Ashtprabhrut (Hindi). Gatha: 42-70 (Moksha Pahud).

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मोक्षपाहुड][२९७
अन्यमती छद्मस्थ हैं, इन्होंने अपनी बुद्धिमें आया वैसे ही कलपना करके कहा है वह
प्रमाणसिद्धि नहीं है। इनमें कई वेदान्ती तो एक ब्रह्ममात्र कहते हैं, अन्य कुछ वस्तयभूत नहीं है
मायारूप अवस्तु है ऐसा मानते हैं। कई नैयायिक, वैशेषिक जीव को सर्वथा नित्य सर्वगत
कहते हैं, जीवके और ज्ञानगुण के सर्वथा भेद मानते हैं और अन्य कार्यमात्र है उनको ईश्वर
करात है इसप्रकार मानते हैं। कई सांख्यमती पुरुषको उदासीन चैतन्यरूप मानकर सर्वथा
अकर्ता मानते हैं ज्ञानको प्रधान का धर्म मानते हैं।

कई बौद्धमती सर्व वस्तु क्षणिक मानते हैं, सर्वथा अनित्य मानते हैं, इनमें भी अनेक
मतभेद हैं, कई विज्ञानमात्र तत्त्व मानते हैं, कई सर्वथा शून्य मानते हैं, कोई अन्यप्रकार मानते
हैं। मीमांसक कर्मकांडमात्र ही तत्त्व मानते हैं, जीवको अणुमात्र मानते हैं तो भी कुछ परमार्थ
नित्य वस्तु नहीं है––इत्यादि मानते हैं, पंचभूतों से जीवकी उत्पत्ति मानते हैं।

इत्यादि बुद्धिकल्पित तत्त्व मानकर परस्पर में विवाद करते हैं, यह युक्त ही है– वस्तुका
पूर्णस्वरूप दिखता नहीं है तब जैसे अंधे हस्तीला विवाद करते हैं वैसे विवाद ही होता है,
इसलिये जिनदेव सर्वज्ञने ही वस्तुका पूर्णरूप देखा है वही कहा है। यह प्रमाण और नयोंके
द्वारा अनेकान्तरूप सिद्ध होता है। इनकी चर्चा हेतुवाद के जैनके न्याय–शस्त्रोंसे जानी जाती
है, इसलिये यह उपदेश है––जिनमतमें जीवाजीवका स्वरूप सत्यार्थ कहा है उसको जानना
सम्यग्ज्ञान है, इसप्रकार जानकर जिनदेवकी आज्ञा मानकर सम्यग्ज्ञानको अंगीकार करना,
इसीसे सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होती है, ऐसे जानना।। ४१।।

आगे सम्यक्चारित्रका स्वरूप कहते हैंः–––
जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं।
तं चारित्तं भणियं अवियप्प कम्मरहिएहिं।। ४२।।
यत् ज्ञात्वा योगी परिहारं करोति पुण्यपापानाम्।
तत् चारित्रं भणितं अविकल्पं कर्मरहितैः।। ४२।।

अर्थः
––योगी ध्यानी मुनि उस पूर्वोक्त जीवाजीवके भेदरूप सत्यार्थ सम्यग्ज्ञानको
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ते जाणी योगी परिहरे छे पाप तेम ज पुण्यने,
चारित्र ते अविकल्प भाख्युं कर्मरहित जिनेश्वरे। ४२।

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२९८] [अष्टपाहुड
रत्नत्रयीयुत संयमी निजशक्तितः तपने करे,
जानकर पुण्य तथा पाप इन दोनोंका परिहार करता है, त्याग करता है वह चारित्र है, जो
निर्विकल्प है अर्थात् प्रवृत्तिरूपक्रियाके विकल्पोंसे रहित है वह चारित्र घातिकर्मसे रहित ऐसे
सर्वज्ञदेवने कहा है।
भावार्थः–––चारित्र निश्चय–व्यवहारके भेदसे दो भेदरूप है, महाव्रत–समिति–गुप्ति के
भेदसे कहा है वह व्यवहार है। इसमें प्रवृत्तिरूप क्रिया शुभकर्मरूप बंध करती है और इन
क्रियाओं में जितने अंश निवृत्ति है [अर्थात् उसीसमय स्वाश्रयरूप आंशिक निश्चय वीतराग भाव
है] उसका फल बंध नहीं है, उसका फल कर्म की एकदेश निर्जरा है। सब कर्मोंसे रहित अपने
आत्मस्वरूपमें लीन होना वह निश्चयचारित्र है, इसका फल कर्मका नाश ही है, यह पुण्य–
पापके परिहाररूप निर्विकल्प है। पापका तो त्याग मुनिके है ही और पुण्य का त्याग इसप्रकार
है–––

शुभक्रिया का फल पुण्यकर्मका बंध है उसकी वांछा नहीं है, बंधके नाश का उपाय
निर्विकल्प निश्चयचारित्र का प्रधान उद्यम है। इसप्रकार यहाँ निर्विकल्प अर्थात् पुण्य–पापसे
रहित ऐसा निश्चयचार्रित्र कहा है। चौदहवें गुणस्थानके अंतसमयमें पूर्ण चारित्र होता है, उससे
लगता ही मोक्ष होता है ऐसा सिद्धांत है।। ४२।।

आगे कहते हैं कि इसप्रकार रत्नत्रयसहित होकर तप संयम समितिको पालते हुए
शुद्धात्माका ध्यान करने वाला मुनि निर्वाणको प्राप्त करता हैः–––
जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए।
सो पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं।। ४३।।
यः रत्नत्रययुक्तः करोति तपः संयतः स्वशक्त्या।
सः प्राप्नोति परमपदं ध्यायन् आत्मानं शुद्धम्।। ४३।।

अर्थः
––जो मुनि रत्नत्रयसंयुक्त होता हुआ संयमी बनकर अपनी शक्तिके अनुसार तप
करता है वह शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद निवार्णको प्राप्त करता है।

भावार्थः––जो मुनि संयमी पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति यह तेरह प्रकारका
चारित्र वही प्रवृत्तिरूप व्यवहारचारित्र संयम है, उसको अंगीकार करके और पूर्वोक्त प्रकार
निश्चयचारित्र युक्त होकर अपनी शक्तिके अनुसार उपवास,
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
शुद्धात्मने ध्यातो थको उत्कृष्ट पदने ते वरे। ४३।

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मोक्षपाहुड][२९९
कायक्लेशादि बाह्य तप करता है वह मुनि अंतरंग तप ध्यानके द्वारा शुद्ध आत्माका एकाग्र चित्त
करके ध्यान करता हुआ निर्वाणको प्राप्त करता है।। ४३।।

[नोंध–––जो छठवें गुणस्थानके योग्य स्वाश्रयरूप निश्चयरत्नत्रय सहित है उसीके व्यवहार
संयम–व्रतादिक को व्यवहारचारित्र माना है।]

