Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 20-40 (Sheel Pahud); Vachnikakar ki prashashti; The End.

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शीलपाहुड][३७७
छे शील अरि विषयो तणो ने शील शीव सोपान छे। २०।
सीलं तवो विसुद्धं दंसणसुद्धी य णाण सुद्धीय।
सीलं विसयाण अरी सीलं मोक्खस्स सोवाणं।। २०।।
शीलं तपः विशुद्ध दर्शनशुद्धिश्च ज्ञान शुद्धिश्च।
शीलं विषयाणामरिः शीलं मोक्षस्य सोपानम्।। २०।।
अर्थः––शील ही विशुद्ध निर्मल तप है, शील ही दर्शन की शुद्धता है, शील ही ज्ञान
की शुद्धता है, शील ही विषयोंका शत्रु है और शील ही मोक्ष की सीढ़ी है।

भावार्थः––जीव अजीव पदार्थों का ज्ञान करके उसमें से मिथ्यात्व और कषायों का
अभाव करान वह सुशील है, यह आत्मा का ज्ञान स्वभाव है वह संसार प्रकृति मिटकर मोक्ष
सन्मुख प्रकृति हो तो तब इस शील ही के तप आदिक सब नाम हैं–––निर्मल तप, शुद्ध
दर्शन ज्ञान, विषय – कषायों का मेटना, मोक्ष की सीढ़ी ये सब शील के नाम के अर्थ हैं, ऐसे
शील के महात्म्य का वर्णन किया है और यह केवल महिमा ही नहीं है इन सब भावों के
अविनाभावीपना बताया है।। २०।।

आगे कहते हैं कि विषयरूप विष महा प्रबल हैः–––
जह विसयलुद्ध विसदो तह थावरजंगमाण घोराणं।
सव्वेसिं पिविणासदि विसयविसं दारुणं होई।। २१।।
यथा विषय लुब्धः विषदः तथा स्थावर जंगमान् घोरान्।
सर्वान् अपि विनाशयति विषयविसं दारुणं भवति।। २१।।

अर्थः––जैसे विषय सेवनरूपी विष विषय–लुब्ध जीवों को विष देनेवाला है, वैसे ही
घोर तएव्र स्थावर–जंगम सब ही विष प्राणियों का विनाश करते हैं तथापि इन सब विषों में
विषयों का विष उत्कृष्ट है तीव्र है।

भावार्थः––जैसे हस्ती मीन भ्रमर पतंग आदि जीव विषयों में लुब्ध होकर विषयों
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे शील ते तप शुद्ध, ते द्रग शुद्धि, ज्ञानविशुद्धि छे,

विष घोर जंगम–स्थावरोनुं नष्ट करतुं सर्वने,
पण विषयलुब्धतणुं विघातक विषयविष अति रौद्र छे। २१।

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३७८] [अष्टपाहुड
देवेय दुर्भगता लहे विषयावलंबी आतमा। २३।
के विष हो नष्ट होते हैं वैसे ही स्थावर विष मोहरा, सोमल आदिक और जंगम का विष सर्प,
घोहरा आदिक का–––इन विषों से भी प्राणी मारे जाते हैं, परंतु सब विषों में विषयों का विष
अति ही तीव्र है।। २१।।

आगे इसी का समर्थन करने के लिये विषयों के विषका तीव्रपना कहते हैं कि––विषकी
वेदना से तो एकबार मरता है और विषयों से संसार में भ्रमण करता हैः–––
वारि एक्कम्मि य जम्मे मरिज्ज विसवेयणाहदो जीवो।
विसयविसपरिहया णं भमंति संसारकंतारे।। २२।।
वारे एकस्मिन् जन्मनि गच्छेत् विषवेदनाहतः जीवः।
विषयविषपरिहता भ्रमंति संसारकांतारे।। २२।।

अर्थः
––विष की वेदना से नष्ट जीव तो एक जन्म में ही मरता है परन्तु विषयरूप
विषसे नष्ट जीव अतिशयतया – बारबार संसाररूपी वन में भ्रमण करते हैं।
(पुण्य की और
राग की रुचि वही विषय बुद्धि है।)

भावार्थः––अन्य सपारदिक के विषसे विष्यों का विष प्रबल है, इनकी आसक्ति से ऐसा
कर्मबंध होता है कि उससे बहुत जन्म–मरण होते हैं।। २२।।

आगे कहते हैं कि विषयों की आसक्ति से चतुर्गति में दुःख ही पाते हैंः–––
णरएसु वेयणाओ तिरिक्खए माणवेसु दुक्खाइं।
देवेसु वि दोहग्गं लहंति विसयासिया जीवा।। २३।।
नरकेषु वेदनाः तिर्यक्षु मानुषेषु दुःखानि।
देवेषु अपि दौर्भाग्यं लभंते विषयासक्ता जीवाः।। २३।।

अर्थः
––विषयों में आसक्त जीव नरकमें अत्यंत वेदना पाते हैं, तिर्यंचों में तथा
–––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
विषवेदनाहत जीव एक ज वार पामे मरणने,
पण विषयविषहत जीव तो संसारकांतारे भमे। २२।
बहु वेदना नरको विषे, दुःखो मनुज–तिर्यंचमां,

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शीलपाहुड][३७९
मनुष्यों में दुःखों को पाते हैं और देवों में उत्पन्न हों तो वहाँ भी दुभारुग्यपना पाते हैं, नीच
देव होते हैं, इसप्रकार चारों गतियों में दुःख ही पाते हैं।

भावार्थः––विषयासक्त जीवों को कहीं भी सुख नहीं है, परलोक में तो नरक आदि के
दुःख पाते ही हैं परन्तु इस लोक में भी इनके देवन करने में आपत्ति व कष्ट आते ही हैं तथा
सेवन से आकुलता दुःख ही है, यह जीव भ्रम से सुख मानता है, सत्यार्थ ज्ञानी तो विरक्त ही
होता है।। २३।।

