Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 41-66 (Bhav Pahud).

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भावपाहुड][१७७
के बीच में रहा, कैसा रहा? माता के दाँतोंसे चबाया हुआ और दाँतोंके लगा हुआ (रुका
हुआ) झूठा भोजन के खाने के पीछे जो उदर में गया उसके रस रूपी आहार से रहा।।
४०।।
आगे कहते हैं कि गर्भ से निकल कर इसप्रकार बालकपन भोगाः––
सिसुकाले य अयाणे असूईमज्झम्मि लोलिओ सि तुमं।
असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण।। ४१।।
शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोऽसि त्वम्।
अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर! बालत्वप्राप्तेन।। ४१।।

अर्थः
––हे मुनिवर! तू बचपन के समयमें अज्ञान अवस्थामें अशुचि [अपवित्र] स्थानोंमें
अशुचिके बीच लेटा और बहुत बार अशुचि वस्तु ही खाई, बचपन को पाकर इसप्रकार चेष्ठायें
की।

भावार्थः––यहाँ ‘मुनिवर’ इसप्रकार सम्बोधन है वह पहलेके समान जानना; बाह्य
आचरण सहित मुनि हो उसी को यहाँ प्रधानरूप से उपदेश है कि बाह्य आचरण किया वह तो
बड़ा कार्य किया, परन्तु भावोंके बिना वह निष्फल है इसलिये भावके सन्मुख रहना, भावोंके
बिना ही यह अपवित्र स्थान मिले हैं।। ४१।।

आगे कहते है कि यह देह इस प्रकार है उसका विचार करोः––
मंसट्ठिसुक्कसोणियपित्तंतसवत्तकुणिमदुग्गंधं।
खरिसवसापूय
रिवब्भिस भरियं चिंतेहि देहउडं।। ४२।।
मांसास्थिशुक्र श्रोणितपित्तांत्रस्रयवत्कुणिमदुर्गन्धम्।
खरिसवसापूयकिल्विषभरितं चिन्तय देहकुटम्।। ४२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः – ‘खिव्सिस’
तुं अशुचिमां लोट्यो घणुं शिशुकाळमां अणसमजमां,
मुनिवर! अशुचि आरोगी छे बहु वार तें बालत्वमां। ४१।

पल–पित्त–शोणित–आं५थी दुर्गंध शब सम ज्यां स्रवे,
चिंतव तुं पीप–वसादि–अशुचि भरेल कायाकुंभने। ४२।

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१७८] [अष्टपाहुड
अर्थः––हे मुने! तू देहरूप घटको इसप्रकार विचार, कैसा है देह घट? मास, हाड,
शुक्र (वीर्य), श्रोणित (रुधिर), पित्त (उष्ण विकार) और (आँतड़ियाँ) आदि द्वारा तत्काल
मृतककी तरह दुर्गंध है तथा खरिस (रुधिरसे मिला अपक्वमल), वसा (मेद), पूय (खराब
खून) और राध, इन सब मलिन वस्तुओं से पूरा भरा है, इसप्रकार देहरूप घट का विचार
करो।

भावार्थः––यह जीव तो पवित्र है, शुद्धज्ञानमयी है और यह देह इसप्रकार है, इसमें
रहना अयोग्य है–––ऐसा बताया है।। ४२।।

आगे कहते हैं कि जो कुटुम्ब से छूटा वह नहीं छूटा, भाव से छूटे हुएको ही छूटा कहते
हैंः–––
भावविमुत्तो मुत्तो ण य मुत्तो बंधवाइमित्तेण।
इय भाविऊण उज्झसु गंधं अब्भंतरं धीर।। ४३।।
भावविमुक्तः मुक्तः न च मुक्तः बांधवादिमित्रेण।
इति भावयित्या उज्झय ग्रन्थमाभ्यंन्तरं धीर!।। ४३।।

अर्थः
––जो मुनि भावों से मुक्त हुआ उसी को मुक्त कहते हैं और बांधव आदि कुटुम्ब
तथा मित्र आदि से मुक्त हुआ उसको मुक्त नहीं कहते हैं, इसलिये हे धीर मुनि! तू इसप्रकार
जानकर अभ्यन्तर की वासना को छोड़।

भावार्थः––जो बाह्य बांधव, कुटुम्ब तथा मित्र इनको छोड़कर निर्गं्रथ हुआ और अभ्यंतर
की ममत्वभावरूप वासना तथा इष्ट अनिष्ट में रागद्वेष वासना न छूटी तो उसको निर्ग्रंथ नहीं
कहते हैं। अभ्यन्तर वासना छूटने पर निर्ग्रंथ होता है, इसलिये यह उपदेश है कि अभ्यन्तर
मिथ्यात्व कषाय छोड़कर भावमुनि बनना चाहिये।। ४३।।

आगे कहते हैं कि जो पहिले मुनि हुए उन्होंने भावशुद्धि बिना सिद्धि नहीं पाई है।
उनका उदाहरणमात्र नाम कहते हैं। प्रथम ही बाहुबली का उदाहरण कहते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! भावमुक्त विमुक्त छे, स्वजनादिमुक्त न मुक्त छे,
ईम भावीने हे धीर! तुं परित्याग आंतरग्रंथने। ४३।

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भावपाहुड][१७९
देहादिवत्तसंगो माणकसाएण कलुसिओ धीर।
अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं
कालं।। ४४।।
देहादित्यक्तसंगः मानकषायेन कलुषितः धीर।
आतापनेन जातः बाहुबली कियन्तं कालम्।। ४४।।

अर्थः
––देखो, बाहुबली श्री ऋषभदेवका पुत्र देहादिक परिग्रहको छोड़कर निर्ग्रंथ मुनि
बन गया, तो भी मानकषाय से कलुष कुछ समय तक आतापन योग धारणकर स्थित हो गया,
फिर भी सिद्धि नहीं पाई।

भावार्थः––बाहुबली से भरतचक्रवर्ती ने विरोध कर युद्ध आरम्भ किया, भरत का अपमान
हुआ। उसके बाद बाहुबली विरक्त होकर निर्ग्रंथ मुनि बन गये, परन्तु कुछ मान–कषाय की
कलुषता रही कि भरत की भूमि पर मैं केसे रहूँ? तब कायोत्सर्ग योगसे एक वर्ष तक खड़े रहे
परन्तु केवलज्ञान नहीं पाया। पीछे कलुषता मिटी तब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इसलिये कहते
हैं कि ऐसे महान पुरुष बड़ी शक्ति के धारकके भी भाव शुद्धि के बिना सिद्धि नहीं पाई तब
अन्य की क्या बात? इसलिये भावोंको शुद्ध करना चाहिये, यह उपदेश है।। ४४।।

