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अनेक मत प्रवर्तमान हैं। उसमें भी इस पंचमकाल में केवली– श्रुतकेवलीका व्युचछेद होने से
जिनमतकी भी जड़ वक्र जीवोंके निमित्तसे परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बरादि बुद्धि
कल्पितमत हुए हैं। उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूपकी स्थापनाके हेतु दिगमबर आम्नाय
मूलसंघमें आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञकी परम्पराके अव्युच्छेदरूप प्ररूपणाके अनेक ग्रन्थोंकी
रचना की है; उनमें दिगम्बर संप्रदाय मूलसंघ नन्दिआम्नाय सरस्वतीगच्छमें श्री कुन्दकुन्दमुनि
हुए और उन्होंने पाहुड ग्रन्थोंकी रचना की। उन्हें संस्कृत भाषामें प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत
गाथाबद्ध हैं। कालदोषसे जीवों की बुद्धि मंद होती है जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते;
इसलिये देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढ़ेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा–
ऐसा प्रयोजन विचारकर वचनिका लिख रहें हैं, अन्य कोई ख्याति, बढ़ाई या लाभका प्रयोजन
नहीं है। इसलिये हे भव्य जीवों! उसे पढ़कर, अर्थसमजकर, चित्तमें धारण करके यथार्थ मतके
बाह्यलिंग एवं तत्त्वार्थका श्रद्धान दृढ़ करना। इसमें कुछ बुद्धि की मंदतासे तथा प्रमादके वश
अन्यथा अर्थ लिख दूँ तो अधिक बुद्धिमान मूलग्रन्थको देखकर, शुद्ध करके पढ़े और मुझे
अल्पबुद्धि जानकर क्षमा करें।
दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण।। १।।
दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन।। १।।
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मार्ग है उसे यथानुक्रम संक्षेप में कहूँगा।
निर्जरा करने वाले सभी जिन हैं उनमें वर अर्थात् श्रेष्ठ। इस प्रकार गणधरादि मुनियोंको
जिनवर कहा जाता है; उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान ऐसे भगवान तीर्थंकर परम देव हैं। उनमें
प्रथम तो श्री ऋषभदेव हुए और इस पंचमकालके प्रारंभ तथा चतुर्थकालके अन्तमें अन्तिम
तीर्थंकर श्री वर्धमानस्वामी हुए हैं। वे समस्त तीर्थंकर वृषभ हुए हैं उन्हें नमस्कार हुआ। वहाँ
‘वर्धमान’ ऐसा विशेषण सभीके लिये जानना; क्योंकि अन्तरंग बाह्य लक्ष्मीसे वर्धमान हैं। अथवा
जिनवर वृषभ शब्दसे तो आदि तीर्शंकर श्री ऋषभदेव को और वर्धमान शब्द से अन्तिम
तीर्थंकर को जानना। इसप्रकार आदि और अन्तके तीर्थंकरोंको नमस्कार करने से मध्यके
तीर्थंकरोंको सामर्थ्यसे नमस्कार जानना। तीर्थंकर सर्वज्ञ वीतरागको जो परमगुरु कहते हैं और
उनकी परिपाटी में चले आ रहे गौतमादि मुनियोंको जिनवर विशेषण दिया, उन्हें अपर गुरु
कहते हैं; ––इसप्रकार परापर गुरुओंका प्रवाह जानना। वे शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ज्ञानके
कारण हैं। उन्हें ग्रन्थके आदि में नमस्कार किया ।।१।।
तं सोउण सकण्णे दंसणहीणो ण वंदिव्वो।। २।।
तं श्रुत्वा स्वकर्णे दर्शनहीनो न वन्दितव्यः।। २।।
