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मायारूप अवस्तु है ऐसा मानते हैं। कई नैयायिक, वैशेषिक जीव को सर्वथा नित्य सर्वगत
कहते हैं, जीवके और ज्ञानगुण के सर्वथा भेद मानते हैं और अन्य कार्यमात्र है उनको ईश्वर
करात है इसप्रकार मानते हैं। कई सांख्यमती पुरुषको उदासीन चैतन्यरूप मानकर सर्वथा
अकर्ता मानते हैं ज्ञानको प्रधान का धर्म मानते हैं।
हैं। मीमांसक कर्मकांडमात्र ही तत्त्व मानते हैं, जीवको अणुमात्र मानते हैं तो भी कुछ परमार्थ
नित्य वस्तु नहीं है––इत्यादि मानते हैं, पंचभूतों से जीवकी उत्पत्ति मानते हैं।
इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने ही वस्तुका पूर्णरूप देखा है वही कहा है। यह प्रमाण और नयोंके
द्वारा अनेकान्तरूप सिद्ध होता है। इनकी चर्चा हेतुवाद के जैनके न्याय–शस्त्रोंसे जानी जाती
है, इसलिये यह उपदेश है––जिनमतमें जीवाजीवका स्वरूप सत्यार्थ कहा है उसको जानना
सम्यग्ज्ञान है, इसप्रकार जानकर जिनदेवकी आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञानको अंगीकार करना,
इसीसे सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होती है, ऐसे जानना।। ४१।।
तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं।। ४२।।
तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः।। ४२।।
अर्थः––योगी ध्यानी मुनि उस पूर्वोक्त जीवाजीवके भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञानको
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निर्विकल्प है अर्थात् प्रवृत्तिरूपक्रियाके विकल्पोंसे रहित है वह चारित्र घातिकर्मसे रहित ऐसे
सर्वज्ञदेवने कहा है।
क्रियाओं में जितने अंश निवृत्ति है [अर्थात् उसीसमय स्वाश्रयरूप आंशिक निश्चय वीतराग भाव
है] उसका फल बंध नहीं है, उसका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है। सब कर्मोंसे रहित अपने
आत्मस्वरूपमें लीन होना वह निश्चयचारित्र है, इसका फल कर्मका नाश ही है, यह पुण्य–
पापके परिहाररूप निर्विकल्प है। पापका तो त्याग मुनिके है ही और पुण्य का त्याग इसप्रकार
है–––
शुभक्रिया का फल पुण्यकर्मका बंध है उसकी वांछा नहीं है, बंधके नाश का उपाय
निर्विकल्प निश्चयचारित्र का प्रधान उद्यम है। इसप्रकार यहाँ निर्विकल्प अर्थात् पुण्य–पापसे
रहित ऐसा निश्चयचार्रित्र कहा है। चौदहवें गुणस्थानके अंतसमयमें पूर्ण चारित्र होता है, उससे
लगता ही मोक्ष होता है ऐसा सिद्धांत है।। ४२।।
सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं।। ४३।।
सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम्।। ४३।।
अर्थः––जो मुनि रत्नत्रयसंयुक्त होता हुआ संयमी बनकर अपनी शक्तिके अनुसार तप
करता है वह शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद निवार्णको प्राप्त करता है।
निश्चयचारित्र युक्त होकर अपनी शक्तिके अनुसार उपवास,
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करके ध्यान करता हुआ निर्वाणको प्राप्त करता है।। ४३।।
[नोंध–––जो छठवें गुणस्थानके योग्य स्वाश्रयरूप निश्चयरत्नत्रय सहित है उसीके व्यवहार
संयम–व्रतादिक को व्यवहारचारित्र माना है।]
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४४।।
द्वि दोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी।। ४४।।
अर्थः––‘त्रिभिः’ मन वचन कायसे, ‘त्रीन्’ वर्षा, शीत, उष्ण तीन कालयोगों को धारण
कर,‘त्रिकरहित’ माया, मिथ्या, निदान तीन शल्योंसे रहित होकर,‘त्रिकेण परिकरितः’ दर्शन,