आगे मधुपिंगल मुनि का उदाहरण देते हैंः–––
महुपिंगो णाम मुणी देहाहारादिचत्तवावारो।
सवणत्तणं ण पत्तो णियाणमित्तेण भवियणुय।। ४५।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ –‘कित्तियं’ पाठान्तर ‘कितियं’
देहादि संग तज्यो अहो पण मलिन मानकषायथी
आतापना करता रह्या बाहुबल मुनि क्यां लगी? ४४।

तन–भोजनादि प्रवृत्तिना तजनार मुनि मधुपिंगले,
हे भव्यनूत! निदानथी ज लह्युं नहीं श्रमणत्वने। ४५।

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१८०] [अष्टपाहुड
मधुपिंगो नाम मुनिः देहाहारादित्यक्तव्यापारः।
श्रमणत्वं न प्राप्तः निदानमात्रेण भव्यनुत!।। ४५।।

अर्थः
––मधुपिंगल नाम का मुनि कैसा हुआ? देह आहारादि में व्यापार छोड़कर भी
निदानमात्रसे भावश्रमणपने को प्राप्त नहीं हुआ, उसको भव्य जीवोंसे नमने योग्य मुनि, तू देख।

भावार्थः––मधुपिंगल नामके मुनिकी कथा पुराण में है उसका संक्षेप ऐसे है–––इस
भरतक्षेत्रके सुरम्यदेशमें पोदानापुरका राजा तृणपिंगलका पुत्र मधुपिंगल था। वह
चारणयुगलनगर के राजा सुयोधनकी पुत्री सुलसाके स्वयंवरमें आया था। वहीं साकेतपुरी का
राजा सगर आया था। सगर के मंत्री ने मधुपिंगलको कपटसे नया सामुद्रिक शास्त्र बनाकर
दोषी बताया कि इसके नेत्र पिंगल हैं
(माँजरा हैं) जो कन्या इसको वरे वह मरण को प्राप्त
हो। तब कन्याने सगरके गले में वरमाला पहिना दी। मधुपिंगलका वरण नहीं किया, तब
मधुपिंगलने विरक्त होकर दीक्षा ले ली।

फिर कारण पाकर सगरके मंत्रीके कपटको जानकर क्रोधसे निदान किया कि मेरे तपका
फल यह हो–––‘अगले जन्म में सगरके कुलको निर्मूल करूँ,’ उसके पीछे मुनिपिंगल मरकर
महाकालासुर नामका असुरदेव हुआ, तब सगरको मंत्री सहित मारने का उपाय सोचने लगा।
इसको क्षीरकदम्ब ब्राह्मणका पुत्र पापी पर्वत मिला, तब उसको पशुओं की हिंसारूप यज्ञका
सहायक बन ऐसा कहा। सगर राजा को यज्ञ का उपदेश करके यज्ञ कराया, तेरे यज्ञ में
सहायक बनूँगा। तब पर्वत ने सगर से यज्ञ कराया–––पशु होमे। उस पापसे सगर सातवें
नरक गया और कालासुर सहायक बना सो यज्ञ करनेवालों को स्वर्ग जाते दिखाये। ऐसे
मधुपिंगल नामक मुनिने निदानसे महाकालासुर बनकर महापाप कमाया, इसलिये आचार्य कहते
हैं कि मुनि बन जाने पर भी भाव बिगड़ जावें तो सिद्धिको नहीं पाता है। इसकी कथा
पुराणोंसे विस्तारसे जानो।। ४५।।
आगे विशिष्ठ मुनिका उदाहरण कहते हैंः––––

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भावपाहुड][१८१
अण्णं च वसिट्ठमुणी पत्तो दुक्खं णियाणदोसेण।
सो णत्थि वासठाणो जत्थ ण ढुरुढुल्लिओ जीवो।। ४६।।
अन्यश्च वसिष्ठमुनिः प्राप्तः दुखं निदानदोषेण।
तन्नास्ति वासस्थानं यत्र न भ्रमितः जीव!।। ४६।।

अर्थः
––अन्य और एक विशिष्ठ नामक मुनि निदान के दोषसे दुःखको प्राप्त हुआ,
इसलिये लोकमें ऐसा वासस्थान नहीं है जिसमें यह जीव–मरणसहित भ्रमणको प्राप्त नहीं हुआ।

भावार्थः––विशिष्ठ मुनिकी कथा ऐसे है–––गंगा और गंधवती दोनों नदियोंका जहाँ
संगम हुआ है वहाँ जठरकौशिक नामकी तापसीकी पल्ली थी। वहाँ एक वशिष्ठ नामका तपस्वी
पंचाग्निसे तप करता था। वहाँ गुणभद्र वीरभद्र नामके दो चारण मुनि आये। उस वश्ष्ठि तपस्वी
को कहा––जो तू अज्ञान तप करता है इसमें जीवोंकी हिंसा होती है, तब तपस्वी ने प्रत्यक्ष
हिंसा देख और विरक्त होकर जैनदीक्षा ले ली, मासोपवाससहित आतापन योग स्थापित
किया, उस तप के माहात्म्यसे सात व्यन्तर देवोंने आकर कहा, हमको आज्ञा दो सो ही करें,
तब वशिष्ठने कहा, ‘अभी तो मेरे कुछ प्रयोजन नहीं है, जन्मांतरमें तुम्हें याद करूँगा’। फिर
वशिष्ठने मथुरापुरी में आकर मासोपवाससहित आतापन योग स्थापित किया।

उसको मथुरापुरी के राजा उग्रसेनने देखकर भक्तिवश यह विचार किया कि मैं इनको
पारणा कराऊँगा। नगर में घोषणा करा दी की इन मुनिको और कोई आहार न दे। पीछे
पारणा के दिन नगर में आये, वहाँ अग्निका उपद्रव देखकर अंतराय जानकर वापिस चले गये।
फिर मासोपवास किया, फिर पारणा दिन नगर में आये तब हाथी का क्षोभदेख अंतराय
जानकर वापिस चले गये। फिर मासोपवास किया, फिर पीछे पारणाके दिन फिर नगर में
आये। तब राजा जरासिंधका पत्र आया, उसके निमित्त से राजाका चित्त व्यग्र था इसलिये
मुनिको पडगाहा नहीं, तब अंतराय मान वापिस वनमें जाते हुए लोगोंके वचन सुने–राजा
मुनिको आहार दे नहीं और अन्य देने वालों को मना कर दिया; ऐसे वचन सुन राजापर क्रोध
कर निदान किया कि––इस राजाका पुत्र होकर राजाका निग्रह कर मैं राज करूँ, इस तपका
मेरे यह फल हो, इसप्रकार निदान से मरा।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
बीजाय साधु वसिष्ठ पाम्या दुःखने निदानथी;
एवुं नथी को स्थान के जे स्थान जीव भम्यो नथी। ४६।