आगे कहते हैं कि ध्यानी मुनि ऐसा बनकर परमात्माका ध्यान करता हैः–––
तिहि तिण्णि धरवि णिच्चं तियरहिओ तह तिएण परिरयरिओ।
दोदोसविप्पमुक्को परमप्पा झायए जोई।। ४४।।
त्रिभिः त्रीन् धृत्वा नित्यं त्रिकरहितः तथा त्रिकेण परिरकरितः।
द्वि दोषविप्रमुक्तः परमात्मानं ध्यायते योगी।। ४४।।

अर्थः
––‘त्रिभिः’ मन वचन कायसे, ‘त्रीन्’ वर्षा, शीत, उष्ण तीन कालयोगों को धारण
कर,‘त्रिकरहित’ माया, मिथ्या, निदान तीन शल्योंसे रहित होकर,‘त्रिकेण परिकरितः’ दर्शन,
ज्ञान, चारित्र से मंडित होकर और ‘द्विदोषविप्रमुक्तः’ दो दोष अर्थात् राग–द्वेष इनसे रहित
होता हुआ योगी ध्यानी मुनि है, वह परमात्मा अर्थात् सर्वकर्म रहित शुद्ध परमात्मा उनका ध्यान
करता है।

भावार्थः––मन वचन काय से तीन कालयोग धारणकर परमात्माका ध्यान कर इसप्रकार
कष्ट में दृढ़ रहे तब ज्ञात होता है कि इसके ध्यान की सिद्धि है, कष्ट आने पर चलायमान हो
जाये तब ध्यान की सिद्धि कैसी? कोई प्रकार का चित्त में शल्य रहने से चित्त एकाग्र नहीं
होता तब ध्यान कैसे हो? इसलिये शल्य रहित कहा; श्रद्धान, ज्ञान आचरण यथार्थ न हो तब
ध्यान कैसे हो? इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र मंडित कहा और राग–द्वेष, इष्ट–अनिष्ट बद्धि
रहे तब ध्यान कैसे हो? इसलिये परमात्मा का ध्यान करे वह ऐसा होकर करे, यह तात्पर्य
है।। ४४।।

आगे कहते हैं कि जो इसप्रकार होता है वह उत्तम सुखको पाता हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
त्रणथी धरी त्रण, नित्य त्रिकविरहितपणे त्रिकयुतपणे,
रही दोषयुगल विमुक्त ध्यावे योगी निज परमात्मने। ४४।

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३००] [अष्टपाहुड
मयमायकोहरहिओ लोहेण विवज्जिओ य जो जीवो।
णिम्मलसहावजुत्तो सो पावइ उत्तमं सोक्खं।। ४५।।
मदमायाक्रोधरहितः लोभेन विवर्जितश्च यः जीवः।
निर्मलस्वभावयुक्तः सः प्राप्नोति उत्तमं सौख्यम्।। ४५।।

अर्थः
––जो जीव मद, माया, क्रोध इनसे रहित हो और लोभसे विशेषरूपसे रहित हो
वह जीव निर्मल विशुद्ध स्वभावयुक्त होकर उत्तम सुखको प्राप्त करता है।

भावार्थः––लोकमें भी ऐसा है कि जो मद अर्थात् अति मानी तथा माया कपट और
क्रोध इनसे रहित हो और लोभसे विशेष रहित हो वह सुख पाता है; तीव्र कषायी अति
आकुलतायुक्त होकर निरन्तर दुःखी रहता है। अतः यही रीति मोक्षमार्ग में भी जानो–जो क्रोध,
मान, माया, लोभ चार कषायोंसे रहित होता है तब निर्मल भाव होते हैं और तब ही
यथाख्यातचारित्र पाकर उत्तम सुखको प्राप्त करता है।। ४५।।

आगे कहते हैं कि जो विषय–कषायों में आसक्त है, परमात्माकी भावना से रहित है,
रौद्रपरिणामी है वह जिनमतसे पराङमुख है, अतः वह मोक्ष के सुखोंको प्राप्त नहीं कर
सकताः–––
विसयकसाएहि जुदो रुद्दो परमप्पभावरहियमणो।
सो ण लहइ सिद्धिसुहं जिणमुद्दपरम्मुहो जीवो।। ४६।।
विषयकषायैः युक्तः रुद्रः परमात्मभावरहितमनाः।
सः न लभते सिद्धिसुखं जिनमुद्रापराङ्मुखः जीवः।। ४६।।

अर्थः
––जो जीव विषय–कषायपंसे युक्त है, रौद्रपरिणामी है, हिंसादिक विषय–
कषायदिक पापों में हर्ष सहित प्रवृत्ति करता है और जिसका चित्त परमात्माकी भावना से रहित
है, ऐसा जीव जिनमुद्रा से पराङमुख है वह ऐसे सिद्धिसुखको मोक्षके सुखको प्राप्त नहीं कर
सकता।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे जीव माया–क्रोध–मद परिवर्जीने, तजी लोभने,
निर्मळ स्वभावे परिणमे, ते सौख्य उत्तमने लहे। ४५।

परमात्मभावनहीन रूद्र, कषायविषये युक्त जे,
ते जीव जिनमुद्राविमुख पामे नहीं शिवसौख्यने। ४६।

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मोक्षपाहुड][३०१
भावार्थः––जिनमत में ऐसा उपदेश है कि जो हिंसादिक पापों से विरक्त हो, विषय–
कषायोंसे आसक्त न हो और परमात्माका स्वरूप जानकर उसकी भावनासहित जीव होता है
वह मोक्षको प्राप्त कर सकता है, इसलिये जिनमत की मुद्रा से जो पराङमुख है उसको मोक्ष
कैसे हो? वह तो संसार में ही भ्रमण करता है। यहाँ रुद्रका विशेषण दिया है उसका ऐसा भी
आशय है कि रुद्र ग्यारह होते हैं, ये विषय–कषायों में आसक्त हो कर जिनमुद्रा से भ्रष्ट होते
हैं, इनको मोक्ष नहीं होता है, इनकी कथा पुराणों से जानना।। ४६।।

आगे कहते हैं कि जिनमुद्रा से मोक्ष होता है किन्तु यह मुद्रा जिन जीवों को नहीं रुचती
है वे संसार में ही रहते हैंः–––
जिणमुद्दं सिद्धिसुहं हवेइ णियमेण जिणवरुद्दिट्ठं।
सिविणे वि ण रुच्चइ पुण जीवा अच्छंति भवगहणे।। ४७।।
जिनमुद्रा सिद्धिसुखं भवति नियमेन जिनवरोद्दिष्टा।
स्वप्नेऽपि न रोचते पुनः जीवाः तिष्ठंति भवगहने।। ४७।।