आगे कहते हैं कि विषयों को छोड़ने से कुछ भी हानि नहीं हैः––
तुसधम्मंतबलेण य जह दव्वं ण हि णराण गच्छेदि।
तवसीलमंत कुसली खवंति विसयं विस व खलं।। २४।।
तुषधमद्बलेन च यथा द्रव्यं न हि नराणां गच्छति।
तपः शीलमंतः कुशलाः क्षिपंते विषयं विषमिव खलं।। २४।।

अर्थः
––जैसे तुषों के चलाने से, उड़ाने से मनुष्य का कुछ द्रव्य नहीं जाता है, वैसे ही
तपस्वी और शीलवान् पुरुष विषयोंको खलकी तरह क्षेपते हैं, दूर फेंक देते हैं।

भावार्थः––जो ज्ञानी तप शील सहित है उनके इन्द्रियों के विषय खल की तरह हैं,
जैसे ईखका रस निकाल लेने के बाद खल–चूसे नीरस हो जाते हैं तब वे फेंक देने योग्य ही
हैं, वैसे ही विषयों को जानना। रस था वह तो ज्ञानियों ने जान लिया तब विषय तो खल के
समान रहे, उनके त्यागने में क्या हानि? अर्थात् कुछ भी नहीं है। उन ज्ञानियों को धन्य है जो
विषयों को ज्ञेयमात्र जानकर आसक्त नहीं होते हैं।

जो आसक्त होते हैं वे तो अज्ञानी ही हैं। क्योंकि विषय तो जड़ पदार्थ है सुख तो
उनको जानने से ज्ञान में ही था, अज्ञानी ने आसक्त होकर विषयों में सुख माना। जैसे श्वान
सूखी हड्डी चबाता है तब हड्डी की नोक मुखके तलवे में चुभती है, इससे तलवा फट जाता
है और उसमें से खून बहने लगता है, तब अज्ञानी श्वान जानता है कि यह रस हड्डी में से
निकला है और उस हड्डी को बार बार चबा कर सुख मानता है; वैसे ही अज्ञानी विषयों में
सुख मानकर बार बार भोगता है, परन्तु ज्ञानियों ने अपने ज्ञान में ही सुख जाना है, उनको
विषयों के त्याग में दुःख नहीं है, ऐसे जानना।। २४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुष दूर करतां जे रीते कंई द्रव्य नरनुं न जाय छे,
तप शीलवंत सुकुशल खल माफक, विषयविषने तजे। २४।

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३८०] [अष्टपाहुड
अर्थः––प्राणी के देह में कई अंग तो वृत्त अर्थात् गोल सुघट प्रशंसा योग्य होते हैं, कई
अंग खंड़ अर्थात् अर्द्ध गोल सदृश प्रशंसा योग्य होते हैं, कई अंग भ्रद्र अर्थात् सरल सीधे
प्रशंसा योग्य होते हैं और कई अंग विशाल अर्थात् विस्तीर्ण चोड़े प्रशंसा योग्य होते हैं,
इसप्रकार सबही अंग यथास्थान शोभा पाते हुए भी अंगों में यह शील नामका अंग ही उत्तम
है, यह न हो तो सबही अंग शोभा नहीं पाते हैं, यह प्रसिद्ध है।
ते सर्व होय सुप्राप्त तो पण शील उत्तम सर्वमां। २५।
आगे कहते हैं कि कोई प्राणी शरीर के अवयव सुन्दर प्राप्त करता है तो भी सब अंगों
में शील ही उत्तम हैः–––
वट्टेसु य खंडेसु य भद्देसु य विसाले सु अंगेसु।
अंगेसु य पप्पेसु य सव्वेसु य उत्तमं शीलं।। २५।।
वृत्तेषु च खंडेषु च भद्रेषु च विशालेषु अंगेषु।
अंगेषु च प्राप्तेषु च सर्वेषु च उत्तमं शीलं।। २५।।

भावार्थः–– लोक में प्राणी सर्वांग सुन्दर हो परन्तु दुःशील हो तो सब लोक द्वारा निंदा
करने योग्य होता है, इसप्रकार लोकमें भी शील ही की शोभा है तो मोक्ष में भी शील ही को
प्रधान कहा है, जितने सम्यग्दर्शनादिक मोक्ष के अंग हैं वे शील ही के परिवार हैं ऐसा पहिले
कह आये हैं।। २५।।
आगे कहते हैं कि जो कुबुद्धि से मूढ़ हो गये हैं वे विषयों में आसक्त हैं कुशील हैं
संसार में भ्रमण करते हैंः–––
पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं।
संसारे भमिदव्यं अरयघरट्टं व भूदेहिं।। २६।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
‘वट्टे’ पाठान्तर
छे भद्र, गोळ, विशाळ ने खंडात्म अंग शरीरमां,

दुर्मतविमोहित विषयलुब्ध जनो ईतरजन साथमां,
अरघट्टिकाना चक्र जेम परिभ्रमे संसारमां। २६।

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शीलपाहुड][३८१
पुरिषेणापि सहितेन कुसमयमूढैः विषयलौलैः।
संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरट्टं इव भूतैः।। २६।।
आत्मनि कर्मग्रन्थिः या बद्धा विषयरागरागैः।

अर्थः
––जो कुसमय अर्थात् कुमत से मूढ़ हैं वे ही अज्ञानी हैं और वे ही विषयों में
लोलुपी हैं–––आसक्त हैं, वे जैसे अरहट में घड़ी भ्रमण करती है वैसे ही संसार में भ्रमण
करते हैं, उनके साथ अन्य पुरुषों के भी संसार में दुःख सहित भ्रमण होता है।

