Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 52-62 (Bodh Pahud),1 (Bhav Pahud),2 (Bhav Pahud),3 (Bhav Pahud),4 (Bhav Pahud),5 (Bhav Pahud),6 (Bhav Pahud),7 (Bhav Pahud),8 (Bhav Pahud),9 (Bhav Pahud),10 (Bhav Pahud); Bhav Pahud.

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बोधपाहुड][१३७
है। परकृतनिलयनिवास अर्थात् जिसमें दूसरे का बनाया निलय जो वास्तिका आदि उसमें
निवास होता है, जिसमें अपने को कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय द्वारा दोष न
लगा हो ऐसी दूसरे की बनाई हुई वास्तिका आदि में रहना होता है––ऐसी प्रवज्या कही है।

भावार्थः––अन्यमती कई लोग बाह्य में वस्त्रादिक रखते हैं, कई अयुध रखते हैं, कई
सुखके लिये आसन चलाचल रखते हैं, कई उपाश्रय आदि रहने का निवास बना कर उसमें
रहते हैं और अपने को दीक्षा सहित मानते हैं, उनके भेष मात्र है, जैन दीक्षा तो जैसी कही
वैसी ही है।। ५१।।

आगे फिर कहते हैंः––
उवसमखमदमजुत्ता सरीरसंकार वज्जिया रुक्खा।
मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५२।।
उपशमक्षमदमयुक्ता शरीर संस्कार वर्जिता रूक्षा।
मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५२।।

अर्थः
––कैसी है प्रवज्या? उपशमक्षमदमयुक्ता अर्थात् उपशम तो मोहकर्मके उदयका
अभावरूप शांतपरिणाम और क्षमा अर्थात् क्रोधका अभावरूप उत्तमक्षमा तथा दम अर्थात्
इन्द्रियोंको विषयों में नहीं प्रवर्ताना–––इन भावोंसे युक्त है, शरीर संस्कार वर्जिता अर्थात्
स्नानादि द्वारा शरीर को सजाना इससे रहित है, जिसमें रूक्ष अर्थात् तेल आदिका मर्दन
शरीरके नहीं है। मद, राग, द्वेष रहित है, इसप्रकार प्रवज्या कही है।
भावार्थः––अन्यमतके भेषी क्रोधादिरूप परिणमते हैं, शरीरको सजाकर सुन्दर रखते हैं,
इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करते हैं और अपने को दीक्षासहित मानते हैं, वे तो गृहस्थके समान
हैं, अतीत
(यति) कहलाकर उलटे मिथ्यात्वको दृढ़ करते हैं; जैन दीक्षा इसप्रकार है वही
सत्यार्थ है, इसको अंगीकार करते हैं वे ही सच्चे अतीत (यति) हैं।। ५२।।

आगे फिर कहते हैंः––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
उपशम–क्षमा–दमयुक्त, तनसंस्कारवर्जित रूक्ष छे,
मद–राग–द्वेषविहीन छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ५२।

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१३८] [अष्टपाहुड
विवरीयमूढभावा पणट्ठकम्मट्ठ णट्ठमिच्छत्ता।
सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५३।।
विपरीतमूढभावा प्रणष्टकर्माष्टा नष्टमिथ्यात्वा।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५३।।

अर्थः
––कैसी है प्रवज्या?––––कि जिसके मूढ़भाव, अज्ञानभाव विपरीत हुआ है अर्थात्
दूर हुआ है। अन्यमती आत्मा का स्वरूप सर्वथा एकांतसे अनेकप्रकार भिन्न–भिन्न कहकर वाद
करते हैं, उनके आत्मा के स्वरूप में मूढ़भाव है। जैन मुनियोंके अनेकांतसे सिद्ध किया हुआ
यथार्थ ज्ञान है इसलिये मूढ़भाव नहीं है। जिसमें आठ कर्म और मिथ्यात्वादि प्रणष्ट हो गये हैं,
जैनदीक्षामें अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वका अभाव है, इसलिये सम्यक्त्व नामक गुण द्वारा
विशुद्ध हैं, निर्मल हैं, सम्यक्त्वसहित दीक्षा में दोष नहीं रहता; इसप्रकार प्रवज्या कहीं है।।
५३।।
आगे फिर कहते हैंः––
जिणमग्गे पव्वज्जा छहसंहणणेसु भणिय णिग्गंथा।
भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया।। ५४।।
जिनमार्गे प्रव्रज्या षट्संहननेषु भणिता निर्ग्रंथा।
भावयंति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता।। ५४।।

अर्थः
––प्रवज्या जिनमार्ग में छह संहननवाले जीवके होना कहा है, निर्गं्रन्थ स्वरूप है,
सब परिग्रहसे रहित यथाजातस्वरूप है। इसकी भव्यपुरुष ही भावना करते हैं। इसप्रकारकी
प्रवज्या कर्मके क्षयका कारण कही है।

भावार्थः––वज्रऋषभनाराच आदि छह शरीरके संहनन कहें हैं, उनमें सब में ही दीक्षा
होना कहा है, जो भव्य पुरुष हैं वे कर्मक्षयका कारण जानकर इसको अंगीकार करो। इसप्रकार
नहीं है कि दृढ़ संहनन वज्रऋषभ आदि हैं उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपाटिक संहननमें न
हो, इसप्रकार निर्ग्रंथरूप दीक्षा तो असंप्राप्तासृपाटिका
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ज्यां मूढता–मिथ्यात्व नहि, ज्यां कर्म अष्ट विनष्ट छे,
सम्यक्त्वगुणथी शुद्ध छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ५३।

निर्ग्रंथ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिनवरे;
भवि पुरुष भावे तेहने; ते कर्मक्षयनो हेतु छे। ५४।

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बोधपाहुड][१३९
संहनन में भी होती है।। ४४।।

आगे फिर कहते हैंः–––
तिलतुसमत्तणिमित्तसम बाहिरग्गंथसंगहो णत्थि।
पव्वज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरसीहिं।। ५५।।
तिलतुषमात्रनिमित्तसमः बाह्यग्रंथसंग्रहः नास्ति।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः।। ५५।।

