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निवास होता है, जिसमें अपने को कृत, कारित, अनुमोदना, मन, वचन, काय द्वारा दोष न
लगा हो ऐसी दूसरे की बनाई हुई वास्तिका आदि में रहना होता है––ऐसी प्रवज्या कही है।
रहते हैं और अपने को दीक्षा सहित मानते हैं, उनके भेष मात्र है, जैन दीक्षा तो जैसी कही
वैसी ही है।। ५१।।
मयरायदोसरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५२।।
मदरागदोषरहिता प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५२।।
अर्थः––कैसी है प्रवज्या? उपशमक्षमदमयुक्ता अर्थात् उपशम तो मोहकर्मके उदयका
अभावरूप शांतपरिणाम और क्षमा अर्थात् क्रोधका अभावरूप उत्तमक्षमा तथा दम अर्थात्
इन्द्रियोंको विषयों में नहीं प्रवर्ताना–––इन भावोंसे युक्त है, शरीर संस्कार वर्जिता अर्थात्
स्नानादि द्वारा शरीर को सजाना इससे रहित है, जिसमें रूक्ष अर्थात् तेल आदिका मर्दन
शरीरके नहीं है। मद, राग, द्वेष रहित है, इसप्रकार प्रवज्या कही है।
हैं, अतीत
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सम्मत्तगुणविसुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५३।।
सम्यक्त्वगुणविशुद्धा प्रव्रज्या ईद्रशी भणिता।। ५३।।
अर्थः––कैसी है प्रवज्या?––––कि जिसके मूढ़भाव, अज्ञानभाव विपरीत हुआ है अर्थात्
दूर हुआ है। अन्यमती आत्मा का स्वरूप सर्वथा एकांतसे अनेकप्रकार भिन्न–भिन्न कहकर वाद
करते हैं, उनके आत्मा के स्वरूप में मूढ़भाव है। जैन मुनियोंके अनेकांतसे सिद्ध किया हुआ
यथार्थ ज्ञान है इसलिये मूढ़भाव नहीं है। जिसमें आठ कर्म और मिथ्यात्वादि प्रणष्ट हो गये हैं,
जैनदीक्षामें अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप मिथ्यात्वका अभाव है, इसलिये सम्यक्त्व नामक गुण द्वारा
विशुद्ध हैं, निर्मल हैं, सम्यक्त्वसहित दीक्षा में दोष नहीं रहता; इसप्रकार प्रवज्या कहीं है।।
५३।।
भावंति भव्वपुरिसा कम्मक्खयकारणे भणिया।। ५४।।
भावयंति भव्यपुरुषाः कर्मक्षयकारणे भणिता।। ५४।।
अर्थः––प्रवज्या जिनमार्ग में छह संहननवाले जीवके होना कहा है, निर्गं्रन्थ स्वरूप है,
सब परिग्रहसे रहित यथाजातस्वरूप है। इसकी भव्यपुरुष ही भावना करते हैं। इसप्रकारकी
प्रवज्या कर्मके क्षयका कारण कही है।
नहीं है कि दृढ़ संहनन वज्रऋषभ आदि हैं उनमें ही दीक्षा हो और असंसृपाटिक संहननमें न
हो, इसप्रकार निर्ग्रंथरूप दीक्षा तो असंप्राप्तासृपाटिका
सम्यक्त्वगुणथी शुद्ध छे, –दीक्षा कही आवी जिने। ५३।
निर्ग्रंथ दीक्षा छे कही षट् संहननमां जिनवरे;
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पव्वज्ज हवइ एसा जह भणिया सव्वदरसीहिं।। ५५।।
प्रव्रज्या भवति एषा यथा भणिता सर्वदर्शिभिः।। ५५।।
