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बोधपाहुड][११७ धर्म तो उसके दयारूप पाया जाता है उसको साधकर तीर्थंकर हो गये, तब धन की और संसार के भोग की प्राप्ति हो गई, लोकपूज्य हो गये, और तीर्थंकर के परमपद में दीक्षा लेकर, सब मोह से रहित होकर, परमार्थस्वरूप आत्मिकधर्मको साधकर, मोक्षसुखको प्राप्त कर लिया ऐसे तीर्थंकर जिन हैं, वे ही ‘देव’ हैं। अज्ञानी लोग जिनको देव मानते हैं उनके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नहीं है, क्योंकि कई हिंसक हैं, कई विषयासक्त हैं, मोही हैं उनके धर्म कैसा? ऐसे देव सच्चे जिनदेव ही हैं, वही भव्य जीवोंके मनोरथ पूर्ण करते हैं, अन्य सब कल्पित देव हैं।। २५।। इसप्रकार देव का स्वरूप कहा। [९] आगे तीर्थंकर का स्वरूप कहते हैंः––
ण्हाएउ मुणी तित्थे, दिक्खासिक्खासुण्हाणेंण।। २६।।
स्नातु मुनिः तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन।। २६।।
अर्थः––व्रत–सम्यक्त्व से विशुद्ध और पाँच इन्द्रियोंसे संयत अर्थात् संवर सहित तथा
निरपेक्ष अर्थात् ख्याति, लाभ, पूजादिक इस लोकके फलकी तथा परलोकमें स्वर्गादिकके
भोगोंकी अपेक्षासे रहित , ––––ऐसे आत्मस्वरूप तीर्थं में दीक्षा–शिक्षारूप स्नानसे पवित्र
होओ!
भावार्थः––तत्वार्थ श्रद्धान लक्षण सहित, पाँच महाव्रतसे शुद्ध और पाँच इन्द्रियोंके
स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करनेसे पवित्र होते हैं––ऐसी प्रेरणा करते हैं।। २६।।
आगे फिर कहते हैंः––
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११८] [अष्टपाहुड
तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण।। २७।।
तत् तीर्थं जिनमार्गे भवति यदि शान्तभावेन।। २७।।
श्रद्धानलक्षण, शंकादिमलरहित निर्मल सम्यक्त्व तथा इन्द्रिय–मनको वशमें करना, षट्कायके
जीवोंकी रक्षा करना, इसप्रकार जो निर्मल संयम, तथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान,
रसपरित्याग, विवक्तशय्यासन, कायक्लेश, ऐसे बाह्य छह प्रकार के तप और प्रायश्चित, विनय,
वैेयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान ऐसे छह प्रकार के अंतरंग तप––इसप्रकार बारह प्रकारके
निर्मल तप और जीव–अजीव आदि पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान ये ‘तीर्थ’ हैं, ये भी यदि शांतभाव
सहित हों, कषायभाव न हों तब निर्मल तीर्थ हैं, क्योंकि यदि ये क्रोधादि भाव सहित हों तो
मलिनता हो और निर्मलता न रहे।
भावार्थः––जिन मार्ग में तो इसप्रकार तीर्थ कहा है। लोग सागर–नदियों को तीर्थ
शरीरके भीतरका धातु–उपधातुरूप अन्तमर्ल इनसे उतरता नहीं है, तथा ज्ञानावरण आदि
कर्मरूप मल और अज्ञान राग–द्वेष–मोह आदि भाव कर्मरूप आत्मा के अन्तरमल हैं वह तो
इनसे कुछ भी उतरते नहीं हैं, उलटा हिंसादिक से पापकर्मरूप मल लगता है; इसलिये सागर
नदी आदिको तीर्थ मानना भ्रम है। जिससे तिरे सो ‘तीर्थ’ है, ––इसप्रकार जिनमार्ग में कहा
है, उसे ही संसार समुद्र से तारने वाला जानना।। २७।।
इसप्रकार तीर्थ का स्वरूप कहा।
[१०] आगे अरहंत का स्वरूप कहते हैंः–– ––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जो शान्तभावे युक्त तो, तीरथ कह्युं जिनशासने। २७।
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बोधपाहुड][११९
चउणागदि संपदिमे१ भावा भावंति अरहंतं।। २८।।
अर्थः––नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव ये चार भाव अर्थात् पदार्थ हैं ये अरहंत को बतलाते हैं और सगुणपर्यायाः अर्थात् अरहंत के गुण–पर्यायों सहित तथा चउणा अर्थात् च्यवण और आगति व सम्पदा ऐसे ये भाव अरहंत को बतलाते हैं।
