हे महायश! स्वर्गमां,
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देख कर अपने को हीन मानने के मानसिक तीव्र दुःखोंको शुभभावना से रहित होकर पाये हैं।
शुद्धोपयोग के सन्मुख न हो उसको प्रधानतया उपदेश है कि मुनि हुआ वह तो बड़ा कार्य
किया, तेरा यश लोकमें प्रसिद्ध हुआ, परन्तु भली भावना अर्थात् शुद्धात्मतत्त्वका अभ्यास उसके
बिना तपश्चरणादि करके स्वर्गमें देव भी हुआ तो वहाँ भी विषयोंका लोभी होकर मानसिक
दुःखसे ही तप्तायमान हुआ।। १२।।
भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ।। १३।।
भावयित्वा द्रव्यलिंगी प्रहीणदेवः दिवि जातः।। १३।।
अर्थः––हे जीव! तू द्रव्यलिंगी मुनि होकर कान्दर्पी आदि पाँच अशुभ भावना भाकर
प्रहीणदेव अर्थात् नीच देव होकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ।
किल्विष आदि नीच देव होकर मानसिक दुःख को प्राप्त होता है।। १३।।
तुं स्वर्गलोके हीन देव थयो, दरवलिंगीपणे,
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भाउण दुहं पत्तो कु भावणा भाव बीएहिं।। १४।।
भावयित्वा दुःखं प्राप्तः कुभावना भाव बीजैः।। १४।।
अर्थः––हे जीव! तू पार्श्वस्थ भावना से अनादिकालसे लेकर अनन्तबार भाकर दुःखको
प्राप्त हुआ। किससे दुःख पाया? कुभावना अर्थात् खोटी भावना, उसका भाव वे ही हुए दुःखके
बीज, उनसे दुःख पाया।
वेषधारी को ‘कुशील’ कहते हैं। जो वैद्यक ज्योतिषविद्या मंत्रकी आजिविका करे, राजादिकका
सेवक होवे इसप्रकार के वेषधारीको ‘संसक्त’ कहते हैं। जो जिनसूत्र से प्रतिकूल, चारित्र से
भ्रष्ट आलसी, इसप्रकार वेषधारी को ‘अवसन्न’ कहते हैं। गुरुका आश्रय छोड़कर एकाकी
स्वच्छन्द प्रवर्ते, जिन आज्ञाका लोप करे, ऐसे वेषधारीको ‘मृगचारी’ कहते हैं। इसकी भावना
भावे वह दुःख ही को प्राप्त होता है।। १४।।
होऊण हीणदेवो पत्तो बहु माणसं दुक्खं।। १५।।
भूत्वा हीनदेवः प्राप्तः बहु मानसं दुःखम्।। १५।।
अर्थः––हे जीव! तू हीन देव होकर अन्य महद्धिक देवोंके गुण, विभूति और ऋद्धि का
अनेक प्रकारका महात्म्य देखकर बहुत मानसिक दुःखोंको प्राप्त हुआ।
ते भावीने दुर्भावनाद्नक बीजथी दुःखो लह्यां। १४।
रे! हीन देव थई तुं पाम्यो तीव्र मानस दुःखने,
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इसप्रकार विचारे कि मैं पुण्यरहित हूँ, ये बड़े पुण्यवान् हैं, इनके ऐसी विभूति महात्म्य ऋद्धि है,
इसप्रकार विचार करनेसे मानसिक दुःख होता है।। १५।।
होऊण कुदेवत्तं पत्तो सि अणेयवाराओ।। १६।।
भूत्वा कुदेवत्वं प्राप्तः असि अनेकवारान्।। १६।।
अर्थः––हे जीव! तू चार प्रकार की विकथा में आसक्त होकर, मद से मत्त और जिसके
अशुभ भावना का ही प्रकट प्रयोजन है इसप्रकार अनेकबार कुदेवपने को प्राप्त हुआ।
भावना ही का प्रयोजन धारण कर अनेकबार नीच देवपनेको प्राप्त हुआ, वहाँ मानसिक दुःख
पाया।
