Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 13-40 (Charitra Pahud).

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 6 of 21

 

Page 77 of 394
PDF/HTML Page 101 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][७७
वात्सल्यं विनयेन च अनुकंपया सुदान दक्षया।
मार्गगुणशंसनथा उपगूहनं रक्षणेन च।। ११।।

एतैः लक्षणैः च लक्ष्यते आर्जवैः भावैः।
जीवः आराधयन् जिनसम्यक्त्वं अमोहेन।। १२।।
अर्थः––जिनदेवकी श्रद्धा–सम्यक्त्वकी मोह अर्थात् मिथ्यात्व रहित आराधना करता हुआ
जीव इन लक्षणोंसे अर्थात् चिन्होंसे पहिचाना जाता है–प्रथम तो धर्मात्मा पुरुषोंसे जिसके
वात्सल्यभाव हो, जैसे तत्कालकी प्रसूतिवान गाय को बच्चे से प्रीति होती है वैसे धर्मात्मा से
प्रीति हो, एक तो यह चिन्ह है। सम्यक्त्वादि गुणोंसे अधिक हो उसका विनय–सत्कारादिक
जिसके अधिक हो, ऐसा विनय एक यह चिन्ह है। दुःखी प्राणी देखकर करुणाभाव स्वरूप
अनुकंपा जिसके हो, एक यह चिन्ह है, अनुकंपा कैसी हो? भले प्रकार दान से योग्य हो।
निर्ग्रन्थस्वरूप मोक्षमार्ग की प्रशंसा सहित हो, एक यह चिन्ह है, जो मार्ग की प्रशंसा नहीं
करता हो तो जानो कि इसके मार्ग की दृढ़ श्रद्धा नहीं है। धर्मात्मा पुरुषों के कर्मके उदयसे
[उदयवश] दोष उत्पन्न हो उसको विख्यात न करे इसप्रकार उपगूहन भाव हो, एक यह
चिन्ह है। धर्मात्मा को मार्ग से चिगता जानकर उसकी स्थिरता करे ऐसा रक्षण नामका चिन्ह है
इसको स्थितिकरण भी कहते हैं। इन सब चिन्होंको सत्यार्थ करनेवाला एक आर्जवभाव है,
क्योंकि निष्कपट परिणामसे यह सब चिन्ह प्रगट होते हैं, सत्यार्थ होते हैं, इतने लक्षणोंसे
सम्यग्दृष्टि को जान सकते हैं।

भावार्थः––सम्यक्त्वभाव–मिथ्यात्व कर्मके अभावमें जीवोंका निजभाव प्रगट होता है सो
वह भाव तो सूक्ष्म है, छद्मस्थ के ज्ञानगोचर नहीं है और उसके बाह्य चिन्ह सम्यग्दृष्टि के
प्रगट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ जाना जाता है। जो वात्सल्य आदि भाव कहें वे आपके तो
अपने अनुभवगोचर होते हैं और अन्य के उसकी वचन काय की क्रिया से जाने जाते है,
उनकी परीक्षा जैसे अपने क्रियाविशेष से होती है वैसे ही अन्य की भी क्रिया विशेष से परीक्षा
होती है, इसप्रकार व्यवहार है। यदि ऐसा न हो तो सम्यक्त्व व्यवहार मार्गका लोप हो इसलिये
व्यवहारी प्राणीको व्यवहारका ही आश्रय कहा है, परमार्थको सर्वज्ञ जानता है।।११–१२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वात्सल्य–विनय थकी, सुदाने दक्ष अनुकंपा थकी,,
वळी मार्गगुणस्तवना थकी, उपगूहन ने स्थितिकरणथी। ११।

–आ लक्षणोथी तेम आर्जवभावथी लक्षाय छे,
वणमोह जिनसम्यक्त्वने आराधनारो जीव जे। १२।

Page 78 of 394
PDF/HTML Page 102 of 418
single page version

७८] [अष्टपाहुड
अब कहते हैं कि जो ऐसे कारण सहित हो तो सम्यक्त्व छोड़ता हैः––
उच्छाहभावणासंपसंससेवा कुदंसणे सद्धा।
अण्णाणमोहमग्गे कुव्वंतो जहदि जिणसम्मं।। १३।।
उत्साह भावना शंप्रशंसासेवा कुदर्शने श्रद्धा।
अज्ञानमोहमार्गे कुर्वन् जहाति जिनसम्यक्त्वम्।। १३।।

अर्थः––कुदर्शन अर्थात् नैयायिक , वैशेषिक, सांख्यमत, मीमांसकमत, वैदान्त ,
बौद्धमत, चार्वाकमत, शून्यवादके मत इनके भेष तथा इनके भाषित पदार्थ और श्वेताम्बरादिक
जैनाभास इनमें श्रद्धा, उत्साह, भावना, प्रशंसा और इनकी उपासना व सेवा जो पुरुष करता
है वह जिनमत की श्रद्धारूप सम्यक्त्व को छोड़ता है, वह कुदर्शन, अज्ञान और मिथ्यात्व का
मार्ग है।

भावार्थः––अनादिकाल से मिथ्यात्वकर्म के उदय से (उदयवश) यह जीव संसार में
भ्रमण करता है सो कोई भाग्य के उदय से जिनमार्ग की श्रद्धा हुई हो और मिथ्तामत के प्रसंग
में मिथ्तामत में कुछ कारण से उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा उत्पन्न हो तो
सम्यक्त्वका अभाव हो जाय, क्योंकि जिनमत के सिवाय अन्य मतों में छद्मस्थ अज्ञानियों द्वारा
प्ररूपित मिथ्या पदार्थ तथा मिथ्या प्रवृत्तिरूप मार्ग है, उसकी श्रद्धा आवे तब जिनमत की श्रद्धा
जाती रहे, इसलिये मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग ही नहीं करना, इसप्रकार भावार्थ जानना।। १३।।

आगे कहते हैं कि जो ये ही उत्साह भावनादिक कहे वे सुदर्शन में हों तो जिनमत की श्रद्धारूप
सम्यक्त्व को नहीं छोड़ता है–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अज्ञानमोहपथे कुमतमां भावना, उत्साह ने।
श्रद्धा, स्तवन, सेवा करे जे, ते तजे सम्यक्त्वने। १३।

Page 79 of 394
PDF/HTML Page 103 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][७९
उच्छाहभावणासंपसंससेवा सुदंसणे सद्धा
ण जहादि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण।। १४।।
उत्साहभावना शंप्रशंससेवाः सुदर्शने श्रद्धां।
न जहाति जिनसम्यक्त्वं कुर्वन् ज्ञानमार्गेण।। १४।।