अर्थः
––जिस प्रवज्या में तिलके तुष मात्रके संग्रह का कारण––ऐसे भावरूप इच्छा
अर्थात् अंतरंग परिग्रह और उस तिलके तुषमात्र बाह्य परिग्रहका संग्रह नहीं है इस प्रकार की
प्रवज्या जिसप्रकार सर्वज्ञदेव ने कही है उसीप्रकार है, अन्यप्रकार प्रवज्या नहीं है ऐसा नियम
जानना चाहिये। श्वेताम्बर आदि कहते हैं कि अपवादमार्ग में वस्त्रादिकका संग्रह साधु को कहा
है वह सर्वज्ञके सूत्र में तो नहीं कहा है। उन्होंने कल्पित सूत्र बनाये हैं उनमें कहा है वह
कालदोष है।। ५५।।

आगे फिर कहते हैंः–––
उवसग्गपरिसहसहा णिज्जणदेसे हि णिच्च अत्थइ।
सिल कट्ठे भूमितले सव्वे आरुहइ सव्वत्थ।। ५६।।
उपसर्गपरीषहसहा निर्जनदेशे हि नित्यं तिष्ठति।
शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र।। ५६।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तर – अच्छेइ।
तलतुषप्रमाण न बाह्य परिग्रह, राग तत्सम छे नहीं;
–आवी प्रव्रज्या होय छे सर्वज्ञजिनदेवे कही। ५५।

उपसर्ग–परिषह मुनि सहे, निर्जन स्थळे नित्ये रहे,
सर्वत्र काष्ठ, शिला अने भूतल उपर स्थिति ते करे। ५६।

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१४०] [अष्टपाहुड
अर्थः––उपसर्ग अथवा देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत उपद्रव और परीषह अर्थात्
दैव–कर्मयोगसे आये हुए बाईस परीषहोंको समभावोंसे सहना इसप्रकार प्रवज्यासहित मुनि हैं,
वे जहाँ अन्य जन नहीं रहते ऐसे निर्जन वनादि प्रदेशोंमें सदा रहते हैं, वहाँ भी शिलातल,
काष्ठ, भूमितलमें रहते हैं, इन सब ही प्रदेशोंमें बैठते हैं , सोते हैं, ‘सर्वत्र’ कहने से वन में
रहें और किंचित्कालनगर में रहें तो ऐसे ही स्थान पर रहें।

भावार्थः––जैनदीक्षा वाले मुनि उपसर्ग–परीषहों में समभाव रखते हैं, और जहाँ सोते
हैं, बैठते हैं, वहाँ निर्जन प्रदेश में शिला, काष्ठ, भूमिमें ही बैठते हैं, इसप्रकार नहीं है कि
अन्यमन भेषीवत् स्वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार जानना चाहिये।। ५६।।

आगे अन्य विशेष कहते हैंः––
पसुमहिलसंढसंगं कुसीलसंगं ण कुणइ विकहाओ।
सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५७।।
पशुमहिलाषंढसंगं कुशीलसंगं न करोति विकथाः।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रश्या ईद्रशी भणिता।। ५७।।

अर्थः
––जिस प्रवज्या में पशु–तिर्यंच, महिला
(स्त्री), षंढ (नपुन्सक), इनका संग तथा
कुशील (व्यभिचारी) पुरुष का संग नहीं करते हैं; स्त्री कथा, राजा कथा, भोजन कथा और
चोर इत्यादि की कथा जो विकथा है उनको नहीं करते हैं, तो क्या करते हैं? स्वाध्याय अर्थात्
शास्त्र – जिनवचनोंका पठन–पाठन और ध्यान अर्थात् धर्म – शुक्ल ध्यान इनसे युक्त रहते
हैं। इसप्रकार प्रवज्या जिनदेवने कही है।

भावार्थः––जिनदीक्षा लेकर कुसंगति करे, विकथादिक करे और प्रमादी रहे तो दीक्षा
का अभाव हो जाये, इसलिये कुसंगति निषिद्ध है। अन्य भेषकी तरह यह भेष नहीं है। यह मोक्ष
मार्ग है, अन्य संसारमार्ग हैं।। ५७।।

आगे फिर विशेष कहते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
स्त्री–षंढ–पशु–दुःशीलनो नहि संग, नहि विकथा करे,
स्वाध्याय–ध्याने युक्त छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ५७।

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बोधपाहुड][१४१
तववयगुणेहिं सुद्धा संजमसम्मत्तगुणविसुद्धा य।
सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५८।।
तपोव्रतगुणैः शुद्धा संयमसम्यक्त्वगुणविशुद्धा च।
शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदशी भणिताः।। ५८।।

अर्थः
––जिनदेव ने प्रवज्या इसप्रकार कही है कि–––तप अर्थात् बाह्य – अभ्यंतर बारह
प्रकार के तप तथा व्रत अर्थात् पाँच महाव्रत और गुण अर्थात् इनके भेदरूप उत्तरगुणोंसे शुद्ध
है। ‘संयम’ अर्थात् इन्द्रिय – मनका निरोध, छहकायके जीवोंकी रक्षा, ‘सम्यक्त्व’ अर्थात्
तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण निश्चय–व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन तथा इनके ‘गुण’ अर्थात् मूलगुणों से
शुद्धा, अतिचार रहित निर्मल है और जो प्रवज्या के गुण कहे उनसे शुद्ध है, भेषमात्र ही नहीं
है; इसप्रकार शुद्ध प्रवज्या कही जाती है। इन गुणोंके बिना प्रवज्या शुद्ध नहीं है।

भावार्थः––तप व्रत सम्यक्त्व इन सहित और जिनमें इनके मूलगुण तथा अतिचारोंका
शोधन होता है इसप्रकार दीक्षा शुद्ध है। अन्यवादी तथा श्वेताम्बर आदि चाहे – जैसे कहते हैं
वह दीक्षा शुद्ध नहीं है।। ५८।।

आगे प्रवज्या के कथन का संकोच करेत हैंः–––
एवं आयत्तणगुणपज्जंत्ता बहुविसुद्ध सम्मत्ते।
णिग्गंथे जिणमग्गे संखेवेणं जहारवादं।। ५९।।
एवं आयतनगुणपर्याप्ता बहुविशुद्धसम्यक्त्वे।
निर्ग्रंथे जिनमार्गे संक्षेपेण यथाख्यातम्।। ५९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः ––आयात्तणगुणपव्वज्जंता।
२ संस्कृत सटीक प्रति में ‘आयतन’ इसकी सं० ‘आत्मत्व’ इसप्रकार है।
तपव्रतगुणोथी शुद्ध, संयम–सुद्रगगुणसुविशुद्ध छे,
छे गुणविशुद्ध, –सुनिर्मळा दीक्षा कही आवी जिने। ५८।