विकथादिकमें रक्त हो तब नीच देव होता है, इसप्रकार जानना चाहिये।। १६।।
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वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीय मुणिवयर।। १७।।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर!।। १७।।
अर्थः––हे मुनिप्रवर! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की वस्तीमें
बहुकाल रहा। कैसे है वह वस्ती? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, वीभत्स
कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारणकर चार गतियोंमें ही भ्रमण किया, देव भी हुआ
तो वहाँ से चयकर इसप्रकारके मलिन गर्भवासमें आया, वहाँ भी बहुतबार रहा।। १७।।
अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं।। १८।।
अन्यासामन्यासां महायश! सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १८।।
अर्थः–– हे महाशय! उस पूर्वोक्त गर्भवास में अन्य–अन्य जन्ममें अन्य–अन्य माता के
स्तन दूध तूने समूद्रके जलसे भी अतिशयकर अधिक पिया है।
निकृष्टमळभरपूर, अशूचि, बीभत्स गर्भाशय विषे। १७।
जन्मो अनंत विषे अरे! जननी अनेरी अनेरीनुं
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अनन्तगुणा जानना, क्योंकि अनन्तकाल का एकत्र किया हुआ दूध अनन्तगुणा हो जाता है।।
१८।।
रुण्णाण णयणणीरं सायरसलिलादु अहिययरं।। १९।।
रुदितानां नयननीरं सागरसलिलात् अधिकतरम्।। १९।।
अर्थः–– हे मुने! तूने माताके गर्भमें रहकर जन्म लेकर मरण किया, वह तेरे मरणसे
अन्य–अन्य जन्ममें अन्य–अन्य माताके रुदनके नयनोंका नीर एकत्र करें तब समुद्रके जलसे भी
अतिशयकर अधिकगुणा हो जावे अर्थात् अनन्तगुणा हो जावे।
पुंजइ जइ को वि जए हयदि य गिरिसमधिया
रासी।। २०।।
पुञ्जयति यदि कोऽपि देवः भवति च गिरिसमाधिकः राशिः।। २०।।
अर्थः––हे मुने! इस अनन्त संसारसागरमें तूने जन्म लिये उनमें केश, नख, नाल और
अस्थि कटे, टूटे उनका यदि देव पुंज करे तो मेरू पर्वतसे भी अधिक राशि हो जाये,
अनन्तगुणा हो जावे।। २०।।
नयनो थकी जळ जे वह्यां ते उदधिजळथी अति घणां। १९।
निःसीम भवमां त्यक्त तुज नख–नाळ–अस्थि–केशने
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उषितोऽसि चिरं कालं त्रिभुवनमध्ये अनात्मवशः।। २१।।
अर्थः––हे जीव! तू जलमें, थल अर्थात् भूमिमें, शिखि अर्थात् अग्निमें, पवन में, अम्बर
अर्थात् आकाश में, गिरि अर्थात् पर्वतमें, सरित् अर्थात् नदीमें, दरी पर्वतकी गुफा में, तरु
अर्थात् वृक्षोंमें, वनोंमें और अधिक क्या कहें सब ही स्थानोंमें, तीन लोकमें अनात्मवश अर्थात्
पराधीन होकर बहुत काल तक रहा अर्थात् निवास किया।
पत्तो सि तो ण तितिं
प्राप्तोऽसि तन्न तृप्तिं पुनरुक्तान् तान भुंजानः।। २२।।
वण आत्मवशता चिर वस्यो सर्वत्र तुं त्रण भुवनमां। २१।
भक्षण कर्यां तें लोकवर्ती पुद्गलोने सर्वने,