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मंदिर के नींव और वृक्ष के जड़ होती है उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन है। इसलिये आचार्य
उपदेश देते हैं कि–– हे सकर्ण अर्थात् सत्पुरुषों! सर्वज्ञ के कहे हुए उस दर्शनमूलरूप धर्म
को अपने कानोंसे सुनकर जो दर्शनसे रहित हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं;इसलिये दर्शन हीन की
वंदनामत करो। जिसके दर्शन नहीं है उसके धर्म भी नहीं है; क्योंकि मूल रहित वृक्षके स्कंध,
शाखा, पुष्प, फलादिक कहाँ से होंगे? इसलिये यह उपदेश है कि– जिसके धर्म नहीं है
उससे धर्मकी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर धर्मके निमित्त उसकी वंदना किसलिये करें?–ऐसा
जानना।
यह है कि––जो आत्माको संसार से उबार कर सुख स्थान में स्थापित करे सो धर्म है। और
दर्शन अर्थात् देखना। इसप्रकार धर्म की मूर्ति दिखायी दे वह दर्शन है तथा प्रसिद्धि में जिसमें
धर्मका ग्रहण हो ऐसे मत को ‘दर्शन’ कहा है। लोक में धर्मकी तथा दर्शनकी मान्यता
सामान्यरूप से तो सबके है, परन्तु सर्वज्ञ के बिना यथार्थ स्वरूपका जानना नहीं हो सकता;
परन्तु छद्मस्थ प्राणी अपनी बुद्धि से अनेक स्वरूपों की कल्पना करके अन्यथा स्वरूप स्थापित
करके उनकी प्रवृत्ति करते हैं। और जिनमत सवर्ज्ञ की परम्परा से प्रवर्तमान है इसलिये इसमें
यथार्थ स्वरूपका प्ररूपण है।
चारित्ररूप और चौथे जीवों की रक्षारूप ऐसे चार प्रकार हैं। वहाँ निश्चय से सिद्ध किया जाये
तब तो सबमें एक ही प्रकार है, इसलिये वस्तुस्वभाव का तात्पर्य तो जीव नामक वस्तुकी
परमार्थरूप दर्शन–ज्ञान–परिणाममयी चेतना है, और वह चेतना सर्व विकारोंसे रहित शुद्ध–
स्वभावरूप परिणमित हो वही जीव का धर्म है। तथा उत्तमक्षमादि दस प्रकार कहने का तात्पर्य
यह है कि आत्मा क्रोधादि कषायरूप न होकर अपने स्वभाव में स्थिर हो वही धर्म है, यह भी
शुद्ध चेतना रूप हुआ।
कषायोंके वश होकर अपनी या पर की पर्याय के विनाशरूप मरण तथा दुःख, संक्लेश परिणाम
न करे–ऐसा अपना स्वभाव ही धर्म है। इसप्रकार शुद्ध द्रव्यार्थिकरूप निश्चय से साधा हुआ धर्म
एक ही प्रकार है।
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वस्तुस्वाभाव कहने पर तात्पर्य तो निर्विकार चेतनाके शुद्धपरिणामके साधक रूप
उसीप्रकार रत्नत्रयका तात्पर्य स्वरूपके भेद दर्शन–ज्ञान–चारित्र तथा उसके कारण बाह्य
क्रियादिक हैं, उन सभी को व्यवहार धर्म कहा जाता है। उसीप्रकार –
आदि का न करना;
रुचि सहित आचरण करना ही दर्शन है, यह धर्म की मूर्ति है, इसी को मत
आचरण भी नहीं होता,––जैसे वृक्ष के मूल बिना स्कंधादिक नहीं होते। इसप्रकार दर्शनको धर्म
का मूल कहना युक्त है। ऐसे दर्शनका सिद्धान्तोंमें जैसा वर्णन है तदनुसार कुछ लिखते हैं।
नामक कर्मके उदय से अन्यथा हो रहा है। सादि मिथ्यादृष्टिके उस मिथ्यात्व की तीन प्रकृतियाँ
सत्ता में होती हैं–– मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति। तथा उनकी सहकारिणी
अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से चार कषाय नामक प्रकृतियाँ हैं। इस प्रकार