भावार्थः––कुमती विषयासक्त मिथ्यादृष्टि आप तो विषयों को अच्छे मानकर सेवन
करते हैं। कई कुमती ऐसे भी हैं जो इसप्रकार कहते हैं कि सुन्दर विषय सेवन करने से ब्रह्म
प्रसन्न होता है, [–यह तो ब्रह्मानंद है] यह परमेश्वर की बड़ी भक्ति है, ऐसा कह कर
अत्यंत आसक्त होकर सेवन करते हैं। ऐसा ही उपदेश दूसरों को देकर विषयों में लगते हैं, वे
आप तो अरहट की घड़ी की तरह संसार में भ्रमण करते ही हैं, अनेक प्रकार के दुःख भोगते
हैं परन्तु अन्य पु्रुषों को भी उनमें लगा कर भ्रमण कराते हैं, इसलिये यह विषय सेवन दुःख
ही के लिये है, दुःख ही का कारण है, ऐसा जानकर कुमतियों का प्रसंग न करना,
विषयासक्त्पना छोड़ना, इससे सुशीलपना होता है।।२६।।

आगे कहते हैं कि जो कर्म की गांठ विषय–सेवन करके आप ही बांधी है उसको
सत्पुरुष तपश्चरणादि करके आप ही काटते हैंः–––
आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा विसयरागरंगेहिं।
तं छिन्दन्ति कयत्था तवसंजमसीलयगुणेण।। २७।।
तां छिन्दन्ति कृतार्थाः तपः संयमशील गुणे न।। २७।।

अर्थः
––जो विषयों के रागरंग करके आप ही कर्म की गाँठ बाँधी है उसको कृतार्थ
पुरुष [––उत्तम पुरुष] तप संयम शील के द्वारा प्राप्त हुआ जो गुण उसके द्वारा छेदते हैं––
खोलते हैं।

भावार्थः––जो कोई आप गाँठ घुलाकर बाँधे उसको खोलने का विधान भी आप
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ संस्कृत प्रति में – ‘विषयरायमोहेहि’ ऐसा पाठ है, छाया में ‘विषयरागमोहैः’ है।
जे कर्मग्रंथि विषय रागे बद्ध छे आत्मा विषे,
तपचरण–संयम–शीलथी सुकृतार्थ छेदे तेहने। २७।

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३८२] [अष्टपाहुड
ही जाने, जैसे सुनार आदि कारीगर आभूषणादिक की संधि के टाँका ऐसा झाले कि वह संधि
अदृष्ट हो जाय, तब उस संधि को टाँके का झालने वाला ही पहिचान कर खोले, वैसे ही
आत्माने अपने ही रागादिक भावों से कर्मों की गाँठ बांधी है उसको आप ही भेदविज्ञान करके
रागादिकके और आपके जो भेद हैं उस संधि को पहिचान कर तप संयम शीलरूप भावरूप
शस्त्रों के द्वारा कर्म बंध को काटता है, ऐसा जानकर जो कृतार्थ पुरुष है वे अपने प्रयोजन के
करनेवाले हैं, वे इस शीलगुणको अंगीकार करके आत्मा को कर्म से भिन्न करते हैं, यह
परुषार्थ पुरुषों का कार्य है।। २७।।
अर्थः––जैसे समुद्र रत्नों से भरा है तो भी जलसहित शोभा पाता है, वैसे ही यह
आत्मा तप विनय शीलवान इन रत्नोंमें शीलसहित शोभा पाता है, क्योंकि जो शील सहित
हुआ उसने अनुत्तर अर्थात् जिससे आगे और नहीं है ऐसे निर्वाणपद को प्राप्त किया।

आगे जो शील के द्वारा आत्मा शोभा पाता है उसको दृष्टांत द्वारा दिखाते हैः––
उदधी व रदणभरिदो तवविणयंसीलदाणरयणाणं।
सोहेंतो य ससीलो णिव्वाणमणुत्तरं पत्तो।। २८।।
उदधिरिव रत्नभृतः तपोविनयशीलदानरत्नानाम्।
शोभते च सशीलः निर्वाणमनुत्तरं प्राप्तः।। २८।।
भावार्थः––जैसे समुद्र में रत्न बहुत हैं तो भी जल ही से ‘समुद्र’ नामको प्राप्त करता
है, वैसे ही आत्मा अन्य गुणसहित हो तो भी शीलसे ही निर्वाणपद को प्राप्त करता है, ऐसा
जानना।। २८।।

आगे जो शीलवान पुरुष हैं वे ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं यह प्रसिद्ध करके दिखाते हैंः
सुणहाण गद्दहाण य गोवसुमहिलाण दीसदे मोक्खो।
जे सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं।। २९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तप–दान–शील–सुविनय–रत्नसमूह सह जलधि समो,
सोहंत जीव सशील पामे श्रेष्ठ शिवपदने अहो! २८।

देखाय छे शुं मोक्ष स्त्री–पशु–गाय–गर्दभ–श्वाननो?
जे तुर्यने साधे लहे छे मोक्ष; देखे सौ जनो। २९।

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शीलपाहुड][३८३
शुनां गर्दभानां च गोपशुमहिलानां द्रश्यते मोक्षः।
ये शोधयंति चतुर्थं द्रश्यतां जनैः सर्वैंः।। २९।।

अर्थः
––आचार्य कहते हैं कि––यह सब लोग देखो––श्वान, गर्दभ इनमें और गौ आदि
पशु तथा स्त्री इनमें किसी का मोक्ष होना दिखता है? वह तो दिखता नहीं है। मोक्ष तो चौथा
पुरुषार्थ है, इसलिये जो चतुर्थ परुषार्थ को शोधते हैं उन्ही के मोक्ष का होना देखा जाता है।