अर्थः
––सुदर्शन अर्थात् सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप सम्यक्मार्ग उसमें उत्साह
भावना अर्थात् ग्रहण करने का उत्साह करके बारम्बार चिंतवनरूप भाव और प्रशंसा अर्थात्
मन–वचन–काय से भला जानकर स्तुति करना, सेवा अर्थात् उपासना, पूजनादिक करना और
श्रद्धा करना, इसप्रकार ज्ञानमार्गसे यथार्थ जानकर करता पुरुष है वह जिनमत की श्रद्धारूप
सम्यक्त्वको नहीं छोड़ता है।

भावार्थः––जिनमत में उत्साह, भावना, प्रशंसा, सेवा, श्रद्धा जिसके हो वह सम्यक्त्व से
च्युत नहीं होता है।। १४।।

आगे अज्ञान, मिथ्यातव, कुचारित्र त्यागका उपदेश करते हैंः––
अण्णांणं मिच्छत्तं वज्जह णाणे विसुद्धसम्मत्ते।
अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए।। १५।।
अज्ञानं मिथ्यात्वं वर्ज्जय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे।
अथ मोहं सारंभं परिहर धर्मे अहिंसायाम्।। १५।।

अर्थः
––आचार्य कहते हैं कि हे भव्य! तू ज्ञान के होने पर तो अज्ञानका त्याग कर,
विशुद्ध सम्यक्त्व के होनेपर मिथ्यात्वका त्याग कर और अहिंसा लक्षण धर्म के होने पर
आरंभसहित मोह को छोड़।

भावार्थः––सम्यक्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की प्राप्ति होनेपर फिर मिथ्यादर्शन–ज्ञान–
चारित्रमें मत प्रवर्तो, इसप्रकार उपदेश है।। १५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सद्दर्शने उत्साह, श्रद्धा, भावना, सेवा अने
स्तुति ज्ञानमार्गथी जे करे, छोडे न जिनसम्यक्त्वने। १४।

अज्ञान ने मिथ्यात्व तज, लही ज्ञान, समकित शुद्धने
वळी मोह तज सारंभ तुं, लहीने अहिंसाधर्मने। १५।

Page 80 of 394
PDF/HTML Page 104 of 418
single page version

८०] [अष्टपाहुड
आगे फिर उपदेश करते हैंः––
पव्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे।
होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते।। १६।।
प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्त्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे।
भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे।। १६।।

अर्थः
––हे भव्य! तू संग अर्थात् परिग्रह का त्याग जिसमें हो ऐसी दीक्षा ग्रहण कर और
भले प्रकार संयम स्वरूप भाव होनेपर सम्यक्प्रकार तप में प्रवर्तन कर जिससे तेरे मोह रहित
वीतरागपना होनेपर निर्मल धर्म–शुक्लध्यान हो।

भावार्थः––निर्ग्रन्थ हो दीक्षा लेकर, संयमभावसे भले प्रकार तप में प्रवर्तन करे, तब
संसार का मोह दूर होकर वीतरागपना हो, फिर निर्मल धर्मध्यान शुक्लध्यान होते हैं, इसप्रकार
ध्यान से केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसलिये इसप्रकार उपदेश है।। १६।।

आगे कहते हैं कि यह जीव अज्ञान ओर मिथ्यात्व के दोषसे मिथ्यामार्ग में प्रवर्तन करता
है–––
मिच्छादंसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं।
वज्झंति मूढजीवा
मिच्छत्ताबुद्धिउदएण।। १७।।
मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने अज्ञानमोहदोषैः।
वध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्ध्युदयेन।। १७।।

अर्थः
––मूढ़ जीव अज्ञान और मोह अर्थात् मिथ्यात्व के दोषोंसे मलिन जो मिथ्यादर्शन
अर्थात् कुमत के मार्ग में मिथ्यात्व और अबुद्धि अर्थात् अज्ञान के उदयसे प्रवृत्ति करते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
निःसंग लही दीक्षा, प्रवर्त सुसंयमे, सत्तप विषे;
निर्मोह वीतरागत्व होतां ध्यान निर्मळ होय छे। १६।

जे वर्तता अज्ञानमोहमले मलिन मिथ्यामते,
ते मूढजीव मिथ्यात्व ने मतिदोषथी बंधाय छे। १७।

Page 81 of 394
PDF/HTML Page 105 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][८१
भावार्थः––ये मूढ़जीव मिथ्यात्व और अज्ञानके उदय से मिथ्यामार्ग में प्रवर्तते हैं इसलिये
मिथ्यात्व–आज्ञानका नाश करना यह उपदेश है।। १७।।

आगे कहते हैं कि सम्यक्दर्शन, ज्ञान, श्रद्धानसे चारित्रके दोष दूर होते हैंः––
सम्मदंसण पस्सदि जाणदि णाणेण दव्वपज्जाया।
सम्मेण य सद्रहदि य परिहरदि चरित्तजे दोसे।। १८।।
सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान्।
सम्यक्त्वेन च श्रद्रधाति च परिहरति चारित्रजान् दोषान्।। १८।।

अर्थः––यह आत्मा सम्यक्दर्शन से तो सत्तामात्र वस्तु को देखता है, सम्यग्ज्ञान से द्रव्य
और पर्यायोंको जानता है, सम्यक्त्व से द्रव्य–पर्यायस्वरूप सत्तामयी वस्तुका श्रद्धान करता है
और इसप्रकार देखना, जानना व श्रद्वान होता है तब चारित्र अर्थात् आचरण में उत्पन्न हुए
दोषोंको छोड़ता है।

भावार्थः––वस्तुका स्वरूप द्रव्य–पर्यायात्मक सत्तास्वरूप है, सो जैसा हैं वैसा देखे,
जाने, श्रद्धान करे तब आचरण शुद्ध करे, सो सर्वज्ञके आगम से वस्तुका निश्चय करके
आचरण करना। वस्तु है वह द्रव्य–पर्यायस्वरूप है। द्रव्यका सत्ता लक्षण है तथा गुणपर्यायवान
को द्रव्य कहते है। पर्याय दो प्रकार की है, सहवर्ती और क्रमवर्ती। सहवर्ती को गुण कहते हैं
और कमवर्ती को पर्याय कहते हैं–द्रव्य सामान्यरूपसे एक है तो भी विशेषरूप से छह हैं–जीव,
पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल।। १८।।