यह सात प्रकृतियाँ ही सम्यग्दर्शन का घात करने वाली हैं; इसलिये इन सातोंका उपशम होने
से पहले तो इस जीवके उपशमसम्यक्त्व होता है। इन प्रकृतियों का उपशम होने का बाह्य
कारण सामान्यतः द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव हैं। उनमें, द्रव्यमें तो साक्षात् तीर्थंकर के देखनादि
प्रधान हैं, क्षेत्रमें समवसरणादिक प्रधान हैं, कालमें अर्धपुद्गलपरावर्तन संसार भ्रमण शेष रहे
वह, तथा भावमें अधःप्रवृत्तकरण आदिक हैं।
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कुछके वेदना का अनुभव, कुछके धर्म–श्रवण तथा कुछके देवोंकी ऋद्धिका देखना––इत्यादि
बाह्य कारणों द्वारा मिथ्यात्वकर्म का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व होता है। तथा इन सात
प्रकृतियों में से छह का तो उपशम या क्षय हो और एक सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय हो तब
क्षयोपक्षम सम्यक्त्व होता है। इस प्रकृति के उदय से किंचित् अतिचार– मल लगता है। तथा
इन सात प्रकृतियोंका सत्ता में से नाश हो तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
वे अतिसूक्ष्म हैं और उनमें फल देने की शक्तिरूप अनुभाग है वह अतिसूक्ष्म हैं वह छद्मस्थके
ज्ञानगम्य नहीं है। तथा उनका उपशमादि होनेसे जीवके परिणाम भी सम्यक्त्वरूप होते हैं, वे
भी अतिसूक्ष्म होते हैं, वे भी केवलज्ञानगम्य हैं। तथापि जीवके कुछ परिणाम छद्मस्थके ज्ञान में
आने योग्य होते हैं, वे उसे पहिचाननेके बाह्य चिन्ह हैं, उनकी परिक्षा करके निश्चय करने का
व्यवहार है; ऐसा न होते छद्मस्थ वयवहारी जीवके सम्यक्त्वका निश्चय नहीं होगा और तब
अस्तिक्यका अभाव सिद्ध होगा, व्यवहारका लोप होगा–यह महान दोष आयेगा। इसलिये बाह्य
चिन्होंको आगम, अनुमान तथा स्वानुभवसे परीक्षा करके निश्चय करना चाहिये।
होनेपर होती है, इसलिये उसे बाह्य चिन्ह कहते हैं। ज्ञान तो अपना अपने को स्वसंवेदनरूप
है; उसका, रागादि विकार रहित शुद्धज्ञानमात्र का अपने को आस्वाद होता है कि–‘जो यह
शुद्ध ज्ञान है सो मैं हूँ और ज्ञान में जो रागादि विकार हैं वे कर्मके निमित्त से उत्पन्न होते हैं,
वह मेरा स्वरूप नहीं हैं’–इसप्रकार भेद ज्ञानसे ज्ञानमात्र के आस्वादन को ज्ञान की अनुभूति
कहते हैं, वही आत्माकी अनुभूति है, तथा वही शुद्धनय का विषय है। ऐसी अनुभूति से शुद्धनय
से द्वारा ऐसा भी श्रद्धान होता है कि सर्व जीव कर्मजनित रागादि भाव से रहित अनंत चतुष्टय
मेरा स्वरूप है, अन्य सब भाव संजोगजनित हैं; ऐसी आत्मा की अनुभूति सो सम्यक्त्वका मुख्य
चिन्ह है। यह मिथ्यात्व अनंतानुबन्धी के अभावमें सम्यक्त्व होता है उसका चिन्ह है; उस चिन्ह
को ही सम्यक्त्व कहना सो व्यवहार है।
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की प्रधानता से होती है और पर की परीक्षा तो पर के अंतरंग में होने की परीक्षा, पर के
वचन, काय की क्रिया की परीक्षा से होती है यह व्यवहार है, परमार्थ सर्वज्ञ जानते हैं।
व्यवहारी जीवको सर्वज्ञने भी व्यवहार के ही शरण का उपदेश दिया है।