भावार्थः––अरहंत शब्द से यद्यपि सामान्य अपेक्षा केवलज्ञानी हों वे सब ही अरहंत हैं तो भी यहाँ तीर्थंकर पदकी प्रधानता से कथन करते हैं इसलिये नामादिकसे बतलाना कहा। लोकव्यवहार में नाम आदि की प्रवृत्ति इसप्रकार है––जो जिस वस्तु का नाम हो वैसा गुण न हो उसको नामनिक्षेप कहते हैं। जिस वस्तुका जैसा आकार हो उस आकार की काष्ठ– पाषाणादिककी मूर्ति बनाकर उसका संकल्प करे उसको स्थापना कहते हैं। जिस वस्तुकी पहली अवस्था हो उसहीको आगे की अवस्था प्रधान करके कहें उसको द्रव्य कहते हैं। वर्तमान में जो अवस्था हो उसको भाव कहते हैं। ऐसे चार निक्षेपकी प्रवृत्ति है। उसका कथन शास्त्र में भी लोगोंको समझाने के लिये किया है। जो निक्षेप विधान द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्यको भाव न समझे; नाम को नाम समझे, स्थापना को स्थापना समझे, द्रव्य को द्रव्य समझे, भाव को भाव समझे, अन्य को अन्य समझे, अन्यथा तो ‘व्यभिचार’ नामक दोष आता है। उसे दूर करने के लिये लोगों को यथार्थ समझने को शास्त्र में कथन है। किन्तु यहाँ वैसा निक्षेपका कथन नहीं समझना। वहाँ तो निश्चय की प्रधानता से कथन है सो जैसा अरहंतका नाम है वैसा ही गुण सहित नाम जानना, जैसी उनकी देह सहित मूर्ति है वही स्थापना जानना, जैसा उनका द्रव्य है वैसा द्रव्य जानना और जैसा उनका भाव है वैसा ही भाव जानना ।। २८।। इसप्रकार ही कथन आगे कहते हैं। प्रथम ही नाम को प्रधान करके कहते हैंः–– –––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––– १ सं० प्रति में ‘संपदिम’ पाठ है। २ ‘सगुणपज्ज्या’ इस पद की छाया में ‘स्वगुण पर्यायः’ स० प्रति में है।
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१२०] [अष्टपाहुड
णिरुवमगुणमारुढो अरहंतो एरिसो होइ।। २९।।
पदार्थोंको देखना व जानना है, अष्ट कर्मोंका बंध नष्ट होने से मोक्ष है। यहाँ सत्व की और
उदय की विवक्षा न लेना, केवली के आठोंही कर्मका बंध नहीं है। यद्यपि साता वेदनीय का
आस्रव मात्र बंध सिद्धांत में कहा है तथापि स्थिति– अनुभागरूप बंध नहीं है, इसलिये अबंध
तुल्य ही हैं। इसप्रकार आठों ही कर्म बंधके अभाव की अपेक्षा भाव मोक्ष कहलाता है और
उपमा रहित गुणोंसे आरूढ़ हैं–सहित हैं। इसप्रकार गुण छद्मस्थ में कहीं भी नहीं है, इसलिये
जिनमें उपमारहित गुण हैं ऐसे अरहंत होते हैं।
भावार्थः–केवल नाम मात्र ही अरहंत हों उसको अतहंत नहीं कहते हैं। इसप्रकार के
आगे फिर कहते हैंः––
हत्वा दोषकर्माणि भूतः ज्ञानमयश्वार्हन्।। ३०।।
निरूपम गुणे आरूढ छे–अर्हंत आवा होय छे। २९।
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बोधपाहुड][१२१
अर्थः––जरा–बुढ़ापा, व्याधि–रोग, जन्म–मरण, चारों गतियोंमें गमन, पुण्य–पाप और दोषोंको उत्पन्न करने वाले कर्मोंका नाश करके, केवलज्ञानमयी अरहंत हुआ हो वह ‘अरहंत’ हैं।
भावार्थः––पहिली गाथा में गुणोंके सद्भाव से अरहंत नाम कहा और इस गाथा में दोषोंके अभाव से अरहंत नाम कहा। राग, द्वेष, मद, मोह, अरति, चिंता, भय, निद्रा, विषाद, खेद और विस्मय ये ग्यारह दोष तो घातिकर्म के उदय से होते हैं और क्षुधा, तृशा, जन्म, जरा, मरण, रोग ओर स्वेद ये सात दोष अघाति कर्म के उदय से होते हैं। इस गाथा में जरा, रोग, जन्म, मरण और चार गतियों में गमन का अभाव कहने से तो अघातिकर्म से हुए दोषोंका अभाव जानना, क्योंकि अघातिकर्म में इन दोषोंको उत्पन्न करने वाली पापप्रकृतियोंके उदय का अरहंत को अभाव है और राग–द्वेषादिक दोषोंका घातिकर्म के अभाव से अभाव है। यहाँ कोई पूछे––––अरहंत को मरण का और पुण्य का अभाव कहा; मोक्षगमन होना यह ‘मरण’ अरहंत के है और पुण्य प्रकृतियों का उदय पाया जाता है, उनका अभाव कैसे? उसका समाधान–––यहाँ मरण होकर फिर संसार में जन्म हो इसप्रकार के ‘मरण’ की अपेक्षा यह कथन है, इसप्रकार मरण अरहंत के नहीं है; उसीप्रकार जो पुण्य प्रकृतिका उदय पाप प्रकृति सापेक्ष करे इसप्रकार पुण्य के उदयका अभाव जानना अथवा बंध – अपेक्षा पुण्यका भी बंध नहीं है। सातावेदनीय बंधे वह स्थिति–अनुभाग बिना अबंधतुल्य ही है।
प्रश्नः– केवली के असाता वेदनीय का उदय भी सिद्धांत में कहा है, उसकी प्रकृति कैसे है?