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हुआ।
फिर
तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं।। २३।।
तदपि न तृष्णाछेदः जातः चिन्तय भवमथनम्।। २३।।
अर्थः––हे जीव! तूने इस लोक में तृष्णासे पीड़ित होकर तीन लोकका समस्त जल
पिया, तो भी तृषाका व्युच्छेद न हुआ अर्थात् प्यास न बुझी, इसलिये तू इस संसारका मथन
अर्थात् तेरे संसारका नाश हो, इसप्रकार निश्चय रत्नत्रयका चिन्तन कर।
उपदेश है।। २३।।
ताणं णत्थि पमाणं अणंत भवसायरे धीर।। २४।।
तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर!।। २४।।
अर्थः–– हे मुनिवर! हे धीर! तूने इस अनन्त भवसागरमें कलेवर अर्थात् शरीर
तोपण तृषा छेदाई ना; चिंतव अरे! भवछेदने। २३।
हे धीर! हे मुनिवर! ग्रह्यां–छोड्यां शरीर अनेक तें,
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आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ।। २५।।
रसविज्जजोयधारण अणयपसंगेहिं विविहेहिं।। २६।।
अवमिच्चुमहादुक्खं तिव्वं पत्तो सि तं मित्त।। २७।।
आहारोच्छ्वासानां निरोधनात् क्षीयते आयु।। २५।।
हिमज्वलनसलिल गुरुतर पर्वततरु रोहणपतनभङ्गैः।
रसविद्यायोगधारणानय प्रसंगैः विविधैः।। २६।।
इति तिर्यग्मनुष्यजन्मनि सुचिरं उत्पद्य बहुवारम्
अपमृत्यु महादुःखं तीव्रं प्राप्तोऽसि त्वं मित्र?।। २७।।
आयुष्यनो क्षय थाय छे आहार–श्वासनिरोधथी। २५।
हिम–अग्नि–जळथी, उच्च–पर्वत वृक्षरोहणपतनथी,
अन्याय–रसविज्ञान–योगप्रधारणादि प्रसंगथी। २६।
हे मित्र! ए रीत जन्मीने चिरकाळ नर–तिर्यंचमां,
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आयुका क्षय होता है।
करके भक्षण करे इससे, और अन्याय कार्य, चोरी, व्यभिचार आदिके निमित्तसे –––इसप्रकार
अनेकप्रकारके कारणोंसे आयुका व्युच्छेद
इसप्रकार यह जीव संसार में महादुःख पाता है। इसलिये आचार्य दयालु होकर बारबार दिखाते
हैं और संसारसे मुक्त होनेका उपदेश करते हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। २५–२६–२७।।
अतोमुहुत्तममज्झे पत्तो सि निगोयवासम्मि।। २८।।
अन्तर्मुहूर्त्तमध्ये प्राप्तोऽसि निकोतवासे।। २८।।
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और एक श्वासके तीसरे भागके छ्यासठ हजार तीनसौ छत्तीस बार निगोद में जन्म–मरण
होता है। इसका दुःख यह प्राणी सम्यग्दर्शनभाव पाये बिना मिथ्यात्वके उदयके वशीभूत होकर
सहता है। भावार्थः––अंतर्मुहूर्त्तमें छ्यासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म–मरण कहा, वह
अठ्यासी श्वास कम मुहूर्त्त इसप्रकार अंतर्मुहूर्त्त जानना चाहिये।। २८।।
शब्द पांचों इन्द्रियोंके सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके लिये प्रयुक्त
होता है। अतः यहाँ जो ६६३३६ बार मरण की संख्या है वह पांचों इन्द्रियों को सम्मिलित
