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संसारसुखविरक्तः स्वकशुद्धसुखेषु अनुरक्तः।। १०१।।
गुणगणविभूषितांगः हेयोपादेयनिश्चितः साधुः।
ध्यानाध्ययने सुरतः सः प्राप्नोति उत्तमं स्थानम्।। १०२।।
तत्पर हो संसार–देह–भोगोंसे पहिले विरक्त होकर मुनि हुआ उसी भावना युक्त हो, परद्रव्यसे
पराङ्मुख हो, जैसे वैराग्य हुआ वैसे ही परद्रव्यका त्याग उससे पराङ्मुख रहे, संसार संबंधी
इन्द्रियोंसे द्वारा विषयों से सुखसा होता है उससे विरक्त हो, अपने आत्मीक शुद्ध अर्थात्
कषायोंके क्षोभ से रहित निराकुल, शांतभावरूप ज्ञानानन्द में अनुरक्त हो, लीन हो, बारंबार
उसी की भावना रहे।
उपादेय है और ऐसा जिसके निश्चय हो कि–––अन्य परद्रव्यके निमित्त से हुए अपने
विकारभाव ये सब हेय हैं। साधु होकर आत्माके स्वभाव के साधने में भली भाँति तत्पर हो,
धर्म–शुक्लध्यान और अध्यात्मशास्त्रों को पढ़कर ज्ञानकी भावना में तत्पर हो, सुरत हो, भले
प्रकार लीन हो। ऐसा साधु उत्तमस्थान जो लोकशिखर पर सिद्धक्षेत्र तथा मिथ्यात्व आदि
चौदह गुणस्थानोंसे परे शुद्धस्वभावरूप मोक्षस्थान को पाता है।
थुव्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह।। १०३।।
स्तूयमानैः स्तूयते देहस्थं किमपि तत् जानीत।। १०३।।
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है और स्तुति केने योग्य जो तीर्थंकरादि हैं उनसे भी स्तुति करने योग्य है, ऐसा कुछ है वह
इस देह ही में स्थित है उसको यथार्थ जानो।
लोक में नमने योग्य तो इन्द्रिादिक हैं और ध्यान करने योग्य तीर्थंकरादिक हैं तथा स्तुति करने
योग्य तीर्थंकरादिक हैं वे भी जिसको नमस्कार करते हैं, जिसका ध्यान करते हैं स्तुति करते हैं
ऐसा कुछ वचनके अगोचर भेदज्ञानियों के अनुभवगोचर परमात्म वस्तु है, उसका स्वरूप जानो,
उसको नमस्कार करो, उसका ध्यान करो, बाहर किसलिये ढूंढते हो इसप्रकार उपदेश है।।
१०३।।
ते वि हु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।। १०४।।
ते अपि स्फुटं तिष्ठन्ति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं।। १०४।।
चेष्टारूप हैं, आत्माकी अवस्था हैं, इसलिये मेरे आत्माही का शरण है, इसप्रकार आचार्य ने
अभेदनय प्रधान करके कहा है।
कहलाता है, जब शिक्षा–दीक्षा देनेवाला मुनि होता है तब आचार्य कहलाता है, पठन–पाठनमें
तत्पर मुनि होता है तब अपाध्याय कहलाता है और जन रत्नत्रयस्वरूप
मोक्षमार्ग को केवल साधता है तब साधु कहलाता है, इसप्रकार पाँचों पद आत्मा ही में हैं।
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सम्यग्ज्ञानसे तत्त्वार्थोंको जानकर रागद्वेषादिक रहित परिणाम होना सम्यक्चारित्र है, अपनी
शक्ति अनुसार सम्यग्ज्ञानपूर्वक कष्टका आदर कर स्वरूपका साधना सम्यक्तप है, इसप्रकार ये
चारों ही परिणाम आत्मा के हैं, इसलिये आचार्य कहते हैं कि मेरे आत्मा ही का शरण है, इसी
की भावना में चारों आ गये।
आच्छादित है तो भी पाँचों पदोंके योग्य हैं, इसीके शुद्ध स्वरूपका ध्यान करना पाँचों पदोंका
ध्यान है, इसलिये मेरे इस आत्माही का शरण है ऐसी भावना की है पँचपरमेष्ठी का ध्यान रूप