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१८२] [अष्टपाहुड
राजा उग्रसेनकी रानी पद्मावती के गर्भमें आया, मास पुरे होने पर जन्म लिया तब
इसको क्रूर दृष्टि देखकर काँसीके संदूक में रक्खा और वृत्तान्तके लेख सहित यमुना नदीमें
बहा दिया। कौशाम्बीपुर में मंदोदरी नामकी कलाली ने उसको लेकर पुत्रबुद्धिसे पालन किया,
कंस नाम रखा। जब वह बड़ा हुआ तो बालकोंके साथ खेलते समय सबको दुःख देने लगा,
तब मंदोदरी ने उलाहनोंके दुःख से इसको निकाल दिया। फिर यह कंस शौर्यपुर गया वहाँ
वसुदेव राजा के पयादा
(सेवक) बनकर रहा। पीछे जरासिंध प्रतिनारायण का पत्र आया कि
जो पोदनपुर के राजा सिंहरथको बाँध लावे उसको आधे राज्य सहित पुत्री विवाहित कर दूँ।
तब वसुदेव वहाँ कंस सहित जाकर युद्ध करके उस सिंहरथ को बाँध लाया, जरासिंधको सौंप
दिया। फिर जरासिंधने जीवंशया पुत्री सहित आधा राज्य दिया, तब वसुदेव ने कहा–
सिंहरथको कंस बाँधकर लाया है, इसको दो। फिर जरासिंध ने इसका कुल जानने के लिये
मंदोदरी को बुला कर कुलका निश्चय करके इसको जीवंशया ब्याह दी; तब कंस ने मथुरा का
राज्य लेकर पिता उग्रसेन राजा को और पद्मावती माता को बंदीखाने में डाल दिया, पीछे
कृष्ण नारायणसे मृत्युको प्राप्त हुआ। इसकी कथा विस्तार पूर्वक उत्तर पुराणादि से जानिये।
इसप्रकार विशष्ठ मुनिने निदानसे सिद्धिको नहीं पाई, इसलिये भावलिंगहीसे सिद्धि है।। ४६।।

आगे कहते हैं कि भावरहित चौरासी लाख योनियोंमें भ्रमण करता हैः––
सो णत्थि तप्पएसो चउरासी लक्ख जोणिवासम्मि।
भावविरओ वि सवणो जत्थ ण ढुरुढुल्लिओ जीव।। ४७।।
सः नास्ति तं प्रदेशः चतुरशीतिलक्षयोनिवासे।
भावविरतः अपि श्रमणः यत्र न भ्रमितः
जीवः।। ४७।।

अर्थः
–इस संसारमें चौरासीलाख योनि, उनके निवास में ऐसा कोई देश नहीं है जिसमें
इस जीवने द्रव्यलिंगी मुनि होकर भी भावरहित होता हुआ भ्रमण नहीं किया हो।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः –जीवो।
एवो न कोई प्रदेश लख चोराशी योनिनिवासमां,
रे! भावविरहित श्रमण पण परिभ्रमणने पाम्यो न ज्यां। ४७।

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भावपाहुड][१८३
भावार्थः––द्रव्यलिंग धारण कर निर्गरन्ध मुनि बनकर शुद्ध स्वरूपके अनुभवरूप भाव बिना
यह जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण ही करता रहा, ऐसा स्थान नहीं रहा जिसमें मरण
नहीं हुआ हो।

आगे चौरासी लाख योनिके भेद कहते हैं–––पृथ्वी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद और
इतरनिगोद ये तो सात–सात लाख हैं, सब ब्यालीस लाख हुए, वनस्पति दस लाख हैं, दो
इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय दो – दो लाख हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच चार लाख, देव चार लाख,
मनुष्य चौदह लाख। इसप्रकार चौरासी लाख हैं। ये जीवोंके उत्पन्न होने के स्थान हैं।। ४७।।

आगे कहते हैं कि द्रव्यमात्रसे लिंगी नहीं होता है भावेसे होता हैः––––
भावेण होइ लिंगी ण हु लिंगी होइ दव्वमित्तेण।
तम्हा कुणिज्ज भावं किं कीरइ दव्वलिंगेण।। ४८।।
भावेन भवति लिंगी न हि भवति लिंगी द्रव्यमात्रेण।
तस्मात् कुर्याः भावं किं क्रियते द्रव्यलिंगेन।। ४८।।

अर्थः
–– लिंगी होता है सो भावलिंग ही से होता है, द्रव्यलिंगसे लिंगी नहीं होता है
यह प्रकट है; इसलिये भावलिंग ही धारण कराना, द्रव्यलिंगसे क्या सिद्ध होता है?

भावार्थः––आचार्य कहते हैं कि–––इससे अधिक क्या कहा जावे, भावलिंग बिना
‘लिंगी’ नाम ही नहीं होता है, क्योंकि यह प्रगट है कि भाव शुद्ध न देखें तब लोग ही कहें
कि काहे का मुनि है? कपटी है। द्रव्यलिंग से कुछ सिद्धि नहीं है, इसलिये भावलिंग ही धारण
करने योग्य है।। ४८।।

आगे इसीको दृढ़ करने के लिये द्रव्यलिंगधारकको उलटा उपद्रव हुआ, उदाहरण कहते
हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे भावथी लिंगी, न लिंगी द्रव्यलिंगथी होय छे;
तेथी धरो रे! भावने, द्रव्यलिंगथी शुं साध्य छे? ४८।

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१८४] [अष्टपाहुड
दंडयणयरं सयलं डहिओ अब्भंतरेण दोसेण।
जिणलिंगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरए।। ४९।।
दण्डक नगरं सकलं दग्ध्वा अभ्यन्तरेण दोषेण।
जिनलिंगेनापि बाहुः पतितः सः रौरवे नरके।। ४९।।

अर्थः
––देखो, बाहु नामक मुनि बाह्य जिनलिंग सहित था तो भी अभ्यन्तर के दोषसे
समस्त दंडक नामक नगर को दग्ध कर किया और सप्तम पृथ्वीके रौरव नामक बिल में गिरा।

भावार्थः––द्रव्यलिंग धारण कर कुछ तप करे, उससे कुछ सामर्थ्य बढ़े, तब कुछ कारण
पाकर क्रोधसे अपना और दूसरेका उपद्रव करने का कारण बनावे, इसलिये द्रव्यलिंग
भावसहित धारण करना श्रेष्ठ है और केवल द्रव्यलिंग तो उपद्रव का कारण होता है। इसका
उदाहरण बाहु मुनि का बताया। उसकी कथा ऐसे है––––