भावार्थः––धर्म अर्थ काम मोक्ष ये चार पुरुष के ही प्रयोजन कहे हैं यह प्रसिद्ध है, इसी
से इनका नाम पुरुषार्थ है ऐसा प्रसिद्ध है। इनमें चौथा पुरुषार्थ मोक्ष है, उसको पुरुष ही
शोधते हैं और पुरुष ही उसको हेरते हैं–––उसकी सिद्ध करते है,ं अन्य अन्य श्वान गर्दभ
बैल पशु स्त्री इनके मोक्ष का शोधना प्रसिद्ध नहीं है, जो हो तो मोक्ष का पुरुषार्थ ऐसा नाम
क्यों हो? यहाँ आशय ऐसा है कि मोक्ष शील से होता है, और श्वान गर्दभ आदिक हैं वे तो
अज्ञानी हैं कुशील हैं, उनका स्वभाव प्रकृति ही ऐसी है कि पलट कर मोक्ष होने योग्य तथा
उसके शोधने योग्य नहीं हैं, इसलिये पुरुष को मोक्ष का साधन शील को जानकर अंगीकार
करना, सम्यग्दर्शनादिक है वह तो शील ही के परिवार पहिले कहे ही हैं इसप्रकार जानना
चाहिये।। २९।।

आगे कहते हैं कि शील के बिना ज्ञान ही से मोक्ष नहीं है, इसका उदाहरण कहते हैंः–
––
जइ विसयलोलएहिं णाणीहि हव्विज्ज साहिदो मोक्खो।
तो सो सच्चइपुत्तो दसपुव्वीओविकिं गदो णरयं।। ३०।।
यदि विषयलोलैः ज्ञानिभिः भवेत् साधितः मोक्षः।
वर्हि सः सात्यकिपुत्रः दशपूर्विकः किं गतः नरकं।। ३०।।

अर्थः
––जो विषयों में लोल अर्थात् लोलुपी – आसक्त और ज्ञानसहित ऐसे ज्ञानियों ने
मोक्ष साधा हो तो दश पूर्वको जाननेवाला रुद्र नरक को क्यों गया?

भावार्थः–– शुष्क कोरे ज्ञान ही से मोक्ष किसीने साधा कहें तो दश पूर्वका पाठी रुद्र
नरक क्यों गया? इसलिये शील के बिना केवल ज्ञान ही मोक्ष नहीं है रुद्र कुशील सेवन
करनेवाला हुआ, मुनिपद से भ्रष्ट होकर कुशील सेवन किया इसलिये नरक में गया, यस कथा
पुराणों में प्रसिद्ध है।। ३०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जो मोक्ष साधित होत विषयविलुब्ध ज्ञानधरो वडे,
दशपूर्वधर पण सात्यकिसुत केम पामत नरक ने? ३०।

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३८४] [अष्टपाहुड
अर्थः––जो शील के बिना ज्ञान ही से विसोह अर्थात् विशुद्धभाव पंडितों ने कहा हो तो
दश पूर्वको जानने वाला जो रुद्र उसका भाव निर्मल क्यों नहीं हुआ, इसलिये ज्ञात होता है
कि भाव निर्मल शील से होते हैं।
भावार्थः––कोरा ज्ञान तो ज्ञेय को ही बताता है इसलिये वह मिथ्यात्व कषाय होने पर
विपर्यय हो जाता है, अतः मिथ्यात्व कषाय का मिटना ही शील है, इसप्रकार शीलके बिना
ज्ञान ही से मोक्ष की सिद्धि होती नहीं, शील के बिना मुनि भी हो जाय तो भ्रष्ट हो जाता है।
इसलिये शील को प्रधान जानना।। ३१।।
दशपूर्वधरनो भाव केम थयो नहीं निर्मळ अरे? ३१।
आगे कहते हैं कि शील के बिना ज्ञान ही से भाव की शुद्धता नहीं होती हैः–––
जइ णाणेण विसोही सीलेण विणा बुहेहिं णिद्दिट्ठो।
दसपुव्वियरस भावो य ण किं पुणु णिम्मलो जादो।। ३१।।
यदि ज्ञानेन विशुद्धः शीलेन विना बुधैर्निर्दिष्टः।
दशपूर्विकस्य भावः च न किं पुनः निर्मलः जातः।। ३१।।

आगे कहते हैं कि यदि नरक में भी शील हो जाय और विषयों से विरक्त हो जाय तो
वहाँ से निकल कर तीर्थंकर पद को प्राप्त होता हैः–––
जाए विसयविरत्तो सो गमयदि णरयवेयणा पउरा।
ता लेहदि अरुहपयं भणियंजिणवड्ढमाणेण।। ३२।।
यः विषयविरक्तः सः गमयति नरकवेदनाः प्रचुराः।
तत् लभते अर्हतादं भणितं जिनवर्द्धमानेव।। ३२।।

अर्थः
––विषयों से विरक्त है सो जीव नरक की बहुत वेदना को भी गँचाता है––वहाँ
भी अति दुःखी नहीं होता और वहाँ से निकल कर तीर्थंकर होता है ऐसा जिन वर्द्धमान
भगवान् ने कहा है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जो शील विण बस ज्ञानथी कही होय शुद्धि ज्ञानीए,

विषये विरक्त करे सुसह अति–उग्र नारकवेदना,
ने पामता अर्हंतपदः– वीरे कह्युं जिनमार्गमां। ३२।

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शीलपाहुड][३८५
आगे इस कथन का संकोच करते हैंः–––
भावार्थः––जिनसिद्धांत में ऐसे कहा है कि––तीसरी पृथ्वी से निकलकर तीर्थंकर होता
है वह यह भी शील ही का महात्म्य है। वहाँ सम्यक्त्वसहित होकर विषयों से विरक्त हुआ
भली भावना भावे तब नरक–वेदना भी अल्प हो जाती है और वहाँ से निकलकर अरहंतपद
प्राप्त करके मोक्ष पाता है, ऐसा विषयों से विरक्तभाव वह शीलका ही महात्म्य जानो। सिद्धांत
में इस प्रकार का कहा है कि सम्यग्दृष्टि के ज्ञान और वैराग्य की शक्ति नियम से होती है,
वह वैराग्यशक्ति है वही शील का एकदेश है इसप्रकार जानना।। ३२।।
एवं बहुप्पयारं जिणेहि पच्चक्खणाण दरसीहिं।
सीलेण य मोक्खपयं अक्खातीदं य लोयणाणेहिं।। ३३।।
एवं बहुप्रकारं जिनैः प्रत्यक्ष ज्ञानदर्शिभिः।
शीलेन च मोक्षपदं अक्षातीतं च लोकज्ञानैः।। ३३।।