अंतमंगल बताया है।। १०४।।
चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं।। १०५।।
चत्त्वारः तिष्ठंति आत्मनि तस्मादात्मा स्फुटं मे शरणं।। १०५।।
अर्थः––सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यक तप ये चार आराधन हैं, ये
भी आत्मामें ही चेष्टारूप हैं, ते चारों आत्मा ही की अवस्था है, इसलिये आचार्य कहते हैं कि
मेरे आत्मा ही का शरण है।। १०५।।[भगवती आराधना गाथा नं० २]
आत्मा को भाने में
१०५
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सुनने से उसके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान–श्रद्धान आचरण होता है, उस ध्यान से कर्म का नाश
होता है और इसकी बारंबार भावना करने से उसमें दृढ़ होकर एकाग्रध्यान की सामर्थ्य होती
है, उस ध्यानसे कर्मका नाश होकर शाश्वत सुखरूप मोक्षकी प्राप्ति होती है। इसलिये इस
ग्रंथको पढ़ना–सुनना निरन्तर भावना रखनी ऐसा आशय है।। १०६।।
जे पढइ सुणइ भावइ सो पावइ सासयं सोक्खं।। १०६।।
यः पठति श्रृणोति भावयति सः प्राप्नोति शाश्वतं सौख्यं।। १०६।।
अर्थः––पूर्वोक्त प्रकार जिनदेव के कहे हुए मोक्षपाहुड ग्रंथ को जीव भक्ति–भावसे
पढ़ते हैं, इसकी बारंबार चिंतवनरूप भावना करते हैं तथा सुनते हैं, वे जीव शाश्वत सुख,
नित्य अतीन्द्रिय ज्ञानानंदमय सुख को पाते हैं।
कर्मके संयोग से अज्ञान मिथ्यात्व राग–द्वेषादिक विभावरूप परिणमता है इसलिये नवीन
कर्मबंधके संतानसे संसार में भ्रमण करता है। जीवकी प्रवृत्ति के सिद्धांत में सामान्यरूप से
चोदह गुणस्थान निरूपण किये हैं–––इनमें मिथ्यात्व के उदय से मिथ्यात्व गुणस्थान होता है
, मिथ्यात्वकी सहकारिणी अनंतानुबंधी कषाय है, केवल उसके उदय से सासादन गुणस्थान
होता है और सम्यक्त्व–मिथ्यात्व दोनोंके मिलापरूप मिश्रप्रकृति के उदय से मिश्रगुणस्थान होता
है, इन तीन गुणस्थानों में तो आत्मभावना का अभाव ही है।
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होता है तब आत्मा की भावना होती है तब अविरत नाम चौथा गुणस्थान होता है। जब
एकदेश परद्रव्य से निवृत्ति का परिणाम होता है तब जो एकदेश चारित्ररूप पाँचवाँ गुणस्थान
होता है उसको श्रावक पद कहते हैं। सर्वदेश परद्रव्य से निवृत्तिरूप परिणाम हो तब
सकलचारित्ररूप छट्ठा गुणस्थान होता है, इसमें कुछ संज्वलन चारित्रमोह के तीव्र उदय से
स्वरूप के साधन में प्रमाद होता है, इसलिये इसका नाम प्रमत्त है, यहाँ से लगाकर ऊपरके
गुणस्थान वालों को साधु कहते हैं।
अन्यथा उपचार भी नहीं।]
धर्मध्यान की पूर्णता है। जब इस गुणस्थान में स्वरूप में लीन हो तब सातिशय अप्रमत्त होता
है। श्रेणी का प्रारम्भ करता है, तब इससे ऊपर चारित्रमोहका अव्यक्त उदयरूप अपूर्वकरण,
अनिवृत्त्किरण, सूक्ष्मसांपराय नाम धारक ये तीन गुणस्थान होते हैं। चौथे से लगाकर दसवें
सूक्ष्मसांपराय तक कर्म की निर्जरा विशेषरूप से गुणश्रेणीरूप होती है।
अरहंत होता है यह संयोगी जिन नाम गुणस्थान है, यहाँ योग की प्रवृत्ति है। योगोंका
निरोधकर अयोगी जिन नामका चौदहवाँ गुणस्थान होता है, यहाँ अघातिया कर्मों का भी नाश