ज्ञान, चारित्र से मंडित होकर और ‘द्विदोषविप्रमुक्तः’ दो दोष अर्थात् राग–द्वेष इनसे रहित
होता हुआ योगी ध्यानी मुनि है, वह परमात्मा अर्थात् सर्वकर्म रहित शुद्ध परमात्मा उनका ध्यान
करता है।
जाये तब ध्यान की सिद्धि कैसी? कोई प्रकार का चित्त में शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं
होता तब ध्यान कैसे हो? इसलिये शल्य रहित कहा; श्रद्धान, ज्ञान आचरण यथार्थ न हो तब
ध्यान कैसे हो? इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग–द्वेष, इष्ट–अनिष्ट बद्धि
रहे तब ध्यान कैसे हो? इसलिये परमात्मा का ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पर्य
है।। ४४।।
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णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं।। ४५।।
निर्मलस्वभावयुक्तः सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम्।। ४५।।
अर्थः––जो जीव मद, माया, क्रोध इनसे रहित हो और लोभसे विशेषरूपसे रहित हो
वह जीव निर्मल विशुद्ध स्वभावयुक्त होकर उत्तम सुखको प्राप्त करता है।
आकुलतायुक्त होकर निरन्तर दुःखी रहता है। अतः यही रीति मोक्षमार्ग में भी जानो–जो क्रोध,
मान, माया, लोभ चार कषायोंसे रहित होता है तब निर्मल भाव होते हैं और तब ही
यथाख्यातचारित्र पाकर उत्तम सुखको प्राप्त करता है।। ४५।।
सकताः–––
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो।। ४६।।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः।। ४६।।
अर्थः––जो जीव विषय–कषायपंसे युक्त है, रौद्रपरिणामी है, हिंसादिक विषय–
कषायदिक पापों में हर्ष सहित प्रवृत्ति करता है और जिसका चित्त परमात्माकी भावना से रहित
है, ऐसा जीव जिनमुद्रा से पराङमुख है वह ऐसे सिद्धिसुखको मोक्षके सुखको प्राप्त नहीं कर
सकता।
निर्मळ स्वभावे परिणमे, ते सौख्य उत्तमने लहे। ४५।
परमात्मभावनहीन रूद्र, कषायविषये युक्त जे,
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वह मोक्षको प्राप्त कर सकता है, इसलिये जिनमत की मुद्रा से जो पराङमुख है उसको मोक्ष
कैसे हो? वह तो संसार में ही भ्रमण करता है। यहाँ रुद्रका विशेषण दिया है उसका ऐसा भी
आशय है कि रुद्र ग्यारह होते हैं, ये विषय–कषायों में आसक्त हो कर जिनमुद्रा से भ्रष्ट होते
हैं, इनको मोक्ष नहीं होता है, इनकी कथा पुराणों से जानना।। ४६।।
सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे।। ४७।।
स्वप्नेऽपि न रोचते पुनः जीवाः तिष्ठंति भवगहने।। ४७।।
अर्थः––जिन भगवान के द्वारा कही गई जिन मुद्रा है वही सिद्धिसुख है मुक्तसुख ही
है, यह कारण में कार्य का उपचार जानना; जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका
कार्य है। ऐसी जिनमुद्रा जिनभगवान ने जैसी कही है वैसी ही है। तो ऐसी जिनमुद्रा जिस
जीव को साक्षात् तो दूर ही रहो, स्वप्न में भी कदाचित् भी नहीं रुचति है, उसका स्वप्न
आता है तो भी अवज्ञा आती है तो वह जीव संसाररूप गहन वन में रहता है, मोक्ष के सुख
को प्राप्त नहीं कर सकता।
करते हैं। जिस जीव को यह नहीं रुचती है वह मोक्ष को प्रााप्त नहीं कर सकता, संसार ही में
रहता है।। ४७।।
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णादियदि णवं कम्मं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं।। ४८।।
नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः।। ४८।।
अर्थः––जो योगी ध्यानी परमात्मा का ध्यान करता हुआ रहता है वह मल देने वाले
लोभ कषाय से छूटता है, उसके लोभ मल नहीं लगता है इसी से नवीन कर्म का आस्रव