संक्षेपमां आयतनथी दीक्षांत भाव अहीं कह्या,
ज्यम शुद्ध सम्यग्दरशयुत निर्ग्रंथ जनपथ वर्णआ। ५९।

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१४२] [अष्टपाहुड
अर्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त प्रकार से आयतन अर्थात् दीक्षा का स्थान जो निर्ग्रंथ मुनि
उसके गुण जितने हैं उनसे पज्जता अर्थात् परिपूर्ण अन्य भी जो बहुतसे गुण दीक्षामें होने
चाहिये वे गुण जिसमें हों इसप्रकार की प्रवज्या जिनमार्ग में प्रसिद्ध है। उसीप्रकार संक्षेपसे
कही है। कैसा है जिनमार्ग? जिसमें सम्यक्त्व विशुद्ध है, जिसमें अतीचार रहित सम्यक्त्व पाया
जाता है और निर्ग्रंथरूप है अर्थात् जिसमें बाह्य अंतरंग –परिग्रह नहीं है।

भावार्थः––इसप्रकार पूर्वोक्त प्रवज्या निर्मल सम्यक्त्वसहित निर्ग्रंथरूप जिनमार्गमें कही
है। अन्य नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, मीमांसक, पातंजलि और बौद्ध आदिक मतमें
नहीं है। कालदोषसे भ्रष्ट हो गये और जैन कहलाते हैं इसप्रकारके श्वेताम्बरादिकोंमें भी नहीं
है।। ५९।।

इसप्रकार प्रवज्याके स्वरूपका वर्णन किया।

आगे बोधपाहुडको संकोचते हुए आचार्य कहते हैंः–––
रुवत्थं सुद्धत्थं जिणमग्गे जिणवरेहिं जह भणियं।
भव्वजणबोहणत्थं छक्काय हियंकरं उत्तं।। ६०।।
रूपस्थं शुद्धयर्थं जिनमार्गे जिनवरैः यथा भणितम्।
भव्यजन बोधनार्थं षट्कायहितंकरं उक्तम्।। ६०।।

अर्थः
––जिसमें अंतरंग भावरूप अर्थ शुद्ध है और ऐसा ही रूपस्थ अर्थात् बाह्यस्वरूप
मोक्षमार्ग जैसा जिनमार्गमें जिनदेवने कहा है वैसा छहकायके जीवोंका हित करने वाला मार्ग
भव्यजीवोंके संबोधनके लिये कहा है। इसप्रकार आचार्य ने अपना अभिप्राय प्रकट किया है।

भावार्थः––इस बोधपाहुड में आयतन आदि से लेकर प्रवज्यापर्यन्त ग्यारह स्थल कहे।
इनका बाह्य–अन्तरंग स्वरूप जैसे जिनदेवने जिनमार्गमें कहा वैसे ही कहा है। कैसा है यह
रूप – छहकायके जीवोंका हित करने वाला है, जिसमें एकेन्द्रिय आदि असैनी पर्यन्त जीवोंकी
रक्षाका अधिकार है, सैनी पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा भी कराता है
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रूपस्थ सुविशुद्धार्थ वर्णन जिनपथे ज्यम जिन कर्युं,
त्यम भअजनबोधन अरथ षट्कायहितकर अहीं कह्युं। ६०।

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बोधपाहुड][१४३
और मोक्षमार्गका उपदेश करके संसारका दुःख मेटकर मोक्षको प्राप्त कराता है, इसप्रकारका
मार्ग
(–उपाय) भव्यजीवों के संबोधनेके लिये कहा है। जगत के प्राणी अनादि से लगाकर
मिथ्यामार्गमें प्रवर्तनकर संसारमें भ्रमण करते हैं, इसलिये दुःख दूर करने के लिये आयतन आदि
ग्यारह स्थान धर्मके ठिकानेका आश्रय लेते हैं; अज्ञानी जीव इस स्थान पर अन्यथा स्वरूप
स्थापित करके उनसे सुख लेना चाहते हैं, किन्तु यथार्थ के बिना सुख कहाँ? इसलिये आचार्य
दयालु होकर जैसे सर्वज्ञने कहे वैसे ही आयतन आदिका स्वरूप संक्षेपसे यथार्थ कहा है?
इसको बाँचों, पढ़ो, धारण करो और इसकी श्रद्धा करो। इसके अनुसार तद्रूप प्रवृत्ति करो।
इसप्रकार करने से वर्तमानमेह सुखी रहो और आगामी संसारदुःख से छूट कर परमानन्दस्वरूप
मोक्षको प्राप्त करो। इसप्रकार आचार्य का कहने का अभिप्राय है।

यहाँ कोई पूछे ––इस बोधपाहुड में व्यवहारधर्म की प्रवृत्तिके ग्यारह स्थान कहे। इनका
विशलेषण किया कि–––ये छहकायके जीवों के हित करने वाले हैं। किन्तु अन्यमती इनको
अन्यथा स्थापित कर प्रवृत्त करते हैं वे हिंसा रूप हैं और जीवोंके हित करने वाले नहीं हैं। ये
ग्यारह ही स्थान संयमी मुनि और अरहन्त, सिद्ध को ही कहें हैं। ये तो छह कायके जीवोंके
हित करने वाले ही हैं इसलिये पूज्य हैं। यह तो सत्य है, और जहाँ रहते हैं इसप्रकार आकाश
के प्रदेशरूप क्षेत्र तथा पर्वतकी गुफा, वनादिक तथा अकृत्रिम चैत्यालय ये स्वयमेव बनें हुए हैं,
उनको भी प्रयोजन और निमित्त विचार कर उपचारमात्र से छहकाय के जीवों के हित करने
वाले कहें तो विरोध नहीं हैं, क्योंकि ये प्रदेश जड़ हैं, ये बुद्धिपूर्वक किसी का भला बुरा नहीं
करते हैं तथा जड़ को सुख–दुःख आदि फलका अनुभव नहीं है, इसलिये ये भी व्यवहार से
पूज्य हैं, क्योंकि अरहंतादिक जहाँ रहते हैं वे क्षेत्र–निवास आदिक प्रशस्त हैं, इसलिये उन
अरहंतादिके आश्रय से ये क्षेत्रादिक भी पूज्य हैं; परन्तु प्रश्न –गृहस्थ जिनमंदिर बनावे,
वस्तिका, प्रतिमा बनावे और प्रतिष्ठा पूजा करे उसमें तो छहकायके जीवोंकी विराधना होती है,
यह उपदेश और प्रवृत्ति की बाहुल्यता कैसे है?
इसका समाधान इसप्रकार है कि–––गृहस्थ अरहन्त, सिद्ध, मुनियोंका उपासक है; ये
जहाँ साक्षात् हों वहाँ तो उनकी वंदना, पूजन करता ही है। जहाँ ये साक्षात् न हों वहाँ परोक्ष
संकल्प कर वंदना – पूजन करता है तथा उनके रहनेका क्षेत्र तथा ये मुक्त हुए क्षेत्र में तथा
अकृत्रिम चैत्यालय में उनका संकल्प कर वंदना व पूजन करता है। इसमें अनुरागविशेष सूचित
होता है; फिर उनकी मुद्रा, प्रतिमा तदाकार बनावे और उसको मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा कर
स्थापित करे तथा नित्य पूजन करे इसमें अत्यन्त अनुराग सूचित होता है, उस अनुरागसे
विशिष्ट पुण्यबन्ध होता है और उस मन्दिरमें छहकायके जीवोंके हितकी रक्षाका उपदेश होता
है तथा निरन्तर सुनने वाले और धारण करने वाले अहिंसा धर्म की श्रद्धा दृढ़ होती है, तथा
उनकी तदाकार प्रतिमा