करके लगता ही अनंतर समयमें निर्वाण पद को प्राप्त होता है, यहाँ संसार के अभावसे मोक्ष
नाम पाता है।
लगाकर आगे जैसे जैसे कर्मका अभाव होता है वैसे वैसे सम्यग्दर्शन
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पाकर पीछे मनुष्य होकर मोक्ष पाता है। इसलिये यह उपदेश है – जैसे बने वैसे रत्नत्रयकी
प्राप्ति उपाय करना, इसमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है इसका उपाय तो अवश्य चाहिये इसलिये
जिनागम को समझकर सम्यक्त्वका उपाय करना योग्य है, इसप्रकार इस ग्रंथका संक्षेप जानो।
अरहंत होकर जीवन मुक्त कहलाते हैं ओर चौदहवें गुणस्थान के अंत में रत्नत्रय की पूर्णता
होती है, इसलिये अघाति कर्मका भी नाश होकर अभाव होता है तब साक्षात मो सिद्ध कहलाते
हैं।
करना। तप भी मोक्षका कारण है उसे भी चारित्र में अंतर्भूत कर त्रयात्मक ही कहा है।
इसप्रकार इन कारणोंसे प्रथम तो तद्भव ही मोक्ष होता है। जबतक कारणकी पूर्णता नहीं होती
है उससे पहिले कदाचित् आयुकर्म की पूर्णता हो जाय तो स्वर्ग में देव होता है, वहाँ भी यह
वांछा रहती है यह
के मोक्ष पाता है। [
कारण है।’]
ते निश्चय अवहाररूप नीकैं लखि मानूं।
ईस मानुषभवकूं पायकै अन्य चारित मति धरो,
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पंच परम गुरु पद कमल ग्रंथ अंत हतिकार।। २।।
नमस्कार है वह पंचपरमेष्ठी की प्रधानता हुई, पंचपरमेष्ठी को परम गुरु कहे इसमें इसी मंत्र
की महिमा तथा मंगलरूपपना और इससे विध्न का निवारण, पंच–परमेष्ठी के प्रधानपना और
गुरुपना तथा नमस्कार करने योग्यपना कैसे है? वह कहो।
आम्नाय से शुद्ध उच्चारण हो तथा साधन यथार्थ हो तब ये अक्षर कार्य में विध्न के दूर करने
में कारण हैं इसलिये मंगलरूप हैं। ‘म’ अर्थात् पाप को गाले उसे मंगल कहते हैं तथा ‘मंग’
अर्थात् सुख को लावे, दे, उसको मंगल कहते हैं, इससे दोनों कार्य होते हैं। उच्चारण के
विध्न टलते हैं, अर्थ का विचार करने पर सुख होता है, इसी से इसको मंत्रों में प्रधान कहा
है, इसप्रकार तो मंत्र के आश्रय महिमा है।
अनादिनिधन अकृत्रिम सर्वज्ञ की परम्परा से आगम में कहा है ऐसा षद्द्रव्य स्वरूप लोक है,
जिसमें जीवद्रव्य अनंतानंत हैं और पुद्गल द्रव्य इसके अनंतानंत गुणे हैं, एक–एक धर्मद्रव्य,
अधर्मद्रव्य हैं और कालद्रव्य असंख्यात द्रव्य हैं। जीव तो दर्शन–ज्ञानमयी चेतना स्वरूप है।
अजीव पाँच हैं ये चेतना रहित जड़ हैं––धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो जैसे
हैं वैसे ही रहते हैं, इनके विकार परिणति नहीं है, जीव पुद्गल द्रव्य के परस्पर निमित्त –
नैमित्तिकभाव से विभाव परिणति है, इसमें भी पुद्गल तो जड़ है, इसके विभाव परणिति का
दुःख–सुख का वेदन नहीं है और जीव चेतन है इसके दुःख – सुख का वेदन है।
निवृत्त कभी नहीं होते हैं, इसके संसार अनादि निधन है।
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इनके संसार की उत्पत्ति कैसे है वह कहते हैंः–––
निमित्त से नवीन कर्मबंध होता है, इसप्रकार इनके संतान परम्परा से जीव के चतुर्गतिरूप