उत्तरः– इसप्रकार जो असाता का अत्यन्त मंद – बिलकुल मंद अनुभाग उदय है और साता का अति तीव्र अनुभाग उदय है, उसके वश से असाता कुछ बाह्य कार्य करने में समर्थ नहीं है, सूक्ष्म उदय देकर खिर जाता है तथा संक्रमणरूप होकर सातारूप हो जाता है इसप्रकार जानना। इसप्रकार अनंत चतुष्टय सहित सर्वदोष रहित सर्वज्ञ वीतराग हो उसको नाम से ‘अरहंत’ कहते हैं।। ३०।।
ठावण पंचविहेहिं पणयव्वा अरहपुरिसस्स।। ३१।।
–गुण, मार्गणा, पर्याप्ति तेम ज प्राणने जीवस्थानथी। ३१।
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१२२] [अष्टपाहुड
स्थापना पंचविधैः प्रणेतव्या अर्हत्पुरुषस्य।। ३१।।
अरहंत पुरुष की स्थापना प्राप्त करना अथवा उसको प्रणाम करना चाहिये।
भावार्थः––स्थापनानिक्षेपमें काष्ठ – पाषाणादिक में संकल्प करना कहा है सो यहाँ
स्थापन कहा है।। ३१।।
आगे विशेष कहते हैंः––
चतुस्त्रिंशत् अतिशयगुणा भवंति स्फुटं तस्याष्टप्रातिहार्या।। ३२।।
योगोंकी प्रवृत्तिसहित केवली सयोगकेवली अरहंत होता है। उनके चौंतीस अतिशय और आठ
प्रारिहार्य होते हैं, ऐसे तो गुणस्थान द्वारा ‘स्थापना’ अरहंत कहलाते हैं।
भावार्थः––यहाँ चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य कहने से तो समवशरण में
की प्रवृत्ति सिद्ध होती है। ‘केवली’ कहने से केवलज्ञान द्वारा सब तत्त्वोंका जानना सिद्ध होता
है। चौंतीस अतिशय इसप्रकार हैं–––जन्म से प्रकट होने वाले दसः––१–मलमूत्र का अभाव,
२–पसेवका अभाव, ३–धवल रुधिर होना, ४–समचतुरस्रसंस्थान, ५–वज्रवृषभनाराच संहनन,
६–सुन्दररूप, ७–सुगंध शरीर, ८–शुभलक्षण होना, ९–अनन्त बल, १०–मधुर वचन, इसप्रकार
दस होते हैं।
चोत्रीश अतिशययुक्त ने वसु प्रातिहार्यसमेत छे। ३२।
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बोधपाहुड][१२३
केवलज्ञान उत्पन्न होने पर दस होते हैंः––– १–उपसर्ग का अभाव, २–अदयाका अभाव, ३–शरीर की छाया न पड़ना, ४–चतुर्मख दिखना, ५–सब विद्याओं का स्वामित्व, ६– नेत्रोंके पलक न गिरना, ७–शतयोजन सुभिक्षता, ८–आकाशगमन, ९–कवलाहार नहीं होना, १०–नख–केशोंका नहीं बढ़ना, ऐसे दस होते हैं। चौदह देवकृत होते हैंः–––– १–सकलार्द्धमागधी भाषा, २–सब जीवोंमें मैत्री भाव, ३– सब ऋतुके फल फूल फलना, ४–दर्पण समान भूमि, ५–कंटक रहित भूमि, ६–मंद सुगंध पवन, ७–सबके आनंद होना, ८–गंधोदक वृष्टि, ९–पैरोंके नीचे कमल रचना, १०–सर्वधान्य निष्पत्ति, ११–दसों दिशाओं का निर्मल होना, १२–देवों के द्वारा आह्वानन, १३–धर्मचक्रका आगे चलना, १४–अष्टमंगलद्रव्योंका आगे चलना। अष्ट मंगल द्रव्योंके नाम १–छत्र, २–ध्वजा, ३–दर्पण, ४–कलश, ५–चामर, ६–भृङ्गार (झारी), ७–ताल (ठवणा), और ८–स्वास्तिक (साँथिया) अर्थात् सुप्रतचिक ऐसे आठ होते हैं। चौंतीस अतिशय के नाम कहे।
आठ प्रातिहार्य होते हैं उनके नाम ये हैं – १–अशोक वृक्ष, २–पुष्पवृष्टि, ३–दिव्यध्वनि, ४–चामर, ५–सिंहासन, ६–भामण्डल, ७–दुन्दुभि वादित्र और ८–छत्र ऐसे आठ होते हैं। इसप्रकार गुणस्थान द्वारा अरहंत का स्थापन कहा।। ३२।। अब आगे मार्गणा द्वारा कहते हैंः–––
संजम दंसण लेसा भविया सम्मत्त सण्णि आहारे।। ३३।।
संयमे दर्शने लेश्यायां भव्यत्वे सम्यक्त्वे संज्ञिनि आहारे।। ३३।।
अर्थः––गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व,
सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार इसप्रकार चौदह मार्गणा होती है।
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१२४] [अष्टपाहुड अरहंत सयोगकेवली को तेरहवाँ गुणस्थान है, इसमें ‘मार्गणा’ लगाते हैं। गति– चार में मनुष्यगति है, इन्द्रियजाति– पाँच में पँचेन्द्रिय जाति है, काय– छहमें त्रसकाय है, योग– पंद्रह में योग–मनोयोग तो सत्य और अनुभय इसप्रकार दो और ये ही वचन योग दो तथा काययोग औदारिक इसप्रकार पाँच योग हैं, जब समुद्घात करे तब औदारिकमिश्र और कार्माण ये दो मिलकर सात योग हैं; वेद– तीनों का ही अभाव है; कषाय– पच्चीस सबही का अभाव है; ज्ञान– आठ में केवलज्ञान है; संयम– सात में एक यथाख्यात है; दर्शन– चारमें एक केवलदर्शन है; लेश्या– छह में एक शुक्ल जो योग निमित्त है; भव्य– दो में एक भव्य है; सम्यक्त्व– छह में एक क्षायिक सम्यक्त्व है; संज्ञी– दो में संज्ञी है, वह द्रव्य से है और भाव से क्षयोपशनरूप भाव मन का अभाव है; आहारक अनाहारक– दो में ‘आहारक’ हैं वह भी नोकर्मवर्गणा अपेक्षा है किन्तु कवलाहार नहीं है और समुद्घात करे तो ‘अनाहारक’ भी है, इसप्रकार दोनों हैं। इसप्रकार मार्गणा अपेक्षा अरहंत का स्थापन जानना ।।३३।। आगे पर्याप्ति द्वारा कहते हैंः–––