जीव के दर्शन–ज्ञानमयी चेतना तो गुण है और अचक्षु आदि दर्शन, मति आदिक ज्ञान
तथा क्रोध, मान , माया, लोभ आदि व नर, नारकादि विभाव पर्याय है, स्वभाव पर्याय
अगुरुलघु गुण के द्धारा हानि–वृद्धि का परिणमन है। पुद्गल द्रव्य के स्पर्श, रस, गंध, वर्णरूप
मूर्तिकपना तो गुण हैं और स्पर्श, रस, गंध वर्णका भेदरूप परिणमन तथा अणुसे स्कन्धरूप
होना तथा शब्द, बन्ध आदिरूप होना इत्यादि पर्याय है। धर्म–अधर्म के गतिहेतुत्व–
स्थितिहेतुत्वपना तो गुण है और इस गुण के जीव–पुद्गलके गति–स्थिति के भेदोंसे भेद होते
हैं वे पर्याय हैं तथा अगु़रुलघु गुणके द्वारा हानि–वृद्धिका परिणमन होता है जो स्वभाव पर्याय
है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
देखे दरशथी, ज्ञानथी जाणे दरव–पर्यायने,
सम्यक्त्वथी श्रद्धा करे, चारित्रदोषो परिहरे। १८।

Page 82 of 394
PDF/HTML Page 106 of 418
single page version

८२] [अष्टपाहुड
आकाश का अवगाहना गुण है और जीव–पुद्गल आदि के निमित्तसे प्रदेश भेद कल्पना
किये जाते हैं वे पर्याय हैं तथा हानि–वृद्धिका परिणमन वह स्वभावपर्याय है। कालद्रव्य का
वर्तना तो गुण है और जीव और पुद्गल के निमित्त से समय आदि कल्पना सो पर्याय है
इसको व्यवहारकाल भी कहते हैं तथा हानि–वृद्धिका परिणमन वह स्वभावपर्याय है इत्यादि।
इनका स्वरूप जिन–आगमसे जानकर देखना, जानना, श्रद्धान करना, इससे चारित्र शुद्ध होता
है। बिना ज्ञान, श्रद्धान के आचरण शुद्ध नहीं होता है, इसप्रकार जानना।। १८।।

आगे कहते हैं कि ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीन भाव मोह रहित जीवके होते हैं,
इनका आचरण करता हुआ शीघ्र मोक्ष पाता हैः–––
एए तिण्णि वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियस्स।
णियगुणमाराहंतो अचिरेण य कम्म परिहरइ।। १९।।
ए ते त्रयोऽपि भावाः भवंति जीवस्य मोहरहितस्य।
निजगुणमाराधयन् अचिरेण च कर्म परिहरति।। १९।।

अर्थः
––ये पूर्वोक्त सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र तीन भाव हैं, ये निश्चयसे मोह अर्थात्
मिथ्यात्वरहित जीव के ही होते हैं, तब यह जीव अपना निज गुण जो शुद्धदर्शन –ज्ञानमयी
चेतना की अराधना करता हुआ थोड़ ही काल में कर्मका नाश करता है।

भावार्थः––निजगुण के ध्यान से शीघ्र ही केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्ष पाता है।।१९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! होय छे भावो त्रणे आ, मोहविरहित जीवने;
निज आत्मगुण आराधतो ते कर्मने अचिरे तजे। १९।

Page 83 of 394
PDF/HTML Page 107 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][८३
आगे इस सम्यक्त्व चरित्रके कथनका संकोच करते हैंः––
संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरुमत्ता णं।
सम्मत्तमणुचरंता करेंति दुक्खक्खयं धीरा।। २०।।
संख्येयामसंख्येयगुणां संसारिमेरुमात्रा णं।
सम्यक्त्वमनुचरंतः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः।। २०।।

अर्थः
––सम्यक्त्वका आचरण करते हुए धीर पुरुष संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी
कर्मोंकी निर्जरा करते हैं और कर्मोंके उदयसे हुए संसारके दुःखका नाश करते हैं। कर्म कैसे
हैं? संसारी जीवोंके मेरू अर्थात् मर्यादा मात्र हैं और सिद्ध होवे के बाद कर्म नहीं हैं।

भावार्थः––इस सम्यक्त्व का आचरण होनेपर प्रथम काल में तो गुणश्रेणी निर्जरा होती
है, वह असंख्यातके गुणकार रूप है। पीछे जब तक संयम का आचरण नहीं होता है तबतक
गुणश्रेणी निर्जरा नहीं होती है। वहाँ संख्यात के गुणाकाररूप होती है इसलिये संख्यातगुण और
असंख्यातगुण इसप्रकार दोनों वचन कहे। कर्म तो संसार अवस्था है, जबतक है उसमें दुःख
का मोहकर्म है, उसमें मिथ्यात्वकर्म प्रधान है। समयक्त्वके होने पर मिथ्यात्वका तो अभाव ही
हुआ और चारित्र मोह दुःखका कारण है, सो यह भी जब तक है तबतक उसकी निर्जरा करता
है, इसप्रकार से अनुक्रमसे दुःख का क्षय होता है। संयमाचरणके होने पर सब दुःखोंका क्षय
होवेगा ही। सम्यक्त्वका महात्म्य इसप्रकार है कि सम्यक्त्वाचरण होने पर संयमाचरण भी शीघ्र
ही होता है, इसलिये सम्यक्त्वको मोक्षमार्ग में प्रधान जानकर इस ही का वर्णन पहिले किया
है।। २०।।

आगे संयमाचरण चारित्र को कहते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ – ’संसारीमेरूमत्ता‘’ सासारि मेरूमित्ता‘ इसका सटीक संस्कृत प्रतिमें सषर्षमेरूमात्रां इसप्रकार है।
संसारसीमित निर्जरा अणसंख्य–संख्यगुणी करे,
सम्यक्त्व आचरनार धीरा दुःखना क्षयने करे। २०।

Page 84 of 394
PDF/HTML Page 108 of 418
single page version

८४] [अष्टपाहुड
दुबिहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं।
सायारं
सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं।। २१।।
द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारं।
सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम्।। २१।।

अर्थः
––संयमाचरण चारित्र दो प्रकार का है––सागार और निरागार। सागार तो
परिग्रह सहित श्रावकके होता है और निरागार परिग्रहसे रहित मुनिके होता है यह निश्चय है।।
२१।।