संसार की प्रवृत्ति होती है, इस संसार में चारों गतियोंमें अनेक प्रकार सुख–दुःखरूप भ्रमण
हुआ करता है; तब कोई काल ऐसा आवे जब मुक्त होना निकट हो तब सर्वज्ञ के उपदेश का
निमित्त पाकर अपने स्वरूप को और कर्मबंधके स्वरूप को, अपने भीतरी विभाव के स्वरूप को
जाने इनका भेदविज्ञान हो, तब परद्रव्य को संसार का निमित्त जानकर इससे विरक्त हो,
अपने स्वरूप के अनुभव का साधन करे––दर्शन–ज्ञानरूप स्वभाव में स्थिर होने का साधन
करे तब इसके बाह्य साधन हिंसादिक पंच पापों का त्यागरूप निर्ग्रंथ पद, ––सब परिग्रह की
त्यागरूप निर्ग्रंथ दिगम्बर मुद्रा धारण करे, पाँच महाव्रत, पाँच समितिरूप, तीन गुप्तिरूप प्रवर्ते
तब सब जीवों पर दया करनेवाला साधु कहलाता है।
अपने स्वरूपके साधन में रहे वह साधु कहलाता है, जो साधु होकर अपने स्वरूप के साधन
के ध्यानके बलसे चार घातिया कर्मोंका नाश कर केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख ओर
अनन्तवीर्य को प्राप्त हो वह अरहंत कहलाता है, तब तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली––जिन
इन्द्रादिकसे पूज्य होता है, इनकी वाणी खिरती है, जिससे सब जीवों का उपकार होता है,
अहिंसा धर्म का उपदेश होता है, सब जीवों की रक्षा कराते हैं यथार्थ पदार्थों का स्वरूप
बताकर मोक्षमार्ग दिखाते हैं, इसप्रकार अरहंत पद होता है और जो चार अघातिया कर्मों का
भी नाशकर सब कर्मों से रहित हो जातें हैं वह सिद्ध कहलाते हैं।
परिणाम होते हैं इसलिये पाप का नाश होता है, वर्तमान विध्नका विलय होता है आगामी पुण्य
का बंध होता है, इसलिये स्वर्गादिक शुभगति पाता है।
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सब जीवों के उपकारी परमगुरु हैं, सब संसारी जीवों से पूज्य हैं। इनके सिवाय अन्य संसारी
जीव रागद्वेष मोहादि विकारों से मलिन हैं, ये पूज्य नहीं है, इनके महानपना, गुरुपना,
पूज्यपना नहीं है, आप ही कर्मोंके वश मलिन हैं तब अन्यका पाप इनसे कैसे कटे?
भ्रमण मिटाने को कारण होते हैं। जैसे जिसके पास धनादि वस्तु हो वही अन्यको धनादिक दे
और आप दरिद्री हो तब अन्य की दरिद्रता कैसे मेटे, इसप्रकार जानना। जिनको संसार के
दुख मेटने हों और संसारभ्रमणके दुःखरूप जन्म–मरण से रहित होना हो वे अरहंतादिक पंच
परमेष्ठी का नाम मंत्र जपो, इनके स्वरूप का दर्शन, स्मरण, ध्यान करो, इससे शुभ परिणाम
होकर पापका नाश होता है, सब विध्न टलते हैं, परंपरा से संसारका भ्रमण मिटता है,
कर्मोंका नाश होकर मुक्तिकी प्राप्ति होती है, ऐसा जिनमतका उपदेश है अतः भव्य जीवों के
अंगीकार करने योग्य है।
इष्ट विध्नादिक को मेटानेवाले हैं ऐसे ही तुम्हारे भी कहते हो, ऐसा क्यों कहते हो कि यह
पँच परमेष्ठी ही प्रधान है अन्य नहीं? उसको कहते हैं, हे भाई! जीवों के दुःख तो संसारभ्रमण
का है और संसार भ्रमण के कारण राग द्वेष मोहादि परिणाम हैं तथा रागादिक वर्तमान में
आकुलतामयी दुःखस्वरूप हैं, इसलिये ये ब्रह्मादिक इष्ट देव कहे ये तो रागादिक तथा काम–
क्रोधादि युक्त हैं, अज्ञानतप के फल से कई जीव सब लोक में चमत्कार सहित राजादिक बड़ा