दक्षिण दिशामें कुम्भकारकटक नगरमें दण्डक नामका राजा था। उसके बालक नामका
मंत्री था। वहाँ अभिनन्दन आदि पाँचसौ मुनि आये, उनमें एक खंडक नामके मुनि थे। उन्होंने
बालक नामके मंत्री को वादमें जीत लिया, तब मंत्रीने क्रोध करके एक भाँडको मुनिका रूप
कराकर राजाकी रानी सुव्रताके साथ क्रीड़ा करते हुए राजा को दिखा दिया और कहा कि
देखो! राजाके ऐसी भक्ति है जो अपनी स्त्री भी दिगम्बरको क्रीड़ा करनेके लिये दे दी है। तब
राजाने दिगम्बरों पर क्रोध करके पाँचसौ मुनियोंको घानी में पिलवाया। वे मुनि उपसर्ग सहकर
परमसमाधिसे सिद्धि को प्राप्त हुए।

फिर उस नगर में बाहु नामके एक मुनि आये। उनको लोगोंने मना किया कि यहाँ का
राजा दुष्ट है इसलिये आप नगर में प्रवेश मत करो। पहिले पाँचसौ मुनियोंको घानी में पेल
दिया है, वह आपका भी वही हाल करेगा। तब लोगोंके वचनों से बाहु मुनिको क्रोध उत्पन्न
हुआ, अशुभ तैजससमुद्घातसे राजाको मंत्री सहित और सब नगर को भस्म कर दिया। राजा
और मंत्री सातवें नरक रौरव नामक बिलमें गिरे, वह बाहु मुनि भी मरकर रौरव बिल में गिरे।
इसप्रकार द्रव्यलिंग में भावके दोष से उपद्रव होते हैं, इसलिये भावलिंग का प्रधान उपदेश है।।
४९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
दंडकनगर करी दग्ध सघळुं दोष अभ्यंतर वडे,
जिनलिंगथी पण बाहु ए उपज्या नरक रौरव विषे। ४९।

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भावपाहुड][१८५
आगे इस ही अर्थपर दीपायन मुनिका उदाहरण कहते हैंः–––
अवरो वि दव्वसवणो दंसणवरणाणचरणपठभट्ठो।
दीवावणो त्ति णामो अणंतसंसारिओ जाओ।। ५०।।
अपरः अपि द्रव्यश्रमणः दर्शनवरज्ञान चरणप्रभ्रष्टः।
दीपायन इति नाम अनन्तसांसारिकः जातः।। ५०।।

अर्थः––
आचार्य कहते हैं कि जैसे पहिले बाहु मुनि कहा वैसे ही और भी दीपायन नामका
द्रव्यश्रमण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्तसंसारी हुआ है।

भावार्थः––पहिले की तरह इसकी कथा संक्षेपसे इसप्रकार है–––नौंवें बलभद्र ने
श्रीनेमीनाथ तीर्थंकर से पूछा कि हे स्वामिन्! यह द्वारकापुरी समुद्र में है इसकी स्थिति कितने
समय तक है? तब भगवान ने कहा कि रोहिणी का भाई दीपायन तेरा मामा बारह वर्ष पीछे
मद्य के निमित्त से क्रोध करके इस पुरीको दग्ध करगा। इसप्रकार भगवानके वचन सुन
निश्चयकर दीपायन दीक्षा लेकर पूर्वदेशमें चला गया। बारह वर्ष व्यतीत करनेके लिये तप
करना शुरु किया और बलभद्र नारायण ने द्वारिका में मद्य निषेध की घोषणा करा दी। मद्यके
बरतन तथा उसकी सामग्री मद्य बनाने वालोंने बाहर पर्वतादि में फेंक दी। तब बरतनोंकी
मदिरा तथा मद्य की सामग्री जलके गर्तोंमें फैल गई।

फिर बारह वर्ष बीते जानकर दीपायन द्वारिका आकर नगर के बाहर आतापनयोग
धारणकर स्थित हुए। भगवानके वचन की प्रतीति न रखी। पीछे शंभवकुमारादि क्रीड़ा करते हुए
प्यासे होकर कुंडोंमें जल जानकर पी गये। इस मद्यके निमित्तसे कुमार उन्मत्त हो गये। वहाँ
दीपायन मुनिको खड़ा देखकर कहने लगे–––‘यह द्वारिका को भस्म करने वाला दीपायन है;’
इसप्रकार कहकर उसको पाषाणादिक से मारने लगे। तब दीपायन भूमिपर गिर पड़ा, उसको
क्रोध उत्पन्न हो गया, उसके निमित्त से द्वारिका जलकर भस्म हो गई। इसप्रकार भावशुद्धि के
बिना अनन्तसंसारी हुआ।। ५०।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
वळी ए रीते बीजा दरवसाधु द्वीपायन नामना
वरज्ञानदर्शनचरणभ्रष्ट, अनंत संसारी थया। ५०।

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१८६] [अष्टपाहुड
आगे भावशुद्धिसहित मुनि हुए उन्होंने सिद्धि पाई, उसका उदाहरण कहते हैंः––
भावसमणो य धीरो जुवईजणवेढिओ विसुध्धमई।
णामेण सिवकुमारो परीत्तसंसारिओ जाहो।। ५१।।
भावश्रमणश्च धीरः युवतिजनवेष्टितः विशुद्धमतिः।
नामना शिवकुमारः परित्यक्तसांसारिकः जातः।। ५१।।

अर्थः
––शिवकुमार नामक भावश्रमण स्त्रीजनोंसे वेष्टित होते हुए भी विशुद्ध बुद्धिका
धारक धीर संसार को त्यागने वाला हुआ।

भावार्थः––शिवकुमार ने भावकी शुद्धता से ब्रह्मस्वर्ग में विद्युन्माली देव होकर वहाँ से
चय जंबूस्वामी केवली होकर मोक्ष प्राप्त किया। उसकी कथा इसप्रकार हैः––

इस जम्बूद्वीपके पूर्व विदेह में पुष्कलावती देशके वीतशोकपुरमें महापद्म राजा वनमाला
रानी के शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। वह एक दिन मित्र सहित वन क्रीड़ा करके नगर में आ
रहा था। उसने मार्ग में लोगोंको पूजा की सामग्री ले जाते देखा। तब मित्र को पूछा–––ये
कहाँ जा रहे हैं? मित्र ने कहा, ये सागरदत्त नामक ऋद्धिधारी मुनिको पूजने के लिये वन में
जा रहें हैं। तब शिवकुमारने मुनि के पास जाकर अपना पूर्व भव सुन संसार से विरक्त हो
दीक्षा ले ली और दृढ़धर नामक श्रावकके घर प्रासुक आहार लिया। उसके बाद स्त्रियोंके
निकट असिधाराव्रत परम ब्रह्मचर्य पालते हुए बारह वर्ष तक तप कर अन्त में संन्यासमरण
करके ब्रह्मकल्पमें विद्युन्माली देव हुआ। वहाँ से चय कर जम्बुकुमार हुआ सो दीक्षा ले
केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गया। इसप्रकार शिवकुमार भावमुनिने मोक्ष प्राप्त किया। इसकी
विस्तार सहित कथा जम्बूचारित्र में हैं, वहाँ जानिये। इसप्रकार भावलिंग प्रधान है।। ५१।।