[नोंध–अनुभूति ज्ञानगुणकी पर्याय है वह श्रद्धागुण से भिन्न है, इसलिये ज्ञानके द्वारा श्रद्धानका
निर्णय करना व्यवहार है, उसका नाम व्यवहारी जीवको व्यवहार ही शरण अर्थात् आलम्बन
समझना।]
सर्वथा एकान्त से कहना तो मिथ्यादृष्टि है; सर्वथा ऐसा कहने से व्यवहार का लोप होगा, सर्व
मुनि–श्रावकोंकी प्रवृत्ति मिथ्यात्वरूप सिद्ध होगी, और सब अपने को मिथ्यादृष्टि मानेंगे तो
व्यवहार कहाँ रहेगा? इसलिये परीक्षा होने पश्चात् ऐसा श्रद्धान नहीं रखना नहीं चाहिये कि मैं
मिथ्यादृष्टि ही हूँ। मिथ्यादृष्टि तो अन्यमती को कहते हैं और उसी के समान स्वयं भी होगा,
इसलिये सर्वथा एकान्त पक्ष नहीं ग्रहण करना चाहिये। तथा तत्त्वार्थश्रद्धान तो बाह्य चिन्ह है।
जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ऐसे सात तत्त्वार्थ हैं; उनमें पुण्य और पाप
को जोड़ देनेसे नव पदार्थ होते हैं। उनकी श्रद्धा अर्थात् सन्मुखता, रुचि अर्थात् तद्रुप भाव
करना तथा प्रतीति अर्थात् जैसे सर्वज्ञ ने कहे हैं तदनुसार ही अंगीकार करना और उनके
आचरण रूप क्रिया,–इसप्रकार श्रद्धानादिक होना सो सम्यक्त्वका बाह्य चिन्ह है।
चिन्ह जैसे कि––सर्वथा एकान्त तत्त्वार्थ का कथन करने वाले अन्य मतों का श्रद्धान, बाह्य वेश
में सत्यार्थपने का अभिमान करना, पर्यायों में एकान्त के कारण आत्मबुद्धि से अभिमान तथा
प्रीति करना वह अनंतानुबंधीका कार्य है– वह जिसके न हो , तथा किसी ने अपना बुरा किया
तो उसका घात करना आदि मिथ्यादृष्टि की भाँति विकार बुद्धि अपने को उत्पन्न न हो, तथा
वह ऐसा विचार करे कि मैंने अपने परिणामों
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हो–ऐसे मंदकषाय हैं। तथा अनंतानुबंधी के बिना अन्य चारित्रमोह की प्रकृतियों के उदय से
आरम्भादिक क्रियामें हिंसादिक होते हैं उनको भी भला नहीं जानता इसलिये उससे प्रशम का
अभाव नहीं कहते।
अनुरागको अभिलाष नहीं करना चाहिये, क्योंकि अभिलाष तो उसे कहते हैं जिसे
इन्द्रियविषयोंकी चाह हो? अपने स्वरूपकी प्राप्तिमें अनुराग को अभिलाष नहीं कहते। तथा
वैराग्य हुआ, वही निर्वेद है। तथा
दुःख, जीवन–मरण अपना परके द्वारा और परका अपने द्वारा नहीं मानता है। तथा पर में जो
अनुकम्पा है सो अपने में ही है, इसलिये परका बुरा करने का विचार करेगा तो अपने
कषायभाव से स्वयं अपना ही बुरा हुआ; पर का बुरा नहीं सोचेगा तब अपने कषाय भाव नहीं
होंगे इसलिये अपनी अनुकम्पा ही हुई।
ही यह हैं–अन्यथा नहीं हैं वह आस्तिक्य भाव है।
भक्ति–ये आ गये तथा प्रशममें निन्दा, गर्हा आ गई।
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और प्रभावना।
पदार्थ हैं, तथा तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि अंतरित पदार्थ हैं; वे सर्वज्ञ के आगम में जैसे कहे हैं
वैसे है या नहीं हैं? अथवा सर्वज्ञदेव ने वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक कहा है सो सत्य है या
असत्य?–ऐसे सन्देह को शंका कहते हैं। तथा यह जो शंका होती है सो मिध्यात्वकर्मके उदय
से
सात भेद हैंः– इस लोक का भय, परलोकका भय, मृत्युका भय, अरक्षाका भय, अगुप्तिका