पद पाते हैं, उनको लोग बड़ा मानकर ब्रह्मादिक भगवान कहने लग जाते हैं और कहते हैं कि
यह परमेश्वर ब्रह्माका अवतार है, तो ऐसे मानने से तो कुछ मोक्षमार्गी तथा मोक्षरूप होता
नहीं है, संसारी ही रहता है।
बड़े पुरुष होते कहे जाते हैं, वहाँ तो उन जीवों के पहिले कुछ शुभ कर्म बंधे थे उनका फल
है। पूर्वजन्म में किंचित् शुभ परिणाम किया था इसलिये पुण्यकर्म बँधा था, उसके उदयसे कुछ
विध्न टलते हैं और राजादिक पद पाते हैं, वह तो पहिले
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बड़ाई नहीं है, बड़ाई तो वह है जिससे संसार का भ्रमण मिटे सो यह तो वीतराग विज्ञान
भावोंसे ही मिटेगा, इस वीतरागविज्ञान भावयुक्त पँच परमेष्ठी हैं ये ही संसारभ्रमण का दुःख
मिटाने में कारण हैं।
छूटकर मोक्ष हो ऐसा उपाय करना। वर्तमानका भी विध्न जैसा पँच परमेष्ठी के नाम, मंत्र,
ध्यान, दर्शन, स्मरण से मिटेगा वैसा अन्यके नामादिक से तो नहीं मिटेगा, क्योंकि ये
पँचपरमेष्ठी ही शांतिरूप हैं, केवल शुभ परणिामों ही के कारण हैं। अन्य इष्ट के रूप तो
रौद्ररूप हैं, इनके दर्शन स्मरण तो रागादिक तथा भयादिकके कारण हैं, इनसे तो शुभ
परिणाम होते दिखते नहीं हैं। किसी के कदाचित् कुछ धर्मानुराग के वश से शुभ परिणाम हों
तो वह उनसे हुआ नहीं कहलाता, उस प्राणी के स्वाभाविक धर्मानुराग के वश से होता है।
इसलिये अतिशयवान शुभ परिणाम का कारण तो शांतिरूप पँच परमेष्ठी ही का रूप है, अतः
इसी का आराधन करना, वद्यथा खोटी युक्ति सुनकर भ्रममें नहीं पड़ना, ऐसे जानना।
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कर्मनाशि शिवसुख लियो वंदूं तिन के पांय।। १।।
वचनिका का अनुवाद लिखा जाता है–––प्रथम ही आचार्य मंगल के लिये इष्टको नमस्कार
कर ग्रन्थ करनेकी प्रतिज्ञा करते हैंः––––
वोच्छामि समणलिंगं पाहुडसत्थं समासेण।। १।।
वक्ष्यामि श्रमणलिंगं प्राभृतशास्त्रं समासेन।। १।।
अर्थः–––आचार्य कहते हैं कि मैं अरहंतों को नमस्कार करके और वैसे ही सिद्धों को
नमस्कार करके तथा जिसमें श्रमणलिंग का निरूपण है इस प्रकार पाहुडशास्त्र को कहूँगा।
भाखीश हुं संक्षेपथी मुनिलिंग प्राभृत शास्त्रने। १।
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का नाशकर अनंतचतुष्टय प्राप्त करके अरहंत हुए, इन्होंने यथार्थरूप से श्रमण का मार्ग
प्रवर्ताया और उस लिंग को साधकर सिद्ध हुए, इसप्रकार अरहंत सिद्धों को नमस्कार करने
की प्रतिज्ञा की है।। १।।
जाणेहि भाव धम्मं किं ते लिंगण कायव्वो।। २।।
जानीहि भावधर्मं किं ते लिंगेन कर्तव्यम्।। २।।
अर्थः––धर्म सहित तो लिंग होता है परन्तु लिंगमात्र ही धर्म की प्राप्ति नहीं है,
इसलिये हे भव्यजीव! तू भावरूप धर्म को जान और केवल लिंग ही से तेरा क्या कार्य होता है
अर्थात् कुछ भी नहीं होता है।
चिन्ह सत्यार्थ होता है और इस वीतरागस्वरूप आत्मा के धर्म के बिना लिंग जो बाह्य भेषमात्र
से धर्म की संपत्ति–सम्यक् प्राप्ति नहीं है, इसलिये उपदेश दिया है कि अंतरंग भावधर्म राग–