आगे शास्त्र भी पढ़ें और सम्यग्दर्शनादिरूप भाव विशुद्धि न हो तो सिद्धिको प्राप्त नहीं
कर सकता, उसका उदाहरण अभव्यसेनका कहते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
बहुयुवतिजनवेष्टितर छतां पण धीर शुद्धमति अहा!
ए भावसाधु शिवकुमार परीतसंसारी थया। ५१।

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भावपाहुड][१८७
केवलिजिणपणत्तं एयादसअंग सयलसुयणाणं।
पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो।। ५२।।
केवलिजिनप्रज्ञप्तं एकादशांगं सकलश्रुतज्ञानम्।
पठितः अभव्यसेनः न भावश्रमणत्वं प्राप्तः।। ५२।।

अर्थः––अभव्यसेन नामके द्रव्यलिंगी मुनिने केवली भगवान से उपदिष्ट ग्यारह अंग पढ़े
और ग्यारह अंग को ‘पूर्ण श्रुतज्ञान’ भी कहते हैं, क्योंकि इतने पढ़े हुए को अर्थ अपेक्षा ‘पूर्ण
श्रृतज्ञान’ भी हो जाता है। अभव्यसेन इतना पढ़ा तो भी भावश्रमणपने को प्राप्त न हुआ।

भावार्थः––यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जानेगा बाह्यक्रिया मात्र से तो सिद्धि नहीं है
और शास्त्र के पढ़ने से तो सिद्धि है तो इसप्रकार जानना भी सत्य नहीं है, क्योंकि शास्त्र
पढ़ने मात्र से भी सिद्धि नहीं है–––अभव्यसेन द्रव्यमुनि भी हुआ और ग्यारह अंग भी पढ़े तो
भी जिनवचन की प्राप्ति न हुई, इसलिये भावलिंग नहीं पाया। अभव्यसेन की कथा पुराणोंमें
प्रसिद्ध है, वहाँसे जानिये।। ५२।।

आगे शास्त्र पढ़े बिना शिवभूति मुनिने तुषमाष भिन्न को घोखते ही भावकी विशुद्धि को
पाकर मोक्ष प्राप्त किया। उसका उदाहरण कहते हैंः––
तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फुंड जाओ।। ५३।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ मुद्रित संस्कृत सटीक प्रति में यह गाथा इसप्रकार हैः–––
अंगाइं दस य दुण्णि य चउदसपुव्वाई सयलसुयणाणं।
पढिओ अभव्वसेणो ण भावसवणत्तणं पत्तो।। ५२।।
अंगानि दश च द्वे च चतुर्दशपूर्वाणि सकलश्रुतज्ञानम्।
पठितश्च अभव्यसेनः न भाश्रमणत्वं प्रापतः।। ५२।।
जिनवरकथित एकादशांगमयी सकल श्रुतज्ञानने
भणवा छतांय अभव्यसेन न प्राप्त भावमुनित्वने। ५२।

शिवभूतिनामक भावशुद्ध महानुभाव मुनिवरा
‘तुषमाष’ पदने गोखता पाम्या प्रगट सर्वज्ञता। ५३।

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१८८] [अष्टपाहुड
तुषमांष घोषयन् भावविशुद्धः महानुभावश्च।
नाम्ना च शिवभूतिः केवलज्ञानी स्फुटं जातः।। ५३।।

अर्थः––आचार्य कहते हैं कि शिवभूति मुनिने शास्त्र नहीं पढ़े थे, परन्तु तुष माष ऐसे
शब्दको रटते हुए भावोंकी विशुद्धतासे महानुभव होकर केवलज्ञान पाया, यह प्रकट है।

भावार्थः––कोई जानेगा कि शास्त्र पढ़नेसे ही सिद्धि है तो इसप्रकार भी नहीं है।
शिवभूति मुनिने तुष माष ऐसा शब्दमात्र रटनेसे ही भावोंकी विशुद्धता से केवल७ान पाया।
इसकी इसप्रकार है–––कोई शिवभूति नामक मुनि था। उसने गुरुके पास शास्त्र पढ़े परन्तु
धारणा नहीं हुई। तब गुरु ने यह शब्द पढ़ाया कि ’मा रुष मा तुष’ सो इस शब्द को घोखने
लगा। इसका अर्थ यह है कि रोष मत करे, तोष मत करे अर्थात् रागद्वेष मत करे, इससे सर्व
सिद्ध है।

फिर यह भी शुद्ध याद न रहा तब ‘तुषमाष’ ऐसा पाठ घोखने लगा, दोनों पदोंके
‘रुकार और– तुकार’ भूल गये और ‘तुषमाष’ इसप्रकार याद रह गया। उसको घोखते हुए
विचारने लगे। तब कोई एक स्त्री उड़द की दाल धो रही थी, उसको किसीने पूछा तू क्या
कर रही है? उसने कहा–––तुष और माष भिन्न भिन्न कर रही हूँ। तब यह सुन कर मुनिने
‘तुषमाष’ शब्द का भावार्थ यह जाना कि यह शरीर तो तुष और यह आत्मा माष है, दोनों
भिन्न भिन्न हैं। इसप्रकार भाव जानकर आत्मा का अनुभव करने लगा। चिन्मात्र शुद्ध आत्माको
जानकर उसमें लनि हुआ, तब घाति कर्मका नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया। इसप्रकार
भावोंकी विशुद्धता से सिद्धि हुई जानकर भाव शुद्ध करना, यह उपदेश है।। ५३।।

आगे इसी अर्थको सामान्यरूप से कहते हैंः–––
भावेण होइ णग्गो बाहिरलिंगेण किं च णग्गेण।
कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण।। ५४।।
भावेन भवति नग्नः बहिर्लिंगेन किं च नग्नेन।
कर्मप्रकृतीनां निकरं नाशयति भावेन द्रव्येण।। ५४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ ––माकर, ऐसा पाठ सुसंगत है।
नग्नत्व तो छे भावथी; शुं नग्न बाहिर–लिंगथी?
रे! नाश कर्मसमूह केरो होय भावथी द्रव्यथी। ५४।

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भावपाहुड][१८९
अर्थः––भावसे नग्न होता है, बाह्य नग्नलिंगसे क्या कार्य होता है? अर्थात् नहीं होता
है, क्योंकि भावसहित द्रव्यलिंग से कर्मप्रवृत्तिके समूह का नाश होता है।