अर्थः––जिस प्रवज्या में तिलके तुष मात्रके संग्रह का कारण––ऐसे भावरूप इच्छा
अर्थात् अंतरंग परिग्रह और उस तिलके तुषमात्र बाह्य परिग्रहका संग्रह नहीं है इस प्रकार की
प्रवज्या जिसप्रकार सर्वज्ञदेव ने कही है उसीप्रकार है, अन्यप्रकार प्रवज्या नहीं है ऐसा नियम
जानना चाहिये। श्वेताम्बर आदि कहते हैं कि अपवादमार्ग में वस्त्रादिकका संग्रह साधु को कहा
है वह सर्वज्ञके सूत्र में तो नहीं कहा है। उन्होंने कल्पित सूत्र बनाये हैं उनमें कहा है वह
कालदोष है।। ५५।।
शिलायां काष्ठे भूमितले सर्वाणि आरोहति सर्वत्र।। ५६।।
–आवी प्रव्रज्या होय छे सर्वज्ञजिनदेवे कही। ५५।
उपसर्ग–परिषह मुनि सहे, निर्जन स्थळे नित्ये रहे,
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वे जहाँ अन्य जन नहीं रहते ऐसे निर्जन वनादि प्रदेशोंमें सदा रहते हैं, वहाँ भी शिलातल,
काष्ठ, भूमितलमें रहते हैं, इन सब ही प्रदेशोंमें बैठते हैं , सोते हैं, ‘सर्वत्र’ कहने से वन में
रहें और किंचित्कालनगर में रहें तो ऐसे ही स्थान पर रहें।
अन्यमन भेषीवत् स्वच्छन्दी प्रमादी रहें, इसप्रकार जानना चाहिये।। ५६।।
सज्झायझाणजुत्ता पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५७।।
स्वाध्यायध्यानयुक्ता प्रव्रश्या ईद्रशी भणिता।। ५७।।
अर्थः––जिस प्रवज्या में पशु–तिर्यंच, महिला
शास्त्र – जिनवचनोंका पठन–पाठन और ध्यान अर्थात् धर्म – शुक्ल ध्यान इनसे युक्त रहते
हैं। इसप्रकार प्रवज्या जिनदेवने कही है।
मार्ग है, अन्य संसारमार्ग हैं।। ५७।।
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सुद्धा गुणेहिं सुद्धा पव्वज्जा एरिसा भणिया।। ५८।।
शुद्धा गुणैः शुद्धा प्रव्रज्या ईदशी भणिताः।। ५८।।
अर्थः––जिनदेव ने प्रवज्या इसप्रकार कही है कि–––तप अर्थात् बाह्य – अभ्यंतर बारह
प्रकार के तप तथा व्रत अर्थात् पाँच महाव्रत और गुण अर्थात् इनके भेदरूप उत्तरगुणोंसे शुद्ध
है। ‘संयम’ अर्थात् इन्द्रिय – मनका निरोध, छहकायके जीवोंकी रक्षा, ‘सम्यक्त्व’ अर्थात्
तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण निश्चय–व्यवहाररूप सम्यग्दर्शन तथा इनके ‘गुण’ अर्थात् मूलगुणों से
शुद्धा, अतिचार रहित निर्मल है और जो प्रवज्या के गुण कहे उनसे शुद्ध है, भेषमात्र ही नहीं
है; इसप्रकार शुद्ध प्रवज्या कही जाती है। इन गुणोंके बिना प्रवज्या शुद्ध नहीं है।
वह दीक्षा शुद्ध नहीं है।। ५८।।
२ संस्कृत सटीक प्रति में ‘आयतन’ इसकी सं० ‘आत्मत्व’ इसप्रकार है।
छे गुणविशुद्ध, –सुनिर्मळा दीक्षा कही आवी जिने। ५८।
संक्षेपमां आयतनथी दीक्षांत भाव अहीं कह्या,