द्वेष रहित आत्मा का शुद्ध ज्ञान–दर्शनरूप स्वभाव धर्म है उसे हे भव्य! तू जान, इस बाह्य
लिंग भेष मात्र से क्या काम? कुछ भी नहीं। यहाँ ऐसा भी जानना लि जिनमत में लिंग तीन
कहे हैं––एक तो मुनिका यथाजात दिगम्बर लिंग १, दूजा उत्कृष्ट श्रावक का २, तीजा
आर्यिका का ३, इन तीनों ही लिंगों को धारण कर भ्रष्ट हो जो कुक्रिया करते हैं इसका निषेध
है। अन्यमत के कई भेष हैं इनको भी धारण करके जो कुक्रिया करते हैं वह भी निंदा पाते हैं,
इसलिये भेष धारण करके कुक्रिया नहीं करना ऐसा बताया है।। २।।
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उवहसदि लिंगिभावं लिंगिम्मिय णारदो लिंगी।। ३।।
उपहसति लिंगिभावं लिंगिषु नारदः लिंगी।। ३।।
अर्थः––जो जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर देवके लिंग नग्न दिगम्बररूप को ग्रहण करके
लिंगीपने के भाव को उपहासता है––हास्यमात्र समझाता है वह लिंगी अर्थात् भेषी जिसकी
बुद्धि पापसे मोहित है वह नारद जैसा है अथवा इस गाथा के चौथे पादका पाठान्तर ऐसा है–
–‘लिंगं णासेदि लिंगीणं’ इसका अर्थ––यह लिंगी अन्य जो कोई लिंगोंके धारक हैं उनके
लिंग को भी नष्ट करता है, ऐसा बताता है कि लिंगी सब ऐसे ही होते हैं।
भाव बिगड़े तब बाह्य कुक्रिया करने लग गया तब इसने इस लिंग को लजाया और अन्य
लिंगियों के लिंग को भी कलंक लगाया, लोग कहने लगे कि लिंगी ऐसे ही होते हैं अथवा
जैसे नारदका भेष है उसमें वह अपनी इच्छानुसार स्वच्छंद प्रवर्तता है, वैसे ही यह भी भेषी
ठहरा, इसलिये आचार्य ने ऐसा आशय धारण करके कहा है कि जिनेन्द्र के भेष को लजाना
योग्य नहीं है।। ३।।
सो पावमोहिद मदी तिरिक्ख जोणी ण सो समणो।। ४।।
उपर्हासत करतो, ते विघाते लिंगीओना लिंगने। ३।
जे लिंग धारी नृत्य, गायन, वाद्यवादनने करे,
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सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः।। ४।।
अर्थः––जो लिंगरूप करके नृत्य करता है गाता है वादित्र बजाता है सो पापसे मोहित
बुद्विवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, श्रमण नहीं है।
जैसे नारद भेषधारी नाचता है, गाता है, बजाता है, वैसे यह भी भेषी हुआ तब उत्तम भेष को
लजाया, इसलिये लिंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है।।४।।
सो पाव मोहिद मदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। ५।।
सः पापमोहितमतिः तिर्यग्योनि न सः श्रमणः।। ५।।
वांछा चिंतवन ममत्व करता है और उस परिग्रह की रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता
है, उसके लिये आर्त्तध्यान निरंतर ध्याता है, वह पापसे मोहित बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है,
पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है श्रमणपने को बिगाड़ता है, ऐसे जानना।। ५।।
––––––––––––
ते पापमोहितबुद्धि छे तिर्यंचयोनि, न श्रमण छे। ५।
द्यूत जे रमे, बहुमान–गर्वित वाद–कलह सदा करे,
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व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ६।।