भावार्थः––आत्मा के कर्म प्रवृत्तिके नाश से निर्जरा तथा मोक्ष होना कार्य है। यह कार्य
द्रव्यलिंग से नहीं होता। भावसहित द्रव्यलिंग होनेपर कर्म निर्जरा नामक कार्य होता है। केवल
द्रव्यलिंगसे तो नहीं होता, इसलिये भावलिंग द्रव्यलिंग धारण करनेका यह उपदेश है।। ५४।।

आगे इसी अर्थको दृढ़ करेत हैंः–––
णग्गत्तणं अकज्जं भावणरहियं जिणेहिं पण्णत्तं।
इय णाऊण य णिय्यं भाविज्जहि अप्पयं धीर।। ५५।।
नग्नत्वं अकार्यं भावरहितं जिनैः प्रज्ञप्तम्।
इति ज्ञात्वा नित्यं भावयेः आत्मानं धीर!।। ५५।।

अर्थः
––भावरहित नग्नत्व अकार्य हे, कुछ कार्यकारी नहीं है। ऐसा जिन भगवान ने
कहा है। इसप्रकार जानकर है धीर! धैर्यवान मुने! निरन्तर नित्य आत्मा की ही भावना कर।

भावार्थः––आत्माकी भावना बिना केवल नग्नत्व कुछ कार्य करने वाला नहीं है, इसलिये
चिदानन्दस्वरूप आत्मा की ही भावना निरन्तर करना, आत्मा की भावना सहित नग्नत्व सफल
होता है।। ५५।।

आगे शिष्य पूछता है कि भावलिंगको प्रधान कर निरूपण किया वह भावलिंग कैसा है?
इसका समाधान करने के लिये भावलिंगका निरूपण करते हैंः–––
देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू।। ५६।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
नग्नत्व भावविहीन भाख्युं अकार्य देव जिनेश्वरे,
–ईम जाणीने हे धीर! नित्ये भाव तुं निज आत्मने। ५५।

देहादि संग विहीन छे, वर्ज्या सकळ मानादि छे,
आत्मा विषे रत आत्म छे, ते भावलिंगी श्रमण छे। ५६।

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१९०] [अष्टपाहुड
देहादिसंगरहितः मानकषायैः सकलपरित्यक्तः।
आत्मा आत्मनि रतः स भावलिंगी भवेत् साधु।। ५६।।

अर्थः
––भावलिंगी साधु ऐसा होता है–––देहादिक परिग्रहोंसे रहित होता है तथा मान
कषायसे रहित होता है और आत्मामें लीन होता है, वही आत्मा भावलिंगी है।

भावार्थः––आत्माके स्वाभाविक परिणाम को ‘भाव’ कहते है, उस रूप लिंग (चिन्ह),
लक्षण तथा रूप हो वह भावलिंग है। आत्मा अमूर्तिक चेतनारूप है, उसका परिणाम दर्शन ज्ञान
है। उसमें कर्मके निमित्त से
(–पराश्रय करने से) बाह्य तो शरीरादिक मूर्तिक पदार्थका संबन्ध
है और अंतरंग मिथ्यात्व और रागद्वेष आदि कषायों का भाव है, इसलिये कहते हैं किः–––

बाह्य तो देहादिक परिग्रह से रहित और अंतरंग रागादिक परिणाममें अहंकार रूप
मानकषाय, परभावोंमें अपनापन मानना इस भावसे रहित हो और अपने दर्शनज्ञानरूप
चेतनाभावमें लीन हो वह ‘भावलिंग’ है, जिसको इसप्रकार के भाव हों वह भावलिंग साधु है।।
५६।।

आगे इसी अर्थ को स्पष्ट कर कहते हैः–––
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे।। ५७।।
ममत्वं परिवर्जामि निर्ममत्वमुपस्थितः।
आलंबनं च मे आत्मा अवशेषानि व्युत्सृजामि।। ५७।।

अर्थः
––भावलिंग मुनि के इसप्रकार के भाव होते है––––मैं परद्रव्य और परभावोंसे
ममत्व
(अपना मानना) को छोड़ता हूँ और मेरा निजभाव ममत्वरहित है उसको अंगीकार कर
स्थित हूँ। अब मुझे आत्माका ही अवलंबन है, अन्य सभी को छोड़ता हूँ।

भावार्थः––सब परद्रव्योंका आलम्बन छोड़कर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो ऐसा
‘भावलिंग’ है।। ४७।।

आगे कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन, संयम, त्याग, संवर और योग ये भाव भावलिंगी
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परिवर्जुं छुं हुं ममत्व, निर्मम भावमां स्थित हुं रहुं;
अवलंबुं छुं मुज आत्मने, अवशेष सर्व हुं परिहरूं। ५७।

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भावपाहुड][१९१
मुनिके होते हैं, ये अनेक हैं तो भी आत्मा ही है, इसलिये इनसे भी अभेदका अनुभव करता
हैः––––
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।। ५८।।
आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे।। ५८।।

अर्थः
––भावलिंगी मुनि विचारते हैं कि––मेरे ज्ञानभाव प्रकट है उसमें आत्मा की ही
भावना है, ज्ञान कोई भिन्न वस्तु नहीं है, ज्ञान है वह आत्मा ही है, इसप्रकार ही दर्शनमें भी
आत्मा ही है। ज्ञानमें स्थिर रहना चारित्र है, इसमें भी आत्मा ही है। प्रत्याख्यान
(अर्थात्
शुद्धनिश्चयनय के विषयभूत स्वद्रव्यके आलंबन के बल से) आगामी परद्रव्य का संबन्ध छोड़ना
है, इस भावमें भी आत्मा ही है, ‘संवर’ ज्ञानरूप रहना और परद्रव्य के भावरूप न परिणमना
है, इस भावमें भी मेरा आत्मा ही है, और ‘योग’ का अर्थ एकाग्रचिंतारूप समाधि–ध्यान है,
इस भावमें भी मेरा आत्मा ही है।

भावार्थः––ज्ञानादिक कुछ भिन्न पदार्थ तो हैं नहीं, आत्मा के ही भाव हैं, संज्ञा,
संख्या, लक्षण और प्रयोजन भेद से भिन्न कहते हैं, वहाँ अभेददृष्टिसे देखें तो ये सब भाव
आत्मा ही हैं इसलिये भावलिंगी मुनिके अभेद अनुभव में विकल्प नहीं है, अतः निर्विकल्प
अनुभव से सिद्धि है यह जानकर इसप्रकार करता है।। ५८।।

आगे इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैंः–––
[अनुष्टुप श्लोक]
एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।। ५९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
मुज ज्ञानमां आत्मा खरे, दर्शन–चरितमां आतमा,
पचखाणमां आत्मा ज, संवर–योगमां पण आतमा। ५८।

मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोगलक्षण भाव मुजथी बाह्य छे। ५९।