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चाहिये वे गुण जिसमें हों इसप्रकार की प्रवज्या जिनमार्ग में प्रसिद्ध है। उसीप्रकार संक्षेपसे
कही है। कैसा है जिनमार्ग? जिसमें सम्यक्त्व विशुद्ध है, जिसमें अतीचार रहित सम्यक्त्व पाया
जाता है और निर्ग्रंथरूप है अर्थात् जिसमें बाह्य अंतरंग –परिग्रह नहीं है।
नहीं है। कालदोषसे भ्रष्ट हो गये और जैन कहलाते हैं इसप्रकारके श्वेताम्बरादिकोंमें भी नहीं
है।। ५९।।
भव्वजणबोहणत्थं छक्काय हियंकरं उत्तं।। ६०।।
भव्यजन बोधनार्थं षट्कायहितंकरं उक्तम्।। ६०।।
अर्थः––जिसमें अंतरंग भावरूप अर्थ शुद्ध है और ऐसा ही रूपस्थ अर्थात् बाह्यस्वरूप
मोक्षमार्ग जैसा जिनमार्गमें जिनदेवने कहा है वैसा छहकायके जीवोंका हित करने वाला मार्ग
भव्यजीवोंके संबोधनके लिये कहा है। इसप्रकार आचार्य ने अपना अभिप्राय प्रकट किया है।
रूप – छहकायके जीवोंका हित करने वाला है, जिसमें एकेन्द्रिय आदि असैनी पर्यन्त जीवोंकी
रक्षाका अधिकार है, सैनी पंचेन्द्रिय जीवों की रक्षा भी कराता है
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मार्ग
ग्यारह स्थान धर्मके ठिकानेका आश्रय लेते हैं; अज्ञानी जीव इस स्थान पर अन्यथा स्वरूप
स्थापित करके उनसे सुख लेना चाहते हैं, किन्तु यथार्थ के बिना सुख कहाँ? इसलिये आचार्य
दयालु होकर जैसे सर्वज्ञने कहे वैसे ही आयतन आदिका स्वरूप संक्षेपसे यथार्थ कहा है?
इसको बाँचों, पढ़ो, धारण करो और इसकी श्रद्धा करो। इसके अनुसार तद्रूप प्रवृत्ति करो।
इसप्रकार करने से वर्तमानमेह सुखी रहो और आगामी संसारदुःख से छूट कर परमानन्दस्वरूप
मोक्षको प्राप्त करो। इसप्रकार आचार्य का कहने का अभिप्राय है।
अन्यथा स्थापित कर प्रवृत्त करते हैं वे हिंसा रूप हैं और जीवोंके हित करने वाले नहीं हैं। ये
ग्यारह ही स्थान संयमी मुनि और अरहन्त, सिद्ध को ही कहें हैं। ये तो छह कायके जीवोंके
हित करने वाले ही हैं इसलिये पूज्य हैं। यह तो सत्य है, और जहाँ रहते हैं इसप्रकार आकाश
के प्रदेशरूप क्षेत्र तथा पर्वतकी गुफा, वनादिक तथा अकृत्रिम चैत्यालय ये स्वयमेव बनें हुए हैं,
उनको भी प्रयोजन और निमित्त विचार कर उपचारमात्र से छहकाय के जीवों के हित करने
वाले कहें तो विरोध नहीं हैं, क्योंकि ये प्रदेश जड़ हैं, ये बुद्धिपूर्वक किसी का भला बुरा नहीं
करते हैं तथा जड़ को सुख–दुःख आदि फलका अनुभव नहीं है, इसलिये ये भी व्यवहार से
पूज्य हैं, क्योंकि अरहंतादिक जहाँ रहते हैं वे क्षेत्र–निवास आदिक प्रशस्त हैं, इसलिये उन
अरहंतादिके आश्रय से ये क्षेत्रादिक भी पूज्य हैं; परन्तु प्रश्न –गृहस्थ जिनमंदिर बनावे,
वस्तिका, प्रतिमा बनावे और प्रतिष्ठा पूजा करे उसमें तो छहकायके जीवोंकी विराधना होती है,
यह उपदेश और प्रवृत्ति की बाहुल्यता कैसे है?