समझाना चाहिये।। २८।।]
पंचिंदिय चउवीसं खुद्दभवंतोमुहुत्तस्स।। २९।।
पंचेन्द्रियाणां चतुर्विंशति क्षुद्रभवान् अन्तर्मुहूर्त्तस्य।। २९।।
अर्थः––इस अंतर्मुहूर्त्तके भवोंमें दो इन्दियके क्षुद्रभव अस्सी, तेइन्द्रियके साठ, चौइन्द्रिय
के चालीस और पंचेन्द्रियके चौबीस, इसप्रकार हे आत्मन्! तू क्षुद्रभव जान।
स्थानोंके भव तो एक––एकके छह हजार बार उसके छ्यासठ हजार एकसौ बत्तीस हुए और
इस गाथा में कहे वे भव दो इन्द्रिय आदिके दो सौ वार, ऐसे ६६३३६ एक अंतर्मुहूर्त्तमें क्षुद्रभव
हैं।। २९।।
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इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तय समायरह।। ३०।।
इति जिनवरैर्भणितं तत् रत्नत्रयं समाचर।। ३०।।
अर्थः––हे जीव! तूने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रय को नहीं पाया, इसलिये इस
दीर्घकालसे – अनादि संसारमें पहिले कहे अनुसार भ्रमण किया, इसप्रकार जानकर अब तू
उस रत्नत्रयका आचरण कर, इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने कहा है।
जाणइ तं सण्णाणं चरदिहं चारित्त मग्गो त्ति।। ३१।।
जानाति तत् संज्ञानं चरतीह चारित्रं मार्ग इति।। ३१।।
अर्थः––जो आत्मा आत्मा में रत होकर यथार्थरूपका अनुभव कर तद्रुप होकर श्रद्धान
करे वह प्रगट सम्यग्दृष्टि होता है, उस आत्माको जानना सम्यग्ज्ञान है,
भाख्युं जिनोए आम; तेथी रत्नत्रयने आचरो। ३०।
निज आद्नमां रत क्वव जे ते प्रगट सम्यग्द्रष्टि छे,
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निश्चयरत्नत्रय है, मोक्षमार्ग है।
इसप्रकार निश्चय–व्यवहारस्वरूप रत्नत्रय मोक्षका मार्ग है। वहाँ निश्चय तो प्रधान है, इसके
बिना व्यवहार संसार स्वरूप ही है।
इसप्रकार जानना चाहिये।। ३१।।
भावहि सुमरणमरणं जरमरणविणासणं जीव!।। ३२।।
भावय सुमरणमरणं जन्ममरणविनाशनं जीव!।। ३२।।
अर्थः––हे जीव! इस संसार में अनेक जन्मान्तरोंमें अन्य कुमरण मरण जैसे होते हैं वैसे
तू मरा। अब तू जिस मरण का नाश हो जाय इसप्रकार सुमरण भा अर्थात् समाधिमरण की
भावना कर।
पंडितमरण, ७––आसन्नमरण, ८––बालपंडितमरण, ९––सशल्यमरण, १०––पलायमरण, ११–
–वर्शात्तमरण, १२––विप्राणमरण, १३––गृध्रपृष्ठमरण, १४––भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५––
इंगिनीमरण, १६––प्रायोपगमनमरण और १७––केवलिमरण, इसप्रकार सत्रह हैं।
व्यवहार साथमें होते है। निमित्तके बिना अर्थ शास्त्रमें जो कहा है उससे विरूद्ध निमित्त नहीं होता ऐसा समझना।]
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का उदय आवे वह [१] सर्वावधिमरण है और एकदेश बंध–उदय हो तो [२]
देशावधिमरण कहलाता है।। ३।।
पाँचवाँ
शरीर इनके आचरण के लिये समर्थ न हो वह ‘अव्यक्तबाल’ है। जो लोकके और शास्त्रके
व्यवहार को न जाने तथा बालक अवस्था हो वह ‘व्यवहारबाल’ है। वस्तुके यथार्थज्ञान रहित