अर्थः
––एवं अर्थात् पूर्वोक्त प्रकार तथा अन्य प्रकार [–बहुत प्रकार] जिनके प्रत्यक्ष
ज्ञान–दर्शन पाये जाते हैं और जिनके लोक–अलोक का ज्ञान है ऐसे जिनदेव ने कहा है कि
शील से अक्षातीत–––जिनमें इन्द्रियरहित अतीन्द्रिय ज्ञान सुख है ऐसा मोक्षपद होता है।
भावार्थः–––सर्वज्ञदेवने इसप्रकार कहा है कि शीलसे अतीन्द्रिय ज्ञान सुखरूप मोक्षपद
प्राप्त होता है वह भव्यजीव इस शीलको अंगीकार करों, ऐसा उपदेश का आशय सूचित होता
है; बहुत कहाँ तक कहें इतना ही बहुत प्रकार से कहा जानो।।३३।।

आगे कहते हैं कि इस शील से निर्वाण होता है, उसका बहुत प्रकार से वर्णन है वह
कैसे?ः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अत्यक्ष–शिवपद प्राप्ति आम घणा प्रकारे शीलथी
प्रत्यक्ष दर्शनज्ञानधर लोकज्ञ जिनदेवे कही। ३३।

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३८६] [अष्टपाहुड
भावार्थः––यहाँ सम्यक्त्व आदि पँच आचार तो अग्निस्थानीय हैं और आत्मा के
त्रैकालिक शुद्ध स्वभाव को शील कहते हैं, यह आत्मा का स्वभाव पवनस्थानीय है, वह पँच
आचाररूप अग्नि और शीलरूपी पवन की सहायता पाकर पुरातन कर्मबंध को दग्ध करके
आत्मा को शुद्ध करता है, इसप्रकार शील ही प्रधान है। पाँच आचारों में चारित्र कहा है और
यहाँ सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना।। ३४।।
सम्यक्त्व–दर्शन–ज्ञान–तप–वीर्याचरण आत्मा विषे,
सम्मत्तणाण दंसण तववीरयि पंचयारमप्पाणं।
जलणो वि पवण सहिदो डहंति पोरायणं कम्मं।। ३४।।
सम्यक्त्वज्ञानदर्शनतपोवीर्यपंचाचाराः आत्मनाम्।
ज्वलनोऽपि पवनसहितः दहंति पुरातनं कर्म।। ३४।।

अर्थः
––सम्यक्त्व–ज्ञान–दर्शन–वीर्य ये पँच आचार है वे आत्मा का आश्रय पाकर
पुरातन कर्मोंको वैसे ही दग्ध करते हैं जैसे कि पवन सहित अग्नि पुराने सुखे ईंधन को दग्ध
कर देती है।

आगे कहते हैं कि ऐसे अष्ट कर्मोंको जिनने दग्ध किये वे सिद्ध हुए हैंः–––
णिद्दड्ढ अट्ठकम्मा विसयविरत्ता जिदिंदिया धीरा।
तवविणयशीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता।। ३५।।
निर्दग्धाष्टकर्माणः विषयविरक्ता जितेंद्रिया धीराः।
तपोविनयशील सहिताः सिद्धाः सिद्धिं गतिं प्राप्ताः।। ३५।।

अर्थः
––जिन पुरुषों ने इन्द्रियोंको जीत लिया है इसी से विषयों से विरक्त हो गये हैं,
और धीर हैं, परिषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं, तप विनय शीलसहित हैं वे
अष्ट कर्मों को दूर करके सिद्धगति जो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पवने सहित पावक समान, दहे पुरातन कर्मने। ३४।

विजितेन्द्रि विषय विरक्त थई, धरीने विनय–तप–शीलने,
धीरा दही वसु कर्म, शीवगतिप्राप्त सिद्ध प्रभु बने। ३५।

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शीलपाहुड][३८७
भावार्थः––ऐसे मुनि के गुण लोक में विस्तार को प्राप्त होते हैं, सर्व लोक के प्रशंसा
योग्य होते हैं, यहाँ भी शील ही कि महिमा जानना और वृक्ष का स्वरूप कहा, जैसे वृक्ष के
शाखा, पत्र, पुष्प, फल सुन्दर हों और छायादि करके रागद्वेष रहित सब लोकका समान
उपकार करे उस वृक्ष की महिमा सब लोग करते हैं; ऐसे ही मुनि भी ऐसा हो तो सबके द्वारा
महिमा करने योग्य होता है।। ३६।।
आगे कहते हैं कि जो ऐसा हो वह जिनमार्ग में रत्नत्रय की प्राप्तिरूप बोधि को प्राप्त
होता हैः–––
ते शीलधर छे, छे महात्मा लोकमां गुण विस्तरे। ३६।
भावार्थः–––यहाँ भी जितेन्द्रिय और विषयविरक्तता ये विशेषण शील ही की प्रधानता
दिखाते हैं।। ३५।।

आगे कहते हैं कि जो लावण्य और शील युक्त हैं वे मुनि प्रशंसा योग्य होते हैंः––
लावण्णसील कुसलो जम्ममहीरुहोजस्स सवणस्स।
सो सीलो स महप्पा भमिज्ज गुणवित्थरं भविए।। ३६।।
लावण्यशीलकुशलः जन्ममही रुहः यस्य श्रमणस्य।
सः शीलः स महात्मा भ्रमेत गुणविस्तारः भव्ये।। ३६।।