भय, वेदना का भय। अकस्मात् का भय। जिनके यह भय हों उसे मिथ्यात्वकर्म का उदय
समझना चाहिये; सम्यग्दृष्टि होने पर यह नहीं होते।
चारित्रमोह के भेदरूप भय प्रकृति के उदय से भय होता है तथापि उसे निर्भय ही कहते हैं,
क्योंकि उसके कर्मके उदयका स्वामित्व नहीं है और परद्रव्यके कारण अपने द्रव्य स्वभावका
नाश नहीं मानता। पर्याय का स्वभाव विनाशीक मानता है इसलिये भय होने पर भी उसे निर्भय
ही कहते हैं। भय होने पर उसका उपचार भागना इत्यादि करता है; वहाँ वर्तमान की पीड़ा
सहन न होने से वह इलाज
की प्राप्ति देखकर उन्हें अपने मन में भला जानना अथवा जो इन्द्रियोंको न रुचें ऐसे विषयों में
उद्वेग होना– यह भोगाभिलाष के चिन्ह हैं। यह भोगाभिलाष मिथ्यात्वकर्म के उदय से होता है,
और जिसके यह न हो वह निःकाक्षित अङ्गयुक्त सम्यग्दृष्टि होता है। वह सम्यग्दृष्टि यद्यपि
शुभक्रिया – व्रतादिक आचरण
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स्वरूपका साधक जानकर उसका आचरण करता है, कर्मके फल की वांछा नहीं करता। –ऐसा
निःकांक्षित अङ्ग है ।।२।।
होता है। उसके चिन्ह ऐसे हैं कि –यदि कोई पुरुष पाप के उदय से दुःखी हो, असाता के
उदय से ग्लानियुक्त शरीर हो तो उसमें ग्लानिबुद्धि नहीं करता। ऐसी बुद्धि नहीं करता कि–
मैं सम्पदावान हूँ, सुन्दर शरीरवान हूँ, यह दीन रङ्क मेरी बराबरी नहीं कर सकता। उलटा
ऐसा विचार करता है कि– प्राणियों के कर्मोदय से अनेक विचित्र अवस्थाएँ होती हैं। जब मेरे
ऐसे कर्मका उदय आवे तब मैं भी ऐसा ही हो जाऊँ। ––ऐसे विचार से निर्विचिकित्सा अङ्ग
होता है ।।३।।
उत्पन्न नहीं कराते हैं तथा लौकिक रूढ़ि अनेक प्रकार की है, वह निःसार है, निःसार पुरुषों
द्वारा ही उसका आचरण होता है, जो अनिष्ट फल देनेवाली है तथा जो निष्फल है; जिसका
बुरा फल है तथा उसका कुछ हेतु नहीं है, कुछ अर्थ नहीं है; जो कुछ लोक रूढ़ि चल पड़ती
है उसे लोग अपना लेते हैं और फिर उसे छोड़ना कठिन हो जाता है –इत्यादि लोकरूढि है।
धर्म मानना, तथा मिथ्या आचारवान, शल्यवान, परिग्रहवान, सम्यक्त्व व्रत रहित को गुरु
मानना इत्यादि मूढ़दृष्टि के चिन्ह हैं। अब, देव–धर्म–गुरु कैसे होते हैं, उनका स्वरूप जानना
चाहिये, सो कहते हैंः––
सामान्यरूप से तो देव एक ही है और विशेषरूप से अरहंत, सिद्ध ऐसे दो भेद हैं; तथा इनके
नामभेदके भेदसे भेद करें तो हजारों नाम हैं। तथा गुण भेद किये जायें तो अनन्त गुण हैं।
परम औदारिक देह में विद्यमान घातिया कर्म रहित अनन्त चतुष्टय सहित धर्म का उपदेश
करने वाले ऐसे तो अरिहंत देव हैं तथा
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ऐसे सिद्ध देव हैं। इनके अनेकों नाम हैंः–अरहंत, जिन, सिद्ध, परमात्मा, महादेव, शंकर,
विष्णु, ब्रह्मा, हरि, बुद्ध, सर्वज्ञ, वीतराग परमात्मा इत्यादि अर्थ सहित अनेक नाम हैं;–ऐसा
देव का स्वरूप है।
छद्मस्थ ज्ञान के धारक उन्ही का निर्ग्रन्थ रूप धारण करने वाले मुनि है सो गुरु हैं, क्योंकि
अरिहंत की सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की एकदेश शुद्धता उनके पायी जाती है और वे ही