उसके नहीं होता है, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है।
संबंधी कुछ भी लोभ नहीं होता, इसलिये उसके नवीन कर्मका आस्रव नहीं होता ऐसा
जिनदेवने कहा है। यह लोभ कषाय ऐसा ही की दसवें गुणस्थान तक पहुँच जाने पर भी
अव्यक्त होकर आत्मा को मल लगाता है, इसलिये इसको काटना ही युक्त है, अथवा जब
तक मोक्षकी चाहरूप लोभ रहता है तब तक मोक्ष नहीं होता है, इसलिये लोभ का अत्यंत
निषेध है।। ४८।।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।। ४९।।
नूतन करम नहि आस्रवे–जिनदेवथी निर्दिष्ट छे। ४८।
परिणत सुद्रढ–सम्यक्त्वरूप, लही सुद्रढ–चारित्रने,
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ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी।। ४९।।
अर्थः––पूर्वोक्त प्रकार जिसकी मति दृढ़ सम्यक्त्वसे भावित है ऐसा योगी ध्यानी मुनि
दृढ़चारित्रवान होकर आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद अर्थात् परमात्मपद को प्राप्त करता
है।
४९।।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्ण परिणामो।। ५०।।
सः रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः।। ५०।।
अर्थः––स्वधर्म अर्थात् आत्मा का धर्म है वह चरण अर्थात् चारित्र है। धर्म है वह आत्म
समभाव है सब जीवों में समान भाव है। जो अपना धर्म है वही सब जीवों में है अथवा सब
जीवों को अपने समान मानना है और जो आत्म स्वभाव से ही [स्वाश्रयके द्वारा] रागद्वेष
रहित है, किसी से इष्ट–अनिष्ट बुद्धि नहीं है ऐसा चारित्र है, वह जैसे जीवके दर्शन – ज्ञान
हैं वैसे ही अनन्य परिणाम हैं, जीव का ही स्वभाव है।
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तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो।। ५१।।
अर्थः––जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है, निर्मल है, उज्ज्वल है वह परद्रव्य जो पीत,
रक्त, हरित पुष्पादिकसे युक्त होने पर अन्य सा दिखता है, पीतादिवर्णमयी दिखता है, वैसे
ही जीव विशुद्ध है, स्वच्छ स्वभाव है परन्तु यह [अनित्य पर्याय में अपनी भूल द्वारा स्व से
च्युत होता है तो] रागद्वेषदिक भावोंसे युक्त होने पर अन्य अन्य प्रकार हुआ दिखता है यह
प्रगट है।
हैं, जब तक इसका भेदज्ञान नहीं होता है तब तक जीव अन्य अन्य प्रकाररूप अनुभव में आता
है। यहाँ स्फटिकमणिका दृष्टांत है, उसके अन्यद्रव्य– पुष्पादिकका डांक लगता है तब अन्यसा
दिखता है, इसप्रकार जीवके स्वच्छभाव की विचित्रता जानना।। ५१।।
सम्मत्तमुव्वहंतो झाणर ओ होदि जोई सो।। ५२।।
त्यम जीव छे नीराग पण अन्यान्यरूपे परिणमे। ५१।
जे देव–गुरुना भक्त ने सहधर्मीमुनि–अनुरक्त छे,
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तो भक्ति युक्त होता ही है, इनकी भक्ति विनय सहित होती है और अन्य संयमी मुनि अपने
समान धर्म सहित हैं उनमें भी अनुरक्त हैं, अनुराग सहित होता है वही मुनि ध्यान में प्रतिवान्
होता है और जो मुनि होकर भी देव–गुरु–साधर्मियों में भक्ति व अनुराग सहित न हो उसको
ध्यान में रुचिवान नहीं कहते हैं क्योंकि ध्यान होने वाले के, ध्यानवाले से रुचि, प्रीति होती है,
ध्यानवाले न रुचें तब ज्ञात होता है कि इसको ध्यान भी नहीं रुचता है, इसप्रकार जानना
चाहिये।। ५२।।
तं णाणी तिहि गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण।। ५३।।
तज्ज्ञानी त्रिभिः गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्त्तेन।। ५३।।
अर्थः––अज्ञानी तीव्र तपके द्वारा बहुत भवोंमें जितने कर्मोंका क्षय करता है उतने