आगे सागार संयामाचरण को कहते हैंः––
दंसण वय सामाइय पोसह सचित्त रायभत्ते य।
बंभारंभ परिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदो य।। २२।।
दर्शनं व्रतं सामायिकं प्रोषधं सचित्तं रात्रिभुक्तिश्व।
ब्रह्म आरंभः परिग्रहः अनुमतिः उद्दिष्ट देशविरतश्व।। २२।।

अर्थः
––दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध आदिका नाम एकदेश है, और नाम ऐसे कहे
हैं––प्रोषधोपवास, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्तित्याग, ब्रह्मचर्य, आरंभत्याग, परिग्रहत्याग,
अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग, इसप्रकार ग्यारह प्रकार देशविरत है।

भावार्थः––ये सागार संयामाचरण के ग्यारह स्थान हैं, इनको प्रतिमा भी कहते
हैं।।२२।।

आगे इन स्थानोंमें संयमका आचरण किस प्रकार से है वह कहते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः – सग्गंथं
सागार–अण–आगार एम द्विभेद संयमचरण छे;
सागार छे
सग्रंथ, अण–आगार परिग्रहरहित छे। २१।

दर्शन, व्रतं सामायिकं, प्रोषध, सचित, निशिभुक्तिने,
वळी ब्रह्म ने आरंभ आदिक देशविरतिस्थान छे। २२।

Page 85 of 394
PDF/HTML Page 109 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][८५
पंचेव णुव्वयाइं गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि।
सिक्खावय चत्तारि य संजमचरणं च सायारं।। २३।।
पंचैव अणुव्रतानि गुणव्रतानि भवंति तथा त्रीणि।
शिक्षाव्रतानि चत्वारि संयमचरणं च सागारम्।। २३।।

अर्थः
––पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत– इसप्रकार बारह प्रकारका
संयमचरण चारित्र है जो सागार है, ग्रन्थसहित श्रावकके होता है इसलिये सागार कहा है।
प्रश्नः–– ये बारह प्रकार तो व्रत के कहे और पहिले गाथामें ग्यारह नाम कहे, उनमें
प्रथम दर्शन नाम कहा उसमें ये व्रत कैसे होते हैं?
इसका समाधानः––अणुव्रत ऐसा नाम किंचित् व्रत का है वह पाँच अणुव्रतोंमे से किंचित्
यहाँ भी होते हैं इसलिये दर्शन प्रतिमा का धारी भी अणुव्रती ही है, इसका नाम दर्शन ही
कहा। यहाँ इसप्रकार जानना कि इसके केवल सम्यक्त्व ही होता है और अव्रती है अणुव्रत नहीं
है। इसके अणुव्रत अतिचार सहित होते हैं इसलिये व्रती नाम कहा है, दूसरी प्रतिमा में अणुव्रत
अतिचार रहित पालता है। इसलिये व्रत नाम कहा है। यहाँ सम्यक्त्व के अतिचार टालता है,
सम्यक्त्व ही प्रधान है इसलिये दर्शन प्रतिमा नाम है। अन्य ग्रन्थोंमें इसका स्वरूप इसप्रकार
कहा है कि–जो आठ मूलगुण का पालन करे, सात व्यसन को त्यागे, जिसके सम्यक्त्व
अतिचार रहित शुद्ध हो वह दर्शन प्रतिमा धारक है। पाँच उदम्बर फल और मद्य, माँस, मधु
इन आठोंका त्याग करना वह आठ मूलगुण हैं।

अथवा किसी ग्रन्थ में इसप्रकार कहा है कि–पाँच अणुव्रत पाले और मद्य, माँस,
मधुका त्याग करे वह आठ मूलगुण हैं, परन्तु इसमें विरोध नहीं है, विवक्षाका भेद है। पाँच
उदम्बरफल और तीन मकारका त्याग कहने से जिन वस्तुओंमें साक्षात् त्रस जीव दिखते हों
उन सब ही वस्तुओंको भक्षण नहीं करे। देवादिकके निमित्त तथा औषधादि निमित्त इत्यादि
कारणोंसे दिखते हुए त्रस जीवोंका घात न करें, ऐसा आशय है जो इसमें तो अहिंसाणुव्रत
आया। सात व्यसनों के त्याग में
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अणुव्रत कह्यां छे पांच ने त्रण गुणव्रतो निर्दिष्ट छे,
शिक्षाव्रतो छे चार;–ए संयमचरण सागार छे। २३।

Page 86 of 394
PDF/HTML Page 110 of 418
single page version

८६] [अष्टपाहुड
जूठ, चोरी और परस्त्रीका त्याग आया, अन्य व्यसनोंके त्याग में अन्याय, परधन, परस्त्रीका
ग्रहण नहीं है; इसमें अतिलोभ के त्याग से परिग्रह का घटना आया। इसप्रकार पाँच अणुव्रत
आते हैं। इनके [व्रतादि प्रतिमाके] अतिचार नहीं टलते हैं इसलिये अणुव्रती नाम प्राप्त नहीं
करता [फिर भी] इसप्रकार से दर्शन प्रतिमा धारक भी अणुव्रती है इसलिये देशविरत
सागारसंयमाचरण चारित्र में इसको भी गिना है।।२३।।

आगे पाँ अणुव्रतोंका स्वरूप कहते हैंः–––
थूले तसकायवहे थूले मोषे अदत्तथूले य।
परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं।। २४।।
स्थूले त्रसकायवधे स्थूलायां मृणायां अदत्तस्थूले च।
परिहारः परमहिलायां परिग्रहारंभपरिमाणम्।। २४।।

अर्थः
––थूल त्रसकायका घात, थूल मृषा अर्थात् असत्य, थूल अदत्ता अर्थात् परका बिना
दिया धन, पर महिला अर्थात् परस्त्री इनका तो परिहार अर्थात् त्याग और परिग्रह तथा
आरम्भका परिणाम इसप्रकार पाँच अणुव्रत हैं।