संवर, निर्जरा, मोक्षका कारण हैं, इसलिये अरिहंत की भाँति एकदेश रूप से निर्दोष हैं वे मुनि
भी गुरु हैं, मोक्ष मागर का उपदेश करने वाले हैं।
की क्रिया समान ही है; बाह्य लिंग भी समान है, पंव महाव्रत, पंचसमिति, तीन गुप्ति –ऐसे
तेरह प्रकार का चारित्र भी समान ही हैं, चर्या, स्थान, आसनादि भी समान हैं, मोक्षमागर की
साधना, सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र भी समान हैं। ध्याता, ध्यान, ध्येयपना भी समान है, ज्ञाता,
ज्ञान, ज्ञेयपना समान हैं, चार आराधना की आराधना, क्रोधादिक कषायोंका जीतना इत्यादि
मुनियों की प्रवृत्ति है वह सब समान है।
आचार्य गुरु वंदना करने योग्य हैं।
पढ़ाते हैं ऐसे उपाध्याय गुरु वंदन करने योग्य हैं; उनके अन्य मुनिव्रत, मूलगुण, उत्तरगुण की
क्रिया आचार्य समान ही होती है। तथा साधु रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग की साधना करते हैं सो
साधु हैं; उनके दीक्षा, शिक्षा, उपदेशादि देने की प्रधानता नहीं है, वे तो अपने स्वरूप की
साधना में ही तत्पर होते हैं; जिनागम में जैसी निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनि की प्रवृत्ति कही है वैसी
प्रवृत्ति उनके होती है –ऐसे साधु वंदना के
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करते हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं।
मूलसंघ नग्नदिगम्बर, अट्ठाईस मूलगुणोंके धारक, दयाके और शौचके उपकरण–मयूरपिच्छक,
कमण्डल धारण करने वाले, यथोक्त विधि आहार करने वाले गु्रु वंदन योग्य हैं, क्योंकि जब
तीर्थंकर देव दीक्षा लेते हैं तब ऐसा ही रूप धारण करते हैं अन्य भेष धारण नहीं करते; इसी
को जिनदर्शन कहते हैं।
सर्वदेशरूप निश्चय–व्यवहार द्वारा दो प्रकार कहा है; उसका मूल सम्यग्दर्शन है; उसके बिना
धर्म की उत्पत्ति नहीं होती। इसप्रकार देव–गुरु–धर्म तथा लोक में यथार्थ दृष्टि हो और मूढ़ता
न हो सो अमूढ़दृष्टि अङ्ग है ।।४।।
जानना चाहिये कि जिनमार्ग स्वयं सिद्ध है; उसमें बालकके तथा असमर्थ जन के आश्रय से जो
न्यूनता हो उसे अपनी बुद्धि से गुप्त कर दूर ही करे वह उपगूहन अङ्ग
है ।।५।।
पूर्वक पुनः श्रद्धान में दृढ़ करे, उसीप्रकार अन्य कोई धर्मात्मा धर्म से च्युत हो तो उसे
उपदेशादिक द्वारा स्थापित करे––––वह स्थितिकरण अङ्ग है ।।६।।
उपसर्गादि आयें उन्हें अपनी शक्ति अनुसार दूर करें, अपने शक्ति को न छिपायें; –यह सब
धर्म में अति प्रीति हो तब होता है ।।७।।
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उद्योत करना वह प्रभावना अङ्ग है ।।८।।
सम्यक्–मिथ्याका विभाग कैसे होगा? समाधान–– जैसे सम्यक्त्वी के होते हैं वैसे मिथ्यात्वी
के तो कदापि नहीं होते, तथापि अपरीक्षक को समान दिखाई दें तो परीक्षा करके भेद जाना
जा सकता है। परीक्षा में अपना स्वानुभव प्रधान है। सर्वज्ञ के आगम में जैसा आत्मा का
अनुभव होना कहा है वैसा स्वयं को हो तो उसके होने से अपनी वचन–कायकी प्रवृत्ति भी
तदनुसार होती है। उस प्रवृत्ति के अनुसार अन्य की वचन–काय की प्रवृत्ति पहचानी जाती