संकल्प कर वंदना – पूजन करता है तथा उनके रहनेका क्षेत्र तथा ये मुक्त हुए क्षेत्र में तथा
अकृत्रिम चैत्यालय में उनका संकल्प कर वंदना व पूजन करता है। इसमें अनुरागविशेष सूचित
होता है; फिर उनकी मुद्रा, प्रतिमा तदाकार बनावे और उसको मंदिर बनाकर प्रतिष्ठा कर
स्थापित करे तथा नित्य पूजन करे इसमें अत्यन्त अनुराग सूचित होता है, उस अनुरागसे
विशिष्ट पुण्यबन्ध होता है और उस मन्दिरमें छहकायके जीवोंके हितकी रक्षाका उपदेश होता
है तथा निरन्तर सुनने वाले और धारण करने वाले अहिंसा धर्म की श्रद्धा दृढ़ होती है, तथा
उनकी तदाकार प्रतिमा
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अनुराग विशेष होनेसे पुण्यबन्ध होता है, इसलिये इनको भी छहकायके जीवोंका हित करनेवाले
उपचारसे कहते हैं।
कहा, पुण्य बहुत कहा है, क्योंकि गृहस्थके पदमें न्यायकार्य करके न्यायपूर्वक धन उपार्जन
करना, रहनेके लिये मकान बनवाना, विवाहादिक करना और बलपूर्वल आरम्भ कर अहारादिक
स्वयं बनाना तथा खाना इत्यादिक यद्यपि हिंसा होती है तो भी गृहस्थको इसका महापाप नहीं
कहा जाता है। गृहस्थके तो महापाप मिथ्यात्वका सेवन करना, अन्याय, चोरी आदिमें धन
उपार्जन करना, त्रस जीवोंको मारकर मांस खाना और परस्त्री–सेवन करना ये महापाप हैं।
ही गृहस्थके न्यायपूर्वक अपने पदके योग्य आरंभके कार्योंमें अल्प पाप ही कहा जाता है,
इसलिये जिनमंदिर, वस्तिका और पूजा–प्रतिष्ठा के कार्योंमें आरम्भका अल्प पाप है; मोक्षमार्ग
में प्रवर्तने वालोंसे अति अनुराग होता है और उनकी प्रभावना करते हैं, उनको आहारदानादिक
देते हैं और उनका वैयावृत्यादि करते हैं। ये सम्यक्त्वके अंग हैं और महान पूण्य के कारण हैं,
इसलिये गृहस्थको सदा ही करना योग्य है। और गृहस्थ होकर ये कार्य न करे तो ज्ञात होता
है कि इसके धर्म अनुराग विषेश नहीं है।
करके पुण्य उपजावे। उसको कहते हैं–––यदि तुम इसप्रकार कहो तो तुम्हारे परिणाम तो इस
जाति के हैं नहीं, केवल बाह्यक्रिया मात्र में ही पुण्य समझते हो। बाह्य में बहु आरम्भी परिग्रही
का मन, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि निरारंभ कार्यों में विशेषरूपसे लगता नहीं है यह
अनुभवगम्य है, तुम्हारे अपने भावोंका अनुभव नहीं है; केवल बाह्य सामायिकादि निरारंभ
कार्योंका भेष धारण कर बैठो तो कुछ विशिष्ट पुण्य नहीं है, शरीरादिक बाह्य वस्तु तो जड़ हैं,
केवल जड़ की क्रियाका फल तो आत्मा को मिलता नहीं है। अपने भाव जितने अंश में
बाह्यक्रिया में लगें उतने अंश में शुभाशुभ फल अपने को लगता है; इसप्रकार विशिष्ट पुण्य तो
भावोंके अनुसार है।
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बढ़ावेगा, जब गृहस्थाचार के बड़े आरंभ छोड़ेगा तब उसी तरह धर्मप्रवृत्तिके बडे़ आरम्भ पद के
अनुसार घटावेगा। मुनि होगा तब आरम्भ क्यों करेगा? अतः तब तो सर्वथा आरम्भ नहीं
करेगा, इसलिये मिथ्यादृष्टि बाह्यबुद्धि जो बाह्य कार्यमात्र ही को पुण्य – पाप मोक्षमार्ग