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१४४] [अष्टपाहुड
देखने वाले के शांत भाव होते हैं, ध्यानकी मुद्राका स्वरूप जाना जाता है और वीतरागधर्मसे
अनुराग विशेष होनेसे पुण्यबन्ध होता है, इसलिये इनको भी छहकायके जीवोंका हित करनेवाले
उपचारसे कहते हैं।

जिनमन्दिर वस्तिका प्रतिमा बनाने में तथा पूजा–प्रतिष्ठा करने में आरम्भ होता है,
उसमें कुछ हिंसा भी होती है। ऐसा आरम्भ तो गृहस्थका कार्य है, इसमें गृहस्थको अल्प पाप
कहा, पुण्य बहुत कहा है, क्योंकि गृहस्थके पदमें न्यायकार्य करके न्यायपूर्वक धन उपार्जन
करना, रहनेके लिये मकान बनवाना, विवाहादिक करना और बलपूर्वल आरम्भ कर अहारादिक
स्वयं बनाना तथा खाना इत्यादिक यद्यपि हिंसा होती है तो भी गृहस्थको इसका महापाप नहीं
कहा जाता है। गृहस्थके तो महापाप मिथ्यात्वका सेवन करना, अन्याय, चोरी आदिमें धन
उपार्जन करना, त्रस जीवोंको मारकर मांस खाना और परस्त्री–सेवन करना ये महापाप हैं।

गृहस्थाचार छोड़कर मुनि हो जावे तब गृहस्थके न्यायकार्य भी अन्याय ही हैं। मुनिके भी
आहार आदिकी प्रवृत्तिमें कुछ हिंसा होती है उससे मुनि को हिंसक नहीं कहा जाता है, वैसे
ही गृहस्थके न्यायपूर्वक अपने पदके योग्य आरंभके कार्योंमें अल्प पाप ही कहा जाता है,
इसलिये जिनमंदिर, वस्तिका और पूजा–प्रतिष्ठा के कार्योंमें आरम्भका अल्प पाप है; मोक्षमार्ग
में प्रवर्तने वालोंसे अति अनुराग होता है और उनकी प्रभावना करते हैं, उनको आहारदानादिक
देते हैं और उनका वैयावृत्यादि करते हैं। ये सम्यक्त्वके अंग हैं और महान पूण्य के कारण हैं,
इसलिये गृहस्थको सदा ही करना योग्य है। और गृहस्थ होकर ये कार्य न करे तो ज्ञात होता
है कि इसके धर्म अनुराग विषेश नहीं है।
प्रश्नः–––गृहस्थको जिसके बिना चले नहीं इसप्रकार के कार्य तो करना ही पड़े और
धर्मपद्धति में आरम्भका कार्य करके पाप क्यों मिलावे, सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रौषध आदि
करके पुण्य उपजावे। उसको कहते हैं–––यदि तुम इसप्रकार कहो तो तुम्हारे परिणाम तो इस
जाति के हैं नहीं, केवल बाह्यक्रिया मात्र में ही पुण्य समझते हो। बाह्य में बहु आरम्भी परिग्रही
का मन, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि निरारंभ कार्यों में विशेषरूपसे लगता नहीं है यह
अनुभवगम्य है, तुम्हारे अपने भावोंका अनुभव नहीं है; केवल बाह्य सामायिकादि निरारंभ
कार्योंका भेष धारण कर बैठो तो कुछ विशिष्ट पुण्य नहीं है, शरीरादिक बाह्य वस्तु तो जड़ हैं,
केवल जड़ की क्रियाका फल तो आत्मा को मिलता नहीं है। अपने भाव जितने अंश में
बाह्यक्रिया में लगें उतने अंश में शुभाशुभ फल अपने को लगता है; इसप्रकार विशिष्ट पुण्य तो
भावोंके अनुसार है।

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बोधपाहुड][१४५
आरंभी – परिग्रही के भाव तो पूजा, प्रतिष्ठादिक बडे़ अरंभ में ही विशेष अनुराग सहित
लगते हैं। जो गृहस्थाचार के बड़े अरम्भ से विरक्त होगा सो उसे त्यागकर अपना पद
बढ़ावेगा, जब गृहस्थाचार के बड़े आरंभ छोड़ेगा तब उसी तरह धर्मप्रवृत्तिके बडे़ आरम्भ पद के
अनुसार घटावेगा। मुनि होगा तब आरम्भ क्यों करेगा? अतः तब तो सर्वथा आरम्भ नहीं
करेगा, इसलिये मिथ्यादृष्टि बाह्यबुद्धि जो बाह्य कार्यमात्र ही को पुण्य – पाप मोक्षमार्ग
समझते हैं उनका उपदेश सुन कर अपने को अज्ञानी नहीं होना चाहिये। पुण्य – पापके बंधमें
शुभाशुभ ही प्रधान हैं और पुण्य–पापरहित मोक्षमार्ग है, उसमें सम्यग्दर्शनादिकरूप
आत्मपरिणाम प्रधान है। [हेयबुद्धि सहित] धर्मानुराग मोक्षमार्ग का सहकारी है और
(आंशिक
वीतराग भाव सहित) धर्मानुराग के तीव्र – मंदके भेद बहुत हैं, इसलिये अपने भावोंको यथार्थ
पहिचानकर अपनी पदवी, सामर्थ्य पहिचान – समझकर श्रद्धान–ज्ञान और उसमें प्रवृत्ति करना;
अपना भला – बुरा अपने भावों के आधीन है, बाह्य परद्रव्य तो निमित्त मात्र है, उपादान कारण
हो तो निमित्त भी सहकारी हो और उपादान न हो तो निमित्त कुछ भी नहीं करता है,
इसप्रकार इस बोधपाहुड का आशय जानना चाहिये।