भावार्थः––यहाँ थूल कहने का ऐसा जानना कि– जिसमें अपना मरण हो, परका मरण
हो, अपना घर बिगड़े पर का घर बिगड़े, राजा के दण्ड योग्य हो, पंचोंके दण्ड योग्य हो
इसप्रकार मोटे अन्यायरूप पापकार्य जानने। इसप्रकार स्थूल पाप राजादिकके भयसे न करे वह
व्रत नहीं है, इनको तीव्र कषायके निमित्तसे तीव्र कर्मबंध के निमित्त जानकर स्वयमेव न करने
के भावरूप त्याग हो वह व्रत है। इसके ग्यारह स्थानक कहे, इनमें ऊपर–ऊपर त्याग बढ़ता
जाता है सो इसकी उत्कृष्टता तक ऐसा है कि जिन कार्योंमें त्रस जीवोंको बाधा हो इसप्रकार
के सब ही कार्य छूट जाते हैं इसलिये सामान्य ऐसा नाम कहा है कि त्रसहिंसाका त्यागी
देशव्रती होता है। इसका विशेष कथन अन्य ग्रन्थोंसे जानना।। २४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ –’अदत्तथूले‘के स्थान में सं० छायामें ’तितिक्ख थूले‘’परमहिला‘ के स्थान में ’परमपिम्मे‘ ऐसा पाठ है।
त्यां स्थूल त्रसहिंसा–असत्य–अद्रत्तना, परनारीना
परिहारने, आरंभपरिग्रहमानने अणुव्रत कह्यां। २४।

Page 87 of 394
PDF/HTML Page 111 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][८७
आगे तीन गुणव्रतों को कहते हैंः––
दिसिविदिसिमाण पढमं अणत्थंद्रद्दंडस्स वज्जणं बिदियं।
भोगोपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिण्णि।। २५।।
दिग्विदिग्मानं प्रथमं अनर्थदण्डस्य वर्जनं द्वितीयम्।
भोगोपभोगपरिमाणं इमान्येव गुणव्रतानि त्रीणि।। २५।।

अर्थः
––दिशा – विदिशामें गमनका परिमाण वह प्रथम गुणव्रत है, अनर्थदण्डका वर्जना
द्वितीय गुणव्रत है, और भोगोपभोगका परिमाण तीसरा गुणव्रत है, –––इसप्रकार ये तीन
गुणव्रत हैं।

भावार्थः––यहाँ गुण शब्द तो उपकारका वाचक है, ये अणुव्रतोंका उपकार करते हैं।
दिशा – विदिशा अर्थात् पूर्व दिशादिक में गमन करने की मर्यादा करे। अनर्थदण्ड अर्थात् जिन
कार्यों में अपना प्रयोजन न सधे इसप्रकार पापकार्यों को न करें। यहाँ को पूछे–प्रयोजन के
बिना तो कोई भी जीव कार्य नहीं करता है, कुछ प्रयोजन विचार करके ही करता है फिर
अनर्थदण्ड क्या? इसका समाधान – समयग्दृष्टि श्रावक होता है वह प्रयोजन अपने पदके
योग्य विचारता है, पद के सिवाय सब अनर्थ है। पापी पुरुषोंके तो सब ही पाप प्रयोजन है,
उनकी क्या कथा। भोग कहनेसे भोजनादिक और उपभोग कहने से स्त्री, वस्त्र, आभूषण,
वाहनादिकोंका परिमाण करे–––इसप्रकार जानना।।२५।।

आगे चार शिक्षा व्रतों को कहते हैंः––
सामाइयं च पढमं बिदियं च तहेव पोसहं भणियं।
तइयं च अतिहिपुज्जं चउत्थ सल्लेहणा अंते।। २६।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
दिशविदिशगति–परिमाण होय, अनर्थदंड परित्यजे,
भोगोपभोग तणुं करे परिमाण, –गुणव्रत त्रण्य छे। २५।

सामायिकं, व्रत प्रोषधं, अतिथि तणी पूजा अने,
अंते करे सल्लेखना–शिक्षाव्रतो ए चार छे। २६।

Page 88 of 394
PDF/HTML Page 112 of 418
single page version

८८] [अष्टपाहुड
सामाइकं च प्रथमं द्वितीयं च तथैव प्रोषधः भणितः।
तृतीयं च अतिथिपूजा चतुर्थं सल्लेखना अन्ते।। २६।।
अर्थः––सामायिक तो पहला शिक्षाव्रत है, वैसे ही दूसरा प्रोषध व्रत है, तीसरा
अतिथिका पूजन है, चौथा है अंतसमय संल्लेखना व्रत है।

भावार्थः––यहाँ शिक्षा शब्दसे तो ऐसा अर्थ सूचित होता है कि आगामी मुनिव्रत की
शिक्षा इनमें है, जब मुनि होगा तब इसप्रकार रहना होगा। सामायिक कहने से तो राग–द्वेष
त्याग कर, सब गृहारंभसंबंधी क्रियासे निवृत्ति कर, एकांत स्थान में बैठकर प्रभात, मध्याह्न,
अपराह्न कुछ काल की मर्यादा करके अपने स्वरूपका चिन्तवन तथा पंचपरमेष्ठीकी भक्तिका
पाठ पढ़ना, उनकी वंदना करना इत्यादि विधान करना सामायिक है। इसप्रकार ही प्रोषध
अर्थात् अष्टमी चौदसके पर्वोंमें प्रतिज्ञा करके धर्म कार्यों में प्रवर्तना प्रोषध है। अतिथि अर्थात्
मुनियों की पूजा करना, उनको आहारदान देना अतिथिपूजन है। अंत समयमें काय और
कषायको कृश करना, समाधिमरण करना अन्त संल्लेखना है, ––इसप्रकार चार शिक्षाव्रत हैं।

यहाँ प्रश्न––––तत्त्वार्थसूत्र में तीन गुणव्रतोंमें देशव्रत कहा और भोगोपभोग–परिमाणको
शिक्षाव्रतों में कहा तथा संल्लेखनाको भिन्न कहा वह कैसे?
इसका समाधानः–––यह विवक्षा का भेद है, यहाँ देशव्रत दिगव्रत में गर्भित है और
संल्लेखनाको शिक्षाव्रतों में कहा है, कुछ विरोध नहीं है।। २६।।

आगे कहते हैं कि संयमाचरण चारित्रमें श्रावक धर्मको कहा, अब यतिधर्मको कहते हैं––
––
एवं सावयधम्मं संजमचरणं उदेसियं सयलं।
सुद्धं संजमचरणं जइधम्मं णिक्कलं वोच्छे।। २७।।
एवं श्रावकधर्मं संयमचरणं उपदेशितं सकलम्।
शुद्धं संयमचरणं यतिधर्म निष्फलं वक्ष्ये।। २७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
श्रावकधरमरूप देशसंयमचरण भाख्युं ए रीते;
यतिधर्म–आत्मक पूर्ण संयमचरण शुद्ध कहुं हवे। २७।