पज्जत्तिगुणसमिद्धो उत्तमदेवो हवइ अरहो।। ३४।।
पर्याप्ति गुणसमृद्धः उत्तमदेवः भवति अर्हन्।। ३४।।
अर्थः––आहार, शरीर, इन्द्रिय, मन, आनप्राण अर्थात् श्वासोच्छ्वास और भाषा––
भावार्थः––पर्याप्ति का स्वरूप इप्रकार है–––––जो जीव एक अन्य पर्याय को छोड़कर
उत्पन्न हो। वहाँ तीन जाति की वर्गणा का ग्रहण करे – आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा,
इसप्रकार ग्रहण करके ‘आहार’ जाति की वर्गणा से तो आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास
इसप्रकार चार पर्याप्ति अंतर्मुहूर्त कालमें पूर्ण
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बोधपाहुड][१२५ करे, तत्पश्चात् भाषाजाति मनोजातिकी वर्गणा से अन्तर्मुहूर्त मेह ही भाषा, मनःपर्याप्ति पूर्ण करे, इसप्रकार छहों पर्याप्ति अंतर्मुहूर्त में पूर्ण करता है, तत्पश्चात् आयुपर्यन्त पर्याप्त ही कहलाता है और नोकर्मवर्गणा का ग्रहण करता ही रहता है। यहाँ आहार नाम कवलाहार नहीं जानना। इसप्रकार तेरहवें गुणस्थान में भी अरहंतके पर्याप्त पूर्ण ही है, इसप्रकार पर्याप्ति द्वारा अरहंत की स्थापना है।। ३४।। आगे प्राण द्वारा कहते हैंः–––
आणप्पाणप्पाणा आउगपाणेण होंति दह पाणा।। ३५।।
आनप्राणप्राणाः आयुष्कप्राणेन भवंति दशप्राणाः।। ३५।।
अर्थः––पाँच इन्द्रियप्राण, मन–वचन–काय तीन बलप्राण, एक श्वासोच्छ्वास प्राण और
एक आयुप्राण ये दस प्राण हैं।
भावार्थः––इसप्रकार दस प्राण कहें उनमें तेरहवें गुणस्थान में भावइन्द्रिय और भावमन
चार प्राण हैं और द्रव्य अपेक्षा दसों ही हैं। इसप्रकार प्राण द्वारा अरहंत का स्थापन है।। ३५।।
आगे जीवस्थान द्वारा कहते हैंः––
एदे गुणगणजुत्तो गुणमारुढो हवइ अरहो।। ३६।।
बे आयु–श्वासोच्छ्वास प्राणो, –प्राण ए दस होय त्यां। ३५।
मानवभवे पंचेन्द्रि तेथी चौदमे क्ववस्थान छे;
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१२६] [अष्टपाहुड
एतद्गुणगणयुक्तः गुणमारूढो भवति अर्हन्।। ३६।।
अर्थः––मनुष्यभव में पंचेन्द्रिय नाम के चौदहवें जीवस्थान अर्थात् जीव समास, उसमें
इतने गुणोंके समूहसे युक्त तेरहवें गुणस्थान को प्राप्त अरहंत होते हैं।
भावार्थः––जीवसमास चौदह कहें हैं–––एकेन्द्रिय सूक्ष्म बादर २, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय,
भेद से चौदह हुए। इनमें चौदहवाँ ‘सैनी पंचेन्द्रिय जीवस्थान’ अरहंत के है। गाथा में सैनी का
नाम न लिया और मनुष्य का नाम लिया सो मनुष्य सैनी ही होते हैं, असैनी नहीं होते हैं
इसलिये मनुष्य कहने में ‘सैनी’ ही जानना चाहिये ।।३६।।
इसप्रकार जीवस्थान द्वारा ‘स्थापना अरहंत’ का वर्णन किया।
आगे द्रव्य की प्रधानता से अरहंतका निरूपण करते हैंः––
सिंहाण खेल सेओ णत्थि दुगुंछा य दोसो य।। ३७।।
गोखीरसंखधवलं मंसं रूहिरं च सव्वंगे।। ३८।।
ओरालियं च कायं णायव्वं अरहपुरिसस्स।। ३९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अजुगुप्सिता, वणनासिकामळ–श्लेष्म–स्वेद, अदोष छे। ३७।
सर्वांग गोक्षीर–शंखतुल्य सुधवल मांस रूधिर छे; ३८।
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बोधपाहुड][१२७
सिंहाणः खेलः स्वेदः नास्ति दुर्गन्धः च दोषः च।। ३७।।
गोक्षीरशंखधवलं मांसं रुधिरं च सर्वांगे।। ३८।।
ईद्रशगुणैः सर्वः अतिशयवान सुपरिमलामोदः।
औदारिकश्च कायः अर्हत्पुरुषस्य ज्ञातव्यः।। ३९।।
अर्थः––अरहंत पुरुष के औदारिक काय इसप्रकार होता है–––जो जरा, व्याधि और
रोग इन संबंधी दुःख उसमें नहीं है, आहार–नीहार से रहित है, विमल अर्थात् मलमूत्र रहित
है; सिंहाण अर्थात् श्लेष्म, खेल अर्थात् थूक, पसेव और दुर्गंध अर्थात् जुगुप्सा, ग्लानि और