इसको अच्छी तरह समझकर आयतनादिक जैसे कहे वैसे और इनका व्यवहार भी बाह्य
वैसी ही तथा चैत्यगृह, प्रतिमा, जिनबिंब, जिनमुद्रा आदि धातु – पाषाणादिकका भी व्यवहार
वैसा ही जानकर श्रद्धान और प्रवृत्ति करनी। अन्यमति अनेक प्रकार स्वरूप बिगाड़ कर प्रवृत्ति
करते हैं उनकी बुद्धि कल्पित जानकर उपासना नहीं करनी। इस द्रव्यव्यवहार का प्ररूपण
प्रवज्या के स्थल में आदि से दूसरी गाथा में बिंब
चैत्यालयत्रिक और जिनभवन ये भी मुनियोंके
ध्यान करने योग्य हैं इसप्रकार कहा है सो गृहस्थ जब इसकी प्रवृत्ति करते हैं यह ये मुनियोंके
ध्यान करने योग्य होते हैं; इसलिये जो जिनमन्दिर, प्रतिमा, पूजा, प्रतिष्ठा आदिक के सर्वथा
निषेध करने वाले वह सर्वथा एकान्तीकी तरह मिथ्यादृष्टि हैं, उनकी संगति नहीं करना।
[मूलाचार पृ० ४९२ अ० १० गाथा ९६ में कहा है कि ‘‘ श्रद्धा भ्रष्टोंके संपर्ककी अपेक्षा
(गृह
में) प्रवेच करना अच्छा है क्योंकि विवाह में मिथ्यात्व नहीं होगा, परन्तु ऐसे गण तो सर्व
दोषोंके आकर हैं उसमें मिथ्यात्वादि दोष उत्पन्न होते हैं अतः इनसे अलग रहना ही अच्छा
है’’ ऐसा उपदेश है]
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ गाथा २ में बिंबकी जगह ‘वच’ ऐसा पाठ है।

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१४६] [अष्टपाहुड
आगे आचार्य इस बोधपाहुड का वर्णन अपनी बुद्धि कल्पित नहीं है, किन्तु पूर्वाचार्यों के
अनुसार कहा है इसप्रकार कहते हैंः––
सद्दविचारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं।
सो तह कह्यिं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स।। ६१।।
शब्दविकारो भूतः भाषासूत्रेषु यज्जिनेन कथितम्।
तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः।। ६१।।

अर्थः––शब्दके विकार से उत्पन्न हुए इसप्रकार अक्षररूप परिणाम से भाषा सूत्रों में
जिनदेवने कहा, वही श्रवण में आक्षररूप आया और जैसा जिनदेव ने कहा वैसा ही परम्परासे
भद्रबाहुनामक पंचम श्रुतकेवली ने जाना और अपने शिष्य विशाखाचायर आदि को कहा। वह
उन्होंने जाना वही अर्थरूप विशाखाचार्य की परम्परा से चला आया। वही अर्थ आचार्य कहते
हैं, हमने कहा है, वह हमारी बुद्धि से कल्पित करके नहीं कहा गया है, इसप्रकार अभिप्राय है
।। ६१।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
२ विशाखाचार्य–––मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के दीक्षाकाल में दिया हुआ नाम है।
जिनकथन भाषासूत्रमय शाब्दिक–विकाररूपे थयुं;
ते जाण्युं शिष्ये भद्रबाहु तणा अने एम ज कह्युं। ६१।

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बोधपाहुड][१४७
आगे भद्रबाहु स्वामी की स्तुतिरूप वचन कहते हैंः–––
बारसअंगवियाणं चउदसपुव्वंगविउलवित्थरणं।
सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ।। ६२।।
द्वादशांगविज्ञानः चतुर्दशपूर्वांग विपुलविस्तरणः।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु।। ६२।।

अर्थः
––भद्रबाहु नाम आचार्य जयवंत होवें, कैसे हैं? जिनको बारह अंगोंका विशेष ज्ञान
हैं, जिनको चौदह पूर्वोंका विपुल विस्तार है इसीलिये श्रुतज्ञानी हैं। पूर्व भावज्ञान सहित
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान उनके था, ‘गमक गुरु’ हैं, जो सूत्र के अर्थ को प्राप्त कर उसी प्रकार
वाक्यार्थ करे उसको ‘गमक’ कहते हैं, उनके भी गुरुओं में प्रधान हैं, भगवान हैं–––––
सुरासुरों से पूज्य हैं, वे जयवंत होंवें। इसप्रकार कहने में उनको स्तुतिरूप नमस्कार सूचित है।
‘जयति’ धातु सर्वोत्कृष्ट अर्थ में है वह सर्वोत्कृष्ट कहेन से ही नमस्कार आता है।

भावार्थः–––भद्रबाहुस्वामी पंचम श्रुतकेवली हुए। उनकी परम्परा से शास्त्रका अर्थ
जानकर यह बोधपाहुड ग्रन्थ रचा गया है, इसलिये उनको अंतिम मंगल के लिये आचार्य ने
स्तुतिरूप नमस्कार किया है। इसप्रकार बोधपाहुड समाप्त किया है।। ६२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जय बोध द्वादश अंगनो, चउदशपूरव–विस्तारनो,
जय हो श्रुतंधर भद्रबाहु गमकगुरु भगवाननो। ६२।

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१४८] [अष्टपाहुड
छप्पय
प्रथम आयतन दुतिय चैत्यगृह तीक्व प्रतिमा
दर्शन अर जिनबिंब छठो जिनमुद्रा यतिमा।।
ज्ञान सातमूं देव आठमूं नवमूं तीरथ
दसमूं है अरहंत१० ग्यारमूं दीक्षा११ श्रीपथ।।
इम परमारथ मुनिरूप सति अन्यभेष सब निंद्य है।
व्यवहार धातुपाषाणमय आकृति इनिकी वंद्य है।। १।।
दोहा
भयो वीर जिनबोध यहु, गौतमगणधर धारि।
वरतायो
पंचमगुरु, नमुं तिनहिं मद छारि।। २।।
इति श्रीकुन्दकुन्दस्वामी विरचित बोधपाहुडकी
जयपुरानिवासी पं० जयचन्द्रछाबड़ा कृत
देशभाषामयवचनिका समाप्त ।। ४।।