अर्थः
––जिन भगवान के द्वारा कही गई जिन मुद्रा है वही सिद्धिसुख है मुक्तसुख ही
है, यह कारण में कार्य का उपचार जानना; जिनमुद्रा मोक्ष का कारण है, मोक्षसुख उसका
कार्य है। ऐसी जिनमुद्रा जिनभगवान ने जैसी कही है वैसी ही है। तो ऐसी जिनमुद्रा जिस
जीव को साक्षात् तो दूर ही रहो, स्वप्न में भी कदाचित् भी नहीं रुचति है, उसका स्वप्न
आता है तो भी अवज्ञा आती है तो वह जीव संसाररूप गहन वन में रहता है, मोक्ष के सुख
को प्राप्त नहीं कर सकता।

भावार्थः––जिनदेवभाषित जिनमुद्रा मोक्षका कारण है वह मोक्षरूपी ही है, क्योंकि
जिनमुद्रा के धारक वर्तमान में भी स्वाधीन सुख को भोगते हैं और पीछे मोक्ष के सुख को प्राप्त
करते हैं। जिस जीव को यह नहीं रुचती है वह मोक्ष को प्रााप्त नहीं कर सकता, संसार ही में
रहता है।। ४७।।

आगे कहते हैं कि जो परमात्माका ध्यान करता है वह योगी लोभरहित होकर नवीन
कर्मका आस्रव नहीं करता हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जिनवरवृषभ–उपदिष्ट जिनमुद्रा ज शिवसुख नियमथी,
ते नव रूचे स्वप्नेय जेने, ते रहे भववन महीं। ४७।

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३०२] [अष्टपाहुड
परमप्पय झायंतो जोइ मुच्चेइ मलदलोहेण।
णादियदि णवं कम्मं णिद्दिट्ठं जिणवरिंदेहिं।। ४८।।
परमात्मानं ध्यायन् योगी मुच्यते मलदलोभेन।
नाद्रियते नवं कर्म निर्दिष्टं जिनवरेन्द्रैः।। ४८।।

अर्थः
––जो योगी ध्यानी परमात्मा का ध्यान करता हुआ रहता है वह मल देने वाले
लोभ कषाय से छूटता है, उसके लोभ मल नहीं लगता है इसी से नवीन कर्म का आस्रव
उसके नहीं होता है, यह जिनवरेन्द्र तीर्थंकर सर्वज्ञदेव ने कहा है।

भावार्थः––मुनि भी हो और परजन्मसंबंधी प्राप्तिका लोभ होकर निदान करे उसके
परमात्मा का ध्यान नहीं होता है, इसलिये जो परमात्मा का ध्यान करे उसके इसलोक परलोक
संबंधी कुछ भी लोभ नहीं होता, इसलिये उसके नवीन कर्मका आस्रव नहीं होता ऐसा
जिनदेवने कहा है। यह लोभ कषाय ऐसा ही की दसवें गुणस्थान तक पहुँच जाने पर भी
अव्यक्त होकर आत्मा को मल लगाता है, इसलिये इसको काटना ही युक्त है, अथवा जब
तक मोक्षकी चाहरूप लोभ रहता है तब तक मोक्ष नहीं होता है, इसलिये लोभ का अत्यंत
निषेध है।। ४८।।

आगे कहते है कि जो ऐसा निर्लोभी बनकर दृढ़ सम्यक्त्व –ज्ञान – चारित्रवान होकर
परमात्माका ध्यान करता है वह परम पदको पाता हैः–––
होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई।। ४९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
परमात्मने ध्यातां श्रमण मळजनक लोभ थकी छूटे,
नूतन करम नहि आस्रवे–जिनदेवथी निर्दिष्ट छे। ४८।

परिणत सुद्रढ–सम्यक्त्वरूप, लही सुद्रढ–चारित्रने,
निज आत्मने ध्यातां थकां योगी परम पदने लहे। ४९।

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मोक्षपाहुड][३०३
भूत्वा द्रढचरित्रः द्रढसम्यक्त्वेन भावितमतिः।
ध्यायन्नात्मानं परमपदं प्राप्नोति योगी।। ४९।।

अर्थः
––पूर्वोक्त प्रकार जिसकी मति दृढ़ सम्यक्त्वसे भावित है ऐसा योगी ध्यानी मुनि
दृढ़चारित्रवान होकर आत्माका ध्यान करता हुआ परमपद अर्थात् परमात्मपद को प्राप्त करता
है।

भावार्थः––सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप दृढ़ होकर परिषह आने पर भी चलायमान न
हो, इसप्रकार से आत्मा का ध्यान करता है वह परम पद को प्राप्त करता है ऐसा तात्पर्य है।।
४९।।

आगे दर्शन, ज्ञान, चारित्र से निर्वाण होता है – ऐसा कहते आये वह दर्शन, ज्ञान तो
जीव का स्वरूप है, ऐसा जाना, परन्तु चारित्र क्या है? ऐसी आशंका उत्तर कहते हैंः–––
चरणं हवइ सधम्मो धम्मे सो हवइ अप्पसमभावो।
सो रागरोसरहिओ जीवस्स अणण्ण परिणामो।। ५०।।
चरणं भवति स्वधर्मः धर्मः सः भवति आत्मसमभावः।
सः रागरोषरहितः जीवस्य अनन्यपरिणामः।। ५०।।

अर्थः
––स्वधर्म अर्थात् आत्मा का धर्म है वह चरण अर्थात् चारित्र है। धर्म है वह आत्म
समभाव है सब जीवों में समान भाव है। जो अपना धर्म है वही सब जीवों में है अथवा सब
जीवों को अपने समान मानना है और जो आत्म स्वभाव से ही [स्वाश्रयके द्वारा] रागद्वेष
रहित है, किसी से इष्ट–अनिष्ट बुद्धि नहीं है ऐसा चारित्र है, वह जैसे जीवके दर्शन – ज्ञान
हैं वैसे ही अनन्य परिणाम हैं, जीव का ही स्वभाव है।

भावार्थः––चारित्र है वह ज्ञान में राग–द्वेष रहित निराकुलता रूप स्थिरता भाव है, वह
जीव का ही अभेदरूप परिणाम है, कुछ अन्य वस्तु नहीं है।। ५०।।

आगे जीव के परिणाम की स्वच्छता को दृष्टांत पूर्वक दिखाते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
चारित्र ते निज धर्म छे ने धर्म निज समभाव छे,
ते जीवना वण राग रोष अनन्यमय परिणाम छे। ५०।

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३०४] [अष्टपाहुड
जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुहो हवेइ अण्णं सो।
तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो।। ५१।।
यथा स्फटिकमणिः विशुद्धः परद्रव्ययुतः भवत्यन्यः सः।
देवे गुरौ च भक्तः साधर्मिके च संयतेषु अनुरक्तः।
तथा रागादिवियुक्तः जीवः भवति स्फुटमन्यान्यविधः।। ५१।।