अर्थः
––जिस मुनि का जन्मरूप वृक्ष लावण्य अर्थात् अन्य को प्रिय लगता है ऐसे सर्व
अंग सुन्दर तथा मन वचन काय की चेष्टा सुन्दर और शील अर्थात् अंतरंग मिथ्यात्व विषय
रहित परोपकारी स्वभाव, इन दोनों में प्रवीण निपुण हो वह शीलवान् है महात्मा है उसके
गुणोंका विस्तार लोकमें भ्रमता है, फैलता है।
णाणं झाणं जोगो दंसणसुद्धीय वीरयायत्तं।
सम्मत्तदंसणेण य लहंति जिणसासणे बोहिं।। ३७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ – मुद्रित सं० प्रतिमें ‘वीरियावत्तं’ ऐसा पाठ है जिकी छाया ‘वीर्यत्व’ है।
जे श्रमण केरुं जन्मतरु लावण्य–शील समृद्ध छे,

जे श्रमण केरुं जन्मतरु लावण्य–शील समृद्ध छे,
ते शीलधर छे, छे महात्मा लोकमां गुण विस्तरे। ३६।

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३८८] [अष्टपाहुड
भावार्थः––ज्ञान अर्थात् पदाथोक्ष् को विशेषरूप से जानना, ध्यान अर्थात् ‘स्वरूप में’
एकाग्रचित्त होना, योग अर्थात् समाधि लगाना, सम्यग्दर्शन को निरतिचार शुद्ध करना ये तो
अपने वीर्य [शक्ति] के आधीन है, जिना बने उतना हो परन्तु सम्यग्दर्शन से बोधि अर्थात्
रत्नत्रय की प्राप्ति होती है, इसके होने पर विशेष ध्यानादिक भी यथाशक्ति होते ही हैं और
इससे शक्ति भी बढ़ती है। ऐसे कहने में भी शील ही का महात्म्य जानना, रत्नत्रय है वही
आत्मा का स्वभाव है, उसको शील भी कहते हैं।।३७।।
ज्ञानं ध्यानं योगः दर्शन शुद्धिश्च वीर्यायत्ताः।
सम्यक्त्वदर्शनेन च लभन्ते जिनशासने बोधिं।। ३७।।

अर्थः
––ज्ञान, ध्यान, योग, दर्शन की शुद्धता ये तो वीर्य के आधीन हैं और सम्यग्दर्शन
से जिनशासन में बोधि को प्राप्त करते हैं, रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है।
आगे कहते हैं कि यह प्राप्ति जिनवचन से होती हैः–––
जिणवचणगहिदसारा विसयविरत्ता तावोधणा धीरा।
सील सलिलेण ण्हादा ते सिद्धालय सुहं जंति।। ३८।।
जिनवचनगृहीतसारा विषयविरक्ताः तपोधना धीराः।
शील सलिलेन स्नाताः ते सिद्धालय सुखं यांति।। ३८।।
अर्थः––जिनने जिनवचनों से सार को ग्रहण कर लिया और विषयों से विरक्त हो गये
हैं, जिनके तप ही धन है तथा धीर हैं ऐसे होकर मुनि शीलरूप जलसे स्नानकर शुद्ध हुए हैं
वे सिद्धालय जो सिद्धोंके रहने का स्थान है उसके सुखों को प्राप्त होते हैं।
भावार्थः––जो जिनवचन के द्वारा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानकर उसका सार जो
अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति उसका ग्रहण करते हैं वे इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर तप
अंगीकार करते हैं–––मुनि होते हैं, धीर वीर बन कर परिषह उपर्सग आने पर भी चलायमान
नहीं होते है तब शील जो स्वरूप की प्राप्ति की पूर्णतारूप चौरासी लाख उत्तरगुण की पूर्णता
वही हुआ निर्मल जल उससे स्नान करके सब कर्ममल को धोकर सिद्ध हुए, वह मोक्ष मंदिरमें
रहकर वहाँ परमानन्द अविनाशी अतीन्द्रिय अव्याबाध सुख को भोगते हैं, यह शीलका महात्म्य
है। ऐसा शील जिनवचन
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जिनवचननो ग्रही सार, विषयविरक्त धीर तपोधनो,
करी स्नान शीलसलिलथी, सुख सिद्धिनुं पामे अहो! ३८।

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शीलपाहुड][३८९
से प्राप्त होता है, जिनागम का निरन्तर अभ्यास करना उत्तम है।। ३८।।

आगे अंतसमय में संल्लेखना कही है, उसमें दर्शन ज्ञान चारित्र तप इन चार आराधना
का उपदेश है ये भी शील ही से प्रगट होते हैं, उसको प्रगट करके कहते हैंः––
सव्वगुण खीणकम्मा सुहदुक्खविवज्जिदा मणविसुद्धा।
पप्फोडियकम्मरवा हवंति आराहणापयडा।। ३९।।
सर्वगुणक्षीणकर्माणः सुखदुःखविवर्जिताः मनोविशुद्धः।
प्रस्फोटितकर्मरजसः भवंति आराधनाप्रकटाः।। ३९।।

अर्थः
––सर्वगुण जो मूलगुण उत्तरगुणों से जिसमें कर्म क्षीण हो गये हैं, सुख–दुःख से
रहित हैं, जिनमें मन विशुद्ध है और जिसमें कर्मरूप रज को उड़ा दी है ऐसी अराधना प्रगट
होती र्है।

भावार्थः––पहिले तो सम्यग्दर्शन सहित मूलगुण उत्तरगुणों के द्वारा कर्मोंकी निर्जरा
होने से कर्म की स्थिति अनुभाग क्षीण होती है, पीछे विषयों के द्वारा कुछ सुख–दुःख होता था
उससे रहित होता है, पीछे ध्यान में स्थित होकर श्रेणी चढ़े तब उपयोग विशुद्ध हो, कषायों
का उदय अव्यक्त हो तब सुख–दुःख की वेदना मिटे, पीछे मन विशुद्ध होकर क्षयोपशम
ज्ञानके द्वारा कुछ ज्ञेय से ज्ञेयान्तर होनेका विकल्प होता है वह मिटकर एकत्ववितर्क अविचार
नामका शुक्लध्यान बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है यह मनका विकल्प मिटकर विशुद्ध
होना है।

पीछे घातिकर्म का नाश होकर अनन्त चतुष्टय प्रगट होते हैं वह कर्मरज का उड़ना है,
इसप्रकार आराधना की सम्पूर्णता प्रगट होना है। जो चरम शरीरी हैं उनके तो इसप्रकार
आराधना प्रगट होकर मुक्ति की प्राप्ति होती है। अन्यके आराधना का एक देश होता है अंत में
उसका आराधन करके स्वर्ग प्राप्त होता है, वहाँ सागरो पर्यन्त सुख भोग वहाँ से चय कर
मनुष्य हो आराधन को संपूर्ण करके मोक्ष प्राप्त होता है, इसप्रकार जानना, यह जिनवचन का
और शील का महात्म्य है।। ३९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आराधनापरिणत सरव गुणथी करे कृश कर्मने,
सुखदुःख रहित मनशुद्ध ते क्षेपे करमरूप धूलने। ३९।

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३९०] [अष्टपाहुड
आगे ग्रंथको पूर्ण करते हैं वहाँ ऐसे कहते हैं कि ज्ञान से सर्व सिद्धि है यह सर्वजन
प्रसिद्ध है, वह ज्ञान तो ऐसा हो उसको कहते हैंः–––
अरहन्ते सुहभत्ती सम्मत्तं दंसणेण सुविसुद्धं।
सीलं विसयविरागो णाणं पुणकेरिसं भणियं।। ४०।।
अर्हति शुभभक्तिः सम्यक्त्वं दर्शनेन सुविशुद्धं।
शीलं विषयविरागः ज्ञानं पुनः कीद्रशं भणितं।। ४०।।

अर्थः
––अरहंतों में शुभ भक्ति का होना सम्यक्त्व है, वह कैसा है? सम्यग्दर्शन से
विशुद्ध है तत्त्वार्थों का निश्चय–व्यवहारस्वरूप श्रद्धान और बाह्य जिनमुद्रा नग्न दिगम्बररूप का
धारण तथा उसका श्रद्धान ऐसा दर्शन से विशुद्ध अतीचार रहित निर्मल है ऐसा तो अरहंत
भक्तिरूप सम्यक्त्व है, विषयों से विरक्त होना शील है और ज्ञान भी यही है तथा इससे भिन्न
ज्ञान कैसा कहा है? सम्यक्त्व शील बिना तो ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप अज्ञान है।

भावार्थः––यह सब मतों में प्रसिद्ध है कि ज्ञान से सर्वसिद्धि है और ज्ञान शास्त्रों से
होता है। आचार्य कहते हैं कि–––हम तो ज्ञान उसको कहते हैं जो सम्यक्त्व और शील
सहित हो, ऐसा जिन मार्ग में कहा है, इससे भिन्न ज्ञान कैसा है? इससे भिन्न ज्ञान को तो
हम ज्ञान नहीं कहते हैं, इनके बिना तो वह अज्ञान ही है और सम्यक्त्व व शील हो वह
जिनागम से होते हैं। वहाँ जिसके द्वारा सम्यक्त्व शील हुए और उसकी भक्ति न हो तो
सम्यक्त्व कैसे कहा जावे, जिके वचन द्वारा यह प्राप्त किया जाता है उसकी भक्ति हो तब
जाने कि इसके श्रद्धा हुई और जब सम्यक्त्व हो तब विषयों से विरक्त होय ही हो, यदि
विरक्त न हो तो संसार और मोक्ष का स्वरूप क्या जाना? इसप्रकार सम्यक्त्व शील के संबंध
से ज्ञान की तथा शास्त्र की महिमा है। ऐसे यह जिनागम है सो संसार में निवृत्ति करके मोक्ष
प्राप्त कराने वाला है, वह जयवंत हो। यह सम्यक्त्व सहित ज्ञान की महिमा है वही अंतमंगल
जानना।। ४०।।

इसप्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत शीलपाहुड ग्रंथ समाप्त हुआ।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
अर्हंतमां शुभ भक्ति श्रद्धा शुद्धियुत सम्यक्त्व छे,
ने शील विषय विरागता छे; ज्ञान बीजुं कयुं हवे? ४०।

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शीलपाहुड][३९१
इसका संक्षेप तो कहते आये कि–––शील नाम स्वभाव का है। आत्माका स्वभाव शुद्ध
ज्ञान दर्शमयी चेतनास्वरूप है वह अनादि कर्म के संयोग से विभावरूप परिणमता है। इसके
विशेष मिथ्यात्व, कषाय आदि अनेक हैं इनको रागद्वेष मोह भी कहते हैं, इनके भेद संक्षेप से
चौरासी लाख किये हैं, विस्तार से असंख्यात अनंत होते हैं इनको कुशील कहते हैं। इनके
अभावरूप संक्षेप से चौरासी लाख उत्तरगुण हैं, इन्हें शील कहते हैं, यह तो सामान्य परद्रव्य
के संबंध की अपेक्षा शील–कुशील का अर्थ है और प्रसिद्ध व्यवहार की अपेक्षा स्त्री के संग की
अपेक्षा कुशील के अठारह हजार भेद कहें हैं, इनका अभाव शील के अठारह हजार भेद हैं,
इनको जिनागम से जानकर पालना। लोक में भी शील की महिमा प्रसिद्ध है, जो पालते हैं
स्वर्ग–मोक्ष के सुख पाते हैं, उनको हमारा नमस्कार है वे हमारे भी शील की प्राप्ति करो, यह
प्रार्थना है।
छप्पय
आन वस्तु के संग राचि जिनभाव भंग करि;
वरतै ताहि कुशीलभाव भाखे कुरंग धरि!
ताहि तजैं मुनिराय पाप निज शुद्धरूप जल;
धोय कर्मरज होय सिद्धि पावै सुख अविचल।।
यह निश्चय शील सुब्रह्ममय व्यवहारै तिय तज नमै।
जो पालै सबविधि तिनि नमूं पाउं जिन भव न जनम मैं।।
दोहा
नमूं पंचपद ब्रह्ममय मंगलरूप अनूप।
उत्तम शरण सदा लहूं फिरि न परूं भवकूप।। २।।
इति श्री कुन्दकुन्दाचार्यस्वामिप्रणीत शीलप्रभृत की जयपुर निवासी
पं० जयचन्द्रजी छाबड़ाकृत देशभाषामय वचनिका का
हिन्दी भाषानुवाद समाप्त।। ८।।