Page 89 of 394
PDF/HTML Page 113 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][८९
अर्थः––एवं अर्थात् इसप्रकार से श्रावकधर्मस्वरूप संयमचरण तो कहा, यह कैसा है?
सकल अर्थात् कला सहित है, (यहाँ) एकदेशको कला कहते हैं। अब यतिधर्मके धर्मस्वरूप
संयमचरणको कहूँगा––ऐसे आचार्यने प्रतिज्ञा की है। यतिधर्म कैसा है? शुद्ध है, निर्दोष है,
जिसमें पापाचरणका लेश नहीं है, निकल अर्थात् कला से निःक्रांत है, सम्पूर्ण है, श्रावकधर्म की
तरह एकदेश नहीं है।। २७।।

आगे यतिधर्म की सामग्री कहते हैंः––
पंचेंदियसंवरणं पंच वया पंचविंसकिरियासु।
पंच समिदि तय गुत्ती संजमचरणं णिरायारं।। २८।।
पंचेंद्रियसंवरणं पंच व्रताः पंचविंशतिक्रियासु।
पंच समितयः तिस्रः गुप्तयः संयमचरणं निरागारम्।। २८।।

अर्थः
––पाँच इन्द्रियोंका संवर, पाँच व्रत ये पच्चीस क्रियाके सद्भाव होनेपर होते हैं,
पाँच समिति और तीन गुप्ति ऐसे निरागार संयमचरण चारित्र होता है।। २८।।

आगे पाँच इन्द्रियोंके संवरण का स्वरूप कहते हैंः–––
अमणुण्णे य मणुण्णे सजीवदव्वे अजीवदव्वे य।
ण करेदि रायदोसे पंचेंदियसंवरो भणिओ।। २९।।
अमनोज्ञे च मनोज्ञे सजीवद्रव्ये अजीवद्रव्ये च।
न करोति रागद्वेषौ पंचेन्द्रियसंवरः भणितः।। २९।।

अर्थः
––अमनोज्ञ तथा मनोज्ञ ऐसे पदार्थ जिनको लोग अपने मानें ऐसे सजीवद्रव्य स्त्री
पुजादिक और अजीवद्रव्य धन धान्य आदि सब पुद्गल द्रव्य आदिमें रागद्वेष न करे वह पाँच
इन्द्रियोंका संवर कहा है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पंचेन्द्रिसंवर, पांच व्रत पच्चीशक्र्रियासंबद्ध जे,
वळी पांच समिति, त्रिगुप्ति–अण–आगार संयमचरण छे। २८।

सुमनोज्ञ ने अमनोज्ञ जीव–अजीवद्रव्योने विषे
करवा न रागविरोध ते पंचेन्द्रिसंवर उक्त छे। २९।

Page 90 of 394
PDF/HTML Page 114 of 418
single page version

९०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––इन्द्रियगोचर सजीव अजीव द्रव्य हैं, ये इन्द्रियोंके ग्रहण में आते हैं, इनमें
यह प्राणी किसीको इष्ट मानकर राग करता है, किसी को अनिष्ट मानकर द्वेष करता है,
इसप्रकार राग–द्वेष मुनि नहीं करते हैं उनके संयमचरण चारित्र होता है।।२९।।

आगे पाँच व्रतोंका स्वरूप कहते हैंः––
हिंसाविरई अहिंसा असच्चविरई अदत्तविरई य।
तुरियं अबंभविरई पंचम संगम्मि विरई य।। ३०।।
हिंसाविरतिरहिंसा असत्यविरतिः अदत्तविरतिश्व।
तुर्यं अब्रह्मविरतिः पंचम संगे विरतिः च।। ३०।।

अर्थः––प्रथम तो हिंसा से विरति अहिंसा है, दूसरा असत्यविरति है, तीसरा
अदत्तविरति है, चौथा अबह्मविरति है और पाँचवाँ परिग्रहविरति है।

भावार्थः––इन पाँच पापोंका सर्वथा त्याग जिनमें होता है वे पाँच महाव्रत कहलाते हैं।।
३०।।

आगे इनको महाव्रत क्यों कहते हैं वह बताते हैंः––
साहंति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं।
जं च महल्लाणि तदो
महव्वया इत्तहे याइं।। ३१।।
साधयंति यन्महांतः आचरितं यत् महत्पूर्वैः।
यच्च महन्ति ततः महाव्रतानि एतस्माद्धेतोः तानि।। ३१।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः–– ’महव्वया इत्तहे याइं‘ के स्थान पर ’महव्वायाइं तहेयाइं‘
हिंसाविराम, असत्य तेम अद्रत्तथी विरमण अने
अब्रह्मविरमण, संगविरमण – छे महाव्रत पांच ए। ३०।

मोटा पुरुष साधे, पूरव मोटा जनोए आचर्यां,
स्वयमेव वळी मोटां ज छे, तेथी महाव्रत ते ठर्यां। ३१।

Page 91 of 394
PDF/HTML Page 115 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][९१
अर्थः––महल्ला अर्थात् महन्त पुरुष जिनको साधते हैं–––आचरण करते हैं और पहिले
भी जिनका महन्त पुरुषोंने आचरण किया है तथा ये व्रत आप ही महान है क्योंकि इनमें पापका
लेश भी नहीं है–––इसप्रकार ये पाँच महाव्रत हैं।

भावार्थः––जिनका बड़े पुरुष आचरण करें और आप निर्दोष हों वे ही बड़े कहलाते हैं,
इसप्रकार इन पाँच व्रतों को महाव्रत संज्ञा है।। ३१।।

आगे इन पाँच व्रतोंकी पच्चीस भावना कहते हैं, उनमें से ही अहिंसाव्रत की पाँच भावना
कहते हैंः––
वयगुत्ती मणगुत्ती इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो।
अवलोयभोयणाए अहिंसए भावणा होंति।। ३२।।
वचोगुप्तिः मनोगुप्तिः ईर्यासमितिः सुदाननिक्षेपः।
अवलोक्यभोजनेन अहिंसाया भावना भवंति।। ३२।।

अर्थः
––वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ऐसे दो तो गुप्तियाँ, ईयासमिति, भले प्रकार कमंडलु
आदिका ग्रहण – निक्षेप यह आदाननिक्षेपणा समिति और अच्छी तरह देखकर विधिपूर्वक शुद्ध
भोजन करना यह एषणा समिति, –––इसप्रकार ये पाँच अहिंसा महाव्रतकी भावना हैं।