‘ज्ञानबाल’ है। तत्त्वश्रद्धानरहित मिथ्यादृष्टि ‘दर्शनबाल’ है। चारित्ररहित प्राणी ‘चारित्रबाल’
है। इनका मरना सो बाल मरण है। यहाँ प्रधानरूपसे दर्शनबाल का ही ग्रहण है क्योंकि
सम्यक्दृष्टि को अन्यबालपना होते हुए भी दर्शनपंडितता के सद्भावसे पंडितमरण में ही गिनते
हैं। दर्शनबालका मरण संक्षेपमें दो प्रकारका कहा है––इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त। अग्निसे,
धूमसे, शस्त्रसे, विषसे, जलसे, पर्वतके किनारेपर से गिर ने से, अति शीत–उष्णकी बाधा से,
बंधनसे, क्षुधा–तृषाके रोकनेसे, जीभ उखाड़ने से और विरूद्ध आहार करने से बाल
‘अनिच्छाप्रवृत्त’ है।। ५।।
‘सम्यक्त्वपंडित’ है। सम्यग्ज्ञान सहित हो ‘ज्ञानपंडित’ है। सम्यक्चारित्र सहित हो
‘चारित्रपंडित’ है। यहाँ दर्शन–ज्ञान–चारित्र सहित पंडितका ग्रहण है, क्योंकि व्यवहार–पंडित
मिथ्यादृष्टि बालमरण में आ गया।। ६।।
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‘आसन्नमरण’ है।
‘सशल्यमरण’ है।। ९।।
जो
सहित मरे ‘वेदनावशार्त्तमरण’ है। क्रोध, मान, माया, लोभ, कषायके वश से मरे
‘कषायवशार्त्तमरण’ है। हास्य विनोद कषाय के वश से मरे ‘नोकषायवशार्त्तमरण’ है ।। ११।।
अनुक्रमसे अन्न–पानीका यथाविधि त्याग कर मरे ‘भक्तप्रत्याख्यानमरण’ है।। १४।।
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सहित हो वह पंडितपंडित है और इनकी प्रकर्षता जिनके न हो वह पंडित है, सम्यग्दृष्टि
श्रावक वह बालपंडित और पहिले चार प्रकारके पंडित कहे उनमेह से एक भी भाव जिसके
नहीं है वह बाल है तथा जो सबसे न्यून हो वह बालबाल है। इनमें पंडितपंडितमरण,
पंडितमरण और बालपंडितमरण ये तीन प्रशस्त सुमरण कहे हैं, अन्य रीति होवे वह कुमरण
है। इसप्रकार जो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र एकदेश सहित मरे वह ‘सुमरण’ है; इसप्रकार
सुमरण करने का उपदेश है।। ३२।।
जत्थ ण जाओ ण मओ तियलोयपमाणिओ सव्वो।। ३३।।
यत्र न जातः न मृतः त्रिलोकप्रमाणकः सर्वः।। ३३।।
मरण न किया हो।
भावलिंग के बिना द्रव्यलिंग से मोक्ष की
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जिणलिंगेण वि पत्तो परंपराभावरहिएण।। ३४।।
जिनलिंगेन अपि प्राप्तः परम्पराभावरहितेन।। ३४।।
अर्थः––यह जीव इस संसार में जिसमें परम्परा भावलिंग न होने से अनंतकाल पर्यन्त
जन्म–जरा–मरण से पीड़ित दुःख को ही प्राप्त हुआ।
इसप्रकार है तो द्रव्यलिंग पहले क्यों धारण करें? उसको कहते हैं कि–––इसप्रकार माने तो
व्यवहार का लोप होता है, इसलिये इसप्रकार मानना जो द्रव्यलिंग पहिले धारण करना,
इसप्रकार न जानना कि इसी से सिद्धि है। भावलिंगी को प्रधान मानकर उसके सन्मुख उपयोग
रखना, द्रव्यलिंगको यत्नपूर्वक साधना, इसप्रकार का श्रद्धान भला है।। ३४।।