कर्मोंका ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अंतर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है।
कर्मोंका क्षय करता है वह आत्मभावना सहित ज्ञानी मुनि उतने कर्मोंका अंतमुहूर्त में क्षय कर
देता है, यह ज्ञान का सामर्थ्य है।। ५३।।
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सो तेण दु अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीओ।। ५४।।
सःतेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः।। ५४।।
अर्थः––शुभ योग अर्थात् अपने इष्ट वस्तु के संबंध से परद्रव्य में सुभाव अर्थात्
प्रीतिभाव को करता है वह प्रगट राग–द्वेष है, इष्टमें राग हुआ तब अनिष्ट वस्तुमें द्वेषभाव
होता ही है, इसप्रकार जो राग–द्वेष करता है वह उस कारण से रागी–द्वेषी–अज्ञानी है और
जो इससे विपरीत अर्थात् उलटा है परद्रव्यमें राग–द्वेष नहीं करता है वह ज्ञानी है।
है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट–अनिष्टकी कल्पना ही नहीं करता है तब राग–द्वेष कैसे
हो? चारित्र मोहके उदयवश होने से कुछ धर्मराग होता है उसको भी राग जानता है भला
नहीं समझता है तब अन्यसे कैसे राग हो? परद्रव्य से राग–द्वेष करता है वह तो अज्ञानी है,
ऐसे जानना।। ५४।।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीओ।। ५५।।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात्तु विपरीतः।। ५५।।
अर्थः––जैसे परद्रव्यमें रागको कर्मबंधका कारण पहिले कहा वैसे ही राग–भाव
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे। ५४।
आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते,
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से जो मोक्षको परद्रव्यकी तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह जीव मुनि भी
अज्ञानी है क्योंकि वह आत्मस्वभावसे विपरीत है, उसने आत्मस्वभावको नहीं जाना है।
हो तो उस रागको भी बंधका कारण जानकर रोगके समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही,
और इस रागभावको भला समझकर प्राप्त करता है तो अज्ञानी है। आत्मा का स्वभाव सब
रागादिकों से रहित है उसको इसने नहीं जाना, इसप्रकार रागभावको मोक्षका कारण और
अच्छा समझकर करते हैं उसका निषेध है।। ५५।।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो।। ५६।।
सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः।। ५६।।
अर्थः––जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान
उसको खंडरूप दूषण करनेवाला है, इन्द्रियज्ञान खंडखंडरूप है, अपने–अपने विषयको जानता
है, जो जीव इतना मात्रही ज्ञानको मानता है इस कारणसे ऐसा माननेवाला अज्ञानी है जिनमत
को दूषण करता है।
आत्माका स्वभाव सबको जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कहा है।
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हुआ, खंड–खंड विषयोंको जानता है; [निज बलद्वारा] कर्मोंका नाश होने पर केवलज्ञान
प्रगट होता है तब आत्मा सर्वज्ञ होता है, इसप्रकार मीमांसक मतवाला नहीं मानता है अतः वह
अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है, कर्ममात्रमें ही उसकी बुद्धि गत हो रही है, ऐसे कोई और
भी मानते हैं वह ऐसा ही जानना।। ५६।।
भी नहीं हैः–––
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।। ५७।।
अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम्।। ५७।।
सम्यक्त्व से रहित है, अन्य भी आवश्यक आदि क्रियायें हैं परन्तु उनमें भी शुद्धभाव नहीं है,
इसप्रकार लिंग–भेष ग्रहण करने में क्या सुख है?
तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया, तपका क्लेश बहुत किया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और
आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं लगाये तो ऐसे बाह्य भेषमात्र से तो
क्लेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुख तो हुआ नहीं और यह भेष परलोक के सुखमें भी
कारण नहीं हआ; इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक भेष
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बिना तो वह जड़ ही हुआ, ज्ञान बिना चेतन कैसे? ज्ञानी को प्रधानका धर्म माना है और
प्रधानको जड़ माना तब अचेतनमें चेतना मानी तब अज्ञानी ही हुआ।
भूतवादी चार्वाक – भूत पृथ्वी आदिकसे चेतनाकी उत्पत्ति मानता है, भूत तो जड़ है उसमें
चेतना कैसे उपजे? इत्यादिक अन्य भी कई मानते हैं वे सब अज्ञानी हैं इसलिये चेतना माने
वह ज्ञानी है, यह जिनमत है।। ५८।।
सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा।। ५८।।
सः पुनः ज्ञानी भणितः यः मन्यते चेतने चेतनम्।। ५८।।
अर्थः––जो अचेतन में चेतनको मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतन में ही चेतनको
मानता है उसे ज्ञानी कहा है।
तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं।। ५९।।
तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम्।। ५९।।
जे चेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे, ते ज्ञानी छे। ५८।
तपथी रहित जे ज्ञान, ज्ञानविहीन तप अकृतार्थ छे,
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हैं। कई ज्ञानको निष्फल मानकर उसको यथार्थ जानते नहीं हैं और तप–क्लेशादिक से ही
सिद्धि मानकर उसके करने में तत्पर रहते हैं। आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही अज्ञानी हैं, जो
ज्ञानसहित तप करते हैं वे ज्ञानी हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं, यह अनेकान्तस्वरूप
जिनमतका उपदेश है।। ५९।।
णाऊण धुवं कुज्जा तवचरणं णाणजुत्तो वि।। ६०।।
ज्ञात्वाध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि।। ६०।।
अर्थः––आचार्य कहते हैं–––कि देखो –––, जिसको नियम से मोक्ष होना है–– और
जो चार ज्ञान– मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इनसे युक्त है ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण
करता है, इसप्रकार निश्चयसे जानकर ज्ञानयुक्त होने पर भी तप करना योग्य है। [तप–
मुनित्व, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की एकता को तप कहा है।]
हैं, इसलिये ऐसा जानकर ज्ञान होते हुए भी तप करने में तत्पर होना, ज्ञानमात्र ही से मुक्ति
नहीं मानना।। ६०।।
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सो सगचरित्त भट्ठो मोक्खपहविपासगो साहु।। ६१।।
सः स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः।। ६१।।
अर्थः––जो जीव बाह्य लिंग – भेष सहित है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों से सर्व
रागादिक ममत्वभाव रहित ऐसे आत्मानुभव से रहित है तो वह स्व–चारित्र अर्थात् अपने
आत्मस्वरूप के आचरण – चारित्र से भ्रष्ट है, परिकर्म अर्थात् बाह्य में नग्नता, ब्रह्मचर्यादि
शरीर संस्कार से परिवर्तनवान द्रव्यलिंगी होने पर भी वह स्व–चारित्र से भ्रष्ट होने से
मोक्षमार्गका विनाश करने वाला है। [अतः मुनि – साधुको शुद्धभावको जानकर निज शुद्ध बुद्ध
एकस्वभावी आत्मतत्त्व में नित्य भावना
६१।।
तम्हां जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए।। ६२।।
तस्मात् यथा बलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत्।। ६२।।
अर्थः––सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह उपसर्ग–परिषहादि के द्वारा दुःख उत्पन्न होते
ही नष्ट हो जाता है, इसलिये यह उपदेश है कि जो योगी ध्यानी मुनि है वह
ते स्वकचरितथी भ्रष्ट, शिवमारगविनाशक श्रमण छे। ६१।
सुखसंग भावित ज्ञान तो दुःखकाळमां लय थाय छे,
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प्रातिकूल न मानकर निज आत्मा में ही एकाग्रातारूपी भावना करे जिससे आत्मशक्ति और
आत्मिकआनंद का प्रचुर संवेदन बढ़ता ही है]
भावे तो दुःख आने पर व्याकुल हो जावे तब ज्ञानभावना न रहे, इसलिये यह उपदेश है।।
६२।।
झायव्यो णियअण्णा णाऊणं गुरुपसाएण।। ६३।।
ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६३।।
अर्थः––आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर और जिनवर के मत से तथा गुरुके
प्रसाद से जानकर निज आत्माका ध्यान करना।