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१९२] [अष्टपाहुड
एकः मे शाश्वतः आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः।
शेषाः मे बाह्याः भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः।। ५९।।

अर्थः
––भावलिंगी मुनि विचारता है कि–––ज्ञान, दर्शन लक्षणरूप और शाश्वत् अर्थात्
नित्य ऐसा आत्मा है वही एक मेरा है। शेष भाव हैं वे मुझसे बाह्य हैं, वे सब ही संयोगस्वरूप
हैं, परद्रव्य हैं।

भावार्थः––ज्ञानदर्शनस्वरूप नित्य एक आत्मा है वह तो मेरा है, एक स्वरूप है और
अन्य परद्रव्य हैं वे मुझसे बाह्य हैं, सब संयोगस्वरूप हैं, भिन्न हैं। यह भावना भावलिंगी मुनि
के हैं।। ५९।।
आगे कहते हैं कि जो मोक्ष चाहे वह इसप्रकार आत्माकी भावना करेः–––
भावेह भवसुद्धं अप्पा सुविशुद्धणिम्मलं चेव।
लहु चउगइ चइउणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं।। ६०।।
भावय भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धनिर्मलं चैव।
लघु चतुर्गति च्युत्वा यदि इच्छसि शाश्वतं सौख्यम्।। ६०।।

अर्थः
––हे मुनिजनो! यदि चार गतिरूप संसारसे छूटकर शीघ्र शाश्वत सुखरूप मोक्ष
तुम चाहो तो भावसे शुद्ध जैसे हो वैसे अतिशय विशुद्ध निर्मल आत्माको भावो।

भावार्थः––यदि संसार से निवृत्त होकर मोक्ष चाहो तो द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे
रहित शुद्ध आत्मा को भावो, इसप्रकार उपदेश है।। ६०।।

आगे कहते हैं कि जो आत्माको भावे वह इसके स्वभावको जानकर भावे, वही मोक्ष
पाता हैः–––
जो जीवो भावंतो जीव सहावं सुभावसंजुत्तो।
सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं।। ६१।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तुं शुद्ध भावे भाव रे! सुविशुद्ध निर्मळ आत्मने,
जो शीघ्र चउगतिमुक्त थई इच्छे सुशाश्वत सौख्यने। ६०।

जे जीव जीवस्वभावने भावे, सुभावे परिणमे,
जर–मरणनो करी नाश ते निश्चय लहे निर्वाणने। ६१।

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भावपाहुड][१९३
यः जीवः भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः।
सः जरामरणविनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वाणम्।। ६१।।

अर्थः
––जो भव्यपुरुष जीवको भाता हुआ, भले भावसे संयुक्त हुआ जीवके स्वभावको
जानकर भावे, वह जरा–मरणका विनाश कर प्रगट निर्वाण को प्राप्त करता है।
भावार्थः––‘जीव’ ऐसा नाम तो लोक में प्रसिद्ध है, परन्तु इसका स्वभाव कैसा है?
इसप्रकार लोगोंके यथार्थ ज्ञान नहीं है और मतांतर के दोष से इसका स्वरूप विपर्यय हो रहा
है। इसलिये इसका यथार्थ स्वरूप जानकर भावना करते हैं वे संसार से निवृत्त होकर मोक्ष
प्राप्त करते हैं।। ६१।।

आगे जीवका स्वरूप सर्वज्ञ देवने कहा है वह कहते हैंः––
जीवो जिणपण्णत्तो णाणसहाओ य चेयणासहिओ।
सो जीवो णायव्वो कम्मक्खयकरणणिम्मित्तो।। ६२।।
जीवः जिनप्रज्ञप्तः ज्ञानस्वभावः च चेतनासहितः।
सः जीवः ज्ञातव्यः कर्मक्षयकरणनिमित्तः।। ६२।।

अर्थः
––जिन सर्वज्ञदेव ने जीवका स्वरूप इसप्रकार कहा है–––जीव है वह
चेतनासहित है और ज्ञानस्वभाव है, इसप्रकार जीव की भावना करना, जो कर्मके क्षयके निमित्त
जानना चाहिये।

भावार्थः––जीवका चेतनासहित विशेषण करने से तो चार्वाक जीवको चेतना सहित नहीं
मानता है उसका निराकरण है। ज्ञानस्वभाव विशेषणसे साँख्यमती ज्ञान को प्रधान धर्म मानता
है, जीवको उदासीन नित्य चेतनारूप मानता है उसका निराकरण है और नैयायिकमती गुण–
गुणीका भेद मानकर ज्ञान को सदा भिन्न मानता है उसका निराकरण है। ऐसे जीवके
स्वरूपको भाना कर्मके क्षयका निमित्त होता है, अन्य प्रकार मिथ्याभाव है।। ६२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे जीव ज्ञानस्वभाव ने चैतन्ययुत–भाख्युं जिने;
ए जीव छे ज्ञातअ कर्मविनाशकरणनिमित्त जे। ६२।

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१९४] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं कि जो पुरुष जीवका अस्तित्व मानते हैं वे सिद्ध होते हैंः–––
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्वहा तत्थ।
ते होंति भिण्णदेहाः सिद्धा वचिगोयरमदीदा।। ६३।।
येषां जीवस्वभावः नास्ति अभावः च सर्वथा तत्र।
ते भवन्ति भिन्नदेहाः सिद्धाः वचोगोचरातीताः।। ६३।।

अर्थः
––जिन भव्यजीवोंके जीव नामक पदार्थ सद्भावरूप है और सर्वथा अभावरूप नहीं
है, वे भव्यजीव देह से भिन्न तथा वचनगोचरातीत सिद्ध होते हैं।

भावाथर्ः––जीव द्रव्यपर्यायस्वरूप है, कथंचित् अस्तिस्वरूप है, कथंचित् नास्तिस्वरूप
है। पर्याय अनित्य है, इस जीवके कर्मके निमित्त से मनुष्य, तिर्यंच, देव और नारक पर्याय होती
है, इसका कदाचित् अभाव देखकर जीवका सर्वथा अभाव मानते हैं। उनको सम्बोधन करने के
लिये ऐसा कहा है कि जीवका द्रव्यदृष्टि से नित्य स्वभाव है। पर्याय का अभाव होने पर सर्वथा
अभाव नहीं मानता है वह देह से भिन्न होकर सिद्ध परमात्मा होता है, वे सिद्ध वचनगोचर
नहीं है। जो देह को नष्ट होते देखकर जीवका सर्वथा नाश मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं, वे
सिद्ध परमात्मा कैसे हो सकते हैं? अर्थात् नहीं होते हैं।। ६३।।