दुर्गंधादि दोष उसमें नहीं है।। ३७।।
दस तो उसमें प्राण हैं वे द्रव्यप्राण हैं, पूर्ण पर्याप्ति है, एक हजार आठ लक्षण हैं और
३८।।
इसप्रकार गुणोंसे संयुक्त सर्व ही देह अतिशयसहित निर्मल है, आमोद अर्थात् सुगंध
भावार्थः––यहाँ द्रव्य निक्षेप नहीं समझना। आत्मासे भिन्न ही देहकी प्रधानता से ‘द्रव्य
इसप्रकार द्रव्य अरहंतका वर्णन किया। आगे भाव की प्रधानता से वर्णन करते हैंः–––
चित्तपरिणामरहिदो केवलभावे मुणेयव्वो।। ४०।।
चित्तपरिणामरहितः केवलभावे ज्ञातव्याः।। ४०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
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१२८] [अष्टपाहुड
अर्थः––केवलभाव अर्थात् केवलज्ञानरूप ही एक भाव होते हुए अरहंत होते हैं ऐसा जानना। मद अर्थात् मानकषाय से हुआ गर्व, राग–द्वेष अर्थात् कषायोंके तीव्र उदय से होने वाले प्रीति और अप्रीतिरूप परिणाम इनसे रहित हैं, पच्चीस कषायरूप मल उसका द्रव्य कर्म तथा उनके उदय से हुआ भावमल उससे रहित हैं, इसीलिये अत्यन्त विशुद्ध हैं––निर्मल हैं, चित्त परिणाम अर्थात् मन के परिणामरूप विकल्प रहित हैं, ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमरूप मन का विकल्प नहीं है, इसप्रकार केवल एक ज्ञानरूप वीतरागस्वरूप ‘भाव अरहंत’ जानना।। ४०।। आगे भाव ही का विशेष कहते हैंः–––
सम्मत्तगुणविसुद्धो भावो अरहस्स णायव्वो।। ४१।।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धः भावः अर्हतः ज्ञातव्यः।। ४१।।
अर्थः––‘भाव अरहंत’ सम्यग्दर्शनसे तो अपने को तथा सबको सत्तामात्र देखते हैं
इसप्रकार जिनको केवलदर्शन है, ज्ञान से सब द्रव्य–पर्यायों को जानते हैं इसप्रकार जिनको
केवलज्ञान है, जिनको सम्यक्त्व गुण से विशुद्ध क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है,––इसप्रकार
अरहंत का भाव जानना।
भावार्थः––अरहंतपना घातीकर्मके नाश से होता है। मोहकर्म नाश से सम्यक्त्व और
के नाश से अनंतदर्शन–अनंतज्ञान प्रकट होता है, इनसे सब द्रव्य–पर्यायोंको एक समयमें
प्रत्यक्ष देखते हैं और जानते हैं। द्रव्य छह हैं––उनमें जीव द्रव्य की संख्या अनंतानंत है,
पुद्गलद्रव्य उससे अनंतानंत गुणे हैं, आकाशद्रव्य एक है वह अनंतानंत प्रदेशी है इसके मध्यमें
सब जीव – पुद्गल असंख्यात प्रदेश में स्थित हैं, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य ये दोनों
असंख्यातप्रदेशी हैं इनसे लोक–आलोक का विभाग है, उसी लोकमें ही कालद्रव्य के असंख्यात
कालाणु स्थित हैं। इन सब द्रव्योंके परिणामरूप पर्याय हैं वे एक–एक द्रव्यके अनंतानंत हैं,
उनको कालद्रव्यका परिणाम निमित्त है, उसके निमित्त से क्रमरूप होता समयादिक
‘व्यवहारकाल’ कहलाता है। इसकी गणना अतीत, अनागत, वर्तमान द्रव्योंकी पर्यायें अनंतानंत
हैं, इन सब द्रव्य–पर्यायोंको अरहंतका दर्शन–ज्ञान एकसमयमें देखता जानता है,
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बोधपाहुड][१२९ इसलिये अरहंत को सर्वदर्शी–सर्वज्ञ कहते हैं। भावार्थः––इसप्रकार अरहंतका निरूपण चौदह गाथाओंमें किया। प्रथम गाथामें नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, गुण, पर्याय सहित च्व्यन, आगति, संपत्ति ये भाव अरहंत को बतलाते हैं। इसका व्याख्यान नामादि कथनमें सर्व ही आ गया, उसका संक्षेप भावार्थ लिखते हैंः–– गर्भ–कलयाणकः––––प्रथम गर्भकलयाणक होता है; गर्भमें आनेके छह महीने पहिले इन्द्रका भेजा हुआ कुबेर जिस राजाकी राणी के गर्भ में तीर्थंकर आयेंगे उसके नगरकी शोभा करता है, रत्नमयी सुवर्णमयी मन्दिर बनाता है, नगर के कोट, खाई, दरवाजे, सुन्दर वन, उपवन की रचना करता है, सुन्दर भेषवाले नर–नारी नगर में बसाता है, नित्य राजमन्दिर पर रत्नों की वर्षा होती रहती है, तीर्थंकर का जीव जब माता के गर्भ में आता है तब माताको सोलह स्वप्न आते हैं, रुचकवरद्वीपमें रहनेवाली देवांगनायें माता की नित्य सेवा करती हैं, ऐसे नौ महीने पूरे होने पर प्रभुका तीन ज्ञान और दस अतिशय सहित जन्म होता है, तब तीन लोक में आनंदमय क्षोभ होता है, देव के बिना बजाये बाजे बजते हैं, इन्द्रका आसन कम्पायमान होता है, तब इन्द्र प्रभु का जन्म हुआ जान कर स्वगर से ऐरावत हाथी पर चढ़ कर आता है, सर्व चार प्रकार के देव–देवी एकत्र होकर आते है, शची (इन्द्राणी) माता के पास जाकर गुप्तरूपसे प्रभुको ले आती है, इन्द्र हर्षित होकर हजार नेत्रोंसे देखता है। फिर सौधर्म इन्द्र, बालक शरीरी भगवान को अपनी गोदमें लेकर ऐरावत हाथी पर चढ़कर मेरुपर्वत पर जाता है, इशान इन्द्र छत्र धारण करता है, सनत्कुमार, महेन्द्र इन्द्र चँवर ढोरते हैं, मेरुके पाँडुक वन की पाँडुकशिला पर सिंहासन के ऊपर प्रभुको विराजमान करते हैं, सब देव क्षीर समुद्र से एक हजार आठ कलशोंमें जल लाकर देव–देवांगना गीत नृत्य वादित्र बडे़ उत्साह सहित प्रभुके मस्तकपर कलश ढारकर जन्मकल्याणकका अभिषेक करते हैं, पीछे श्रृंगार, वस्त्र, आभूषण पहिनाकर माता के पास मंदिरमें लाकर माता के सौंप देते हैं, इन्द्रादिक देव अपने–अपने स्थान चले जाते हैं, कुबेर सेवा के लिये रहता है।
तदनन्तर कुमार – अवस्था तथा राज्य –अवस्था भोग भोगकर फिर वैरागय कारण पाकर संसार –देह– भोगोंके विरक्त हो जाते हैं। तब लौकान्तिक देव आकर, वैराग्य को बढ़ाने वाली प्रभु की स्तुति करते हैं, फिर इन्द्र आकर ‘तप कल्याणक’ करता है। पालकी मैं बैठाकर बड़े उत्सव से वन में ले जाता है, वहाँ प्रभु पवित्र शिला पर बैठ कर पंचमुष्टि से लोचकर पंच महाव्रत अंगीकार करते हैं, समस्त परिग्रह का त्याग कर दिगम्बररूप धारण कर ध्यान करते हैै,
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१३०] [अष्टपाहुड उसी समय मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। फिर कुछ समय व्यतीत होने पर तपके बलसे घातिकर्म की प्रकृति ४७ तथा अघाति कर्मप्रकृति १६–––इसप्रकार त्रेसठ प्रकृति का सत्तामें से नाश कर केवलज्ञान उत्पन्न कर अनन्तचतुष्टयरूप होकर क्षुधादिक दोषोंसे रहित अरहंत होते हैं। फिर इन्द्र आकर समवसरणकी रचना करता है सो आगमोक्त अनेक शोभा सहित मणि–सुवर्णमयी कोट, खाई, वेदी चारों दिशाओंमें चार दरवाजे, मानस्तंभ, नाट्यशाला, वन आदि अनेक रचना करता है। उसके बीच सभामण्डपमें बारह सभाएँ उनमें मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, तिर्यंच बैठते हैं। प्रभुके अनेक अतिशय प्रकट होते हैं। सभामण्डपके बीच तीन पीठपर गंधकुटीके बीच सिंहासन पर कमलके ऊपर अंतरीक्ष प्रभु बिराजते हैं और आठ प्रातिहार्य युक्त होते हैं। वाणी खिरती है, उसको सुनकर गणधर द्वादशांग शास्त्र रचते हैं। ऐसे केवलकल्याणका उत्सव इन्द्र करता है। फिर प्रभु विहार करते हैं। उसका बड़ा उत्सव देव करते हैं। कुछ समय बाद आयु के दिन थोड़े रहने पर योगनिरोध कर अधातिकर्मका नाशकर मुक्ति पधारते हैं, तत्पश्चात् शरीरका अग्नि–संस्कार कर इन्द्र उत्सवसहित ‘निर्वाण कल्याणक’ महोत्सव करता है। इसप्रकार तीर्थंकर पंच कल्याणककी पूजा प्राप्त कर, अरहंत होकर निर्वाणको प्राप्त होते हैं ऐसा जानना।। ४१।। आगे (११) – प्रवज्या निरूपण करते हैं, उसको दीक्षा कहते हैं। प्रथम दीक्षा ही के योग्य स्थान विशेष को तथा दीक्षासहित मुनि जहाँ तिष्ठते हैं, उसका स्वरूप कहते हैंः––
गिरिगुह गिरिसिहरे वा भीमवणे अहव वसिते वा।। ४२।।
पंचमहव्वयजुत्ता पंचिंदियसंजया णिरावेक्खा।
सज्झायझाणजुत्ता मुणिवरवसहा णिइच्छन्ति।। ४४।।
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बोधपाहुड][१३१
गिरिगुहायां गिरिशिखरे वा, भीमवने अथवा वसतौ वा।। ४२।।
जिनभवनं अथ वेध्यं जिनमार्गे जिनवरा विदन्ति।। ४३।।
स्वाध्यायध्यानयुक्ताः मुनिवरवृषभाः नीच्छन्ति।। ४४।।
अर्थः––सूना घर, वृक्षका मूल, कोटर, उद्यान वन, श्मशानभूमि, पर्वतकी गुफा,
पर्वतका शिखर, भयानक वन और वस्तिका इनमें दीक्षासहित मुनि ठहरें। ये दीक्षायोग्य स्थान
हैं।
स्ववशासक्त अर्थात् स्वाधीन मुनियोंसे आसक्त जो क्षेत्र उन क्षेत्रोंमें मुनि ठहरे। तथा
कहा गया है अर्थात् आयतन आदिक; परमार्थरूप संयमी मुनि, अरहंत, सिद्ध स्वरूप उनके
नामके अक्षररूप मंत्र तथा उनकी आज्ञारूप वाणीको ‘वच’ कहते हैं तथा उनके आकार धातु