––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पंचमगुरु – पांचवें श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी।


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भावपाहुड
––५––
आगे भावपाहुड की वचनिका लिखते हैंः–––
दोहा
परमात्मकूं वंदिकरि शुद्धभावकरतार।
करूँ भावपाहुडतणीं देशवचनिका सार।। १।।

इसप्रकार मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करके श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत भावपाहुडकी गाथाबद्ध
देशभाषा वचनिका लिखते हैं। प्रथम आचार्य नमस्काररूप मंगल करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा
का सूत्र कहते हैंः––––
णमिऊण जिणवरिंदे णरसुरभवणिंदवंदिए सिद्धे।
वोच्छामि भावपाहुडमयसेसे संजदे सिरसा।। १।।
नमस्कृत्य जिनवरेन्द्रान् नरसुरभवनेन्द्रवंदितान् सिद्धान्।
वक्ष्यामि भायप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा।। १।।

अर्थः
–––आचार्य कहते हैं कि मैं भावपाहुड नामक ग्रन्थको कहूँगा। पहिले क्या करके?
जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर परमदेव तथा सिद्ध अर्थात् अष्टकर्मका नाश करके सिद्धपद को
प्राप्त हुए और अवशेष संयत अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इसप्रकार पंचपरमेष्ठी को
मस्तक से वंदना करके कहूँगा। कैसे हैं पंचपरमेष्ठी? नर अर्थात् मनुष्य, सुर अर्थात्
स्वगरवासीदेव, भवनेन्द्र अर्थात् पातालवासी देव, –इनके इन्द्रोंके द्वारा वंदने योग्य हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
सुर–असुर–नरपतिवंद्य जिनवर–इन्द्रने, श्री सिद्धने,
मुनि शेषने शिरसा नमी कहुं भावप्राभृत–शास्त्रने। १।

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१५०] [अष्टपाहुड
भावार्थः––आचार्य ‘भावपाहुड’ ग्रन्थ बनाते हैं; वह भावप्रधान पंचपरमेष्ठी हैं, उनको
आदि में नमस्कार युक्त है, क्योंकि जिनवरेन्द्र तो इसप्रकार हैं–––जिन अर्थात् गुण श्रेणी
निर्जरा युक्त इसप्रकार के अविरत सम्यग्दृष्टि आदिको में वर अर्थात् श्रेष्ठ ऐसे गणधरादिकोंमें
इन्द्र तीर्थंकर परमदेव हैं, वह गुणश्रेणी निर्जरा शुद्धभाव से ही होती है। वे तीर्थंकरभावके
फलको प्राप्त हुए, घातिकर्मका नाश कर केवलज्ञानको प्राप्त किया, उसीप्रकार सर्व कर्मोंका
नाश कर, परमशुद्धभावको प्राप्त कर सिद्ध हुए, आचार्य, उपाध्याय शुद्धभावके एकदेशको प्राप्त
कर पूर्णताको स्वयं साधते हैं तथा अन्यको शुद्धभावकी दीक्षा–शिक्षा देते हैं, इसीप्रकार साधु हैं
वे भी शुद्धभावको स्वयं साधते हैं और शुद्धभावकी महिमा से तीनलोकके प्राणियों द्वारा पूजने
योग्य वंदने योग्य हैं, इसलिये ‘भावप्राभृत’ के आदिमें इनको नमस्कार युक्त है। मस्तक द्वारा
नमस्कार करनेमें सब अंग आ गये, क्योंकि मस्तक सब अंगों में उत्तम है। स्वयं नमस्कार किया
तब अपने भावपूर्वक ही हुआ, तब ‘मन–वचन–काय’ तीनों ही आ गये, इसप्रकार जानना
चाहिये ।। १।।

आगे कहते हैं कि लिंग द्रव्य–भावके भेद से दो प्रकार का है, इनमें भावलिंग परमार्थ
हैः––
भावो हि पढमलिंग ण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं।
भावो कारण भूदो गुणदोसाणं जिणा
बेन्ति।। २।।
भावः हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंग च जानीहि परमार्थम्।
भावो कारणभूतः गुणदोषाणां जिना
ब्रुवन्ति।। २।।

अर्थः
––भाव प्रथम लिंग है, इसलिये हे भव्य! तू द्रव्यलिंग है उसको परमार्थरूप मत
जान, क्योंकि गुण और दोषोंका कारणभूत भाव ही है, इसप्रकार जिन भगवान कहते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ पाठान्तरः ––विन्ति।
२ पाठान्तरः ––विदन्ति।
छे भाव परथम लिंग, द्रवमय लिंग नहि परमार्थ छे;
गुणदोषनुं कारण कह्यो छे भावने श्री जिनवरे। २।

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भावपाहुड][१५१
भावार्थः––गुण जो स्वर्ग–मोक्षका होना और दोष अर्थात् नरकादिक संसार का होना
इनका कारण भगवानने भावोंको ही कहा है, क्योंकि कारण कार्यके पहिले होता है। यहाँ मुनि
– श्रावकले द्रव्यलिंगके पहिले भावलिंग अर्थात् सम्यग्दर्शनादि निर्मलभाव हो तो सच्चा मुनि –
श्रावक होता है, इसलिये भावलिंग ही प्रधान है वही परमार्थ है, इसलिये द्रव्यलिंगको परमार्थ
न जानना, इसप्रकार उपदेश किया है।

यहाँ कोई पूछे–––भावस्वरूप क्या है? इसका समाधान–––भावका स्वरूप तो आचार्य
आगे कहेंगे तो भी यहाँ भी कुछ कहते हैं–––इस लोक में छह द्रव्य हैं, इनमें जीव पुद्गलका
वर्तन प्रकट देखने में आता है–––जीव चेतनास्वरूप है और पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और
वर्णरूप जड़ है। इनकी अवस्था से अवस्थान्तररूप होना ऐसे परिणाम को ‘भाव’ कहते हैं।
जीव का स्वभाव – परिणामरूप भाव तो दर्शन–ज्ञान है और पुद्गल कर्मके निमित्त से ज्ञान में
मोह–राग–द्वेष होना ‘विभाव भाव’ हैं। पुद्गल के स्पर्श से स्पर्शान्तर, रससे रसांतर इत्यादि
गुणोंसे गुणांतर होना ‘स्वभावभाव’ है और परमाणुसे स्कंध होना तथा स्कंधसे अन्य स्कंध
होना और जीवके भावके निमित्त से कर्मरूप होना ये ‘विभावभाव’ हैं। इसप्रकार इनके परस्पर
निमित्त–नैमित्तिक भाव होते हैं।