समझते हैं उनका उपदेश सुन कर अपने को अज्ञानी नहीं होना चाहिये। पुण्य – पापके बंधमें
शुभाशुभ ही प्रधान हैं और पुण्य–पापरहित मोक्षमार्ग है, उसमें सम्यग्दर्शनादिकरूप
आत्मपरिणाम प्रधान है। [हेयबुद्धि सहित] धर्मानुराग मोक्षमार्ग का सहकारी है और
अपना भला – बुरा अपने भावों के आधीन है, बाह्य परद्रव्य तो निमित्त मात्र है, उपादान कारण
हो तो निमित्त भी सहकारी हो और उपादान न हो तो निमित्त कुछ भी नहीं करता है,
इसप्रकार इस बोधपाहुड का आशय जानना चाहिये।
वैसा ही जानकर श्रद्धान और प्रवृत्ति करनी। अन्यमति अनेक प्रकार स्वरूप बिगाड़ कर प्रवृत्ति
करते हैं उनकी बुद्धि कल्पित जानकर उपासना नहीं करनी। इस द्रव्यव्यवहार का प्ररूपण
प्रवज्या के स्थल में आदि से दूसरी गाथा में बिंब
ध्यान करने योग्य होते हैं; इसलिये जो जिनमन्दिर, प्रतिमा, पूजा, प्रतिष्ठा आदिक के सर्वथा
निषेध करने वाले वह सर्वथा एकान्तीकी तरह मिथ्यादृष्टि हैं, उनकी संगति नहीं करना।
[मूलाचार पृ० ४९२ अ० १० गाथा ९६ में कहा है कि ‘‘ श्रद्धा भ्रष्टोंके संपर्ककी अपेक्षा
है’’ ऐसा उपदेश है]
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सो तह कह्यिं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स।। ६१।।
तत् तथा कथितं ज्ञातं शिष्येण च भद्रबाहोः।। ६१।।
भद्रबाहुनामक पंचम श्रुतकेवली ने जाना और अपने शिष्य विशाखाचायर आदि को कहा। वह
उन्होंने जाना वही अर्थरूप विशाखाचार्य की परम्परा से चला आया। वही अर्थ आचार्य कहते
हैं, हमने कहा है, वह हमारी बुद्धि से कल्पित करके नहीं कहा गया है, इसप्रकार अभिप्राय है
।। ६१।।
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सुयणाणि भद्दबाहू गमयगुरू भयवओ जयउ।। ६२।।
श्रुतज्ञानिभद्रबाहुः गमकगुरुः भगवान् जयतु।। ६२।।
अर्थः––भद्रबाहु नाम आचार्य जयवंत होवें, कैसे हैं? जिनको बारह अंगोंका विशेष ज्ञान
हैं, जिनको चौदह पूर्वोंका विपुल विस्तार है इसीलिये श्रुतज्ञानी हैं। पूर्व भावज्ञान सहित
अक्षरात्मक श्रुतज्ञान उनके था, ‘गमक गुरु’ हैं, जो सूत्र के अर्थ को प्राप्त कर उसी प्रकार
वाक्यार्थ करे उसको ‘गमक’ कहते हैं, उनके भी गुरुओं में प्रधान हैं, भगवान हैं–––––
सुरासुरों से पूज्य हैं, वे जयवंत होंवें। इसप्रकार कहने में उनको स्तुतिरूप नमस्कार सूचित है।
‘जयति’ धातु सर्वोत्कृष्ट अर्थ में है वह सर्वोत्कृष्ट कहेन से ही नमस्कार आता है।
स्तुतिरूप नमस्कार किया है। इसप्रकार बोधपाहुड समाप्त किया है।। ६२।।
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व्यवहार धातुपाषाणमय आकृति इनिकी वंद्य है।। १।।
वरतायो
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करूँ भावपाहुडतणीं देशवचनिका सार।। १।।
का सूत्र कहते हैंः––––
वोच्छामि भावपाहुडमयसेसे संजदे सिरसा।। १।।
वक्ष्यामि भायप्राभृतमवशेषान् संयतान् शिरसा।। १।।
अर्थः–––आचार्य कहते हैं कि मैं भावपाहुड नामक ग्रन्थको कहूँगा। पहिले क्या करके?