भावार्थः––भावना नाम बारबार उसही के अभ्यास करने का है, सो यहाँ प्रवृत्ति–
निवृत्तिमें हिंसा लगती है, उसका निरन्तर यत्न रखे तब अहिंसाव्रतका पालन हो, इसलिये यहाँ
योगोंकी निवृत्ति करनी तो भले प्रकार गुप्तिरूप करनी और प्रवृत्ति करनी तो समितिरूप करनी,
ऐसे निरन्तर अभ्याससे अहिंसा महाव्रत दृढ़ रहता है, इसी आशयसे इनको भावना कहते हैं।।
३२।।

आगे सत्य महाव्रत की भावना कहते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
मन–वचनगुप्ति, गमनसमिति, सुदाननिक्षेपण अने
अवलोकीने भोजन–अहिंसा भावना ए पांच छे। ३२।

Page 92 of 394
PDF/HTML Page 116 of 418
single page version

९२] [अष्टपाहुड
कोहभयहासलोहा मोहा विवरीय भावणा चेव।
विदियस्स भावणाए ए पंचैव य तहा होंति।। ३३।।
क्रोध भय हास्य लोभ मोहा विपरीतभावनाः च एव।
द्वितीयस्य भावना इमा पंचेव च तथा भवंति।। ३३।।

अर्थः
––क्रोध, भय, हास्य, लोभ और मोह इनसे विपरीत अर्थात् उलटा इनका अभाव
ये द्वितीय व्रत सत्य महाव्रत की भावना है।

भावार्थः––असत्य वचनकी प्रवृत्ति क्रोधसे, भयसे, हास्यसे, लोभसे और परद्रव्यके
मोहरूप मिथ्यात्वसे होती है, इनका त्याग हो जानेपर सत्य महाव्रत दृढ़ रहता है।

तत्त्वार्थसूत्र में पाँचवीं भावना अनुवीचीभाषण कही है, सो इसका अर्थ यह है कि–
जिनसूत्रके अनुसार वचन बोले और यहाँ मोहका अभाव कहा। वह मिथ्यात्वके निमित्तसे
सूत्रविरुद्ध बोलता है, मिथ्यात्वका अभाव होनेपर सूत्रविरुद्ध नहीं बोलता है, अनुवीचीभाषणका
यही अर्थ हुआ इसमें अर्थ भेद नहीं है।। ३३।।

आगे अचौर्य महाव्रत भावना कहते हैंः––
सुण्णायारणिवासो विमोचियावास जन परोधं च।
एसणसुद्धिसउत्तं साहम्मीसंविसंवादो।। ३४।।
शून्यागारनिवासः विमोचित्तावासः यत् परोधं च।
एषणाशुद्धिसहितं साधर्मिसमविसंवादः।। ३४।।

अर्थः––शून्यागार अर्थात् गिरि, गुफा, तरु, कोटरादिमें निवास करना,
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः– विमोचितावास।
जे क्रोध, भय ने हास्य तेमज लोभ–मोह–कुभाव छे,
तेना विपर्ययभाव ते छे भावना बीजा व्रते। ३३।

सूना अगर तो त्यक्त स्थाने वास, पर–उपरोध ना,
आहार एषणशुद्धियुत, साधर्मी सह विखवाद ना। ३४।

Page 93 of 394
PDF/HTML Page 117 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][९३
विमोचित्तावास अर्थात् जिसको लोगों ने किसी कारण से छोड़ दिया हो इसप्रकारसे गृह
ग्रामादिकमें निवास करना, परोपरोध अर्थात् जहाँ दूसरेकी रुकावट न हो, वस्तिकादिकको
अपना कर दूसरोंको रोकना, इसप्रकार नहीं करना, एषणाशुद्धि अर्थात् आहार शुद्ध लेना और
साधर्मियोंसे विसंवाद न करना। ये पाँच भावना तृतीय महाव्रतकी है।

भावार्थः––मुनियोंकि वस्तिकाय में रहना और आहार लेना ये दो प्रवृत्तियाँ अवश्य होती
हैं। लोक में इन ही के निमित्त अदत्त का आदान होता है। मुनियोंको ऐसे स्थान पर रहना
चाहिये जहाँ अदत्त का दोष न लगे और आहार भी इस प्रकार लें जिसमें अदत्तका दोष न लगे
तथा दोनों की प्रवृत्तिमें साधर्मी आदिकसे विसंवाद उत्पन्न न हो। इसप्रकार ये पाँच भावना
कही हैं, इनके होने से अचौर्य महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३४।।

आगे ब्रह्मचर्य व्रत की भावना कहते हैंः––
महिलालोयणपुव्वरइसरणसंसत्तवसहिविकहाहिं।
पुट्ठियरसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्मि।। ३५।।
महिला लोकन पूर्वरति स्मरणसंसक्त वसतिविकथाभिः।
पौष्टिकरसैः विरतः भावनाः पंचापि तुर्ये।। ३५।।

अर्थः
––स्त्रियोंका अवलोकन अर्थात् राग भाव सहित देखना, पूर्वकालमें भोगे हुए
भोगोंका स्मरण करना, स्त्रियोंसे संसक्त वस्तिकामें रहना, स्त्रियोंकी कथा करना, पौष्टिक
रसोंका सेवन करना, इन पाँचोंसे विकार उत्पन्न होता है, इसलिये इनसे विरक्त रहना, ये
पाँच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावना हैं।

भावार्थः––कामविकार के निमित्तोंसे ब्रह्मचर्यव्रत भंग होता है, इसलिये स्त्रियों को
रागभावसे देखना इत्यादि निमित्त कहे, इनसे विरक्त रहना, प्रसंग नहीं करना इससे ब्रह्मचर्य
महाव्रत दृढ़ रहता है।। ३५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––

महिलानिरीक्षण–पूर्वरतिस्मृति–निकटवास, त्रियाकथा,
पौष्टिक रसोथी विरति–ते व्रत तुर्यनी छे भावना। ३५।

Page 94 of 394
PDF/HTML Page 118 of 418
single page version

९४] [अष्टपाहुड
आगे पाँच अपरिग्रह महाव्रत की भावना कहते हैंः––
अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु।
रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति।। ३६।।
अपरिग्रहे समनोज्ञेषु शब्दस्पर्शरसरूपगंधेषु।
रागद्वेषादीनां परिहारो भावनाः भवन्ति।। ३६।।

अर्थः
––शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गन्ध ये पाँच इन्द्रियोंके विषय समनोज्ञ अर्थात् मन को
अच्छे लगने वाले और अमनोज्ञ अर्थात् मन को बुरे लगने वाले हों तो इन दोनों में राग द्वेष
आदि न करना परिग्रहत्यागव्रत की ये पाँच भावना है।