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३९२] [अष्टपाहुड
वचनिकाकार की प्रशस्ति

इसप्रकार श्री कुन्दकुन्द आचार्यकृत गाथाबद्ध पाहुडग्रंथ है, इसमें ये पाहुड हैं, इनकी
यह देशभाषावचनिका लिखी है। छह पाहुड की तो टीका टिप्पण है। इनमें टीका तो श्रुतसागर
कृत है और टिप्पण पहिले किसी ओर ने किया है। इनमें कइ गाथा तथा अर्थ अन्य प्रकार हैं,
मेरे विचार में आया उनका आश्रय भी लिया है ऐार जैसा अर्थ मुझे प्रतिभाषित हुआ वैसा
लिखा है। लिंगपाहुड और शीलपाहुड इन दोनों पाहुड की टीका टिप्पण मिली नहीं इसलिये
गाथाका अर्थ जैसा प्रति भास में आया वैसा लिखा है।
श्री श्रुतसागरकृत टीका अष्टपाहुड की है, उसमें ग्रन्थान्तर की साक्षी आदि कथन बहुत
है वह उस टीका की वचनिका नहीं है, गाथा का अर्थमात्र वचनिका कर भावार्थ में मेरी
प्रतिभासमें आया उसके अनुसार अर्थ लिखा है। प्राकृत व्याकरणाादि का ज्ञान मेरे में विशेष
नहीं है इसलिये कहीं व्याकरण से तथा आगम से शब्द और अर्थ अपभ्रंश हुआ होतो बुद्धिमान
पंडित मूलग्रंथ विचार कर शुद्ध करके पढ़ना, मुझे अल्पबुद्धि जानकर हँसी मत करना, क्षमा
करना, सत्पुरुषों का स्वभाव उत्तम होता है, दोष देखकर क्षमा ही करते हैं।

यहाँ कोई कहे–––तुम्हारी बुद्धि अल्प है तो ऐसे महान ग्रन्थ की वचनिका क्यों की?
उसको ऐसा कहना कि इसकाल में मेरे से भी मंस बुद्धि बहुत हैं, उनके समझने के लिये की
है। इसमें सम्यग्दर्शन को दृढ़ करने का प्रधान रूप से वर्णन है, इसलिये अल्प बुद्धि भी वाँचे
पढ़ें अर्थ का धारण करें तो उनके जिनमत का श्रद्धान दृढ़ हो। यह प्रयोजन जानकर जैसा
अर्थ प्रतिभास में आया वैसा लिखा है ओर जो बड़े बुद्धिमान हैं वे मूल ग्रन्थ को पढ़ कर ही
श्रद्धान दृढ़ करेंगे, मेरे कोई ख्याति लाभ पूजा का तो प्रयोजन है नहीं, धर्मानुराग से यह
वचनिका लिखी है, इसलिये बुद्धिमानों के क्षमा ही करने योग्य है।
इस ग्रन्थ के गाथा की संख्या ऐसे है–––प्रथम दर्शनपाहुड की गाथा ३६। सूत्रपाहुडकी
गाथा २७। चारित्रपाहुड की गाथा ४५। बोधपाहुडकी गाथा ६१। भावपाहुडकी गाथा १६५।
मोक्षपाहुडकी गाथा १०६। लिंगपाहुडकी गाथा २२। शीलपाहुडकी गाथा ४०। ऐसे पाहुड आठोंकी
गाथाकी संख्या ४०२ हैं।

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शीलपाहुड][३९३
जिनदर्शन निर्ग्रंथरूप तत्त्वारथ धारन,
धरि शील स्वभाव संवारनां आठ पाहुडका फल सुजय।।
छप्पन
सूनरजिनके वचन सार चारित व्रत पारन।
बोधजैन का जांनि आनका सरन निवारन,
भाव आत्मा बुद्ध मांनि भावन शिव कारन।
फुनि मोक्ष कर्मका नाश है लिंग सुधारन तजि कुनय।
दोहा
भई वचनिका यह जहाँ सुनो तास संक्षेप।
भव्यजीव संगति भली मेटै कुकरमलेप।। २।।

जयपुर पुर सुवस वसै तहाँ राज जगतेश।
लाके न्याय प्रतापतैं सुखी ढुढ्राहर देश।। ३।।

जैनधर्म जयवंत जग किछु जयपुरमैं लेश।
तामधि जिनमंदिर घणे तिनको भलो निवेश।। ४।।

तिनिमैं तेरापंथको मंदिर सुन्दर एव।
धर्मध्यान तामैं सदा जैनी करै सुसेव।। ५।।

पंडित तिनिमैं बहुत हैं मैं भी इक जयचंद।
र्प्रेया सबकै मन कियो करन वचनिका मंद।। ६।।

कुन्दकुन्द मुनिराजकृत प्राकृत गाथासार।
पाहुड अष्ट उदार लखि करी वचनिका तार।। ७।।
इहाँ जिते पंडित हुते तिनिनैं सोधी येह।
अक्षर अर्थ सु वांचि पढ़ि नहिं राखयो संदेह।। ८।।

तौऊ कछू प्रमादतैं बुद्धि मंद परभाव।
हीनाधिक कछु अर्थ ह्वै सोधो बुध सतभाव।। ९।।

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३९४] [अष्टपाहुड
मंगलरूप जिनेन्द्रकूं नमस्कार मम होहु।
विध्न टलै शुभबंध ह्वै यह कारन है मोहु।। १०।।

संवत्सर दस आठ सत सतसठि विक्रमताय।
मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय।। ११।।
इति वचनिकाकार प्रशस्ति।
जयतु जिनशासनम्।
शुभमिति।
समाप्त ॐ