– पाषाण की प्रतिमा स्थापनको ‘चैत्य’ कहते हैं और जब प्रतिमा तथा अक्षर मंत्र वाणी जिसमें
सथापित किये जाते हैं इसप्रकार ‘आलय’ – मंदिर, यंत्र या पुस्तकरूप ऐसा वच, चैत्य तथा
आलयका त्रिक है अथवा जिनभवन अर्थात् अकृत्रिम चैत्यालय मंदिर इसप्रकार आयतनादिक
उनके समान ही उनका व्यवहार, उसे जिनमार्ग में जिनवर देव ‘बेध्य’ अर्थात् दीक्षासहित
मुनियोंके ध्यान करने योग्य, चिन्तन करने योग्य कहते हैं।
गिरिकंदरे, गिरिशिखर पर, विकराळ वन वा वसतिमां। ४२।
जिनभवन मुनिनां लक्ष्य छे–जिनवर कहे जिनशासने। ४३।
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१३२] [अष्टपाहुड
जो मुनिवृषभ अर्थात् मुनियोंमें प्रधान हैं उनके कहे हुए शून्यगृहादिक तथा तीर्थ, नाम मंत्र, स्थापनरूप मूर्ति और उनका आलय – मन्दिर, पुस्तक और अकृत्रिम जिनमन्दिर उनको ‘णिइच्छति’ अर्थात् निश्चयसे इष्ट करते हैं। सूने घर आदि में रहते हैं और तीर्थ आदि का ध्यान चिंतवन करते हैं तथा दूसरोंको वहाँ दीक्षा देते हैं। यहाँ ‘णिइच्छति’ पाठान्तर ‘णिइच्छंति’ इसप्रकार भी है उसका कालोक्ति द्वारा तो इसप्रकार अर्थ होता है कि ‘जो क्या इष्ट नहीं करते हैं? अर्थात् करते ही हैं।’ एक टिप्पणी में ऐसा अर्थ किया है कि––ऐसे शून्यगृहादिक तथा तीर्थादिकको स्ववशासक्त अर्थात् स्वेच्छाचारी भ्रष्टाचारियों द्वारा आसक्त हो (युक्त हो) तो वे मुनिप्रधान इष्ट न करें, वहाँ न रहें। कैसे हैं वे मुनि प्रधान? पाँच महाव्रत संयुक्त हैं, पाँच इन्द्रियोंको भले प्रकार जीतने वाले हैं, निरपेक्ष हैं – किसी प्रकारकी वांच्छासे मुनि नहीं हुए हैं, स्वाध्याय और ध्यानयुक्त हैं, कई तो शास्त्र पढ़ते– पढ़ाते हैं, कई धर्म – शुक्लध्यान करते हैं। भावार्थः––यहाँ दीक्षा योग्य स्थान तथा दीक्षासहित दीक्षा देनेवाले मुनिका तथा उनके चिंतनयोग्य व्यवहार स्वरूप कहा है ।। ४२ – ४३ – ४४।। [११] आगे प्रवज्याका स्वरूप कहते हैंः––
पावारंभविमुक्का पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४५।।
पापारंभविमुक्ता प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४५।।
अर्थः––गृह (घर) और ग्रंथ (परिग्रह) इन दोनोंसे मुनि ममत्व, इष्ट –अनिष्ट बुद्धिसे
से रहित हैं–––इसप्रकार प्रवज्या जिनेश्वरदेवने कही है।
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बोधपाहुड][१३३
भावार्थः––जैन दीक्षामें कुछ भी परीग्रह नहीं, सर्व संसार का मोह नहीं, जिसमें बाईस परीषहोंका सहना तथा कषायोंका जीतना पाया जाता हैं और पापारंभ का अभाव होता है। इसप्रकार दीक्षा अन्यमत में नहीं है।। ४५।। आगे फिर कहते हैंः–––
कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४६।।
कुदानविरहरहिता प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४६।।
अर्थः––धन, धान्य, वस्त्र इनका दान, हिरण्य अर्थात् रूपा, सोना आदिक, शय्या,
आसन आदि शब्दसे छत्र, चामरादिक और क्षेत्र आदि कुदानोंसे रहित प्रवज्या कही है।
भावार्थः––अन्यमती बहुत से इसप्रकार प्रवज्या कहते हैंः––––गौ, धन, धान्य, वस्त्र,
रख कर दान करे उसके काहे की प्रवज्या? यह तो गृहस्थका कर्म है, गृहस्थके भी इन
वस्तुओंके दान से विशेष पुण्य तो होता नहीं है, क्योंकि पाप बहुत है और पुण्य अल्प है, वह
बहुत पापकार्य गृहस्थको करने में लाभ नहीं है। जिसमें बहुत लाभ हो वही काम करना योग्य
है। दीक्षा तो इन वस्तुओं से रहित है।। ४६।।
आगे फिर कहते हैंः––
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१३४] [अष्टपाहुड
तणकणए समभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४७।।
तृणे कनके समभावा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४७।।
अर्थः––जिसमें शत्रु–मित्र में समभाव है, प्रशंसा–निन्दामें, लाभ–अलाभमें और तृण–
कंचन में समभाव है। इसप्रकार प्रवज्या कही है।
भावार्थः––जैनदीक्षा में राग–द्वेषका अभाव है। शत्रु–मित्र, निन्दा–प्रशंसा, लाभ–अलाभ
आगे फिर कहते हैंः––
सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४८।।
सर्वत्र गृहितपिंडा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४८।।