अर्थः––जो लिंगी बहुत मान कषायसे गर्वमान हुआ निरंतर कलह करता है, वाद करता
है, द्यूतक्रीड़ा करता है वह पापी नरकको प्राप्त होता है और पापसे ऐसे ही करता रहता है।
जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं
लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है।। ६।।
सो पावमोहिदमदी हिंडदि संसारकंतारे।। ७।।
सः पापमोहितमतिः हिंडते संसारकांतारे।। ७।।
अर्थः––पाप से उपहत अर्थात् घात किया गया है आत्मभाव जिसका ऐसा होता हुआ
जो लिंगी का रूप करके अब्रह्मका सेवन करता है वह पाप से मोहित बुद्धिवाला लिंगी
संसाररूपी कांतार–––वन में भ्रमण करता है।
न हो? जिसके अमृत भी जहररूप परिणमे उनके रोग जाने की क्या आशा? वैसे ही यह
हुआ, ऐसे का संसार कटना कठिन है।। ७।।
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लगा तब अनंत संसारी क्यों न हो? इसका तात्पर्य है कि–––सम्यग्दर्शनादि रूप भाव तो
पहिले हुए नहीं और कुछ कारण पाकर लिंग धारण कर लिया, उसकी अवधि क्या? पहिले
भाव शुद्ध करके लिंग धारण करना युक्त है।। ८।।
अट्टं झायदि झाणं अणंत संसारिओ होदि।। ८।।
आर्त्तं ध्यायाति ध्यानं अनंतसंसारिकः भवति।। ८।।
अर्थः––यदि लिंगरूप करके दर्शन ज्ञान चारित्र को तो उपधानरूप नहीं किये [–धारण
नहीं किये] और आर्त्तध्यान को ध्याता है तो ऐसा लिंगी अनंत संसारी होता है।
वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरुवेण।। ९।।
व्रजति नरकं पापः कुर्वाणः लिंगिरुपेण।। ९।।
बहाना किसान का कार्य, वाणिज्य व्यापार अर्थात् वैश्यका कार्य और जीवघात अर्थात् वैद्यकर्म
के लिये जीवघात करना अथवा धीवरादिका कार्य, इन कार्यों को करता है वह लिंगरूप धारण
करके ऐसे पापकार्य करता हुआ पापी नरकको प्राप्त होता है।
ने ध्यान ध्यावे आर्त, तेह अनंत संसारी मुनि। ८।
जोडे विवाह, करे कृषि–व्यापार–जीवविघात जे,
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नहीं करता है तो भी गृहस्थोंके सम्बंध कराकर विवाह कराता है तथा खेती, व्यापार जीवहिंसा
आप करता है और गृहस्थोंको कराता है, तब पापी होकर नरक जाता है। ऐसे भेष धारने से
तो गृहस्थ ही भका था, पदका पाप तो नहीं लगता, इसलिये ऐसे भेष धारण करना उचित
नहीं है यह उपदेश है।। ९।।
लापर अर्थात् झूठ बोलने वालोंके युद्ध और विवाद कराता है और तीव्रकर्म जिनमें बहुत पाप
उत्पन्न हो ऐसे तएव्र कषायोंके कार्यों से तथा यंत्र अर्थात् चौपड़, शतरंज, पासा, हिंदोला
आदि से क्रिड़ा करता रहता है, वह नरक जाता है। यहाँ ‘लाउराणं’ का पाठान्तर ऐसा भी है
राउलाणं इसका अर्थ–––रावल अर्थात् राजकार्य करने वालों के युद्ध विवाद कराता है, ऐसे
जानना।
यंत्रेण दीव्यमानः गच्छति लिंगी नरकयासं।। १०।।
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पीडयदि वट्टमाणो पावदि लिंगी णरयवासं।। ११।।
पीडयते वर्तमानः प्राप्नोति लिंगी नरकवासम्।। ११।।
अर्थः––जो लिंग धारण करके इन क्रियाओंको करता हुआ बाध्यमान होकर पीड़ा पाता
है, दुःखी होता है वह लिंगी नरकवासी को पाता है। वे क्रियायें क्या है? प्रथम तो दर्शन ज्ञान