अर्थः
––जैसे स्फटिकमणि विशुद्ध है, निर्मल है, उज्ज्वल है वह परद्रव्य जो पीत,
रक्त, हरित पुष्पादिकसे युक्त होने पर अन्य सा दिखता है, पीतादिवर्णमयी दिखता है, वैसे
ही जीव विशुद्ध है, स्वच्छ स्वभाव है परन्तु यह [अनित्य पर्याय में अपनी भूल द्वारा स्व से
च्युत होता है तो] रागद्वेषदिक भावोंसे युक्त होने पर अन्य अन्य प्रकार हुआ दिखता है यह
प्रगट है।

भावार्थः––यहाँ ऐसा जानना कि रागादि विकार हैं वह पुद्गल के हैं और ये जीवके
ज्ञान में आकार झलकते है तब उनसे उपयुक्त होकर इसप्रकार जानता है कि ये भाव मेरे ही
हैं, जब तक इसका भेदज्ञान नहीं होता है तब तक जीव अन्य अन्य प्रकाररूप अनुभव में आता
है। यहाँ स्फटिकमणिका दृष्टांत है, उसके अन्यद्रव्य– पुष्पादिकका डांक लगता है तब अन्यसा
दिखता है, इसप्रकार जीवके स्वच्छभाव की विचित्रता जानना।। ५१।।

इसलिये आगे कहते हैं कि जब तक मुनिके [मात्र चारित्र–दोषमें] राग–द्वेष का अंश
होता है तब तक सम्यग्दर्शन को धारण करता हुआ भी ऐसा होता हैः–––
देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो।
सम्मत्तमुव्वहंतो झाणर ओ होदि जोई सो।। ५२।।
सम्यक्त्वमुद्वहन् ध्यानरतः भवति योगी सः।। ५२।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
निर्मळ स्फटिक परद्रव्यसंगे अन्यरूपे थाय छे,
त्यम जीव छे नीराग पण अन्यान्यरूपे परिणमे। ५१।

जे देव–गुरुना भक्त ने सहधर्मीमुनि–अनुरक्त छे,
सम्यक्त्वना वहनार योगी ध्यानमां रत होय छे। ५२।

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मोक्षपाहुड][३०५
अर्थः––जो योगी ध्यानी मुनि सम्यक्त्व को धारण करता है किन्तु जब तक यथाख्यात
चारित्र को प्राप्त नहीं होता है तब तक अरहंत–सिद्ध देवमें, और शिक्षा–दीक्षा देनेवाले गुरु में
तो भक्ति युक्त होता ही है, इनकी भक्ति विनय सहित होती है और अन्य संयमी मुनि अपने
समान धर्म सहित हैं उनमें भी अनुरक्त हैं, अनुराग सहित होता है वही मुनि ध्यान में प्रतिवान्
होता है और जो मुनि होकर भी देव–गुरु–साधर्मियों में भक्ति व अनुराग सहित न हो उसको
ध्यान में रुचिवान नहीं कहते हैं क्योंकि ध्यान होने वाले के, ध्यानवाले से रुचि, प्रीति होती है,
ध्यानवाले न रुचें तब ज्ञात होता है कि इसको ध्यान भी नहीं रुचता है, इसप्रकार जानना
चाहिये।। ५२।।

आगे कहते हैं कि जो ध्यान सम्यग्ज्ञानी के होता है वही तप करके कर्म का क्षय करता
हैः–––
उग्गतवेणण्णाणी जं कम्मं खवदि भवहि बहुएहिं।
तं णाणी तिहि गुत्तो खवेइ अंतोमुहुत्तेण।। ५३।।
उग्रतपसाऽज्ञानी यत् कर्म क्षपयति भवैर्बहुकैः।
तज्ज्ञानी त्रिभिः गुप्तः क्षपयति अन्तर्मुहूर्त्तेन।। ५३।।

अर्थः
––अज्ञानी तीव्र तपके द्वारा बहुत भवोंमें जितने कर्मोंका क्षय करता है उतने
कर्मोंका ज्ञानी मुनि तीन गुप्ति सहित होकर अंतर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है।

भावार्थः––जो ज्ञान का सामर्थ्य है वह तएव्र तपका भी सामर्थ्य नहीं है, क्योंकि ऐसा
है कि––अज्ञानी अनेक कष्टोंको सहकर तीव्र तपको करता हुआ करोड़ों भवों में जितने
कर्मोंका क्षय करता है वह आत्मभावना सहित ज्ञानी मुनि उतने कर्मोंका अंतमुहूर्त में क्षय कर
देता है, यह ज्ञान का सामर्थ्य है।। ५३।।

आगे कहते हैं कि जो इष्ट वस्तुके संबंध से परद्रव्य में रागद्वेष करता है वह उस भावमें
अज्ञानी होता है, ज्ञानी इससे उल्टा हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
तप उग्रथी अज्ञानी जे कर्मो खपावे बहु भवे,
ज्ञानी जे त्रिगुप्तिक ते करम अंतर्मुहूर्ते क्षय करे। ५३।

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३०६] [अष्टपाहुड
सुहजोएण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहु।
सो तेण दु अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीओ।। ५४।।
शुभ योगेन सुभावं परद्रव्ये करोति रागतः साधुः।
सःतेन तु अज्ञानी ज्ञानी एतस्मात्तु विपरीतः।। ५४।।

अर्थः
––शुभ योग अर्थात् अपने इष्ट वस्तु के संबंध से परद्रव्य में सुभाव अर्थात्
प्रीतिभाव को करता है वह प्रगट राग–द्वेष है, इष्टमें राग हुआ तब अनिष्ट वस्तुमें द्वेषभाव
होता ही है, इसप्रकार जो राग–द्वेष करता है वह उस कारण से रागी–द्वेषी–अज्ञानी है और
जो इससे विपरीत अर्थात् उलटा है परद्रव्यमें राग–द्वेष नहीं करता है वह ज्ञानी है।

भावार्थः––ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुनिके परद्रव्यमें रागद्वेष नहीं है क्योंकि राग उसको कहते
हैं कि––जो परद्रव्य को सर्वथा इष्ट मानकर राग करता है वैसे ही अनिष्टमानकर द्वेष करता
है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट–अनिष्टकी कल्पना ही नहीं करता है तब राग–द्वेष कैसे
हो? चारित्र मोहके उदयवश होने से कुछ धर्मराग होता है उसको भी राग जानता है भला
नहीं समझता है तब अन्यसे कैसे राग हो? परद्रव्य से राग–द्वेष करता है वह तो अज्ञानी है,
ऐसे जानना।। ५४।।

आगे कहते हैं कि जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्षके निमित्त भी राग हो तो
वह राग भी आस्रवका कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता हैः–––
आसवहेदु य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि।
सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीओ।। ५५।।
आस्रवहेतुश्च तथा भावः मोक्षस्य कारणं भवति।
सः तेन तु अज्ञानी आत्मस्वभावात्तु विपरीतः।। ५५।।