अर्थः––उत्तम गेह अर्थात् शोभा सहित राजभवनादि और मध्यगेह अर्थात् जिसमें अपेक्षा
नहीं है। शोभारहित सामान्य लोगोंका घर इनमें तथा दारिद्र–धनवान् इनमें निरपेक्ष अर्थात्
इच्छारहित हैं, सब ही योग्य जगह पर आहार ग्रहण किया जाता है। इसप्रकार प्रवज्या कही
है।
भावार्थः––मुनि दीक्षा सहित होते हैं और आहार लेने को जाते हैं तब इसप्रकार विचार
इसप्रकार वांछारहित निर्दोष आहारकी योग्यता हो वहाँ सब ही जगहसे योग्य आहार ले लेते
हैं, इसप्रकार दीक्षा है।। ४८।।
तृण–कंचने समभाव छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ४७।
निर्धन–सधन ने उच्च–मध्यम सदन अनपेक्षितपणे
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बोधपाहुड][१३५
णिम्मम णिरहंकारा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ४९।।
निर्ग्रंथा निःसंगा निर्मानाशा अरागा निर्द्वेषा। निर्ममा निरहंकारा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ४९।।
अर्थः––कैसी है प्रवज्या? निर्ग्रंथअवरूप है, परिग्रह से रहित है, निःसंग अर्थात् जिसमें स्त्री परद्रव्यका संग–मिलाप नहीं है, जिसमें निर्माना अर्थात् मान कषाय भी नहीं नहीं है, मदरहित है, जिसमें आशा नहीं है, संसारभोग की आशारहित है, जिसमें अराग अर्थात् राग का अभाव है, संसार–देह–भोगों से प्रीति नहीं है, निर्देषा अर्थात् किसी से द्वेष नहीं है, निर्ममा अर्थात् किसी से ममत्व भाव नहीं है, निरहंकारा अर्थात् अहंकार रहित है, जो कुछ कर्मका उदय होता है वही होता है–––इसप्रकार जानने से परद्रव्यमें कर्तृत्वका अहंकार नहीं रहता है और अपने स्वरूपका ही उसमें साधन है, इसप्रकार प्रवज्या कही है।
भावार्थः––अन्यमती भेष पहिनकर उसी मात्रको दीक्षा मानते हैं वह दीक्षा नहीं है, जैन दीक्षा इसप्रकार कही है।। ४९।।
आगे फिर कहते हैंः––
णिब्भय णिरासभावा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५०।।
निर्मम, अराग, अद्वेष छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ४९।
निः स्नेह, निर्भय, निर्विकार, अकलुष ने निर्मोह छे,
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१३६] [अष्टपाहुड
निर्भया निराशभावा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५०।।
अर्थः––प्रवज्या कैसी है––निःस्नेहा अर्थात् जिसमें किसीसे स्नेह नहीं, जिसमें परद्रव्यसे
रागादिरूप सच्चिक्कणभाव नहीं है, जिसमें निर्लोभा अर्थात् कुछ परद्रव्य के लेने की वांछा नहीं
है, जिसमें निर्मोहा अर्थात् किसी परद्रव्य से मोह नहीं है, भूलकर भी परद्रव्य में आत्मबुद्धि नहीं
होती है, निर्विकारा अर्थात् बाह्य–अभ्यंतर विकार से रहित है, जिसमें बाह्य शरीर की चेष्टा
तथा वस्त्राभूषणादिकका अंग–उपांग विकार नहीं है, जिसमें अंतरंग काम – क्रोधादिकका
विकार नहीं है। निःकलुषा अर्थात् मलिन भाव रहित हैं। आत्मा को कषाय मलिन करते हैं अतः
कषाय जिसमें नहीं है। निर्भया अर्थात् जिसमें किसी प्रकार का भय नहीं है, अपने स्वरूपको
अविनाशी जाने उसको किसी का भय हो, जिसमें निराशभावा अर्थात् किसी प्रकार के परद्रव्य
की आशा का भाव नहीं है, आशा तो किसी वस्तु की प्राप्ति न हो उसकी लगी रहती है परन्तु
जहाँ परद्रव्य को अपना जाना ही नहीं और अपने स्वरूप की प्राप्ति हो गई तब कुछ प्राप्त
करना शेष न रहा, फिर किसकी आशा हो? प्रवज्या इसप्रकार कही है।
भावार्थः––जैन दीक्षा ऐसी है। अन्यमत में स्व–पर द्रव्यका भेदविज्ञान नहीं है, उनके
आगे दीक्षा का बाह्य स्वरूप कहते हैंः–––
परकियणिलयणिवासा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५१।।
परकृतनिलयनिवासा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५१।।
अर्थः–– कैसी है प्रवज्या? यथाजातरूपसदृशी अर्थात् जैसा जन्म होते ही बालकका
नग्नरूप होता है वैसा ही नग्न उसमें है। अवलंबिताभुजा अर्थात् जिसमें भुजा लंबायमान की है,
जिसमें बाहुल्य अपेक्षा कायोत्सर्ग रहना होता है, निरायुध अर्थात् आयुधोंसे रहित है, शांता
अर्थात् जिसमें अंग–उपांग के विकार रहित शांतमुद्रा होती