चारित्र में इनका निश्चय–व्यवहाररूप धारण करना, तप–अनशनादिक बारह प्रकारके शक्तिके
अनुसार करना, संयम–इन्द्रियोंको और मन को वश में करना तथा जीवों की रक्षा करना,
नियम अर्थात् नित्य कुछ त्याग करना और नित्यकर्म अर्थात् आवश्यक आदि क्रियाओंको नित्य
समय पर नित्य करना, ये लिंगके योग्य क्रियायें हैं, इन क्रियाओंको करता हुआ दुःखी होता है
वह नरक पाता है। [‘आत्म हित हेतु विराग–ज्ञान सो लखै आपको कष्टदान’ मुनिपद अर्थात्
मोक्षमार्ग उसको तो वह कष्टदाता मानता है अतः वह मिथ्यारुचिवान है]
नहीं हुआ और भाव बिगड़ने पर तो उसका फल नरक ही होता है, इसप्रकार जानना।। ११।।
मायी लिंगविवाई तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १२।।
जे भोजने रसगृद्धि करतो वर्ततो कामादिके,
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मायावी लिंगव्यवायी तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः।। १२।।
अर्थः––जो लिहग धारण करके भोजन में भी रस की गृद्धि अर्थात् आसक्तता को
करता रहता है वह कंदर्प आदिकमें वर्तता है, उसके काम–सेवनकी वांछा तथा प्रमाद
निद्रादिक प्रचुर मात्रा में बढ़ जाते हैं तब ‘लिंगव्यवायी’ अर्थात् व्यभिचारी होता है, मायावी
अर्थात् कामसेवन के लिये अनेक छल करना विचारता है, जो ऐसा होता है वह तिर्यंचयोनि है,
पशुतुल्य है, मनुष्य नहीं है, इसलिये श्रमण भी नहीं है।
को पहिचाना ही नहीं है इसलिये विषयसुख की चाह रही तब भोजन के रसकी, साथके अन्य
भी विषयों की चाह होती है तब व्यभिचार आदि में प्रवर्तन कर लिंग को लजाता है, ऐसे लिंग
से तो गृहस्थपद ही श्रेष्ठ है, ऐसे जानना।। १२।।
अवरपरुई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो।। १३।।
अपरप्ररुपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः।। १३।।
अर्थः––जो लिंगधारी पिंड अर्थात् आहारके निमित्त दौडा है, आहारके निमित्त कलह
करके आहारको भोगता है, खाता है, और उसके निमित्त अन्यसे परस्पर ईर्षा करता है वह
श्रमण जिनमार्गी नहीं है।
निषेध है। इनमें अब भी कई ऐसे देखे जाते हैं जो–––आहारके लिये शीघ्र दौड़ते हैं,
ईर्यापथकी सुध नहीं है और आहार गृहस्थके घर से लाकर दो–चार शामिल
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निमित्त परस्पर ईर्षा करते हैं, इसप्रकार की प्रवृत्ति करें तब कैसे धमण हुए? वे जिनमार्गी तो
हैं नहीं, कलिकाल के भेषी हैं। इनको साधु मानते हैं वे भी अज्ञानी हैं।। १३।।
जिणलिंग धारंतो चोरेण व होइ सो समणो।। १४।।
जिनलिंगं धारयन् चौरेणेव भवति सः श्रमणः।। १४।।
अर्थः––जो बिना दिया तो दान लेता है और परोक्ष परके दूषणोंसे परकी निंदा करता
है वह जिनलिंगको धारण करता हुआ भी चोरके समान श्रमण है।
छिपकर कार्य करना ये तो चोरके कार्य हैं। यह भेष धारण करके ऐसे करने लगा तब चोर ही
ठहरा, इसलिये ऐसा भेषी होना योग्य नहीं है।। १४।।
इरियावह धारंतो तिरिक्खजोणी ण सो समणो।। १५।।
ईंर्यापथं धारयन् तिर्यग्योनिः न स श्रमणः।। १५।।
जिनलिंग धारक हो छतां ते श्रमण चोर समान छे। १४।
लिंगात्म ईर्यासमितिनो धारक छतां कूदे, पडे,