अर्थः
––जैसे परद्रव्यमें रागको कर्मबंधका कारण पहिले कहा वैसे ही राग–भाव
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
शुभ अन्य द्रव्ये रागथी मुनि जो करे रुचिभावने,
तो तेह छे अज्ञानी, ने विपरीत तेथी ज्ञानी छे। ५४।

आसरवहेतु भाव ते शिवहेतु छे तेना मते,
तेथी ज ते छे अज्ञ, आत्मस्वभावथी विपरीत छे। ५५।

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मोक्षपाहुड][३०७
यदि मोक्ष के निमित्त भी हो तो आस्रवका ही कारण है, कर्मका बंध ही करता है, इस कारण
से जो मोक्षको परद्रव्यकी तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह जीव मुनि भी
अज्ञानी है क्योंकि वह आत्मस्वभावसे विपरीत है, उसने आत्मस्वभावको नहीं जाना है।

भावार्थः––मोक्ष तो सब कर्मोंसे रहित अपना ही स्वभाव है; अपने को सब कर्मोंसे रहित
होना है इसलिये यह भी रागभाव ज्ञानीके नहीं होता है, यदि चारित्र–मोहका उदयरूप राग
हो तो उस रागको भी बंधका कारण जानकर रोगके समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही,
और इस रागभावको भला समझकर प्राप्त करता है तो अज्ञानी है। आत्मा का स्वभाव सब
रागादिकों से रहित है उसको इसने नहीं जाना, इसप्रकार रागभावको मोक्षका कारण और
अच्छा समझकर करते हैं उसका निषेध है।। ५५।।

आगे कहते है कि जो कर्ममात्र से ही सिद्धि मानता है उसने आत्मस्वभावको नहीं जाना
है वह अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल हैः–––
जो कम्म जादमइओ सहावणाणस्स खंडदूसयरो।
सो तेण दु अण्णाणी जिणसासणदूसगो भणिदो।। ५६।।
यः कर्म जातमतिकः स्वभावज्ञानस्य खंडदूषणकरः
सः तेन तु अज्ञानी जिनशासनदूषकः भणितः।। ५६।।

अर्थः
––जिसकी बुद्धि कर्म ही में उत्पन्न होती है ऐसा पुरुष स्वभावज्ञान जो केवलज्ञान
उसको खंडरूप दूषण करनेवाला है, इन्द्रियज्ञान खंडखंडरूप है, अपने–अपने विषयको जानता
है, जो जीव इतना मात्रही ज्ञानको मानता है इस कारणसे ऐसा माननेवाला अज्ञानी है जिनमत
को दूषण करता है।
(अपने में महादोष उत्पन्न करता है)

भावार्थः––मीमांसक मतवाला कर्मवादी है, सर्वज्ञको नहीं मानता है, इन्द्रिय–ज्ञानमात्रही
ज्ञानको मानता है, केवलज्ञानको नहीं मानता है, इसका निषेध किया है, क्योंकि जिनमत में
आत्माका स्वभाव सबको जाननेवाला केवलज्ञानस्वरूप कहा है।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
कर्मजमतिक जे खंडदूषणकर स्वभाविकज्ञानमां,
ते जीवने अज्ञानी, जिनशासन तणा दूषक कह्या। ५६।

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३०८] [अष्टपाहुड
परन्तु वह कर्म के निमित्त से आच्छादित होकर इन्द्रियोंके द्वारा क्षयोपशमके निमित्तसे खंडरूप
हुआ, खंड–खंड विषयोंको जानता है; [निज बलद्वारा] कर्मोंका नाश होने पर केवलज्ञान
प्रगट होता है तब आत्मा सर्वज्ञ होता है, इसप्रकार मीमांसक मतवाला नहीं मानता है अतः वह
अज्ञानी है, जिनमत से प्रतिकूल है, कर्ममात्रमें ही उसकी बुद्धि गत हो रही है, ऐसे कोई और
भी मानते हैं वह ऐसा ही जानना।। ५६।।

आगे कहते हैं कि जो ज्ञान–चारित्र रहित हो ओर तप–सम्यक्त्व रहित हो तथा अन्य
भी क्रिया भावपूर्वक न हो तो इसप्रकार केवल लिंग–भेषमात्र ही से क्या सुख है? अर्थात् कुछ
भी नहीं हैः–––
णाणं चरित्तहीणं दंसणहीणं तवेहिं संजुत्तं।
अण्णेसु भावरहियं लिंगग्गहणेण किं सोक्खं।। ५७।।
ज्ञानं चारित्रहीनं दर्शनहीनं तपोभिः संयुक्तम्।
अन्येषु भावरहितं लिंगग्रहणेन किं सौख्यम्।। ५७।।
अर्थः––जहाँ ज्ञान तो चारित्र रहित है, तपयुक्त भी है, परन्तु वह दर्शन अर्थात्
सम्यक्त्व से रहित है, अन्य भी आवश्यक आदि क्रियायें हैं परन्तु उनमें भी शुद्धभाव नहीं है,
इसप्रकार लिंग–भेष ग्रहण करने में क्या सुख है?

भावार्थः––कोई मुनि भेष मात्र से तो मुनि हुआ और शास्त्र भी पढ़ता है; उसको कहते
हैं कि ––शास्त्र पढ़कर ज्ञान तो किया परन्तु निश्चयचारित्र जो शुद्ध आत्माका अनुभवरूप
तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया, तपका क्लेश बहुत किया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और
आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं लगाये तो ऐसे बाह्य भेषमात्र से तो
क्लेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुख तो हुआ नहीं और यह भेष परलोक के सुखमें भी
कारण नहीं हआ; इसलिये सम्यक्त्वपूर्वक भेष
(–जिन–लिंग) धारण करना श्रेष्ठ है।। ५७।।

आगे सांख्यमती आदिके आशयका निषेध करते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ज्यां ज्ञान चरितविहीन छे, तपयुक्त पण दगहीन छे,
वळी अन्य कार्यो भावहीन, ते लिंगथी सुख शुं अरे? ५७।