कहा है उस विधान को गुरुके प्रसादसे जानकर ध्यान करना सफल है। जैसे जैन सिद्धांत में
आत्मा का स्वरूप तथा ध्यानका स्वरूप और आहार, आसन, निद्रा इनके जीतनेका विधान
कहा है वैसे जानकर इनमें प्रवर्तन करना।। ६३।।
सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण।। ६४।।
ध्यातव्य छे निज आतमा, जाणी श्री गुरुपरसादथी। ६३।
छे आतमा संयुक्त दर्शन–ज्ञानथी, चारित्रथी;
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सः ध्यातव्यः नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६४।।
अर्थः––आत्मा चारित्रवान् है और दर्शन – ज्ञानसहित है, ऐसा आत्मा गुरुके प्रसाद से
जानकर नित्य ध्यान करना।
उनके यथार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिये जैनमतके अनुसार ध्यान करना ऐसा उपदेश है।। ६४।।
भाविय सहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं।। ६५।।
भावित स्वभावपुरुषः विषयेषु विरज्यति दुःखम्।। ६५।।
अर्थः––प्रथम तो आत्मा को जानते हैं वह दुःखसे जाना जाता है, फिर आत्माको
जानकर भी भावना करना, फिर–फिर इसीका अनुभव करना दुःखसे [–उग्र पुरुषार्थसे] होता
है, कदाचित् भावना भी किसी प्रकार हो जावे तो भायी है जिनभावना जिसने ऐसा पुरुष
विषयोंसे विरक्त बड़े दुःख से [––अपूर्व पुरुषार्थ से] होता है।
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विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं।। ६६।।
विषये विरक्तचित्तः योगी जानाति आत्मानम्।। ६६।।
अर्थः––जब तक यह मनुष्य इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवर्तता है तब तक आत्मा को नहीं
जानता है, इसलिये योगी ध्यानी मुनि है वह विषयों से विरक्त चित्त होता हुआ आत्मा को
जानता है।
चित्त रहता है, तबतक उन रूप रहता है, आत्मा का अनुभव नहीं होता है, इसलिये योगी
मुनि इसप्रकार विचार कर विषयों से विरक्त हो आत्मा में उपयोग लगावे तब आत्मा को जाने,
अनुभव करे, इसलिये विषयोंसे विरक्त होना यह उपदेश है।। ६६।।
हिंडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा।। ६७।।
हिण्डन्ते चातुरंगं विषयेषु विमोहिताः मूढाः।। ६७।।
अर्थः––कई मनुष्य आत्मा को जानकर भी अपने स्वभावकी भावना से अत्यंत भ्रष्ट हुए
विषयोंमें मोहित होकर अज्ञानी मूर्ख चार गतिरूप संसारमें भ्रमण करते हैं।
विषये विरक्तमनस्क योगी जाणता निज आत्मने। ६६।
नर कोई, आतम जाणी, आतम भावना प्रच्युतपणे
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कहा, अब यहाँ इसप्रकार कहा कि आत्माको जानकर भी विषयोंके वशीभूत हुआ भावना नहीं
करे तो संसार ही में भ्रमण करता है, इसलिये आत्माको जानकर विषयों से विरक्त होना यह
उपदेश है।। ६७।।
छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो।। ६८।।
त्यजंति चातुरंगं तपोगुणयुक्ताः न संदेहः।। ६८।।
अर्थः––फिर जो पुरुष मुनि विषयोंसे विरक्त हो आत्माको जानकर भाते हैं, बारंबार
भावना द्वारा अनुभव करते हैं वे तप अर्थात् बारह प्रकार तप और मूलगुण उत्तरगुणोंसे युक्त
होकर संसारको छोड़ते हैं, मोक्ष पाते हैं।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ।। ६९।।
सः मूढः अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः।। ६९।।
निःशंक ते तपगुणसहित छोडे चतुर्गति भ्रमणने। ६८।
परद्रव्यमां अणुमात्र पण रति होय जेने मोहथी,
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हो तो जानो कि इसने स्व–परका भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे प्रतिकूल है;
और ज्ञानी होने के बाद चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक कुछ राग रहता है उसको
कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है इसलिये विरक्त ही है, अतः ज्ञानी
परद्रव्यमें रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना।। ६९।।
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्त चित्ताणं।। ७०।।
भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम्।। ७०।।
अर्थः–––पूर्वोक्त प्रकार जिनका चित्त विषयोंसे विरक्त है, जो आत्माका ध्यान करते
रहते हैं, जिनके बाह्य–अभ्यंन्तर दर्शन की शुद्धता है ओर जिनके दृढ़ चारित्र है, उनको
निश्चय से निर्वाण होता है।
इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर बाह्य–अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धता से दृढ़ चारित्र पालते हैं
उनको नियम से निर्वाण की प्राप्ति होती है, इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति सब अनर्थोंका मूल
है, इसलिये इनसे विरक्त होने पर उपयोग आत्मा में लगे तब कार्यसिद्धि होती है।। ७०।।