जिनवरेन्द्र अर्थात् तीर्थंकर परमदेव तथा सिद्ध अर्थात् अष्टकर्मका नाश करके सिद्धपद को
प्राप्त हुए और अवशेष संयत अर्थात् आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इसप्रकार पंचपरमेष्ठी को
मस्तक से वंदना करके कहूँगा। कैसे हैं पंचपरमेष्ठी? नर अर्थात् मनुष्य, सुर अर्थात्
स्वगरवासीदेव, भवनेन्द्र अर्थात् पातालवासी देव, –इनके इन्द्रोंके द्वारा वंदने योग्य हैं।
मुनि शेषने शिरसा नमी कहुं भावप्राभृत–शास्त्रने। १।
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निर्जरा युक्त इसप्रकार के अविरत सम्यग्दृष्टि आदिको में वर अर्थात् श्रेष्ठ ऐसे गणधरादिकोंमें
इन्द्र तीर्थंकर परमदेव हैं, वह गुणश्रेणी निर्जरा शुद्धभाव से ही होती है। वे तीर्थंकरभावके
फलको प्राप्त हुए, घातिकर्मका नाश कर केवलज्ञानको प्राप्त किया, उसीप्रकार सर्व कर्मोंका
नाश कर, परमशुद्धभावको प्राप्त कर सिद्ध हुए, आचार्य, उपाध्याय शुद्धभावके एकदेशको प्राप्त
कर पूर्णताको स्वयं साधते हैं तथा अन्यको शुद्धभावकी दीक्षा–शिक्षा देते हैं, इसीप्रकार साधु हैं
वे भी शुद्धभावको स्वयं साधते हैं और शुद्धभावकी महिमा से तीनलोकके प्राणियों द्वारा पूजने
योग्य वंदने योग्य हैं, इसलिये ‘भावप्राभृत’ के आदिमें इनको नमस्कार युक्त है। मस्तक द्वारा
नमस्कार करनेमें सब अंग आ गये, क्योंकि मस्तक सब अंगों में उत्तम है। स्वयं नमस्कार किया
तब अपने भावपूर्वक ही हुआ, तब ‘मन–वचन–काय’ तीनों ही आ गये, इसप्रकार जानना
चाहिये ।। १।।
भावो कारण भूदो गुणदोसाणं जिणा
भावो कारणभूतः गुणदोषाणां जिना
अर्थः––भाव प्रथम लिंग है, इसलिये हे भव्य! तू द्रव्यलिंग है उसको परमार्थरूप मत
जान, क्योंकि गुण और दोषोंका कारणभूत भाव ही है, इसप्रकार जिन भगवान कहते हैं।
२ पाठान्तरः ––विदन्ति।
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– श्रावकले द्रव्यलिंगके पहिले भावलिंग अर्थात् सम्यग्दर्शनादि निर्मलभाव हो तो सच्चा मुनि –
श्रावक होता है, इसलिये भावलिंग ही प्रधान है वही परमार्थ है, इसलिये द्रव्यलिंगको परमार्थ
न जानना, इसप्रकार उपदेश किया है।
वर्तन प्रकट देखने में आता है–––जीव चेतनास्वरूप है और पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और
वर्णरूप जड़ है। इनकी अवस्था से अवस्थान्तररूप होना ऐसे परिणाम को ‘भाव’ कहते हैं।
जीव का स्वभाव – परिणामरूप भाव तो दर्शन–ज्ञान है और पुद्गल कर्मके निमित्त से ज्ञान में
मोह–राग–द्वेष होना ‘विभाव भाव’ हैं। पुद्गल के स्पर्श से स्पर्शान्तर, रससे रसांतर इत्यादि
गुणोंसे गुणांतर होना ‘स्वभावभाव’ है और परमाणुसे स्कंध होना तथा स्कंधसे अन्य स्कंध