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मोक्षपाहुड][३०९
भावार्थः––सांख्यमती ऐसे कहता है कि पुरुष तो उदासीन चेतनास्वरूप नित्य है और
ज्ञान है वह प्रधानका धर्म है, इनके मतमें पुरुषको उदासीन चेतनास्वरूप माना है अतः ज्ञान
बिना तो वह जड़ ही हुआ, ज्ञान बिना चेतन कैसे? ज्ञानी को प्रधानका धर्म माना है और
प्रधानको जड़ माना तब अचेतनमें चेतना मानी तब अज्ञानी ही हुआ।
नैयायिक, वैशेषिक मतवाले गुण–गुणीके सर्वथा भेद मानते हैं, तब उन्होंने चेतना
गुणको जीवसे भिन्न माना तब जीव तो अचेतन ही रहा। इसप्रकार अचेतनमें चेतनापना माना।
भूतवादी चार्वाक – भूत पृथ्वी आदिकसे चेतनाकी उत्पत्ति मानता है, भूत तो जड़ है उसमें
चेतना कैसे उपजे? इत्यादिक अन्य भी कई मानते हैं वे सब अज्ञानी हैं इसलिये चेतना माने
वह ज्ञानी है, यह जिनमत है।। ५८।।
अच्चेयणं पि चेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी।
सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा।। ५८।।
अचेतनेपि चेतनं यः मन्यते सः भवति अज्ञानी।
सः पुनः ज्ञानी भणितः यः मन्यते चेतने चेतनम्।। ५८।।

अर्थः
––जो अचेतन में चेतनको मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतन में ही चेतनको
मानता है उसे ज्ञानी कहा है।

आगे कहते हैं कि तप रहित ज्ञान और ज्ञान रहित तप ये दोनों ही अकार्य हैं दोनों के
संयुक्त होने पर ही निर्वाण हैः–––
तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो।
तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं।। ५९।।
तपोरहितं यत् ज्ञानं ज्ञानवियुक्तं तपः अपि अकृतार्थम्।
तस्मात् ज्ञानतपसा संयुक्तः लभते निर्वाणम्।। ५९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
छे अज्ञ, जेह अचेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे;
जे चेतने चेतक तणी श्रद्धा धरे, ते ज्ञानी छे। ५८।

तपथी रहित जे ज्ञान, ज्ञानविहीन तप अकृतार्थ छे,
ते कारणे जीव ज्ञानतपसंयुक्त शिवपदने लहे। ५९।

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३१०] [अष्टपाहुड
अर्थः––जो ज्ञान तप रहित है और जो तप है वह भी ज्ञानरहित है तो दोनों ही
अकार्य हैं, इसलिये ज्ञान – तप संयुक्त होने पर ही निर्वाणको प्राप्त करता है।

भावार्थः––अन्यमती सांख्यादिक ज्ञानचर्चा तो बहुत करते हैं और कहते हैं कि––ज्ञानसे
ही मुक्ति है और तप नहीं करते हैं, विषय–कषायों को प्रधानका धर्म मानकर स्वच्छन्द प्रवर्तते
हैं। कई ज्ञानको निष्फल मानकर उसको यथार्थ जानते नहीं हैं और तप–क्लेशादिक से ही
सिद्धि मानकर उसके करने में तत्पर रहते हैं। आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही अज्ञानी हैं, जो
ज्ञानसहित तप करते हैं वे ज्ञानी हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं, यह अनेकान्तस्वरूप
जिनमतका उपदेश है।। ५९।।

आगे इसी अर्थको उदाहरण से दृढ़ करते हैंः––––
धुवसिद्धी तित्थयरो चउणाणजुद्दो करेइ तवचरणं।
णाऊण धुवं कुज्जा तवचरणं णाणजुत्तो वि।। ६०।।
ध्रुवसिद्धिस्तीर्थंकरः चतुर्ज्ञानयुतः करोति तपश्चरणम्।
ज्ञात्वाध्रुवं कुर्यात् तपश्चरणं ज्ञानयुक्तः अपि।। ६०।।

अर्थः
––आचार्य कहते हैं–––कि देखो –––, जिसको नियम से मोक्ष होना है–– और
जो चार ज्ञान– मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय इनसे युक्त है ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण
करता है, इसप्रकार निश्चयसे जानकर ज्ञानयुक्त होने पर भी तप करना योग्य है। [तप–
मुनित्व, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र की एकता को तप कहा है।]

भावार्थः––तीर्थंकर मति–श्रुत–अवधि इन तनि ज्ञान सहित तो जन्म लेते हैं और दीक्षा
लेते ही मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो जाता है, मोक्ष उनको नियमसे होना है तो भी तप करते
हैं, इसलिये ऐसा जानकर ज्ञान होते हुए भी तप करने में तत्पर होना, ज्ञानमात्र ही से मुक्ति
नहीं मानना।। ६०।।

आगे जो बाह्यलिंग सहित हैं और अभ्यंतरलिंग रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से
भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्गका विनाश करने वाला है, इसप्रकार सामान्यरूपसे कहते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
ध्रुवसिद्धि श्री तीर्थेश ज्ञानचतुष्कयुत तपने करे,
ए जाणी निश्चित ज्ञानयुत जीवेय तप कर्तव्य छे। ६०।

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मोक्षपाहुड][३११
बहिरलिंगेण जुहो अब्भंतरलिंग रहिय परियम्मो।
सो सगचरित्त भट्ठो मोक्खपहविपासगो साहु।। ६१।।
बाह्यलिंगेन युतः अभ्यंतरलिंग रहित परिक्रर्म्मा।
सः स्वकचारित्रभ्रष्टः मोक्षपथविनाशकः साधुः।। ६१।।

अर्थः
––जो जीव बाह्य लिंग – भेष सहित है और अभ्यंतर लिंग जो परद्रव्यों से सर्व
रागादिक ममत्वभाव रहित ऐसे आत्मानुभव से रहित है तो वह स्व–चारित्र अर्थात् अपने
आत्मस्वरूप के आचरण – चारित्र से भ्रष्ट है, परिकर्म अर्थात् बाह्य में नग्नता, ब्रह्मचर्यादि
शरीर संस्कार से परिवर्तनवान द्रव्यलिंगी होने पर भी वह स्व–चारित्र से भ्रष्ट होने से
मोक्षमार्गका विनाश करने वाला है। [अतः मुनि – साधुको शुद्धभावको जानकर निज शुद्ध बुद्ध
एकस्वभावी आत्मतत्त्व में नित्य भावना
(–एकाग्रता) करनी चाहिये।] (श्रुतसागरी टीका से)

भावार्थः––यह संक्षेप से कहा जानो कि जो बाह्यलिंग संयुक्त है और अभ्यंतर अर्थात्
भावलिंग रहित है वह स्वरूपाचरण चारित्र से भ्रष्ट हुआ मोक्षमार्ग का नाश करने वाला है ।।
६१।।

आगे कहते हैं कि – जो सुख से भावित ज्ञान है वह दुःख आने पर नष्ट होता है,
इसलिये तपश्चरण सहित ज्ञान को भानाः–––
सुहेण भाविदं णाणं दुहे जादे विणस्सदि।
तम्हां जहाबलं जोई अप्पा दुक्खेहि भावए।। ६२।।
सुखेन भावितं ज्ञानं दुःखे जाते विनश्यति।
तस्मात् यथा बलं योगी आत्मानं दुःखैः भावयेत्।। ६२।।