आगे कहते हैं कि जो जीवका स्वरूप वचनके अगोचर है ओर अनुभवगम्य है वह
इसप्रकार हैः–––
अरसमरुवमगंधं अव्वत्तं चेदणागुणमसद्दं।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिद्दिट्ठसंठाणं।। ६४।।
अरसमरूपमगंधं अव्यक्तं चेतनागुणं अशब्दम्।
जानीहि अलिंगग्रहणं जीवं अनिर्दिष्ट संस्थानम्।। ६४।।

––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सिद्ध – मुक्त–परमात्मदशाको प्राप्त।
‘सत्’ होय जीवस्वभाव ने न् ‘असत्’ सरवथा जेमने,
ते देहविरहित वचनविषयातीत सिद्धपणुं लहे। ६३।

जीव चेतनागुण, अरसरूप, अगंधशब्द, अव्यक्त छे,
वळी लिंगग्रहणविहीन छे, संस्थान भाख्युं न तेहने। ६४।

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भावपाहुड][१९५
अर्थः––हे भव्य! तू जीवका स्वरूप इसप्रकार जान – कैसा है? अरस अर्थात् पाँच
प्रकार के खट्टे, मीठे, कडुवे, कषायले और खारे रससे रहित है। काला, पीला, लाल, सफेद
और हरा इसप्रकार अरूप अर्थात् पाँच प्रकार के रूप से रहित है। दो प्रकार की गंध से रहित
है। अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियोंके गोचर – व्यक्त नहीं है। चेतना गुणवाला है। अशब्द अर्थात्
शब्द रहित है। अलिंगग्रहण अर्थात् जिसका कोई चिन्ह इन्द्रिय द्वारा ग्रहण में नहीं आता है।
अनिर्दिष्ट संसथान अर्थात् चौकोर, गोल आदि कुछ आकार उसका कहा नहीं जाता है,
इसप्रकार जीव जानो।

भावार्थः––रस, रूप, गंध, शब्द ये तो पुद्गलके गुण हैं, इनका निषेधरूप जीव कहा;
अव्यक्त, अलिंगग्रहण, अनिर्दिष्टसंस्थान कहा, इसप्रकार ये भी पुद्गलके स्वभाव की अपेक्षा से
निषेधरूप ही जीव कहा और चेतना गुण कहा तो यह जीवका विधिरूप कहा। निषेध अपेक्षा तो
वचनके अगोचर जानना और विधि अपेक्षा स्वसंवेदनगोचर जानना। इसप्रकार जीवका स्वरूप
जानकर अनुभवगोचर करना। यह गाथा समयसार में ४६, प्रवचनसारमें १७२, नियमसारमें ४६,
पंचास्तिकायमें १२७, धवला टीका पु० ३ पृ० २, लघु द्रव्यसंग्रह गाथा ५ आदि में भी है। इसका
व्याख्यान टीकाकरने विशेष कहा है वह वहाँसे जानना चाहिये।। ६४।।

आगे जीवका स्वभाव ज्ञानस्वरूप भावना कहा, वह ज्ञान कितने प्रकारका भाना यह
कहते हैंः–––
भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्धं।
भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो
होइ।। ६५।।
भावय पंचप्रकारं ज्ञानं अज्ञान नाशनं शीघ्रम्।
भावना भावितसहितः दिवशिवसुखभाजनं भवति।। ६५।।

अर्थः
––हे भव्यजन! तू यह ज्ञान पाँच प्रकारसे भा, कैसा है यह ज्ञान? अज्ञान का नाश
करने वाला है, कैसा होकर भा? भावना से भावित जो भाव उस सहित भा, शीघ्र भा, इससे
तो दिव
(स्वर्ग) और शिव (मोक्ष) का पात्र होगा।

भावार्थः––यद्यपि ज्ञान जाननेके स्वभावसे एक प्रकारका है तो भी कर्मके
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ ‘भायेण’ पाठान्तर ‘भायणो’
तुं भाव झट अज्ञाननाशन ज्ञान पंचप्रकार रे!
ए भावनापरिणत स्वरग–शिवसौख्यनुं भाजन बने। ६५।

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१९६] [अष्टपाहुड
क्षयोपशम और क्षयकी अपेक्षा पाँच प्रकारका है। उसमें मिथ्यात्वभाव की अपेक्षा से मति, श्रुत,
अवधि ये तीन मिथ्याज्ञान भी कहलाते हैं, इसलिये मिथ्याज्ञानका अभाव करने के लिये मनि,
श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान स्वरूप पाँच प्रकारका सम्यज्ञान जानकर उनको भाना।
परमार्थ विचार से ज्ञान एक ही प्रकार का है। यह ज्ञानकी भावना स्वर्ग–मोक्षकी दाता है।।
६५।।

आगे कहते हैं कि पढ़ना, सुनना भी भाव बिना कुछ नहीं हैः–––
पढिएण वि किं कीरइ किं वा सुणिएण भावरहिएण।
भावो कारण भूद्दो सायारणयार भूदाणं।। ६६।।
पठितेनापि किं क्रियते किं वा श्रुतेन भावरहितेन।
भावः कारणभूतः सागारानगारभूतानाम्।। ६६।।

अर्थः
––भावरहित पढ़ने सुनने से क्या होता है? अर्थात् कुछ भी कार्यकारी नहीं है,
इसलिये श्रावकत्व तथा मुनित्व इनका कारणभूत भाव ही है।

भावार्थः––मोक्षमार्ग में एकदेश, सर्वदेश व्रतोंकी प्रवृत्तिरूप मुनि–श्रावकपना है, उन
दोनोंका कारणभूत निश्चयसम्यगदर्शनादि भाव हैं। भाव बिना व्रतक्रियाकी कथनी कुछ कार्यकारी
नहीं है, इसलिये ऐसा उपदेश है कि भाव बिना पढ़ने–सुनने आदिसे क्या होता है? केवलखेद
मात्र है, इसलिये भावसहित जो करो वह सफल है। यहाँ ऐसा आशय है कि कोई जाने कि–
–पढ़ना–सुनना ही ज्ञान है तो इसप्रकार नहीं है, पढ़कर–सुनकर आपको ज्ञामस्वरूप जानकर
अनुभव करे तब भाव जाना जाता है, इसलिये बारबार भावनासे भाव लगाने पर ही सिद्धि है।।
६६।।

आगे कहते हैं कि यदि बाह्य नगनपनेसे ही सिद्धि होतो नग्न तो सब ही होते हैंः–––
दव्वेण सयल णग्गा णारयतिरिया य सयलसंघाया।
परिणामेण असुद्धा ण भावसवणत्तणं पत्ता।। ६७।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! पठन तेम ज श्रवण भावविहीनथी शुं सधाय छे?
सागार–अणगारत्वना कारणस्वरूपे भाव छे। ६६।

छे नग्न तो तिर्यंच–नारक सर्व जीवो द्रव्यथी;
परिणाम छे नहि शुद्ध ज्यां त्यां भावश्रमणपणुं नथी। ६७।