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गहिउज्झियाइं बहुसो अणंतभवसायरे
गृहीतोज्झितानि बहुशः अनन्तभवसागरे जीवः।। ३५।।
अर्थः––इस जीवने इस अनन्त अपार भवसमुद्रमें लोककाशके जितने प्रदेश हैं उन प्रति
समय समय और पर्याय के आयुप्रमाण काल और जैसा योगकषाय के परिणमनस्वरूप परिणाम
और जैसा गति जाति आदि नाम कर्मके उदयसे हुआ नाम और काल जैसा उत्सर्पिणी–
अवसर्पिणी उनमें पुद्गलके परमाणुरूप स्कन्ध, उनको बहुतबार अनन्तबार ग्रहण किये और
छोडे़।
मुत्तूणट्ठ पएसा जत्थण ढुरुढुल्लिओ जीयो।। ३६।।
मुक्त्वाऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः।। ३६।।
अर्थः–यह लोक तीनसौ तेतालीस राजू प्रमाण क्षेत्र है, उसके बीच मेरूके नीचे
गोस्तनाकार आठ प्रदेश हैं, उनको छोड़कर अन्य प्रदेश ऐसा न रहा जिसमें यह जीव नहीं
जन्मा – मरा हो।
बहुशः शरीर ग्रह्यां–तज्यां निःसीम भवसागर विषे। ३५।
त्रणशत–अधिक चाळीश–त्रण रज्जुप्रमित आ लोकमां
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बना कर मध्यदेश उपजता है, वहाँ से क्षेत्रपरावर्तन का प्रारंभ किया जाता है, इसलिये उनको
पुनरुक्त भ्रमण में नहीं गिनते हैं।। ३६।। [देखो गो० जी० काण्ड गाथा ५६० पृ० २६६ मूलाचार
अ० ९ गाथा १४ पृ० ४२८]
अवसेसे य सरीरे रोया भण कित्तिया भणिया।। ३७।।
अवशेषे च शरीरे रोगाः भण कियन्तः भणिताः।। ३७।।
अर्थः––इस मनुष्य के शरीर में एक एक अंगुलमें छ्यानवे छ्यानवे रोग होते हैं, तब
कहो, अवशेष समस्त शरीर में कितने रोग कहें।। ३७।।
एवं सहसि महाजस किं वा बहुएहिं लविएहिं।। ३८।।
एवं सहसे महायशः। किं वा बहुभिः लपितैः।। ३८।।
अर्थः––हे महाशय! हे मुने! तूने पूर्वोक्त रोगोंको पूर्वभवोंमें तो परवश सहे, इसप्रकार
ही फिर सहेगा, बहुत कहने से क्या?
तो केटला रोगो, कहो, आ अखिल देह विषे, भला! ३७।
ए रोग पण सघळा सह्या तें पूर्वभवमां परवशे;
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मुक्त हो जावे, इसप्रकार जानना चाहिये।। ३८।।
उयरे वसिओ सि चिरं णवदसमासेहिं पत्तेहिं।। ३९।।
उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तेः।। ३९।।
अर्थः––हे मुने! तूने इसप्रकार के मलिन अपवित्र उदर में नव मास तथा दस मास
प्राप्त कर रहा। कैसा है उदर? जिसमें पित्त और आंतोंसे वेष्टित, मूत्रका स्रवण, फेफस अर्थात्
जो रुधिर बिना मेद फूल जावे, कालिज्ज अर्थात् कलेजा, खून, खरिस अर्थात् अपक्व मलसे
मिला हुआ रुधिर श्लेष्म और कृमिजाल अर्थात् लट आदि जीवोंके समूह ये सब पाये जाते हैं–
––इसप्रकार स्त्री के उदर में बहुत बार रहा।। ३९।।
छद्दिखरिसाण मज्झे जढरे वसिओ सि जणणीए।। ४०।।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः।। ४०।।
अर्थः––हे जीव! तू जननी
त्यां मास नव–दश तुं वस्यो बहु वार जननी–उदरमां ३९।
जननी तणुं चावेल ने खाधेल एठुं खाईने,