भावार्थः––पाँच इन्द्रियोंके विषय स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, वर्ण, शब्द ये हैं, इनमें इष्ट–
अनिष्ट बुद्धिरूप राग–द्वेष नहीं करे तब अपरिग्रहव्रत दृढ़ रहता है इसलिये ये पाँच भावना
अपरिग्रह महाव्रत की कही गई हैं।। ३६।।

आगे पाँच समितियों को कहते हैंः––
इरिया भासा एसण जा सा आदाण चे व णिक्खेवो।
संजमसोहिणिमित्तं खंति जिणा पंच समिदीओ।। ३७।।
ईर्या भाषा एषणा या सा आदानं चैव निक्षेपः।
संयमशोधिनिमित्तं ख्यान्ति जिनाः पंच समितीः।। ३७।।

अर्थः
––ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापना ये पाँच समितियाँ संयमकी
शुद्धताके लिये कारण हैं, इसप्रकार जिनदेव कहते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः– संजमसोहिणिमित्ते।
मनहर–अमनहर स्पर्श–रस–रूप–गंध तेमज शब्दमां,
करवा न रागविरोध, व्रत पंचम तणी ए भावना। ३६।

ईर्या, सुभाषा, एषणा, आदान ने निक्षेप–ए,
संयम तणी शुद्धि निमित्ते समिति पांच जिनो कहे। ३७।

Page 95 of 394
PDF/HTML Page 119 of 418
single page version

चारित्रपाहुड][९५
भावार्थः––मुनि पंचमहाव्रतरूप संयमका साधन करते हैं, उस संयमकी शुद्धता के लिये
पाँच समितिरूप प्रवर्तते हैं, इसी से इसका नाम सार्थक है –– ‘सं’ अर्थात् सम्यक्प्रकार
‘इति’ अर्थात् प्रवृत्ति जिसमें हो सो समिति है। चलते समय जूडा प्रमाण
(चार हाथ) पृथवी
देखता हुआ चलता है, बोले तब हितमित वचन बोलता है, लेवे तो छियालिस दोष, बत्तीस
अंतराय टालकर, चौदह मलदोष रहित शुद्ध आहार लेता है, धर्मोपकरणोंको उठाकर ग्रहण
करे सो यत्नपूर्वक लेते है; ऐसे ही कुछ क्षेपण करें तब यत्न पूर्वक क्षेपण करते हैं, इसप्रकार
निष्प्रमाद वर्ते तब संयमका शुद्ध पालन होता है, इसीलिये पंचसमितिरूप प्रवृत्ति कही है।
इसप्रकार संयमचरण चारित्रकी प्रवृत्तिका वर्णन किया।। ३७।।

अब आचार्य निश्चियचारित्रको मन में धारण कर ज्ञान का स्वरूप कहते हैंः––
भव्वजणबोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं।
णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि।। ३८।।
भव्यजन बोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितं।
ज्ञानं ज्ञानस्वरूपं आत्मानं तं विजानीहि।। ३८।।

अर्थः
––जिनमार्गमें जिनेश्वरदेवने भव्यजीवोंके संबोधनेके लिये जैसा ज्ञान और ज्ञानका
स्वरूप कहा है उस ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसको हे भव्यजीव! तू जान।

भावार्थः––ज्ञानको और ज्ञानके स्वरूपको अन्य मतवाले अनेक प्रकारसे कहते हैं, वैसा
ज्ञान और वैसा स्वरूप ज्ञानका नहीं है। जो सर्वज्ञ वीतरागदेव भाषित ज्ञान ओर ज्ञानका
स्वरूप है वही निर्बाध सत्यार्थ है और ज्ञान है वही आत्मा है तथा आत्माका स्वरूप है, उसको
जानकर उसमें स्थिरता भाव करे, परद्रव्योंसे रागद्वेष नहीं करे वही निश्चयचारित्र है, इसलिये
पूर्वोक्त महाव्रतादिकी प्रवृत्ति करके इस ज्ञानस्वरूप आत्मामें लीन होना इसप्रकार उपदेश है।।
३८।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! भव्यजनबोधार्थ जिनमार्गे कह्युं जिन जे रीते,
ते रीत जाणो ज्ञान ने ज्ञानात्म आत्माने तमे। ३८।

Page 96 of 394
PDF/HTML Page 120 of 418
single page version

९६] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार ज्ञानसे ऐसे जानता है वह सम्यग्ज्ञानी हैंः––
जीवाजीवविभत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणी।
रायादिदोसरहिओ जिणसासणे
मोक्खमग्गोत्ति।। ३९।।
जीवाजीवविभक्तिं यः जानाति स भवेत् सज्ज्ञानः।
रागादिदोषरहितः जिनशासने मोक्षमार्ग इति।। ३९।।

अर्थः
––जो पुरुष जीव और अजीवका भेद जानता है वह सम्यग्ज्ञानी होता है और
रागादि दोषोंसे रहित होता है, इसप्रकार जिनशासनमें मोक्षमार्ग है।

भावार्थः––जो जीव – अजीव पदार्थका स्वरूप भेदरूप जानकर स्व–परका भेद जानता
है वह सम्यग्ज्ञानी होता हैे और परद्रव्यों से रागद्वेष छोड़नेसे ज्ञानमें स्थिरता होनेपर निश्चय
सम्यक्चारित्र होता है, वही जिनमत में मोक्षमार्गका स्वरूप कहा है। अन्य मतवालोंने अनेक
प्रकारसे कल्पना करके कहा है वह मोक्षमार्ग नहीं है।। ३९।।

आगे इसप्रकार मोक्षमार्ग को जानकर श्रद्धा सहित इसमें प्रवृत्ति करता है वह शीघ्र ही
मोक्षको प्राप्त करता है इसप्रकार कहते हैंः––
दंसणणाणचरित्तं तिण्णि वि जाणेह परमसद्धाए।
जं जाणिऊण जोई अइरेण लहंति णिव्वाणं।। ४०।।
दर्शनज्ञानचरित्रं त्रीण्यपि जानीहि परमश्रद्धया।
यत् ज्ञात्वा योगिनः अचिरेण लभंते निर्वाणम्।। ४०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः– मोक्खमग्गुत्ति।
जे जाणतो जीव–अजीवना सुविभागने, सद्ज्ञानी ते
रागादिविरहित थाय छे–जिनशासने शिवमार्ग जे। ३९।

दृग, ज्ञान ने चारित्र–त्रण जाणो परम श्रद्धा वडे,
जे जाणीने योगीजनो निर्वाणने अचिरे वरे। ४०।