होना और जीवके भावके निमित्त से कर्मरूप होना ये ‘विभावभाव’ हैं। इसप्रकार इनके परस्पर
निमित्त–नैमित्तिक भाव होते हैं।
भावरूप न प्रवर्तने का उपदेश है। जीवके पुद्गल कर्मके संयोग से देहादिक द्रव्यका सम्बन्ध है,
–––इस बाह्यरूप को द्रव्य कहते हैं, और ‘भाव’ से द्रव्य की प्रवृत्ति होती है, इसप्रकार द्रव्य
की प्रवृत्ति होती है। इसप्रकार द्रव्य – भाव का स्वरूप जानकर स्वभाव में प्रवर्ते विभाव में न
प्रवर्ते उसके परमानन्द सुख होता है; और विभाव राग – द्वेष – मोहरूप प्रवर्ते, उसके संसार
संबन्धी दुःख होता है।
ऐसा नहीं है। इसप्रकार जीव के ज्ञान–दर्शन तो स्वभाव है और राग–द्वेष– मोह ये स्वभाव
विभाव हैं और पुद्गल के स्पर्शादिक तथा स्कन्धादिक स्वभाव विभाव हैं। उनमें जीव का हित–
अहित भाव प्रधान है, पुद्गलद्रव्य संबन्धी प्रधान नहीं है। यह तो सामान्यरूप से स्वभाव का
स्वरूप है और इसी का विशेष सम्यग्दर्शन – ज्ञान –चारित्र तो जीवका स्वभाव भाव है, इसमें
सम्यग्दर्शन भाव प्रधान है। इसके बिना सब बाह्य क्रिया मिथ्यादर्शन – ज्ञान –चारित्र हैं ये
विभाव हैं और संसार के कारण हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। २।।
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बाहिरचाओ विहलो अब्भंतरगंथजुत्तस्स।। ३।।
बाह्यत्यागः विफलः अभ्यन्तरग्रंथयुक्तस्थ।। ३।।
अर्थः––बाह्य परिग्रह त्याग भावोंकी विशुद्धिके लिये किया जाता है, परन्तु अभ्यन्तर
परिग्रह जो रागागिक हैं, उनसे युक्त बाह्य परिग्रह का त्याग निष्फल है।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो।। ४।।
जन्मान्तराणि बहुशः लंबितहस्तः गलितवस्त्रः।। ४।।
अर्थः––यदि कई जन्मान्तरों तक कोड़ाकोड़ि संख्या काल तक हाथ लम्बे लटकाकर,
वस्त्रादिकका त्याग करके तपश्चरण करे, तो भी भावरहित को सिद्धि नहीं होती है।
छे विफळ बाहिर–त्याग आंतर–ग्रंथथी संयुक्तने। ३।
छो कोटिकोटि भवो विषे निर्वस्त्र लंबितकर रही,
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धारणकर तपश्चरण करे तो भी मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती है, इसप्रकार भावोंमें सम्यग्दर्शन –
ज्ञान – चारित्ररूप भाव प्रधान है, और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि इसके बिना
ज्ञान – चारित्र मिथ्या कहे हैं, इसप्रकार जानना चाहिये।। ४।।
बाहिरगंथच्चाओ भावविहूणस्स किं कुणइ।। ५।।
बाह्यग्रन्थत्यागः भावविहीनस्य किं करोति।। ५।।
अर्थः––यदि मुनि बन कर परिणाम अशुद्ध होते हुए बाह्य परिग्रह को छोड़े तो बाह्य