अर्थः
––सुख से भाया हुआ ज्ञान है वह उपसर्ग–परिषहादि के द्वारा दुःख उत्पन्न होते
ही नष्ट हो जाता है, इसलिये यह उपदेश है कि जो योगी ध्यानी मुनि है वह
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे बाह्यलिंगे युक्त, आंतरलिंग रहित क्रिया करे,
ते स्वकचरितथी भ्रष्ट, शिवमारगविनाशक श्रमण छे। ६१।

सुखसंग भावित ज्ञान तो दुःखकाळमां लय थाय छे,
तेथी यथा बळ दुःखसह भावो श्रमण निज आत्मने। ६२।

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३१२] [अष्टपाहुड
तपश्चरणादि के कष्ट [दुःख] सहित आत्माको भावे। [अर्थात् बाह्य में जरा भी अनुकूल –
प्रातिकूल न मानकर निज आत्मा में ही एकाग्रातारूपी भावना करे जिससे आत्मशक्ति और
आत्मिकआनंद का प्रचुर संवेदन बढ़ता ही है]

भावार्थः––तपश्चरणका कष्ट अंगीकार करके ज्ञानको भावे तो परीषह आने पर
ज्ञानभावना से चिगे नहीं इसलिये शक्ति के अनुसार दुःख सहित ज्ञान को भाना, सुख ही में
भावे तो दुःख आने पर व्याकुल हो जावे तब ज्ञानभावना न रहे, इसलिये यह उपदेश है।।
६२।।

आगे कहते हैं कि आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर आत्मा का ध्यान करनाः–––
आहारासणणिद्दाजयं च काऊण जिणवरमएण।
झायव्यो णियअण्णा णाऊणं गुरुपसाएण।। ६३।।
आहारासन निद्राजयं च कृत्वा जिनवरमतेन।
ध्यातव्यः निजात्मा ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६३।।

अर्थः
––आहार, आसन, निद्रा इनको जीतकर और जिनवर के मत से तथा गुरुके
प्रसाद से जानकर निज आत्माका ध्यान करना।

भावार्थः––आहार, आसन, निद्राको जीतकर आत्माका ध्यान करना तो अन्य मतवाले
भी कहते हैं परन्तु उनके यथार्थ विधान नहीं है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि जैसे जिनमत में
कहा है उस विधान को गुरुके प्रसादसे जानकर ध्यान करना सफल है। जैसे जैन सिद्धांत में
आत्मा का स्वरूप तथा ध्यानका स्वरूप और आहार, आसन, निद्रा इनके जीतनेका विधान
कहा है वैसे जानकर इनमें प्रवर्तन करना।। ६३।।
आगे आत्मा का ध्यान करना; यह आत्मा कैसा है, यह कहते हैंः–––
अप्पा चरित्तवंतो दंसणणाणेण संजुदो अप्पा।
सो झायव्वो णिच्चं णाऊणं गुरुपसाएण।। ६४।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आसन–अशन–निद्रातणो करी विजय, जिनवरमार्गथी,
ध्यातव्य छे निज आतमा, जाणी श्री गुरुपरसादथी। ६३।

छे आतमा संयुक्त दर्शन–ज्ञानथी, चारित्रथी;
नित्ये अहो! ध्यातव्य ते, जाणी श्री गुरुपरसादथी। ६४।

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मोक्षपाहुड][३१३
आत्मा चारित्रवान् दर्शनज्ञानेन संयुतः आत्मा।
सः ध्यातव्यः नित्यं ज्ञात्वा गुरुप्रसादेन।। ६४।।

अर्थः
––आत्मा चारित्रवान् है और दर्शन – ज्ञानसहित है, ऐसा आत्मा गुरुके प्रसाद से
जानकर नित्य ध्यान करना।

भावार्थः––आत्मा का रूप दर्शन– ज्ञान –चारित्रमयी है, इसका रूप जैन गुरुओंके
प्रसाद से जाना जाता है। अन्यमत वाले अपना बुद्धि कल्पित जेसे–तैसे मानकर ध्यान करते हैं
उनके यथार्थ सिद्धि नहीं है, इसलिये जैनमतके अनुसार ध्यान करना ऐसा उपदेश है।। ६४।।

आगे कहते हैं कि आत्माका जानना, भाना और विषयों से विरक्त होना ये उत्तरोत्तर
दुर्लभ होने से दुःख से [– दृढ़तर पुरुषार्थसे] प्राप्त होते हैंः–––
दुक्खे णज्जइ अप्पा अप्पा णाऊण भावणा दुक्खं।
भाविय सहावपुरिसो विसयेसु विरच्चए दुक्खं।। ६५।।
दुःखेन ज्ञायते आत्मा आत्मानं ज्ञात्वा भावना दुःखम्।
भावित स्वभावपुरुषः विषयेषु विरज्यति दुःखम्।। ६५।।

अर्थः
––प्रथम तो आत्मा को जानते हैं वह दुःखसे जाना जाता है, फिर आत्माको
जानकर भी भावना करना, फिर–फिर इसीका अनुभव करना दुःखसे [–उग्र पुरुषार्थसे] होता
है, कदाचित् भावना भी किसी प्रकार हो जावे तो भायी है जिनभावना जिसने ऐसा पुरुष
विषयोंसे विरक्त बड़े दुःख से [––अपूर्व पुरुषार्थ से] होता है।

भावार्थः––आत्माका जानना, भाना, विषयोंसे विरक्त होना उत्तरोत्तर यह योग मिलना
बहुत दुर्लभ है, इसलिये यह उपदेश है कि ऐसा सुयोग मिलने पर प्रमादी न होना।। ६५।।

आगे कहते हैं कि जब तक विषयोंमें यह मनुष्य प्रवर्तता है तब तक आत्मज्ञान नहीं
होता हैः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जीव जाणवो दुष्कर प्रथम, पछी भावना दुष्कर अरे!
भावित निजात्मवभावने दुष्कर विषयवैराग्य छे। ६५।

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३१४] [अष्टपाहुड
ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम।
विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेइ अप्पाणं।। ६६।।
तावन्न ज्ञायते आत्मा विषयेषु नरः प्रवर्तते यावत्।
विषये विरक्तचित्तः योगी जानाति आत्मानम्।। ६६।।

अर्थः
––जब तक यह मनुष्य इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवर्तता है तब तक आत्मा को नहीं
जानता है, इसलिये योगी ध्यानी मुनि है वह विषयों से विरक्त चित्त होता हुआ आत्मा को
जानता है।

भावार्थः––जीवके स्वभाव के उपयोगकी ऐसी स्वच्छता है कि जो जिस ज्ञेय पदार्थ से
उपयुक्त होता है वैसा ही हो जाता है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि––जब तक विषयों में
चित्त रहता है, तबतक उन रूप रहता है, आत्मा का अनुभव नहीं होता है, इसलिये योगी
मुनि इसप्रकार विचार कर विषयों से विरक्त हो आत्मा में उपयोग लगावे तब आत्मा को जाने,
अनुभव करे, इसलिये विषयोंसे विरक्त होना यह उपदेश है।। ६६।।