पुद्गल तो जड़ है, इसके नैमित्तिक भाव से कुछ सुख–दुःख आदि नहीं हैं और जीव
चेतन है, इसके निमित्त से भाव होते हैं अतः जीव को स्वभाव भावरूप रहनेका और नैमित्तिक
भावरूप न प्रवर्तने का उपदेश है। जीवके पुद्गल कर्मके संयोग से देहादिक द्रव्यका सम्बन्ध है,
–––इस बाह्यरूप को द्रव्य कहते हैं, और ‘भाव’ से द्रव्य की प्रवृत्ति होती है, इसप्रकार द्रव्य
की प्रवृत्ति होती है। इसप्रकार द्रव्य – भाव का स्वरूप जानकर स्वभाव में प्रवर्ते विभाव में न
प्रवर्ते उसके परमानन्द सुख होता है; और विभाव राग – द्वेष – मोहरूप प्रवर्ते, उसके संसार
संबन्धी दुःख होता है।
द्रव्यरूप पुद्गल का विभाव है, इस सम्बन्धी जीव को दुःख–सुख नहीं होता अतः भाव
ही प्रधान है, ऐसा न हो तो केवली भगवान को भी सांसारिक सुख–दुःख की प्राप्ति हो परन्तु
ऐसा नहीं है। इसप्रकार जीव के ज्ञान–दर्शन तो स्वभाव है और राग–द्वेष– मोह ये स्वभाव
विभाव हैं और पुद्गल के स्पर्शादिक तथा स्कन्धादिक स्वभाव विभाव हैं। उनमें जीव का हित–
अहित भाव प्रधान है, पुद्गलद्रव्य संबन्धी प्रधान नहीं है। यह तो सामान्यरूप से स्वभाव का
स्वरूप है और इसी का विशेष सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र तो जीवका स्वभाव भाव है, इसमें
सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है। इसके बिना सब बाह्य क्रिया मिथ्यादर्शन – ज्ञान –चारित्र हैं ये
विभाव हैं और संसार के कारण हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। २।।

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१५२] [अष्टपाहुड
आगे कहते हैं क बाह्यद्रव्य निमित्तमात्र है इसका ‘अभाव’ जीवके भाव की विशुद्धताका
निमित्त जान बाह्यद्रव्य का त्याग करते हैंः––
भावविसुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ।
बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स।। ३।।
भावविशुद्धिनिमित्तं बाह्यग्रंथस्य क्रियते त्यागः।
बाह्यत्यागः विफलः अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्थ।। ३।।

अर्थः
––बाह्य परिग्रह त्याग भावोंकी विशुद्धिके लिये किया जाता है, परन्तु अभ्यन्तर
परिग्रह जो रागागिक हैं, उनसे युक्त बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।

भावार्थः––अन्तरंग भाव बिना बाह्य त्यागादिककी प्रवृत्ति निष्फल है, यह प्रसिद्ध है।।
३।।

आगे कहते हैं कि करोड़ों भवोंमें तप करे तो भी भाव बिना सिद्धि नहीं हैः––
भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो।। ४।।
भावरहितः न सिद्धयति यद्यपि तपश्चरति कोटिकोटी।
जन्मान्तराणि बहुशः लंबितहस्तः गलितवस्त्रः।। ४।।

अर्थः
––यदि कई जन्मान्तरों तक कोड़ाकोड़ि संख्या काल तक हाथ लम्बे लटकाकर,
वस्त्रादिकका त्याग करके तपश्चरण करे, तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
रे! भावशुद्धिनिमित्त बाहिर–ग्रंथ त्याग कराय छे;
छे विफळ बाहिर–त्याग आंतर–ग्रंथथी संयुक्तने। ३।

छो कोटिकोटि भवो विषे निर्वस्त्र लंबितकर रही,
पुष्कळ करे तप, तोय भावविहीनने सिद्धि नहीं। ४।

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भावपाहुड][१५३
भावार्थः––भाव में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्ररूप विभाव रहित सम्यग्दर्शन
– ज्ञान –चारित्ररूप स्वभाव में प्रवृत्ति न हो, तो कोड़ाकोड़ि भव तक कायोत्सर्गपूर्वक नग्नमुद्रा
धारणकर तपश्चरण करे तो भी मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती है, इसप्रकार भावोंमें सम्यग्दर्शन –
ज्ञान – चारित्ररूप भाव प्रधान है, और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि इसके बिना
ज्ञान – चारित्र मिथ्या कहे हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। ४।।

आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैंः––
परिणामम्मि अशुद्धे गंथे मुञ्चेइ बाहिरे य जई।
बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ।। ५।।
परिणामे अशुद्धे ग्रन्थान् मुञ्चति बाह्यान् च यदि।
बाह्यग्रन्थत्यागः भावविहीनस्य किं करोति।। ५।।

अर्थः
––यदि मुनि बन कर परिणाम अशुद्ध होते हुए बाह्य परिग्रह को छोड़े तो बाह्य
परिग्रह का त्याग उस भावरहित मुनिको क्या करे? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं करता है।

भावार्थः––जो बाह्य परिग्रह को छोड़कर मुनि बन जावे और परिणाम परिग्रहरूप अशुद्ध
हों, अभ्यन्तर परिग्रह न छोडे़ तो बाह्य त्याग कुछ कल्याणरूप फल नहीं कर सकता।
सम्यग्दर्शनादि भाव बिना कर्मनिर्जरारूप कार्य नहीं होता हैं।। ५।।

पहली गाथा से इसमें यह विशेषता है कि यदि मुनिपद भी लेवे और परिणाम उज्जवल
न रहे, आत्मज्ञान की भावना न रहे, तो कर्म नहीं कटते हैं।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परिणाम होय अशुद्ध ने जो बाह्य ग्रंथ परित्यजे,
तो शुं करे ए बाह्यनो परित्याग भावविहीनने? ५।

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१५४] [अष्टपाहुड
आगे उपदेश करते हैं कि––भावको परमार्थ जानकर इसीको अंगीकार करोः– –
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण।
पंपिंय सिवपुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।। ६।।
जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन।
पथिक शिवपुरी पंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन।। ६।।