परिग्रह का त्याग उस भावरहित मुनिको क्या करे? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं करता है।
सम्यग्दर्शनादि भाव बिना कर्मनिर्जरारूप कार्य नहीं होता हैं।। ५।।
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पंपिंय सिवपुरिपंथं जिणउवइट्ठं पयत्तेण।। ६।।
पथिक शिवपुरी पंथाः जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन।। ६।।
अर्थः––हे शिवपुरी के पथिक! प्रथम भावको जान, भाव रहित लिंगसे तुझे क्या
प्रयोजन है? शिवपुरीका पंथ जिनभगवंतोंने प्रयत्न साध्य कहा है।
द्रव्यमात्र लिंग से क्या साध्य है? इसप्रकार उपदेश है।। ६।।
गहिउज्झियाइं वहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं।। ७।।
गृहीतोज्झितानि बहुशः बाह्यनिर्ग्रंथ रूपाणि।। ७।।
अर्थः––हे सत्पुरुष! अनादिकाल से लगाकर इस अनन्त संसार में तुने भावरहित
निर्गरन्थ रूप बहुत बार ग्रहण किये और छोडे़।
हे पथिक! शिवनगरी तणो पथ यत्नप्राप्य कह्यो जिने। ६।
सत्पुरुष! काळ अनादिथी निःसीम आ संसारमां,
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न हुई। चारों गतियोंमें भ्रमण ही करता रहा।। ७।।
वही
पत्तो सि तिव्वदुक्खं भावहि जिणभावणा जीवः।। ८।।
प्राप्तोऽसि तीव्रदुःखं भावय जिनभावना जीवः।। ८।।
अर्थः––हे जीव! तूने भीषण
इससे तेरे संसार का भ्रमण मिटेगा।
कर, इससे संसारके भ्रमण से रहित मोक्षको प्राप्त करेगा, यह उपदेश है।। ८।।
भुत्ताई सुइरकालं दुःकरवाइं णिरंतरं सहियं।। ९।।
तें जीव,! तीव्र दुःखो सह्यां; तुं भाव रे! जिनभावना। ८।
भीषण सुतीव्र असह्य दुःखो सप्त नरकावासमां
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अर्थः––हे जीव! तुने सात नरकभूमियोंके नरक–आवास बिलोंमें दारुण अर्थात् तीव्र
तथा भयानक और असहनीय अर्थात् सहे न जावें इसप्रकारके दुःखोंको बहुत दीर्घ कालतक
निरन्तर ही भोगे और सहे।
दुःख यह जीव अनन्तकालसे सहता आया है।। ९।।
पत्तो सि भावरहिओ तिरियगईए चिरं कालं।। १०।।
अर्थः––हे जीव! तुने तिर्यंच गति में खनन, उत्तापन, ज्वलन, वेदन, व्युच्छेदन,
निरोधन इत्यादि दुःख सम्यग्दर्शन आदि भावरहित होकर बहुत कालपर्यंत प्राप्त किये।
इत्यादि द्वारा दुःख पाये, अग्निकाय में जलाना, बुझाना आदि द्वारा दुःख पाये, पवनकाय में
भारे से हलका चलना, फटना आदि द्वारा दुःख पाये, वनस्पतिकाय में फाड़ना, छेदना, राँधना
आदि द्वारा दुःख पाये, विकलत्रय में दूसरे से रुकना, अल्प आयुसे मरना इत्यादि द्वारा दुःख
पाये,
२ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ‘स्वहित’ ऐसा पाठ है। ‘सहिय’ इसकी छाया में।
३ मुद्रित संस्कृत प्रतिमें ‘वेयण’ इसकी संस्कृत ‘व्यंजन’ है।