आगे इस ही अर्थ को दृढ़ करते हैं कि आत्माको जानकर भी भावना बिना संसार में ही
रहता हैः–––
अप्पा णाऊण णरा केई सब्भावभावपब्भट्ठा।
हिंडंति चाउरंगं विसएसु विमोहिया मूढा।। ६७।।
आत्मानं ज्ञात्वा नराः केचित् सद्भावभावप्रभ्रष्टाः।
हिण्डन्ते चातुरंगं विषयेषु विमोहिताः मूढाः।। ६७।।

अर्थः
––कई मनुष्य आत्मा को जानकर भी अपने स्वभावकी भावना से अत्यंत भ्रष्ट हुए
विषयोंमें मोहित होकर अज्ञानी मूर्ख चार गतिरूप संसारमें भ्रमण करते हैं।

भावार्थः––पहिले कहा था कि आत्मा को जानना, भाना, विषयोंसे विरक्त होना
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
आत्मा जणाय न, ज्यां लगी विषये प्रवर्तन नर करे;
विषये विरक्तमनस्क योगी जाणता निज आत्मने। ६६।

नर कोई, आतम जाणी, आतम भावना प्रच्युतपणे
चतुरंग संसारे भमे विषये विमोहित मूढ ए। ६७।

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मोक्षपाहुड][३१५
आगे कहते हैं कि जो विषयोें विरक्त होकर आत्मा को जानकर भाते हैं वे संसार को
छोड़ते हैंः–––
ये उत्तरोत्तर दुर्लभ पाये जाते हैं, विषयोंमें लगा हुआ प्रथम तो आत्माको जानता नहीं है ऐसे
कहा, अब यहाँ इसप्रकार कहा कि आत्माको जानकर भी विषयोंके वशीभूत हुआ भावना नहीं
करे तो संसार ही में भ्रमण करता है, इसलिये आत्माको जानकर विषयों से विरक्त होना यह
उपदेश है।। ६७।।
जे पुण विसयविरत्ता अप्पा णाऊण भावणासहिया।
छंडंति चाउरंगं तवगुणजुत्ता ण संदेहो।। ६८।।
ये पुनः विषयविरक्ताः आत्मानं ज्ञात्वा भावनासहिताः।
त्यजंति चातुरंगं तपोगुणयुक्ताः न संदेहः।। ६८।।

अर्थः
––फिर जो पुरुष मुनि विषयोंसे विरक्त हो आत्माको जानकर भाते हैं, बारंबार
भावना द्वारा अनुभव करते हैं वे तप अर्थात् बारह प्रकार तप और मूलगुण उत्तरगुणोंसे युक्त
होकर संसारको छोड़ते हैं, मोक्ष पाते हैं।

भावार्थः––विषयों से विरक्त हो आत्मा को जानकर भावना करना, इससे संसार से
छूट कर मोक्ष प्राप्त करो, यह उपदेश है।। ६८।।

आगे कहते हैं कि यदि परद्रव्य में लेशमात्र भी राग हो तो वह पुरुष अज्ञानी है, अपना
स्वरूप उसने नहीं जानाः–––
परमाणुपमाणं वा परदव्वे रदि हवेदि मोहादो।
सो मूढो अण्णाणी आदसहावस्स विवरीओ।। ६९।।
परमाणुप्रमाणं वा परद्रव्ये रतिर्भवति मोहात्।
सः मूढः अज्ञानी आत्मस्वभावात् विपरीतः।। ६९।।
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
पण विषयमांही विरक्त, आतम जाणी भावनयुक्त जे,
निःशंक ते तपगुणसहित छोडे चतुर्गति भ्रमणने। ६८।

परद्रव्यमां अणुमात्र पण रति होय जेने मोहथी,
ते मूढ छे, अज्ञानी छे, विपरीत आत्मस्वभावथी। ६९।

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३१६] [अष्टपाहुड
अर्थः––जिस पुरुष के परद्रव्य में परमाणु प्रमाण भी लेशमात्र मोहसे रति अर्थात् राग–
प्रीति हो तो वह पुरुष मूढ़ है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे विपरीत है।

भावार्थः––भेदविज्ञान होने के बाद जीव–अजीवको भिन्न जाने तब परद्रव्य को अपना
न जाने तब उससे [कर्तव्यबुद्धि स्वामित्व की भावनासे] राग भी नहीं होता है, यदि [ऐसा]
हो तो जानो कि इसने स्व–परका भेद नहीं जाना है, अज्ञानी है, आत्मस्वभावसे प्रतिकूल है;
और ज्ञानी होने के बाद चारित्र मोह का उदय रहता है तब तक कुछ राग रहता है उसको
कर्मजन्य अपराध मानता है, उस राग से राग नहीं है इसलिये विरक्त ही है, अतः ज्ञानी
परद्रव्यमें रागी नहीं कहलाता है, इसप्रकार जानना।। ६९।।

आगे इस अर्थ को संक्षेप में कहते हैंः––––
अप्पा झायंताणं दंसणसुद्धीण दिढ चरिताणं।
होदि धुवं णिव्वाणं विसएसु विरत्त चित्ताणं।। ७०।।
आत्मानं ध्यायतां दर्शनशुद्धीनां द्रढचारित्राणाम्।
भवति ध्रुवं निर्वाणं विषयेषु विरक्त चित्तानाम्।। ७०।।

अर्थः
–––पूर्वोक्त प्रकार जिनका चित्त विषयोंसे विरक्त है, जो आत्माका ध्यान करते
रहते हैं, जिनके बाह्य–अभ्यंन्तर दर्शन की शुद्धता है ओर जिनके दृढ़ चारित्र है, उनको
निश्चय से निर्वाण होता है।

भावार्थः–––पहिले कहा था कि जो विषयोंसे विरक्त हो आत्माका स्वरूप जानकर
आत्माकी भावना करते हैं वे संसार से छूटते हैं। इस ही अर्थको संक्षेपसे कहा है कि––जो
इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर बाह्य–अभ्यंतर दर्शनकी शुद्धता से दृढ़ चारित्र पालते हैं
उनको नियम से निर्वाण की प्राप्ति होती है, इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्ति सब अनर्थोंका मूल
है, इसलिये इनसे विरक्त होने पर उपयोग आत्मा में लगे तब कार्यसिद्धि होती है।। ७०।।

आगे कहते हैं कि जो परद्रव्यमें राग है वह संसारका कारण है, इसलिये योगीश्वर
आत्मा में भावना करते हैंः–––
––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––––
जे आत्मने ध्यावे सुदर्शनशुद्ध, द्रढचारित्र छे,
विषये विरक्तमनस्क ते शिवपद लहे निश्चितपणे। ७०।