अर्थः
––हे शिवपुरी के पथिक! प्रथम भावको जान, भाव रहित लिंगसे तुझे क्या
प्रयोजन है? शिवपुरीका पंथ जिनभगवंतोंने प्रयत्न साध्य कहा है।

भावार्थः––मोक्षमार्ग जिनवर देवने सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र आत्मभाव स्वरूप
परमार्थसे कहा है, इसलिये इसीको परमार्थ जानकर सर्व उद्यमसे अंगीकार करो, केवल
द्रव्यमात्र लिंग से क्या साध्य है? इसप्रकार उपदेश है।। ६।।

आगे कहते हैं कि द्रव्यलिंग आदि तुने बहुत धारण किये, परन्तु उससे कुछ भी सिद्धि
नहीं हुईः–––
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे।
गहिउज्झियाइं वहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं।। ७।।
भावरहितेन सत्पुरुष! अनादिकालं अनंतसंसारे।
गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिर्ग्रंथ रूपाणि।। ७।।

अर्थः
––हे सत्पुरुष! अनादिकाल से लगाकर इस अनन्त संसार में तुने भावरहित
निर्गरन्थ रूप बहुत बार ग्रहण किये और छोडे़।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे भाव परथम, भावविरहित लिंगथी शुं कार्य छे?
हे पथिक! शिवनगरी तणो पथ यत्नप्राप्य कह्यो जिने। ६।

सत्पुरुष! काळ अनादिथी निःसीम आ संसारमां,
बहु वार भाव विना बहिर्निंर्ग्रंथरूप ग्रह्यां–तज्यां। ७।

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भावपाहुड][१५५
भावार्थः––भाव जो निश्चय सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र उनके बिना बाह्य निर्ग्रंथरूप
द्रव्यलिंग संसार में अनन्तकालसे लगाकर बहुत बार धारण किये और छोडे़ तो भी कुछ सिद्धि
न हुई। चारों गतियोंमें भ्रमण ही करता रहा।। ७।।

वही
कहते हैंः––
भीसणणरयगईए तिरियगईए कुदेवमणुगइए।
पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीवः।। ८।।
भीषण नरक गतौ तिर्यग्गतौ कुदेव मनुष्य गत्योः।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावना जीवः।। ८।।

अर्थः
––हे जीव! तूने भीषण
(भयंकर) नरकगति तथा तिर्यंचगतिमें और कुदेव,
कुमनुष्यगतिमें तीव्र दुःख पाये हैं, अतः अब तू जिनभावना अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना भा
इससे तेरे संसार का भ्रमण मिटेगा।

भावार्थः––आत्माकी भावना बिना चार गतिके दुःख अनादि कालसे संसारमें प्राप्त किये,
इसलिये अब हे जीव! तू जिनेश्वर देव की शरण ले और शुद्ध स्वरूप का बारबार अभ्यास
कर, इससे संसारके भ्रमण से रहित मोक्षको प्राप्त करेगा, यह उपदेश है।। ८।।

आगे चार गतिके दुःखोंको विशेषरूप से कहते हैं, पहिले नरकगति के दुःखोंको कहते
हैंः––
सत्तसु णरयावासे दारुण भीमाइं असहणीयाइं।
भुत्ताई सुइरकालं दुःकरवाइं णिरंतरं सहियं।। ९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
भीषण नरक, तिर्यंच तेम कुदेव–मानवजन्ममां,
तें जीव,! तीव्र दुःखो सह्यां; तुं भाव रे! जिनभावना। ८।

भीषण सुतीव्र असह्य दुःखो सप्त नरकावासमां
बहु दीर्घ काळप्रमाण तें वेद्यां, अछिन्नपणे सह्यां। ९।

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१५६] [अष्टपाहुड
सप्तसु नरकावासेषु दारुणभीषणानि असहनीयानि।
भुक्तानि सुचिरकालं दुःखानि निरंतरं सोढानि।। ९।।

अर्थः
––हे जीव! तुने सात नरकभूमियोंके नरक–आवास बिलोंमें दारुण अर्थात् तीव्र
तथा भयानक और असहनीय अर्थात् सहे न जावें इसप्रकारके दुःखोंको बहुत दीर्घ कालतक
निरन्तर ही भोगे और सहे।

भावार्थः––नरक की पृथ्वी सात है, उनमें बिल बहुत हैं, उनमें दस हजार वर्षोंसे
लगाकर तथा एक सागर से कगाकर तेतीस सागर तक आयु है जहाँ आयुपर्यंत अति ही तीव्र
दुःख यह जीव अनन्तकालसे सहता आया है।। ९।।

आगे तिर्यंच गति के दुःखोंको कहते हैंः––
खणणुत्तावणवालण वेयणविच्छेयणाणिरोहं च।
पत्तो सि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं।। १०।।
खननोत्तापनज्वालन वेदनविच्छेदनानिरोधं च।
प्राप्तोऽसि भावरहितः तिर्यग्गतौ चिरं कालं।। १०।।

अर्थः
––हे जीव! तुने तिर्यंच गति में खनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, व्युच्छेदन,
निरोधन इत्यादि दुःख सम्यग्दर्शन आदि भावरहित होकर बहुत कालपर्यंत प्राप्त किये।

भावार्थः––इस जीवने सम्यग्दर्शनादि भाव किये बिना तिर्यंच गति में चिरकाल तक दुःख
पाये – पृथ्वीकाय में कुदाल आदि खोदने द्वारा दुःख पाये, जलकायमें अग्निसे तपना, ढोलना
इत्यादि द्वारा दुःख पाये, अग्निकाय में जलाना, बुझाना आदि द्वारा दुःख पाये, पवनकाय में
भारे से हलका चलना, फटना आदि द्वारा दुःख पाये, वनस्पतिकाय में फाड़ना, छेदना, राँधना
आदि द्वारा दुःख पाये, विकलत्रय में दूसरे से रुकना, अल्प आयुसे मरना इत्यादि द्वारा दुःख
पाये,
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
१ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ‘सप्तसु नरकावासे’ ऐसा पाठ है।
२ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ‘स्वहित’ ऐसा पाठ है। ‘सहिय’ इसकी छाया में।
३ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ‘वेयण’ इसकी संस्कृत ‘व्यंजन’ है।
रे! खनन–उत्तापन–प्रजालन–वीजन–छेद–निरोधनां
चिरकाळ पाम्यो दुःख भावविहीन तुं तिर्यंचमां। १०।