है;– इसप्रकार परीक्षा करने से विभाग होते हैं। तथा यह व्यवहार मार्ग है, इसलिये व्यवहारी
छद्मस्थ जीवों के अपने ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति है; यर्थाथ सर्वज्ञ देव जानते हैं। व्यवहारी को
सर्वज्ञ देव ने व्यवहारी का आश्रय बतलाया है
सहित नग्न दिगम्बर मुद्रा उसकी मूर्ति है, उसे जिनदर्शन कहते हैं, इसप्रकार धर्मका मूल
सम्यग्दर्शन जानकर जो सम्यग्दर्शन रहित है उनके वंदन–पूजन निषेध किया है। –––ऐसा
यह उपदेश भव्य जीवोंको अंगीकार करने योग्य है ।।२।।
व्यवहार के आश्रय से वीतराग अंशरूप धर्म होगा ऐसा अर्थ कहीं पर नहीं समझना।
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सिज्झंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झंति।। ३।।
सिध्यन्ति चारित्र भ्रष्टाः दर्शनभ्रष्टाः न सिध्यन्ति।। ३।।
परन्तु जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धिको प्राप्त नहीं होते।
दर्शन से भ्रष्ट हैं उन्हें निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती; जो चारित्र से भ्रष्ट होते हैं और श्रद्धान
दृढ़ रहते हैं उनके तो शीघ्र ही पुनः चारित्र का ग्रहण होता है, और मोक्ष होता है। तथा
दर्शन–श्रद्धा से भ्रष्ट होय उसके फिर चारित्र का ग्रहण फिर कठिन होता है इसलिये निर्वाण
की प्राप्ति दुर्लभ होती है। जैसे –वृक्ष की शाखा आदि कट जाये और जड़ बनी रहे तो शाखा
आदि शीघ्र ही पुनः उग आयेंगे और फल लगेंगे, किन्तु जड़ उखड़ जाने पर शाखा आदि कैसे
होंगे? उसी प्रकार धर्मका मूल दर्शन जानना ।।३।।
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आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव।। ४।।
आराधना विरहिताः भ्रमंति तत्रैव तत्रैव।। ४।।
बहुत परिभ्रमण बतलाया है।
नहीं होती; इसलिये कुमरणसे चतुगरतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं –मोक्ष प्राप्त नहीं कर
पाते; इसलिये सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते।।४।।
ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं।। ५।।
न लभन्ते बोधिलाभं अपि वर्षसहस्रकोटिभिः।। ५।।
प्राप्त नहीं करते; यदि हजार कोटी वर्ष तप करते रहें तब भी स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती।
यहाँ गाथामें दो स्थानोंपर ‘णं’ शब्द है वह प्राकृत में अव्यय है, उसका अर्थ वाक्यका अलंकार
है।
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बहुतपना बतलाया है। तप मनुष्य पर्याय में ही होता है, इसलिये मनुष्य काल भी थोड़ा है,
इसलिये तप का तात्पर्य यह वर्ष भी बहुत कहे हैं ।।५।।
कलिकलुसपावरहिया वरणाणी होंति अइरेण।। ६।।
कलिकलुषपापरहिताः वरज्ञानिनः भवंति अचिरेण।। ६।।
केवलज्ञानी होते हैं।
ज्ञान–दर्शनके अपने पराक्रम– बलको न छिपाकर तथा अपने वीर्य अर्थात् शक्तिसे वर्द्धमान
होते हुए प्रवर्तते हैं, वे अल्पकालमें ही केवलज्ञानी होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं ।। ६।।
कम्मं वालुयवरणं बंधुच्चिय णासए तस्स।। ७।।
कर्म वालुकावरणं बद्धमपि नश्यति तस्य।। ७।।